(1) नष्ट हो जाना = इन कर्मों का फल मुक्ति से लौटकर प्राप्त होना अर्थात् वे कर्म मोक्ष रूप
फल पूरा होनले तक नष्ट (लुप्त) रहेंगे।
(2) साथ मिलकर फल देना = शुभ कर्मों के फल सुख के साथ अशुभ कर्मों का फल दुःख भी मिल जाना। अशुभ कर्मों के फल दुःख के साथ शुभ कर्मों का फल सुख का भी मिल जाना।
- जाति = मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग, स्थावर आदि योनियां।
- आयु = जैसी जाति होगी उसी के अनुसार आयु होगी।
- भोग = जैसी जाति होगी वैसा ही भोग होगा। अर्थात् सिंहादि प्राणी मांसाहारी होंगे, गाय भेड़ादि प्राणी घासाहारी होंगे, मनुष्यादि प्राणी शाकाहारी होंगे।
(3) कर्मों के दबे रहने का तात्पर्य = मृत्यु समय जिस योनि के कम अधिक होंगे, वही योनि ईश्वर देगा, अन्य योनियों को प्राप्त कराके फल भुगानेवाले कर्म दबे रहेंगे, जब तक किसी काल में उनकी प्रधानता न हो जाए।
- धन सम्पत्ति भोग्य पदार्थ बढ़ जाएंगे।
- आयु बढ़ जाएगी, धनादि भोग्य पदार्थ नहीं बढ़ेंगे।
- आयु तथा भोग्य पदार्थ दोनों ही बढ़ जाएंगेया घट जाएंगे।
प्रमाण = क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्ट जन्मवेदनीयः।
(योगदर्शन 2/12)
सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगा। (योगदर्शन 2/13)
सूत्रार्थ = जब तक अविद्या रहेगी तब तक कर्मों का फल जाति, आयु, और भोग रूप में निरन्तर मिलता ही रहेगा।
अर्थापत्ति = जब अविद्या का नाश हो जाता है तब (जीवनमुक्त व्यक्ति के) कर्मों का फल जाति आयु भोग रूप में नहीं मिलता, वे कर्म मुक्ति का स्तर ऊंचा करनेवाले होते हैं।