“अत्रि प्रबंधन”

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”त्रि“ नहीं है जो उसे कहते हैं ”अत्रि“ । ”त्रि“ से अति है जो वह है अत्रि । तम, रज, सत के विभिन्न मित्रों से परे है जो वह है अत्र । यश, पुत्र वित के विभिन्न आवेगों के अलग अलग या मिश्र या अमिश्र रूपों से परे हैं जो या इनसे प्रभावित, प्रभावित या सुप्रभावित नहीं है निर्णय जिसके वह है अत्रि । जागृ, स्वप्न, सुषुप्ति अवस्थाओं से परे है जो तथा इन अवस्थाओं से पर हैं चिन्तन धारा जिसकी वह है अत्रि ।

अत्रि है ऋषि । अत्रि है ऋतेषाः । अत्रि है ऋतेज्ञाः । अत्रि है ऋतज्ञ । अत्रि है श्रृतेजाः । अत्रि है सृतज्ञ । अत्रि है आप्त । ऋषि वह है जो मनन द्वारा मंत्रों के अर्थ से जुड़ जुड़ कर वेद अर्थ संघृवत है । यह मंत्रों के अर्थ माध्यम से शाश्वत नैतिक नियमों तथा शाश्वत नैसर्गिक नियमों से युक्त होता है ।

”अत्रि“ शब्द से प्रबंधन के कई स्वरूप उभरते हैं ।

  1. तमस प्रबंधन
  2. रजस प्रबंधन
  3. सत्व प्रबंधन
  4. जागृत प्रबंधन
  5. स्वप्न प्रबंधन
  6. सुषुप्ति प्रबंधन
  7. प्रज्ञ प्रबंधन
  8. वित्त प्रबंधन
  9. यश प्रबंधन
  10. अत्रि प्रबंधन ।

उपरोक्त प्रबंधनों में अत्रि प्रबंधन को छोड़कर बाकी सारे प्रबंधन प्रायः मित्र रूप में ही लागू किये जाते हैं पर प्रबंधनों में विशिष्ट झुकाव अलग अलग प्रबंधनों का रहता है ।

तमस प्रबंधन में भी रजस तथा सत् प्रबंधन का भी उपयोग होता है । तमस प्रबंधन सकारात्मक प्रबंधन नहीं है । वरन इसमें तमस का उपयोग भी शामिल है । एक व्यक्ति से सभी नाराज थे कि वह सीधी सरल बात न करे हमेशा टेढ़ी कटु बात ही करता था । वह इस आदत से खुद भी परेशान था । उसके एक मित्र ने उसे सलाह दी कि वह व्यंग्य लिखना शुरु कर दें । मैं उस व्यक्ति को जानता हूँ आज वह सफल व्यंग्यकार है तथा उसकी टेढ़ी कटु बात की आदत छूट गई है । तमस प्रबंधन में मूल में तमोगुण प्रवृति रहती है । एक आलसी व्यक्ति को प्रति एक घंटे में घंटे बजाने का कार्य अगर दे दिया जाये तो वह अपने आलस का घंटों में समायोजन कर लेगा और कार्य करता रहेगा ।

रजस प्रबंधन में शौर्यगुण संघर्ष गुण का प्रयोग प्रमुखतः होता है । इन प्रबंधनों में अन्य दो तत्वों का भी समावेश होता है । मात्र तमस या मात्र रजस या मात्र सान्तिक ये असंभव प्रत्यय हैं ।

औसत प्रजातन्त्र प्रबंधन में स्वप्न तथा यथार्थ का अंतर हमेशा ही कायम रहता है यह अंतर अत्यधिक हो जाने की अवस्था में प्रबंधन क्रमशः महत्वहीन होता चला जाता है । सुषुप्ति प्रबंधन स्वप्न की अपेक्षा अधिक गहन ठोस सिद्धान्तों पर आधारित होता है । पर इसमें सिद्धान्त व्यवहार लागू करने वाले और पालन करने वालों के मध्य पर्याप्त अंतर होता है ।

यह अंतर दूर होता है अत्रि प्रबंधन में यहां तुरीयावस्था होती है । तुरीयावस्था में प्रबंधक व्यक्तित्व सौम्य सम्मोहक होता है तथा उसके कारण गहन प्रबंधन तत्व स्टाफ में स्रपेष्ज्ञित हो जाते हैं यह अत्रि प्रबंधन है । तुरीयातीत अवस्था प्रबन्धन इलस प्रबन्धन का नाम है ।

पुत्र प्रबंधन बड़ी ही घातक अवस्था है । प्रजातंत्र में यह घातक अवस्था आम होती हैं । मैंने दर्जनों से भी अधिक बार यह पाया है देखा है सुना है कि पुत्र प्रबंधन अपना कर एम.डी., चेयनमैन स्तर के लोगों ने व्यवस्था को घटिया किया है । तू मेरे पुत्र संबंधों में से चुन मैं तेरे पुत्र संबंधों में से चुनूं और पुत्र चुनने चुनाने के लिए अन्य प्रभावितों को भी लाभ दूं । पुत्र प्रबंधन से ही अहसान प्रबंधन का रूप कालांतर में ले लेता है ।

पुत्र प्रबंधन को अपना कर उच्चाधिकारी एम.डी.ई.डी., महा प्रबंधक स्तरों के भी आमतौर पर दिल्ली, मद्रास, बैंगलौर, बम्बई, कलकत्ता के सात सात दिनों के टूर बनाते हैं । जहां टूर बनाते हैं अपने मातहतों को टूर बनवाते भी हैं । व्यक्तिगत जीवन में पुत्रेषणा इतिहास करती है केकैयी की पुत्रेषणा, दशरथ की पुत्रेषणा, श्रवण के पिता की पुत्रेषणा, बाबर की पुत्रेषणा, द्रोणाचार्य की पुत्रेषणा, धृतराष्ट्र की पुत्रेषणा, भीष्म पिता की पुत्रेषणा, इतिहास गवाह है कि इतिहास इनसे विकृत हुआ है । हर तरह का रिश्तेदारी का मोह यदि प्रबंध में आ उतरता है तो वह प्रबंधन पुत्र – प्रबंधन हो जाता है ।

”वित्त प्रबन्धन“-वित्रेषणा में जीवन लक्ष्य वित्त ही होता है । वर्तमान में सर्वत्र बेईमान, सर्वत्र भ्रष्टता का कारण वित्तेषणा ही है । हाथ की मैल वित्त, पहियेवत घूमता वित्त, बहता वित्त, रेल की तरह फिसलता वित्त, मात्र खुद उपभुक्त पापा वित्त, जब जीवन में स्थायी, सदायी, समझ लिया जाता है तो वह उस जीवन को घुमाव फिसलाव, मैल, पाप ही दे पाता है।

धर्म सारे बरबाद हो गये जब धर्मार्थों ने वित्त प्रबन्धन शुरु कर दिया धन के हेतु । सारे मंदिर भवनों की, मस्जिदों, गुरुद्वारों की नींव भ्रष्ट वित्त प्रबंधन द्वारा पास बिलों के अंशदानों से बनी है । ये धर्म भवन अपनी नींव, ईंट गुम्बद गुम्बद रक्त रंजित खून सम है । मैं नहीं कहता कबीर कहते हैं । सारे सम्प्रदाय (धर्मनामी) भवन ”ऐंचातानी“ द्वारा बने हैं मैं इन ऐंचातानियों का प्रत्यक्ष जीता जागता गवाह हूँ । कबीर कहते हैं:

सहज मिल सो दूध सम
मांगा मिले सो पानी
कह कबीर वह रक्त सम
जा में हो ऐंचा तानी ।

प्रजातंत्र वित्त प्रबंधन का नाम बजट है । लोगों की वित्त के कारण सांस न लेने दे जो उसका नाम बजट है। इसकी दयनीयता का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि सात पैसा जनहित, में देने के लिए यह सौ पैसा व्यक्ति से लेता है । जड़ वित्त, जब आदमी पर हावी हो जाता है तो आदमी भी जड़ हो जाता है ।

”वंश प्रबंधन“:- पदेषणा के अंधी दौड़ में पदेषणा लालच ग्रस्त होकर उच्च पद हेतु लालसामय होकर रीढ़ हीन व्यवहार यश प्रबंधन है । इतिहास गवाह है कि एक भी रीढ़ सहित व्यक्ति सेल प्रबंधन में महाप्रबंधक स्तर तक नहीं पहुँचा है । इने गिने जो रीढ़ झुका वहाँ तक पहुंचे उनकी दुर्गति किसी से छिपी नहीं हे । मेरे पूरे पैंतीस वर्षीय सेल अनुभव पर ”तीन महीने“ बदनुमा वह दाग है जिनमें मैंने जान बूझकर सर्वोच्चधिकी को बेवकूफ बनाया । यह भी एक व्यक्ति की चुनौती स्वीकार करके कि ”ए“ तारा पाना उच्चाधिकारियों को बेवकूफ बनाकर लोग प्राप्त करते हैं तथा मैं भी उन्हें बेवकूफ बना सकता हूँ । मुझे तीन माह की दमदार नौकरी ने कालांतर में दो प्रमोशन बेशक दिलाये पर वो ”यश प्रबंधन“ दाग दुखदायी है दो प्रमोशनों से अधिक व दुखदायी है ।

एक सफलतम उप महाप्रबंधक मात्र इसलिए सफल है कि वह हर एम.डी. के कार्यक्रम की सूचना रखते हैं तथा उसमें शामिल भी होते हैं – वे मंदिरों में, कार्य के दारों में कारीडारों में सभाओं में, प्रतीक्षा करते हैं एम.डी. की और मौका निकाल सभाओं में माइकधारी हो शब्दों में ईश्वर अर्चना उतार एम.डी. का लेपन करते हैं । यश प्रबंधन ग्रस्त एम.डी. जो ऊपर इस व्यवहार के आदी हैं अपनी वहां अस्तित्व हानि की यहां क्षतिपूर्ति पाते हैं । अतः खुश हो प्रमोशन प्रसाद पाते हैं । मुझे तलाश है एक अदद एम.डी. की जो बेवकूफ न बनाया जा सके ।

पुत्र, वित्त, यश प्रबंधनों से परे का प्रबंधन है अत्रि प्रबंधन है जो ऋत प्रबंधन तथा श्रृत प्रबंधन । शाश्वत नियमाधारित प्रबध्ंान का नाम है अत्रि प्रबध्ंान । पुत्र, वित्त, यश को नचिकेता श्योभाव कहता है। श्योभाव उसे कहते हैं जो अस्थायी होता है पर चिक्कटवत चिपक जाता है और स्थायी को भी नष्ट करने लगता है । नचिकेता पुत्र, यश वित्त से परे था अतः अत्रि था नचिकेता हेतु जो प्रबध्ंान यम ने बताया था वह है अत्रि प्रबध्ंान । विषय, शरीर, इन्द्रियों के त्रि से परे हैं मन अत्रि पर मन, बुद्धि अर्थ के त्रि से परे हैं आत्म अत्रि । सतपथों दोड़ते, संयमित घोड़े, कसी लगाम विभिन्न अवस्थाओं वाली, न्यायित बुद्धि सारथी, और भाव निर्देश देती वेदमयी आत्मा यह है जीवन का अत्रि प्रबंधन ।

प्रेय मार्ग छोड़कर श्रेय मार्ग की अनुपालन व्यवस्था है अत्रि प्रबंधन । मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, मन से परे की एकाग्र विरुद्ध अवस्था से उद्भूत प्रबंधन विद्या का नाम अत्रि प्रबंधन । गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास आश्रम बेकार है जिस आश्रम के बिना वह ब्रह्मचर्य आश्रम जीवन प्रबंधन है अत्रि प्रबंधन । धर्म के अनुरूप अर्थ, काम, मोक्ष हेतु जीवन प्रबंधन है अत्रि प्रबंधन । घौ अंतरिक्ष, धरा स्थानीय त्रि ग्यारह देवताओं से एक देवता तक पहुँचन अनुभूति व्यवस्था करना है अत्रि प्रबंधन।

धर्म के लिए धर्म है अत्रि प्रबंधन । कुमारिल भट्ट गुरु द्रोह अपराध में स्व न्यायाधीश हो स्व अपराधी सजायाप्ता हो भूस की आग में स्वेच्छिया तिल तिल जल गया । अत्रि प्रबंधन आस्थित युधिष्ठिर से वन में द्रौपदी ने पूछा – आपके धर्म ने हमें जंगल दिया अभाव दिये जबकि दुर्योधन को राजमहल तथा समृद्धि दी। युधिष्ठिर ने सौम्यता पूर्व कहा – मैं धर्म के लिए धर्म जीता हूँ । यह है अत्रि प्रबंधन ।

संक्षेप में अत्रि प्रबंधन विक्षेप रहित, पुत्र वित्त यश के त्रि प्रभाव रहित, जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति परे, शृत तथा ऋत पर आधारित है ।

स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)

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