अभय प्रबंधन

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दिवस रात्रि, सूर्य चाँद, धरा आकाश, कल आज न भय करतेे हैं न नष्ट होते हैं। हे मेरे प्राण चन्द्रस्वर सूर्यस्वर और चन्द्रसूर्य स्वर तुम भी अभय रहो और सतत कर्म करो।

सर्व मित्र हैं हम, न हमें भय है ज्ञात से, न हमें भय है अज्ञात से, न हमें भय है प्रत्यक्ष से, न हमें भय है अप्रत्यक्ष से कि दिषाएँ ही हैं मित्र हमारी।

जहां-जहां है तू परमात्मा हर छोर से भी आगे है रे तू परमात्मा। तुझमें हूँ यह मैं समीप अतः कल्याणमय पशु पक्षी मनुष्य अभय हूँ मैं यह।

यह वेद अभय प्रबन्धन है। वर्तमान विश्व प्रबन्धन लाठी और लालच युक्त ‘ला’‘ला’प्रबन्धन होकर रह गया है। लाठीभय से मुक्त करने के अथक प्रयास हो रहे हैं। पर कोई भी प्रबन्धन विधा इससे मुक्त नहीं हो पाई है। अमेरिका ब्रिटेन के लोग अनुषासन उल्लंघन दण्ड भय से कार्य करते हैं। ”काप“पोलीस मैन द्रुत सवार करीब करीब हर स्थल मौजूद अमेरिकन बाह्य प्रबन्धन भय का आधार है। कम्प्यूटर चैतन्य से अधिक ऋत (प्राकृतिक नियमबद्ध) मशीन नियन्ता है ऑफिस प्रबन्धन की। दयानन्द कहते हैं जड़ की पूजा करनेवाले की बुद्धि जड़ हो जाती है। जड़ से नियन्त्रित की बुद्धि भी जड़ाधिक होगी ही। अमेरिका शृत-नियम-ह्रास ख्यात है। वासना- वास + ना अर्थात गृहपत्नी सहवास ना में परम दक्ष है। प्रमाण करीब-करीब सारे राष्ट्रपति हैं। लाला प्रबन्धन वित्त प्रबन्धन का भी नाम है। यह लालच प्रबन्धन है।

विश्व को वेद अभय प्रबन्धन की आवष्यकता है। यदि किसी भी संस्थान नैसर्गिक रूप में वेद अभय प्रबन्धन लागू कर दिया जाता है तो वह संस्थान विश्व श्रेष्ठ उत्पादकता देगा ही।

मेरा जीवन सूत्र रहा है मानवता देवी, ज्ञान भाई, मेहनत बहना, सत्य साथी, धरती मां, जय विष्व जीते रहना। मानवता ने मुझे दानवता अभय किया। ज्ञान ने हर परीक्षा चुनौति अभय किया। महनत ने आलस्य से अभय किया। सत्य ने अभय किया असत्य से। और जय विश्व भावना ने अभय किया क्षुद्रता, ईर्ष्या द्वेष से। प्रमोशन अभयता धमकी अभयता मेरे नौकरी के रीढ़ मापदण्ड रहे। तभी मैं इतना अधिक काम कर सका।

भरथरी का अभय प्रबन्धन पर बड़ा ही व्यापक चिन्तन है। वह एक ओर तो भय के व्यापक कारण देता है जो प्रबन्धन तत्व का तथा मानव तत्व का भी अवमूल्यन करते हैं तो दूसरी ओर वे व्यापक तत्व देता है जिससे मानव सकारात्मक हो भयमुक्त हो सकता है।

1) भोग-रोग-भय- भोगवादी संस्कृति का भरथरी रोगमयी होने की संभावना में कारण करता है। द्वन्द्व शमन भोग हैं। द्वन्द्व सहन तप है। तप स्व स्वास्थ्य संस्थान सशक्त करता है। सुविधाभोग स्व स्वास्थ्य संस्थान कमजोर करता है। प्रबन्धन तप तत्व आधारित होना चाहिए भोग तत्वाधारित नहीं। भोगाधारित प्रबन्धन षराबी अवस्था रिलैक्सिंग तक पतित होता है।

2) वंशवाद- आचारभ्रष्टता भय- च्युतिभय वंशवाद का असर है। पहचानवाद वह दीमक है जो संस्थान प्रबन्धन को खा जाती है। सुरक्षा विभाग में ही अपवाद छोड़ सारे के सारे लोगों ने अपने परिचित पहचानी ठेकेदारों के पास कार्य में लगा दिए। सर्वाधिक दुहरी मार तो एक श्री.आर ने प्रबन्धन को दी है। ठेकेदार के पैसों से श्री.आर अपने संबंधी को अपने काम के लिए अपने पास लगा लिया है। इस सीमावंश भ्रष्टता की कल्पना षायद भरथरी ने भी न की होगी। पूरी राजनीति वंशभ्रष्ट है।

3) धन राज भय- धराधारित प्रबन्धन में राज भय के परिणाम स्वरूप करमुक्त आय का वितण्डा प्रशासन को तहस-नहस कर डालता है।

4) मौन दीनता भय- मौन रहने से दीनता भय होता है या अज्ञान भय होता है। इस कारण से अज्ञानी साहित्य सभा अध्यक्ष या अज्ञानी प्रबन्धन सभा अध्यक्ष प्रायः साहित्य या प्रबन्धनों को भाषण-लातें मार देते हैं। साहित्य क्षेत्र इसी मौनता के दैन्य क्षेत्र से बचते कई अध्यक्ष दशरूपकम् या काव्यालंकार बिना पढ़े ही इनको लात मार चुके हैं।

5) बलिष्ठ शत्रु भय- प्रबन्धन में सीनियॉरिटी रौंदना हरेक को भला लगता है। सीनियर को जो प्रमोशन पात्र है हमेशा अपने से अधिक तत्काल जूनियर से भय रहता है। यह भय उम्र अनुभव समय उपाधि तीनों के ठोस आधार द्वारा समाप्त किया जा सकता है।

6) रूप भय- मेरे वरिष्ठ प्रभारी दक्ष इमानदार अभियन्ता श्री.जी.सी.राघवन का सामने का एक दांत टूट गया। उन्होंने दो तीन दिन में ही मुझसे तीस बार कहा मुझे चेहरा उन्नयन कराना है, दांत लगवाना है। मैंने जो उनका दांत टूटा था देखा भी नहीं था।

7) शास्त्र को वाद भय- पारम्परिक विधि नियम शास्त्र को खा जाता है। अपवाद का सार्वजनीकरण कर दिया जाता है। शास्त्र को वाद से छोटा कर दिया जाता है। राजनैतिक टोपियों के विचार राक्षस संविधान खा जाते हैं। और संविधान धाराओं के सिंह संविधान उद्देश्यिका के मानव ऋजु को चीथ डालते हैं। यही शास्त्र को वाद भय है। विस्तार खा न जाए सार को यही शास्त्र प्रबन्धन है।

8) गुणी को खल भय- मैं सेवामुक्त हुआ दूसरे दिन सामान लेने गया। वहां एक अधिकारी ने मेरा लगाया ताला तोड़ डाला था। अपना ताला लगा लिया था। अलमारी का ताला भी तोड डाला था। मेरे कहने पर कि तुम्हारे सामने सामान ले लूंगा वह तैयार न हुआ। मुझसे बोला तोड़ लो न ताला! मैंने कहा उसकी आवश्यकता पडी तो उपमहा प्रबन्धक तथा महा प्रबन्धक की उपस्थिति में तुड़वा लूंगा। उस अधिकारी ने प्रसारित करवा दिया कि वे (मैं) मेरी अनुपस्थिति में हथौडा ले ताला तोडने आए थे।        खल को गुण सहन नहीं होता है। भारत में सारे पी.एच.डी. असन्दर्भित कार्य करते हैं।

9) शरीर को मृत्यु भय- दवाखाने, अस्पताल, डॉक्टर, हकीम, चिकित्सा पद्धतियों के प्रकार, सुरक्षा व्यवस्था के मंहगे प्रयोग शरीरा के मृत्यु भय के प्रबन्धन की व्यवस्थाएँ हैं। कर्मचारी मृत्यु दिवस दसवें दिन कार्य बन्द, कर्मचारी रिश्तेदार मृत्यु, बॉस परिचित मृत्यु कार्य बन्द, यहां तक खिंचता है कि बॉस कुत्ता मृत्यु भी कई की छुट्टि का कारण बन जाता है। ये प्रबन्धन विक्षेप मृत्यु से उपजे हैं।

उपरोक्त भयों से मुक्ति दिलानेवाले प्रबन्धन का नाम है वैराग्य प्रबन्धन। वैराग्य प्रबन्धन का अर्थ है एषणा, अनुज्ञा, जाति-त्याग प्रबन्धन। अर्थात् तटस्थ प्रबन्धन जो अभय प्रबन्धन भी है। यह अभय भयमुक्तावस्था का नाम है।

भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं।

मौने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयं।

शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं।

सर्वं वस्तुभयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्।।

गुणयुक्त अभय प्रबन्धन का स्वरूप भी भरथरी देते हैं-

1) धैर्य पिता है- धैर्य पिता के समान जिसका पालक है। विषम परिस्थितियों में सहज रहने को, आपत्तियों में विवेक कायम रखने को धैर्य या धीरज कहते हैं। आपात्कालीन प्रबन्धन या दुर्घटना में आकस्मिक प्रबन्धन या मार्क ड्रिल व्यवस्था नियोजन की सफलता धैर्य पिता द्वारा पालित होने में ही या धैर्य की छत्रछाया में ही होती है। यह धैर्य अभयता है।

2) क्षमा जिसकी माता है- त्रुटि पर मातृवत सस्नेह दण्ड देना। दण्ड देकर मातृत्व की छाया से शिशु को आश्वस्त भी करना सहारा लेना ही क्षमा को मातावत मानना है। कुम्हारवत बाहर से चोट भीतर से सहारा क्षमा का मातृवत प्रयोग है। यह अभयता दाता भाव है।

3) दीर्घशान्ति पत्नी है- शान्ति का अर्थ है स्थैर्य एवं सन्तुलन। जीवन उतार चढ़ाव का नाम है। हर कार्य में उतार चढ़ाव होते ही हैं। जिन्होने हर कार्य में स्थैर्य एवं सन्तुलन भाव को पत्नीवत सहधर्मिणीवत अपना लिया है वह भी स्थैर्य और सन्तुलनमय हो जाएगा। स्थैर्य और सन्तुलन के दीर्घ सिद्धान्त हैं- अ) मशीनों की प्रति छै माह साफ सफाई तथा रखरखाव। ब) अतिचल मषीनों की प्रति माह साफ सफाई तथा रखरखाव। स) नियत उपयोग समय पश्चात मशीनों में सुधार रखरखाव के स्थान पर उन्हें स्थानापन्न परिवर्तित कर देना। यह समय 5, 7, 10 आदि वर्ष मशीनों की प्रकृति अनुसार तय किया जाता है। यह शान्ति अभयता है।

4) सत्य सदायी मित्र है- सत्य के दो प्रारूप हैं- 1) प्राकृतिक सत्य, 2) नैतिक सत्य। प्रकृतिक सत्यों को ऋत कहते हैं। इनके अनुरूप सोना, उठना, संध्या, यज्ञ, भोजन, कार्य करना ऋत को मित्र बना लेना है। यह ऋत अभयता है।

नैतिक सत्यों को शृत कहते हैं। ये आपसी व्यवहार के नियम हैं। रिश्ते नाते, परिचित अपरिचित, तिथित अतिथित, बॉस अधिनस्थ से व्यवहार में सामाजिक सांस्कृतिक तथा नौकरी नियम अनुपालन शृत है। इनको सदायी मित्र बना लेना शृत सदायी मित्रता है। यह शृत अभयता है।

नियत समय नियत काम हडबडी से बचाने के लिए समय प्रबन्धन है। हडबडी समय कमी भय से उत्पन्न भाव है। नियत व्यक्ति से नियत व्यवहार विक्षेप असंगत के भयों से मुक्त करता है। द्वय सम्मिश्र ही जीवन है।

सत्य सदायी मित्र है जिसका वह सदा ही अभय है।

5) दया बहन है- दया का नाम करुणा है। दया का अर्थ नैतिक नियम उल्लंघन नहीं है। कार्य नियम उल्लंघन नहीं है। फिल्म भुवन षोम का दया नियम बकवास नियम था। भुवन षोम दृढ़ शृत नियमबद्ध ऋत नियमबद्ध व्यक्ति थे। एक बार गांव गए। एक ग्राम्य युवती ने उनकी अति स्नेहिल ऋजु मदद की। यह ग्राम्य युवती भुवन षोम के अन्तर्गत कार्य करते भ्रष्टता आरोपी की मंगेतर या पत्नी थी। ग्राम्य युवती आग्रह या दया संवेदनावष भुवन षोम ने आरोपी को सुविधामय अवस्था कार्यालयीन अधिकारों अन्तर्गत दीं। दया का परिणाम अपराध आरोपी ने खुषी खुषी कहा अपनी मंगेतर से मैं आरोपमुक्त हो गया, बडी जगह पोस्टिंग इसका अर्थ बडी कमाई समझी!

मेरे ऑफिस बाबूलाल श्रमिक काम करता था। तीन दिन काम नहीं आया दस्तखत कर चला गया। उसका वास्तविक सच्चा कारण था। उसकी श्रीमतीजी की जचकी, वह षिषु पिता बन गया। मैंने मित्रों से चर्चा की मित्रों ने दया सिद्धान्त बताया- जाने दो गरीब है। मैंने उसे अनुपस्थित ही नहीं किया उसे चेतावनी पत्र भी दिया। और उसे अपने खाते से तीन दिन का वेतन भी दिया।

वह दया बहन किस काम की जो अशृत या अनृत को जन्म दे। मेरे दया पथ ने मुझे अभय किया। बाबूलाल को भी ऋत शृत पथिक किया।

6) मन संयम भाई है- संयम है धारणा ध्यान समाधि। अर्थात सामंजस्य की अतिउच्चावस्था। ये वास्तव में सच्चे भाई हैं। क्षमता, समकक्षता, सामीप्यता, आत्मीयता से सह सोचने की क्षमता धारणा ध्यान समाधि अवस्थाएं संयम ही प्राप्त कराते हैं।

संयम का भाई होना अर्थात सबसे समकक्ष सम सधा न्यायपूर्वक व्यवहार करना। मन संयमता सर्व से अभयता है।

7) ज्ञानामृत भोजन है-

सुबह दुहो और शाम दुहो, रात दुहो मध्याह्न दुहो।

ब्रह्म तो हरपल अमृत है, हरपल हर क्षण ज्ञान दुहो।

वेद तो प्रभु की तान है, हरपल नया विहान गढो।

ज्ञान यथार्थ अमृत है। ऐसे अमृत का जो भोजन करता है वह भी अमृत हो जाता है। उससे वेद के ज्ञान बीज अंकुरित स्फुरित होते हैं। वह वेद शब्दों में मननात धारा में बह बह जाता है। वह हरपल ब्रह्म को निकटतम पा ब्रह्म के निकटतम हो जाता है, भयमुक्त हो जाता है।

व्यवहार में वह ज्ञानामृत पीने के कारण षून्य त्रुटि हो जाता है। त्रुटि या विक्षेप रहित होना ही तो अभयता देता है।

8) दिशाएँ वस्त्र हैं- प्राची, दक्षिणा, प्रतीची, उदीची, ध्रुवा, ऊर्ध्वा ओढ़ ली है जिसने वह आकाश ओढ लेता है। वह अदिति दिशामुक्त हो जाता है। दिशा दिशा अभयता प्राप्त कर लेता है। अदिति वस्त्रित हिरण्य हो जाता है। दितियां उसकी चेरी होती हैं।

9) भूमि शय्या है- भूमि की गोद की महक में सोना दिव्य सोना है। कच्ची भूमि की उठती मद्धिम महक आदर्श महक एकांक है। इस महक के किण्व (एन्झाइम) अतिसशक्त किण्व हैं। विज्ञान प्रकाषाधार की ओर बढते फोटॉन तक पहुंचा है। फोटॉन को नेत्रान स्थूल कह सकते हैं। नेत्रान सूक्ष्मतम स्तर रूप ब्रह्म है। इसी प्रकार रसान, स्पर्शान, शब्दान, गंधान सूक्ष्मतम रूप रसब्रह्म, स्पर्शब्रह्म, शब्दब्रह्म, तथा गन्धब्रह्म है।

भूमिमाता गतियों का अन्तरिक्ष झूलना है क्या दिव्य झूला है। वह योगिन जो इस कुटुम्ब के माध्यम से ब्रह्म युजित उन्मुक्त है। पल पल ब्रह्म युजित उन्मुक्त का नाम ही योगिन- सतत योगी है। यह योगिन भय उन्मुक्त अभय होगा ही।

अभय प्रबन्धन जहां वर्तमान युग में कमांडो घिरे बुलेटप्रुफी प्रधानमन्त्री, राष्ट्रपति, एम.पी. आदि हों वहां की सबसे बडी आवष्यकता है।

स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय

पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)

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