कर्म की परिभाषा – मन वाणी और शरीर से जीवात्मा जो विशेष प्रकार की क्रियाएं करता है, उसे ‘कर्म’ कहते हैं। जैसे- यज्ञ करना, सत्य बोलना, दान देना, सब के लिए सुख की कामना करना इत्यादि।
कर्म का परिणाम – किसी भी क्रिया (कर्म) की निकटतम प्रतिक्रिया को “कर्म का परिणाम” कहते हैं। जैसे – कर्म यज्ञ करना परिणाम = वायु की शुद्धि, सुगन्ध प्राप्ति, स्वास्थ्य वृद्धि, रोग निवारण इत्यादि।
कर्म का प्रभाव – कर्म, कर्म के के परिणाम अथवा कर्म के फल को जानकर चेतनों पर इनकी जो प्रतिक्रिया होती है, उसे “कर्म का प्रभाव” कहते हैं। जैसे – कर्म है यज्ञ करना तथा उसका प्रभाव यज्ञकर्ता को प्रसन्नता, आनन्द, उत्तम संस्कार, इत्यादि की प्राप्ति होना और जिन-जिन मनुष्यों को यज्ञकर्ता के यज्ञकर्म की सूचना मिलेगी वे सब मनुष्य यज्ञकर्ता को अच्छा मनुष्य मानेंगे तथा उनको यज्ञ करने की प्रेरणा भी मिलेगी, साथ ही उक्त यजमान के प्रति श्रद्धा बढ़ेगी।
कर्म का फल – कर्म के अनुसार कर्म कर्ता को जो न्यायपूर्वक सुख-दुःख या सुख-दुःख के साधन प्राप्त होते हैं उन्हें “कर्म का फल” कहते हैं। जैसे – कर्म है यज्ञ करना तथा इसका फल है यज्ञकर्ता को पुनर्जन्म में अच्छे, धार्मिक, विद्वान्, सदाचारी, सम्पन्न माता-पिता के घर में मनुष्य जन्म प्राप्त होना।
विशेष : कर्म का परिणाम और प्रभाव कर्म के कर्ता पर अथवा अन्यों पर भी हो सकता है। किन्तु कर्म का फल न्यायपूर्वक कर्मकर्ता को ही मिलता है, अन्य को नहीं। कहीं कहीं सामूहिक कर्म का सामूहिक फल भी होता है। जहां किसी कर्मकर्ता के कर्म से किसी अन्य को अन्यायपूर्वक सुख-दुःख मिलता है तो वह कर्म का फल नहीं मानना चाहिए अपितु वह कर्म का परिणाम या प्रभाव होता है।
शुभाशुभ कर्मों के प्रकार
शरीर से शुभ कर्म- 1. रक्षा, 2. दान, 3. सेवा।
शरीर से अशुभ कर्म- 1. हिंसा, 2. चोरी, 3. व्यभिचार।
वाणी से शुभ कर्म- 1. सत्य, 2. मधुर, 3. हितकर।
वाणी से अशुभ कर्म- 1. झूठ, 2. निन्दा, 3. कठोर।
मन से शुभ कर्म- 1. सार्थक, 2. दया, 3. अस्पृहा (अनिच्छा), 4. आस्तिकता।
मन से अशुभ कर्म- 1. व्यर्थ, 2. द्रोह, 3. स्पृहा, 4. नास्तिकता।
साभार योगदर्शनम्- स्वामी सत्यपति परिव्राजक, एवं न्यायदर्शन वात्स्यायनभाष्य