‘‘चरण प्रबंधन’’

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चरण शब्द में दो आधर शब्द है। एक चर और रण। तीसरा शब्द है चरण। चरण का अर्थ होता है कदम जो चलने के काम आते है। वे काम अभागी है जो कदमों को चूमती है। या उन चरणों पर शुकती है जो जड़ है। बड़त्व चरण की सबसे घटियां परिभाषा है। जड़ता के साथ न चर, न रण और न चरण युक्ति है। कोई संबंध् है और न संबंध् हो सकता है।

चर का अर्थ गति होता है। इसमें ‘ण’जोड़ देने का अर्थ होता है प्रकृष्ट गति। गति संबंध्ी चरण प्रबंध्न के महासूत्रा निम्नलिखित है।

1.     कलियुगः-      गति का सर्वाध्कि घटिया रूप कलियुग है। सोया मनुष्य सबसे कम गतिशील होता है। वह चरण होने हीन होता है पर इस अवस्था में तन में अनजाने करवट बदलने किसी को नींद में चलने के रूप में कुछ गति होती है। इससे कम गति तो मात्रा मुर्दे की होती है। मुर्दे से घटिया स्थिति जड़ पत्थरों की है क्योंकि मुर्दे कभी तो चलते थे। जड़ पत्थर से कभी चलते थे न चलते है। पत्थरों से घटियो स्थिति उन मनुष्यों की है जो जड़ मानु भी नहीं होता है। ये सारे घटिया लोगों को उम्रभर अपने घटियापन का मानु भी नहीे होता है। ये सारे घटिया चरण है। जानबुझकर घटिया से घटिया चलते है- घटिया हरकतें करते हैं। ये दन कीड़े, मकौड़े, मक्खियों, पक्षियों, चूहों से भी घटियो है जो पत्थरी मूर्ति के सिर सवार हो उसे गंदला कर देते हैै।

2.     द्वापर युगः-   यह गति का आरंभ युग है। इसे करवट बदलना कहते हैै। चैतन्य हलचल का नाम करवट बदलना है। यह चर का पूर्व कदम है।

3.     त्रेता :-        चरण का तीसरा स्तर त्रोता है। उठकर खड़ा हो जाना त्रोता पद है। यह चरणों              को चर मुद्रा में लाना है। त्रित स्थिति है यह। गति की तैयारी है त्रोता।

4.     सतयुगः-      सतयुग सात्विक गति का नाम है। जो चल पड़ता है। वह सतयुग है। यह चर की चतुर्थावस्था है।

5.     अजयुगः-      यह चर की आज की अवस्था है। इसमें व्यक्ति आज ही आज जीता है। तो योजनामय तरीके से दौड़ता है वह अजयुग है। यह चर की पंचमावस्था है।

चर प्रबंधन सूत्र हैः- चरवति -बढ़े चलो, बढ़े चलों। जो परिश्रम से थककर चकनाचूर नहीं होता उसे सफलता नहीं मिलती जो भाग्य के भरोसे बैठ जाता है उसका भाग्य भी बैठ जाता है। सोनेवाला कलियुग है। करवट वाला सतयुग है दौर दौड़ने वाला अजयुग है। ब्रहम के चरण सर्वत्रा हैं। उसकी वह तब अब तब है सदायी स्थायी है हम अब असदायी अस्थाई है। हमारा अब अगर ब्रहम् से जुड़ जाऐगा तो हम ‘अज’गतित हो जाऐगे। ‘अज’की गति अण्याहन्त होती है।

रण कहते है संघर्ष को। युद्व भूमि है यह जीवन।

ये जिंदगी है दौर संघर्ष तथा कशमश

हर हार नई जीत की यहां आधरशिला है।

ये जिंदगी है दौरे संघर्ष तथा उत्कर्ष,

हर जीत यहां नई विजय की आधरशिला है।

चरण का अर्थ है च+रण। रण च अर्थात रण और -और रण जो रण से डर गया वह हार गया। कायर हजार मौत मरता है। धन लोभी लाख मौत मरता है। यश लोभी करोड़ मौत मरता है। पुत्रा लोभी पुत्तेषपार संत्रा चरण मौत मरता है। त्रि एवं त्रिरण में विजय प्राप्त कर त्रि ईश बन जाता है वह मौत को मौत देता है। चरण गति सार्थक करता है। अजयुग उन दीर्घ कदमों से दौड़ता है कि हर लक्ष्य को ही बौना कर देता है।

वह चर+रण- चरण अर्थात दोनों प्रबंधनों में दक्ष होता है।

स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय

पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)

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