आज दशम गुरु, गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज के 6 व 8 साल के पुत्रों बाबा फतेह सिंह और जोरावर सिंह का बलिदान दिवस है, जिन्हें आज से से 309 साल पहले 27 दिसंबर को को क्रूर मुग़ल शासन ने दीवार में चिनवा दिया गया था। सरहिंद के नवाब ने उन बच्चों को मुसलमान बनने के लिए मजबूर किया था, मगर वीर बालक ना डरे, ना लोभ में अपना धर्म बदलना स्वीकार किया और दुनिया को बेमिसाल शहीदी पैगाम दे गए। वे दुनिया में अमर हो गए।
भारतीय इतिहास में सिख गुरुओं के त्याग, तपस्या व बलिदान का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। यह उस समय की बात है जब भारत पर मुगल साम्राज्य था। मुग़ल शासक औरंगजेब एक कट्टर मुसलमान था और धर्मांध होकर इस्लाम स्वीकार कराने के लिए उसने हिन्दुओं को अनेक प्रकार के कष्ट दिये। वह सम्पूर्ण भारत को इस्लाम का अनुयायी बनाना चाहता था। उसके आदेशों पर अनेकों स्थानों पर मंदिरों को तोडकर मस्जिदें बनायी गयीं, हिन्दुओं पर नाना प्रकार के कर लगाये गये, कोई भी हिन्दू शस्त्र धारण नहीं कर सकता था, घोडे पर सवारी करना भी हिन्दुओं के लिए वर्जित था। औरंगजेब भारतीय संस्कृति तथा धर्म को जड़मूल से समाप्त कर देना चाहता था।
हिन्दुओं में आपसी कलह के कारण जुल्मों का विरोध नहीं हो रहा था। इन्हीं जुल्मों के खिलाफ आवाज उठाई दशम पिता गुरू गोबिन्द सिंह जी ने, जिन्होंने निर्बल हो चुके हिन्दुओं में नया उत्साह और जागृति पैदा करने का मन बना लिया। इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए गुरू गोबिन्द सिंह जी ने 1699 को बैसाखी वाले दिन आनन्दपुर साहिब में खालसा पंथ की स्थापना की। कई स्थानों पर सिखों और हिन्दुओं ने खालसा पंथ की स्थापना का विरोध किया। मुगल शासकों के साथ साथ कट्टर हिन्दुओं और उच्च जाति के लोगों ने भी खालसा पंथ की स्थापना का विरोध किया। सरहंद के सूबेदार वजीर खान और पहाड़ी राजे एकजुट हो गए और 1704 में गुरू गोबिन्द सिंह जी पर आक्रमण कर दिया। मुगलों ने पहाडी नरेशों की सहायता से आनंदपुर के किले को चारों ओर से घेर लिया जहाँ गुरु गोविन्दसिंह जी मौजूद थे, पर मुगल सेना अनेक प्रयत्नों के बाद भी किले पर विजय पाने में असफल रही। सिखों ने बड़ी दलेरी से इनका मुकाबला किया और सात महीने तक आनन्दपुर के किले पर कब्जा नहीं होने दिया।
हताश होकर औरंगजेब ने गुरुजी को संदेश भेजा और कुरान की कसम खाकर गुरू जी से किला खाली करने के लिए विनती की और कहा कि यदि गुरुगोविन्द सिंह आनंदपुर का किला छोडकर चले जाते हैं तो उनसे युद्ध नहीं किया जायेगा। गुरुजी को औरंगजेब के कथन पर विश्वास नहीं था, पर फिर भी सिखों से सलाह कर गुरु जी घोडे से सिख-सैनिकों के साथ 20 दिसम्बर 1704 की रात को किला खाली कर बाहर निकले और रोपड़ की और कूच कर गए। जब इस बात का पता मुगलों को लगा तो उन्होंने सारी कसमें तोड़ डाली और गुरू जी पर हमला कर दिया। लड़ते–लड़ते सिख सिरसा नदी पार कर गए और चमकौर की गढ़ी में गुरू जी और उनके दो बड़े साहिबजादों ने मोर्चा संभाला। ये जंग अपने आप में खास है क्योंकि 80 हजार मुगलों से केवल 40 सिखों ने मुकाबला किया था। जब सिखों का गोला बारूद खत्म हो गया तो गुरू गोबिन्द सिंह जी ने पांच पांच सिखों का जत्था बनाकर उन्हें मैदाने जंग में भेजा। सिख सैनिक बहुत कम संख्या में थे, फिर भी उन्होंने मुगलों से डटकर मुकाबला किया और मुगल-सेना के हजारों सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। इस लड़ाई में गुरू जी से इजाजत लेकर बड़े साहिबजादें भी शामिल हो गए। लड़ते लड़ते वो सिरसा नदी पार कर गए और वीरता के साथ लडते हुए 18 वर्षीय अजीतसिंह और 15 वर्षीय जुझारसिंह वीरगति को प्राप्त हो गए।
आनंदपुर छोडते समय ही गुरुगोविन्दसिंह जी का परिवार बिखर गया था। गुरुजी के दोनों छोटे पुत्र जोरावरसिंह तथा फतेहसिंह अपनी दादी माता गुजरी के साथ आनंदपुर छोडकर आगे बढे। जंगलों, पहाडों को पार करते हुए वे एक नगर में पहुँचे, जहाँ कम्मो नामक पानी ढोने वाले एक गरीब मजदूर ने गुरुपुत्रों व माता गुजरी की प्रेमपूर्वक सेवा की। इन सभी के साथ में गंगू नामक एक ब्राम्हण, जो कि गुरु गोविन्दसिंह के पास 22 वर्षों से रसोइए का काम कर रहा था, भी आया हुआ था। उसने रात में माता जी की सोने की मोहरों वाली गठरी चोरी कर ली और सुबह जब माता जी ने गठरी के बारे में पूछा तो वो न सिर्फ आग बबूला ही हुआ बल्कि उसने धन के लालच में गुरुमाता व बालकों से विश्वासघात किया और एक कमरे में बाहर से दरवाजा बंद कर उन्हें कैद कर लिया तथा मुगल सैनिकों को इसकी सूचना दे दी। मुगलों ने तुरंत आकर गुरुमाता तथा गुरु पुत्रों को पकडकर कारावास में डाल दिया। कारावास में रात भर माता गुजरी बालकों को सिख गुरुओं के त्याग तथा बलिदान की कथाएं सुनाती रहीं। दोनों बालकों ने दादी को आश्वासन दिया कि वे अपने पिता के नाम को ऊँचा करेंगे और किसी भी कीमत पर अपना धर्म नहीं छोडेंगे।
प्रात: ही सैनिक बच्चों को लेने आ पहुँचे। निर्भीक बालक तुरन्त खडे हो गये और दोनों ने दादी के चरण स्पर्श किये। दादी ने बालकों को सफलता का आशीर्वाद दिया और बालक मस्तक ऊँचा किये सीना तानकर सिपाहियों के साथ चल पडे। लोग बालकों की कोमलता तथा साहस को देखकर उनकी प्रशंसा करने लगे। गंगू आगे-आगे चल रहा था, जिसे देख अनेक स्त्रियां घरों से बाहर निकलकर उसे कोसने लगीं। बालकों के चेहरे पर एक विशेष प्रकार का तेज था, जो नगरवासियों को बरबस अपनी ओर सहज ही आकर्षित कर लेता था। बालक निर्भीकता से नवाब वजीर खान के दरबार में पहुँचे । दीवान के सामने बालकों ने सशक्त स्वर में जय घोष किया – जो बोले सो निहाल, सत श्री आकाल। वाहि गुरुजी का खालसा, वाहि गुरुजी की फतह।
दरबार में उपस्थित सभी लोग इन साहसी बालकों की ओर देखने लगे। बालकों के शरीर पर केसरी वस्त्र, पगडी तथा कृपाण सुन्दर दिख रही थी । उनका नन्हा वीर वेश तथा सुन्दर चमकता चेहरा देखकर नवाब वजीर खान ने चतुरता से कहा-‘‘बच्चों तुम बहुत सुन्दर दिखाई दे रहे हो। हम तुम्हें नवाबों के बच्चों जैसा रखना चाहते हैं, पर शर्त यह है कि तुम अपना धर्म त्यागकर इस्लाम कबूलकर लो। बोलो, तुम्हें हमारी शर्त मंजूर है?”
दोनों बालक एक साथ बोल उठे–‘हमें अपना धर्म प्राणों से भी प्यारा है। हम, उसे अंतिम सांस तक नहीं छोड सकते।’
नवाब ने बालकों को फिर समझाना चाहा-‘‘बच्चों अभी भी समय है, अपनी जिन्दगी बर्बाद मत करो। यदि तुम इस्लाम कबूल कर लोगे तो तुम्हें मुँह माँगा इनाम दिया जायेगा। इसलिए हमारी शर्त मान लो और शाही जिंदगी बसर करो।”
बालक निर्भयता से ऊँचे स्वर में बोले- ‘हम गुरुगोविन्दसिंह के पुत्र हैं। हमारे दादा गुरु तेगबहादुर जी धर्म रक्षा के लिए कुर्बान हो गये थे। हम उन्हीं के वंशज हैं । हम अपना धर्म कभी नहीं छोडेंगे क्योंकि हमें अपना धर्म प्राणों से भी प्यारा है।’
उसी समय दीवान सुच्चानन्द उठा और बालकों से कहने लगा-‘अच्छा बच्चों, यह बताओ कि यदि तुम्हें छोड दिया जाये तो तुम क्या करोगे?’
बालक जोरावरसिंह बोले-‘‘हम सैनिक एकत्र करेंगे और आपके अत्याचारों को समाप्त करने के लिए युद्ध करेंगे।”
‘यदि तुम हार गये तो?’–दीवान ने कहा। ‘हार हमारे जीवन में नहीं है। हम सेना के साथ उस समय तक युद्ध करते रहेंगे, जब तक अत्याचार करने वाला शासन समाप्त नहीं हो जाता या हम युद्ध में वीरगति को प्राप्त नहीं हो जाते।’, जोरावर सिंह ने दृढता से उत्तर दिया।
साहसपूर्ण उत्तर सुनकर नवाब वजीर खान बौखला गया। दूसरी ओर दरबार में उपस्थित सभी व्यक्ति बालकों की वीरता की सराहना करने लगे। नवाब ने क्रुद्ध होकर कहा ‘‘इन शैतानों को फौरन दीवार में चुनवा दिया जाये।” उस समय मलेरकोटला का नवाब शेर मुहम्मद खां भी वहां उपस्थित था, जिसने इस बात का विरोध किया पर उसकी आवाज को अनसुना कर दिया गया। दिल्ली के सरकारी जल्लाद शिशाल बेग तथा विशाल बेग उस समय दरबार में ही उपस्थित थे। दोनों बालकों को उनके हवाले कर दिया गया। कारीगरों ने बालकों को बीच में खडा कर दीवार बनानी आरम्भ कर दी। नगरवासी चारों ओर से उमड पडे। काजी पास ही में खड़ा था जिसने एक बार फिर बच्चों को इस्लाम स्वीकार करने को कहा। बालकों ने फिर साहसपूर्ण उत्तर दिया–‘‘हम इस्लाम स्वीकार नहीं कर सकते । संसार की कोई भी शक्ति हमें अपने धर्म से नहीं डिगा सकती।”
दीवार शीघ्रता से ऊंची होती जा रही थी। नगरवासी नन्हें बालकों की वीरता देखकर आश्चर्य कर रहे थे। धीरे-धीरे दीवार बालकों के कान तक ऊंची हो गयी । बडे भाई जोरावरसिंह ने अंतिम बार अपने छोटे भाई फतेहसिंह की ओर देखा और उसकी आंखें भर आयीं। फतेहसिंह भाई की आंखों में आंसू देखकर विचलित हो उठा। ‘‘क्यों वीरजी, आपकी आँखों में ये आंसू? क्या आप बलिदान से डर रहे हैं?” बडे भाई जोरावरसिंह के हृदय में यह वाक्य तीर की तरह लगा। फिर भी वे खिलखिलाकर हँस दिये और फिर कहा ‘फतेह सिंह तू बहुत भोला है। मौत से मैं नहीं डरता बल्कि मौत मुझसे डरती है। इसी कारण तो वह पहले तेरी ओर बढ रही है। मुझे दुख केवल इस बात का है कि तू मेरे पश्चात संसार में आया और मुझसे पहले तुझे बलिदान होने का अवसर मिल रहा है। भाई मैं तो अपनी हार पर पछता रहा हूँ।” बडे भाई के वीरतापूर्ण वचन सुनकर फतेहसिंह की चिंता जाती रही।
जब दीवार गुरू के लाडलों के घुटनों तक पहुंची तो घुटनों की चपनियों को तेसी से काट दिया गया ताकि दीवार टेढी न हो जाए। इधर दीवार तेजी से ऊँची होती जा रही थी और उधर सूर्य अस्त होने का समय भी समीप था। राजा-मिस्त्री जल्दी-जल्दी हाथ चलाने लगे और दोनों बालक आँख मूंदकर अपने आराध्य का स्मरण करने लगे। धीरे-धीरे दीवार बालकों की अपूर्व धर्मनिष्ठा को देखकर अपनी कायरता को कोसने लगी। अंत में दीवार ने उन महान वीर बालकों को अपने भीतर समा लिया। कुछ समय पश्चात दीवार गिरा दी गई। दोनों वीर बालक बेहोश हो चुके थे, पर जुल्म की इंतहा तो तब हो गई जब उस अत्याचारी शासन के आदेशानुसार दोनों जल्लादों ने उन बेहोश बालकों के शीश काट कर साहिबजादों को शहीद कर दिया। इतने से भी इन जालिमों का दिल नहीं भरा और लाशों को खेतों में फेंक दिया गया।
छोटे साहिबजादों की शहीदी की खबर सुनकर उनकी दादी स्वर्ग सिधार गई। जब इस बात की खबर सरहंद के हिन्दू साहूकार टोडरमल को लगी तो उन्होंने संस्कार करने की सोची। उसको कहा गया कि जितनी जमीन संस्कार के लिए चाहिए, उतनी जगह पर सोने की मोहरें बिछानी पड़ेगी और कहते हैं कि टोडरमल जी ने उस जगह पर अपने घर के सब जेवर और सोने की मोहरें बिछा कर साहिबजादों और माता गुजरी का दाह संस्कार किया। संस्कार वाली जगह पर बहुत ही सुन्दर गुरूद्वारा ज्योति स्वरूप बना हुआ है जबकि शहादत वाली जगह पर बहुत बड़ा गुरूद्वारा है। छोटे साहिबजादे बाबा फतेह सिंह के नाम पर इस स्थान का नाम फतेहगढ़ साहिब रखा गया, जहाँ हर साल 25 से 27 दिसम्बर तक साहिबजादों की याद में तीन दिवसीय शहीदी जोड़ मेला लगता है, जिसमें लाखों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं ताकि इस महान शहादत को वो श्रद्धा सुमन अर्पित कर सकें।
जब दोनों बालकों की हत्या हुई तब बालक जोरावरसिंह की आयु मात्र 7 वर्ष, 11 महीने तथा फतेह सिंह की आयु 5 वर्ष, 10 महीने थी। विश्व के इतिहास में छोटे बालकों की इस प्रकार निर्दयतापूर्वक हत्या की कोई दूसरी मिसाल नहीं है। दूसरी ओर बालकों द्वारा दिखाया गया अपूर्व साहस संसार के किसी भी देश के इतिहास में नहीं मिलता। धन्य हैं गुरुगोविन्दसिंह, धन्य है गुरुगद्दी परम्परा, धन्य हैं माता गुजरी, धन्य हैं गुरु पुत्र और धन्य है हमारी पुण्यधरा। हमारे भीतर भी ऐसी ही धर्म के प्रति निष्ठा व राष्ट्र के प्रति समर्पण हो, तो गौरवशाली भारत निर्माण का स्वप्न दूर नहीं। इस महान शहादत के बारे में हिन्दी के कवि मैथिलीशरण गुप्त ने ठीक ही लिखा है–
जिस कुल जाति देश के बच्चे भी दे सकते हैं बलिदान,
उसका वर्तमान कुछ भी हो पर भविष्य है सदा महान।
आज दशम गुरु के लाडले साहिबजादों बाबा जोरावर सिंह और बाबा फ़तेह सिंह को उनके शहीदी दिवस पर कोटि कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि|
~ लेखक : विशाल अग्रवाल
~ चित्र : माधुरी