हर कार्य की मुख्य रूप में तीन अवस्थाएं होती हैं। एक बाल्यावस्था, दूसरी यौवनावस्था, तीसरी वृद्धावस्था। इन तीन अवस्थाओं के नियमन, संचालन का प्रबन्धक त्र्यायुष कहलाता है। इन तीन अवस्थाओं का प्रबन्धन करने के लिए तीन आचरण जरूरी हैं। बाल्यावस्था अति चंचलावस्था है। इसमें मानव में शक्ति तथा ऊर्जा कूट-कूट कर भरी होती है। चंचल ऊर्जा के गलत विस्फोटों को इस अवस्था में रोकने की आवश्यकता है। अतः इस आश्रम में ज्ञानाचरण या ज्ञानाचर्य बालक के लिए आवश्यक है।
यौवनावस्था उद्दामता अवस्था होती है। इसमें सागर लहरों की ताकत तथा उफान होता है। इस उफान को किनारों में बांधने की आवश्यकता होती है। गृहाचरण इसकी मर्यादाएं हैं। व्यवस्था को सुमंगली, सुशेवा, शिवा, अघोरचक्षुणी, अपतिघ्नि, सुयमा, सुवर्चा, सुभगा, प्रतरणी, शम्भू, सुबुधा, ज्योतिरग्रा, सुमना, शग्मा करना तथा रखना यौवनावस्था की मर्यादाएं हैं।
वृद्धावस्था के दो चरण हैं। एक पितर, दो संन्यस्त। पितरावस्था शारीरिक तथा मानसिक शक्तियों की क्षीणता के कारण अक्षमता के स्तर पर पहुंचने की अवस्था है। इसके लिए अरण्यक-चर्य या वानप्रस्थ होने की आवश्यकता है। अधिकार प्रदत्तीकरण या डेलीगेशन, यमलोक (यम, नियम, वियम, संयम के आठ चरणों का) अनुशासन तथा अतिथि रूप में ज्ञानदा, भोजनपा इन त्रि का पालन आवश्यक है। संन्यस्त अथवा सर्वव्यहार त्यजन ब्रह्म अवतरणम साधनालय में जीना इसलिए आवश्यक है इस अवस्था में शारीरिक, मानसिक, दैविक क्षमताएं न्यूनतम होने के कारण इनका अध्यात्म शक्तियों में विरसन ही उत्तम पथ है।
बाल्य, यौवन, वृद्धावस्था के त्र्यायुष के लिए ज्ञानचर्य, गृहाचर्य, परमाचर्य (अरण्याचर्य) के त्र्यायुष हैं। तीसरा त्र्यायुष यजन का अर्थात् त्यागन, लक्ष्यन, संगठन का है। यह हर अवस्था में उपयोगी है। उद्योग क्षेत्र में प्रारम्भावस्था ज्ञानाचर्य यजन, द्वितीय गृहाचर्य यजन, तृतीय अ) परमाचर्य यजन तथा ब) परमाचर्य प्रबन्धन के रूप में हो तो उद्योग सफल होगा।
स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)