अश्वत्थ प्रबन्धन

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मानव एक ऊर्ध्व जड़ पीपल वृक्ष है। पीपल का संस्कृत नाम अश्वत्थ है। पीपल की पिप्पली खा-खा कर रहनेवाले तथा पीपल वृक्ष के अति ओषजनमय वातायन में साधनारत ऋषि का नाम है पिप्लाद। एक-एक पिप्पली (पीपल का फल) में अंकुरणों का एक ब्रह्माण्ड रहता है। पिप्लाद इन अंकुरणों के अंकुरण को पहचानता है। सृष्टि अगर पीपल वृक्ष है तो इसमें धरती, आकाश, तारों, चैतन्य जीवों आदि अर्थात् प्रजाओं के अंकुरण हैं। इन प्रजाओं में एक ही व्यापक सूत्र फैला हुआ है जो सूत्रों का सूत्र है। ‘पिप्लाद’इन सूत्रों के सूत्र को जानता है। वह इसी जगत् में ब्रह्म पहचानता है। पिप्लाद के पास ‘आश्वल’का पिता ‘कौशल्य’को ज्ञान प्राप्ति के लिए भेजता है। आश्वल वह है जो बुद्धि के सारथी (आ) द्वारा अश्वल अर्थात् मन लगाम द्वारा इन्द्रियों के घोड़ों को विषयों के रास्ते से हटाकर अ) सुपथ्या तथा ब) सपथा बनाता है। सुपथ्या और सुपथा इन्द्रियों में कौशल भरा होता है। कौशल भरी इन्द्रियों का कार्य शून्य त्रुटि होता है। कौशल्य आश्वल पुत्र है। यह हमेशा अद्भुत नव-नव कौशलों से अनेक कृतियां बनाता है। पिप्लाद ब्राह्मण, आश्वल क्षत्रिय, अश्वल वैश्य, कौशल्य शिल्पकार ये चारों सामंजस्यमय श्रेष्ठ उद्योग को जन्म देते हैं।

‘अश्वत्थ’का एक अर्थ अश्व-त्थ या ठहरे अश्व या स्थिरं सुखमासनम् है। इसी स्थिरं सुखमासनम् पद को पाने के लिए योगासन व्यवस्था जो इन्द्रियों को कौशल देती है विकसित की गई है। यह पूरक व्यवस्था है। अश्वत्थ का तीसरा अर्थ ‘अ-श्व-त्थ’है। ‘श्व’उसे कहते हैं जो कल शव होने वाला है। जो आज है कल नहीं रहेगा वह शव है। सारे संसाधन, भोग मानव को ‘श्व’हैं। इनमें वास करता मानव भी इनके द्वारा उपयोगित हो श्व भाव या शववत हो जाता है और संसाध्ानों से छोटा हो जाता है। ‘श्वत्थ’चैतन्य जड़ से छोटा होता है। ‘अश्वत्थ’(जो नहीं है श्व में स्थित) हर संसाधन का सदुपयोग कर स्थाई से जुड़ने के लिए करता है।

संक्षेप में अश्वत्थ प्रबन्धन स्थाई मजबूत वस्तुओं का ज्ञान (मानक), शौर्य (मेहनत), संसाधन तथा शिल्प के प्रयोग द्वारा निर्माण उद्योग तथा मानव को सदायी स्थाई से जोड़ने का नाम है।

स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय

पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)

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