वर्तमान भारतीय प्रबंधन ‘टाल-मटोल’ प्रबंधन है। इस प्रबंधन के दो रूप हैं। 1) टाल-मटोल, 2) विलम्बन। विलम्बन प्रबन्धन का महासूत्र है उलट कबीर-
आज करे सो काल कर, काल करे सो परसौं।
जल्दी-जल्दी क्यों करता है? जीना है अभी बरसौं।।
पर यह खतरनाक तरीका है। बरसौं बड़ा छोटा है। इस सूत्र पर चलनेवालों के विलम्बित मामले इतने हो जाते हैं कि वे ‘हाय खेती’, ‘हाय बैंक’, ‘हाय व्यापार’, ‘हाय पैसा’ कहकर मर जाते हैं।
टालमटोल दो शब्द हैं- टाल, मटोल। इसके तीन अर्थ हैं- टाल, मटोल, टालमटोल। टाल का अथ है सीधा वापस या नहीं। मटोल का अर्थ है इतना विलम्बन कि नहीं। टालमटोल का अर्थ है टाल तथा मटोल का मिश्र रूप।
उत्तम भारतीय प्रबन्धक जिन्होंने भारतीय व्यवस्था में कभी प्रमोशन नहीं खोए हैं चार प्रबन्धनों का प्रयोग करते हैं।
1) अटाल तत्काल- ये वे क्षेत्र होते हैं जिनसे उनके उच्चाधिकारी जुड़े रहते हैं। ये विषय उनके प्रमोशन को प्रभावित करते हैं। यहां उनके निर्णय लेने का आधार सूत्र रहता है- ”जिधर बम्ब उधर हम“
मैं ज्योडेटिक सर्वे विभाग में कार्य करता था। तब रुपए का मूल्य इतना था कि दस पैसा भी चलता था। प्रातः हम बैठे थे कि अचानक बॉस कमरे में आया। अभिवादन का जवाब देना भूल बोला- ”सौ का चेंजेस् है?“ हम तीनों ने सिर हिलाया- ”नहीं सर!“ वह खीजा.. फिर उसे सूझा- ”जितना भी पैसा जेब में है निकालो“ हम लोगों ने पन्द्रह, बीस, दस, पैंतालीस रुपए निकाले। उसने पच्चीस अपने पास से मिलाए। सत्तर हो गए। ”दूसरी जगह से तीस इकट्ठे करूंगा; चीफ इंजीनियर को सौ का चेंज देना है।“ वह बड़ा कार्य तत्पर था। उसने एक भी प्रमोषन नहीं खोया। एम.डी. हो सेवानिवृत्त हुआ।
2) टाल प्रबंधन- कभी अतिजूनियर प्रस्ताव दे तो टाल देना चाहिए। तब भी मैं सर्वे विभाग में था। एक नए स्नातक ने बॉस को सुझाव दिया- ”सर एक नया श्योडोलाइट टी-4 आया है। मशीनी सूक्ष्म काम में उपयुक्त होगा। नोट बना दूँ?“ ”देखो भाई! मेरी पावर सीमा में नहीं है“ बॉस ने टाल दिया। आगे जोडा नहीं लेना है।
टाल प्रबन्धन उनके लिए हे जो आपके ज्यादा मातहत कार्य करते हैं। टाल प्रबन्धन के कई प्रकार हैं। तत्काल प्रबन्धन का एक ही प्रकार है। टाल प्रबंधन 1. स्वयं टाल, 2. पर टाल प्रकार का होता है।
स्वयं टाल- 1) अर्हता दो टाल- सन्दर्भित असन्दर्भित अर्हताओं की मांग रखो। 2) मन्त्र टाल- राम कृष्ण के जमाने की कथा कह टाल दो। 3) विभ्रम टाल- गोलमाल भाषा प्रयोग। 4) राजनेता टाल- हां कहो करो षायद, षायद कहो करो नहीं। 5) षून्य विधि टाल- तुम्हारे ही मस्तिष्क की उपज है। 6) तुम्हारा क्षेत्र तुम जानों टाल। 7) पुनर्निरीक्षण वापस टाल।
पर टाल- 1) बड़ी समिति बनाओ। 2) उच्चाधिकारी टाल- उच्चाधिकारी से बात करेंगे। 3) असन्दर्भ टाल- ऐसे अधिकारी को भेजो जिसका वास्ता न हो। 4) सहायक टाल- आंख दबा अपने सहायक को दे दो। 5) ना ना टाल- हमेषा ना अफसर को भेज दो। 6) लापता टाल- गुमाऊ अफसर को भेज दो।
मटोल प्रबन्धन- मटोल टाल समस्तरीय अधिकारियों के साथ अपनाएं। वहां से प्रस्ताव आने पर सारे मातहतों को भेज दें। निश्चित्तः वह मटोल अति विलम्बित हो जाएगा।
टालमटोल प्रबन्धन- जहां रिश्ते, दोस्ती, सम्बन्ध हों वहां रिष्तेदारी देखते तत्काल या टाल या मटोल निर्णय लिए जाने चाहिएं।
पदाधिकारी किसी भी स्तर का हो यदि उसे गोलमाल दक्ष हो गोलमाल होना है तो गोलमटोल प्रबन्धन अपनाना चाहिए। इससे जब चाहे कार्य से गोल मार सकते हो। काय्र न हो पाने पर गोल गोल ठेकेदार लगा सकते हो। उनके साथ गोल गोल बोतलों सिग्नेचरादि पी सकते हो।
श्रम, तप, ऋत, शृत, श्री, यश, सत्य प्रबन्धन
”टालमटोल प्रबन्धन“ भारतीय प्रबन्धन नहीं है। यह प्रबन्धन नाटक है जो भारतीयों ने हजार साल तक सीखा है। विदेशियों के शासन काल हटाने अस्त्र रूप में इसे अपनाया गया। आज विदेशी राज नहीं पर विदेशी संविधान जरूर है। तभी भारतीय टालमटोल से घातक टालमटाल प्रबन्धन जिए जा रहा हैं। वर्तमान में भारतीयों में आयातीत पाश्चात्य प्रत्यय गुलामों से चीढ़ है, इसलिए टालमटोल करते हैं। टालमटाल प्रबन्धन टाल ही टाल रह जाता है।
इसका इलाज वेदाधारित संविधान के अन्तर्गत कार्य करना है।
श्रम- भाग्य रौंद सतत चलना श्रम है। सतयुग बढ़े चलो बढ़े चलो है। कर्म के साथ जियो। सूरज चांदवत नियमबद्ध चलो यही श्रम है। हर कार्याधार श्रम है।
तप- मात्र श्रम नहीं श्रम के साथ तप भी आवष्यक है। दो में सम रहते श्रम करना तप है। दो हैं दिन-रात, सुख-दुःख, सर्दी-गर्मी, जन्म-मृत्यु आदि।
श्रम तप- ‘श्रम-तप’ युगल से सुरचना होती है। निर्णय टाले नहीं जाते। ‘अतप’ निर्णयों को टालमटोल करता है।
ऋत- प्राकृतिक नियमों के अनुरूप चलना ऋत कार्य करना है। ”अन्तरिक्ष में गुरुत्व नहीं“ एक महान प्राकृतिक नियम है। इसके प्रयोग से दुर्लभ धातुएं लोहे में मिला करके अतिताप सह अतिषक्तिषाली धातुएं बनाई गई हैं। इसी नियम प्रयोग से सिलिकॉन चिप कार्बन चिप अतिसूक्ष्म विस्तृत कर रवि ऊर्जा संग्रहण कर विद्युत ऊर्जा पाई जाती है जो अन्तरिक्षयान चलाती है।
शृत- नैतिक नियमों के अनुरूप चलना शृत है। आपसी औद्योगिक सम्बन्ध शृत हैं। इसमें टालमटोल ‘अशृत’ है। शृत पर ही गुणवत्ता, सुरक्षा, कार्यसमूह, प्रबन्धन, संगठन आदि आधारित हैं।
श्रम, तप, ऋत, शृत- ये चारों उत्तमतम रचना के आधार तत्त्व हैं। विश्व की सारी कार्य रचनाओं की आधार स्तम्भ हैं। यह भारतीय प्रबन्धन है। इसे जापानी, अमेरिकन आदि अपनाकर उन्नति कगार पहंुचे हैं। भारत ने इसे टालमटोल नाटक में खो दिया है। ऋत तथा शृत का एक ही नाम सत्य है। सत्य टालमटोल को खा जाता है।
श्री- समृद्धि का नाम है। त्रि एषणाओं की न्यायपूर्ण तृप्ति श्री है। श्री, श्रम, तप सत्याधारित है। जापान विष्व समृद्ध इन तीनों के निकट होने के ही कारण है। श्री यश की भी उपज है।
यश- नेकनामी का नाम यष है। नेकनामी के आधारतत्त्व श्रम, तप, सत्य (ऋत तथा शृत), श्री हैं। श्री त्रुटि निवारण साधन भी है। श्रम, तप, सत्य व्यवस्था जो संसाधन त्रुटि निवारण हेतु सतत चाहती है वह श्री अंश है।
ऐसी भारतीय सांतसा प्रबन्धन तकनीक है जो विष्व के सिर पर चढ़कर जादूवत बोल रही है। उधार संविधान उतार कर, उधार गुलामी प्रत्यय उतारकर भारत टालमटोल मुक्त हो सकता है। भारत प्रबन्धन अपना सकता है। पुनः विश्वश्रेष्ठ हो सकता है।
सहस्राब्दि पाश्चात्य कृत्रिम ही सही पुकारती है भारत विश्वश्रेष्ठ बने।
स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)