अनाज को वेदों में ‘औषध’ कहा गया है, ‘‘औष’’ अर्थात् ओषजन या प्राण के साथ संयुक्त होता है या प्राण धारण में शक्ति में परिवर्तित होता है जो वह है औषध, शरीर को स्वस्थ कर स्वयं जो नष्ट हो जाये वह है औषध । जो फसल एक बार हो सो औषध है – चावल, गेहूँ, दाल, सब्जियाँ आदि । ”शांति औषधयः“ वह बीज वाक्य है जिससे पूरे चिकित्सा विज्ञान का विस्तार हुआ है ।
भोजन पाचन की अन्त्य क्रिया औषजीकरण ही है । भोजन का अच्छे से चबाने का उद्देश्य सहज औषजीकरण में सहायता करता है, पाचन प्रक्रिया के जानकार जानते हैं कि अच्छी प्रकार चबाया हुआ सूक्ष्मीकृत लार मिश्रित दो भाग विभक्त हो छोटी आँत के कशेरूका छिद्रों में ग्लूकोज़ वसा रूपों में अवशोषित हो अंततः रक्त जा वहां ओषजन संयुक्त हो शक्ति उत्सर्जन होता है । वेद के शब्दों में ही अर्थ प्रक्रिया भरी हुई है ।
अनाज शब्द भी यही अर्थ अभिप्रेत करता है । औषध आज है जो वह कल नहीं है । सतत् रूप परिवर्तित करता है, अतः अन$आज, खाने से ही आज नहीं होता है जो या जिसके आज होने के पथ में अनेक प्रक्रियाओं का बाध है, वह है अनाज । सीधी भाषा में इस अनाज से शक्ति प्राप्त करने में समय लगता है । समय अंतराल की आवश्यकता है, ”औषध – अनाज शांत प्राप्त“ में महान प्रबंधन अर्थ भी छिपा हुआ है।
अनाज पाचन मात्र भौतिक स्थूल क्रिया नहीं है, पशु जगत में यह भौतिक स्थूल क्रिया कही जा सकती है कि पशु की चिन्तन सीमा काफी कम है । अनाज चय अपचय मानव में सहज सरल नहीं है । यहाँ पुनः अन$आज शब्द सिद्ध होता है ।
मानव का आधार ढांचा विज्ञान जानता है कि जीन है । जीन सूक्ष्म अणु परमाणु है । अणु परमाणु सूक्ष्म आयन-धन ऋण शक्ति है । इससे सूक्ष्म विद्युतान है रूप रस गंध स्पर्श शब्द का आधार क्षेत्र रूपा, रसान, गंधान, स्पर्शान, शब्दान है । इनसे सूक्ष्म मनान् बोधान है । विज्ञान इतना तो जानता है कि विचार अणु सूक्ष्म है । परमाणु सूक्ष्म है जीन सूक्ष्म तो हैं ही । विचार स्नायुमंडल प्रवाहित होता हुआ अणु अवस्था जो कोशिका झिल्ली में होती है द्वारा जिनेटिक कोड पर टंकित होता है ।
जो आज नहीं कल प्राप्त वह है अनाज, जीनेटिक कोड जा विचार टंकण से परिवर्तित होता है, रक्त के माध्यम से कोषिकाओं के माध्यम से चयापचय को दो प्रारूप देता है, एक नाज़ प्रारूप दूसरा अनाज प्रारूप। यदि आदमी के विचार विकृत, अशुभ, घातक, ‘मम’ हैं तो चय अपचय नाज प्रारूप के होते हैं और आदमी में अस्त व्यस्त अभिमान, क्रोध जिद अनियोजन व्यवहार उभरते हैं । यदि आदमी के विचार सुकृत, शुभ, भले तथा ‘न मम’ हैं तो चय अपचय अनाज प्रारूप के होते हैं । अनाज सुओषध होता है और मनुष्य के सुचिन्तित, सौम्य, शांत, दृढ़ नियोजित व्यवहार होते हैं । ”मम“ दो अक्षरों से मृत्यु और ”न मम“ तीन अक्षरों से ब्रह्म शाश्वत का यही विज्ञान है ।
अन-आज है अनाज । दो से आठ घंटे अनाज की प्रकृति अनुसार अनाज पाचन में लगते हैं । पूर्ण सत्व शोषण कई कई दिन भी लगते हैं, अतिरिक्त वसा तथा ग्लूकोन के रूप में संचित अनाज अन-आज होता है, अन-आज की मात्रा अत्यधिक हो जाने पर खून में कोलेस्ट्रोल की मात्रा बढ़ जाती है और यही ”अशांति औषधयः“ है जिससे रक्तचाप, हृदय रक्तवाहिनी संकुचन, हृदयघात आदि बीमारियाँ होती हैं, इन बीमारियों में अनाज प्रबंधन सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है ।
वेदों में सम भोग्य नेक भावना भी इसी ओर इंगन कर रही है । समहविष्य भाव का सूक्ष्म धरातल भी यही है । उद्योग एवं कार्य के क्षेत्रों में अनाज प्रबंधन का प्रारूप भी उपरोक्त चिन्तन से स्पष्ट हो जाता है। अनाज प्रबंधन के तत्व इस प्रकार के हो सकते हैं:
क) अनाज प्रबंधन सूक्षम धरातलीय है – विचार का धरातल प्रबंधन के क्षेत्र अत्यधिक महत्वपूर्ण है। चयनावस्था से ही विचारों तथा विचार प्रणाली का ध्यान रखना आवश्यक है । विचारों का पता लगाना कठिन नहीं है । व्यक्ति को जिस उद्योग हेतु चयनित करना है उस उद्योग संबंधी साठ शब्दों पर प्रति पंद्रह सैकंड में एक वाक्य लिखने को कहा जाए । इन वाक्यों को जांच लिया जाए । इससे व्यक्ति के चेतन अवचेतन का पता लग जायेगा । पहले में दस से पन्द्रह वाक्यों तक वह जागृत अवस्था में रहेगा । इसके पश्चात वह स्वप्न सुषुप्ति तरलावस्था में लिखेगा । इसी प्रकार कुछ चित्र दिखा उस पर कहानी लिखकर भी प्रतियोगी के विचारों से परिचित हुआ जा सकता है । ”साक्षात्कार विधि“ का कालांतर में सुसंगत प्रयोग भी इसका अंग रहेगा ।
ख) अ-नाज: प्रबंधन नाज रहित होना चाहिए । वे प्रबंधन प्रबंधन क्षेत्र में सर्वाधिक सफल होते हैं जो कर्मचारियों को विश्वास दिला सकें कि वे हर कर्मचारी के निकट हैं । यह निकटता भाव नाटकीय नहीं होना चाहिए । सर्वश्री मलय मुखर्जी, के.सी. अग्रवाल, युद्धवीर सिंह के सफल प्रबंधक होने में यह तत्व अत्याधिक महत्वपूर्ण था ।
ग) अन-आज: जिस प्रबंधन व्यवस्था में सातत्य का ध्यान रखा जाता है वह अन-आज प्रबंधन है। हर प्रबंधन का एक उद्देश्य है होता है जिसकी पूर्ति हेतु कार्य श्रृंखला होती है । इस कार्य श्रृंखला में (अ) तात्कालिक कार्य (ब) दूरगामी कार्य होते हैं । अन-आज प्रबंधन का तात्पर्य यह है कि तात्कालिक कार्यों को दूरगामी या लक्ष्य कार्यों के संदर्भ में ही देखना चाहिए।
घ) मम-नमम विचार: हर कार्य में उपयुक्त पदार्थों के दो भाग होते हैं ।
(1) मम, (2) न मम, जिस प्रकार ग्रहण किये गये अनाज के भी दो भाग होते हैं । एक मम दूसरा न मम । गृहणीय के सार तत्व के पश्चात अपशेष का न मम का निष्कासन आवश्यक है। ”न मम“ का शरीर में रह जाना रोग है । कार्य क्षेत्र या उद्योग क्षेत्र मम, न मम व्यवस्था की ओर ध्यान न देने वाले संस्थान कालांतर में कचरे के ढेर ही रह जाते हैं । परियोजना कार्यों में भी ”न मम“ व्यवस्था में सर्वाधिक ऐच्छिक अनैच्छिक अनियमितताएं हुआ करती हैं ।
(ड़) औषध: औष + धयः – औषधजन ताजगी का प्रतीक है । औषधजन चय अपचय का आधार है। उद्योग या कार्यों के लिए औषधजन नवीनता है । हर कार्य में नवीनता का समावेश होना ही चाहिए। हर उद्योग में नवीनता का सही समावेश उद्योग को नये प्राण देता है । जिस तरह भोजन व्यवस्था के चय अपचय में औषजन सर्वाधिक महत्वपूर्ण है उसी प्रकार उद्योग के लाभ की व्यवस्था में नवीनता के बारे में यह तथ्य ध्यान में रखा जाना जरूरी है कि नवीनता की स्थापना करते करते वह पुरातन न हो जाये । भिलाई इस्पात संयंत्र में कुछेक बार ऐसा भी हुआ है । दि वन हार्थ फर्नेंस योजना में नवीनता के इस नियम का स्पष्ट उल्लंघन हुआ ।
इस प्रकार ”अनाज“ प्रबधंन के व्यापक उपयोग शरीर से उद्योग तक किये जा सकते हैं ।
स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)