‘‘अगाओ दर्शन’’
पुस्तक पढ़ने में अधिकारी : १) प्रज्ञ, २) उच्च कोटि साधक, ३) बहुज्ञ, ४) ज्ञान वृद्ध, ५) आदमी- आदमीयत भरा, ६) आप्त।
पुस्तक पढ़ने में अपात्र अर्थात् जिनके लिए यह पुस्तक नहीं है : १) प्रजा, २) आम लोग, ३) ज्ञानलवदुर्विदग्ध- अर्धज्ञान से स्वयं को ज्ञानी समझनेवाले, ४) किसी भी राजनैतिक दल के सदस्य, ५) एक के अतिरिक्त या एक को छोड़कर दूसरा, तीसरा, चौथा ईश्वर अर्थात् राम, कृष्ण, गौतम, महावीर, हनुमान, दुर्गा, पत्थर, मजार आदि-आदि भगवान पूजक; ६) स्थान विशेष में रहनेवाला परमात्मा-पूजक, ७) त्रि-एषणा बद्ध, ८) अनाप्त।
{१} अगाओ दर्शन का अनुशासन।
{२} अगाओ आत्म जीवन संस्थान में।
{२} (१) सार है शून्य त्रुटिकरण।
{२} (१) १. अघमर्षण- बारम्बार अभ्यास से सुचिन्तन, अवलोकन पूर्वक (अघों) घटियापन का निराकरण।
{२} (१) २. अच्छिद्र शरणम्।
{२} (१) २.१. छिद्र न शरणम्- नव छिद्र से बचना।
{२} (१) २.२. छिद्र शरणम् है छिद्र प्रवेश द्वारों सहित।
{२} (१) २.३. छिद्र शरणम् है छिद्रों का क्षरण करना या भरण।
{२} (१) ३. अक्षतम्।
{२} (१) ३.१. कोढा (बुर) सहित सम्पूर्ण चावल है अक्षत।
{२} (१) ३.२. बीज चुनाई अक्षतम्- (बिना खोट)।
{२} (१) ३.३. रोपा बोना अक्षतम्।
{२} (१) ३.४. खेत तैयारी सिंचाई तक अक्षतम्।
{२} (१) ३.५. रोपा लगाई अक्षतम्।
{२} (१) ३.६. निंदाई, बचाई, कटाई अक्षतम्।
{२} (१) ३.७. मिसाई अक्षतम्।
{२} (१) ३.८. सास-बहू, ननद-भौजाई, देवर-भौजाई, पति-पत्नी आदि-आदि समनस, समगति, समवचन ढेकी, कुटाई अक्षतम्।
{२} (१) ३.९. छिलका उडाई अक्षतम्।
{२} (१) ३.१०. चुनाई अक्षतम्।
{२} (१) ४. अपापविद्धं शुद्धम्।
{२} (१) ४.१. पाप त्रिएषणा दोष।
{२} (१) ४.२. पैसा-पुत्र-यश है त्रिएषणा।
{२} (१) ४.३. त्रि-लिप्त है पापविद्धम्।
{२} (१) ४.४. त्रि-अलिप्त न पापविद्धम्।
{२} (१) ४.५. अपाप है त्रि-उद्गुण।
{२} (१) ४.६. किसका ? ब्रह्म का पैसा। कुटुम्ब- वसुधा स्वाहा है त्रि-उद्गुण।
{२} (१) ४.७. त्रि उदित्वा है अपापविद्धं शुद्धम्।
{२} (१) ५. संस्कार
{२} (१) ५.१. दोष-मार्जनम्।
{२} (१) ५.२. हीन-अंग-पूर्ति।
{२} (१) ५.३. अतिशय आधान।
{२} (१) ५.४ त्रि-विधान जीवन-निर्माण, उद्योग चालन-पालन विज्ञान।
{२} (१) ६. अस्नाविरं निर्बन्ध व्यवस्था।
{२} (१) ६.१. पूर्ण पारदर्शी व्यवस्था।
{२} (१) ६.२. निन्दक नियरे निर्मल स्वभावे।
{२} (१) ७. भद्र आभर।
{२} (१) ७.१ अनुगुणित सप्त, गुणित-अनुगुणित तैंतीस देव ऋत।
{२} (१) ७.२. विश्व देव विक्षेप (दुरित) अति दूर।
{२} (१) ७.३. विश्व देव (सुरित) भद्रं अतिनिकट।
{२} (२) जीवन दशरूपकम् कामूआत।
{२} (२) १. शत अधिकं वर्ष।
{२} (२) २. पुरुषार्थ।
{२} (२) २.१. धर्म- आत्मवत हर पर।
{२} (२) २.२. अर्थ- सारं-सार।
{२} (२) २.३. काम- स्नेह विस्तार।
{२} (२) २.४. मोक्ष- लक्ष्य निकटतम, लक्ष्य अनओझल।
{२} (२) ३. आश्रम।
{२} (२) ३.१. विद्यार्जन- सतत श्रम।
{२} (२) ३.२. आजीविकार्जन- सतत श्रम।
{२} (२) ३.३. स्वार्जन- सतत श्रम।
{२} (२) ३.४. ब्रह्मार्जन- सतत श्रम।
{२} (२) ४. पंच यजन।
{२} (२) ४.१ ब्रह्म साधना।
{२} (२) ४.२. पर्यावरण परिपुष्टन।
{२} (२) ४.३. संसाधन परिपुष्टन।
{२} (२) ४.४. अनियत सुआकलन।
{२} (२) ४.५ पितर-शृत धारणन।
{२} (२) ५. ऋत्विजम्।
{२} (२) ५.१ दिवस ऋतं, रात्रि ऋतम्।
{२} (२) ५.२. सप्त वार ऋतम्।
{२} (२) ५.३. पूर्णिमा पक्ष, अमावस पक्ष ऋतम्।
{२} (२) ५.४. ऋतु ऋतम्।
{२} (२) ५.५. धरा, अन्तरिक्ष, द्यौ ऋतम्।
{२} (२) ६. परिवारम्।
{२} (२) ६.१. पिता-माता।
{२} (२) ६.२. जीवन साथी देव।
{२} (२) ६.३. सन्तान।
{२} (२) ६.४. सुहृत।
{२} (२) ६.५. सेवक।
{२} (२) ६.६. रिश्तेदार।
{२} (२) ६.७. अनुव्रतपन।
{२} (२) ७. व्यवसाय।
{२} (२) ७.१ अन्तर्गत।
{२} (२) ७.२. समकक्ष।
{२} (२) ७.३. उच्चाधिक।
{२} (२) ७.४. अनुशासन।
{२} (३) आयुर्वेद।
{२} (३) १. आजन्म युवावत कर्मण आयु।
{२} (३) २. स्थ-सिद्धान्तम्।
{२} (३) २.१. विषयस्थ- अम्भीर रोग।
{२} (३) २.२. जगतस्थ- रोग-निरोग।
{२} (३) २.३. स्वस्थ- आरोग्य।
{२} (३) २.४. आत्मस्थ- निरोग।
{२} (३) २.५. ब्रह्मस्थ- योगातियोग।
{२} (३) ३. त्रि-सिद्धान्त।
{२} (३) ३.१. त्रि-रोग।
{२} (३) ३.२. अयोग रोग- इन्द्रिय निष्क्रियता, इन्द्रिय अक्षमता।
{२} (३) ३.३. अतियोग रोग- इन्द्रिय आहत होना, मन विक्षेपांश, तनावादि का जन्म।
{२} (३) ३.४. मिथ्यायोग रोग- चित्तविक्षेप गहन अध्यात्म रोग- बुद्धि जडत्व असाध्य रोग।
{२} (३) ३.५. अयोग, अतियोग, मिथ्यायोग- अडिम योग जीवन ही रोग।
{२} (३) ३.६. सप्त अडिम योग- प्रज्ञा अपराध रोग, राग।
{२} (३) ४. त्रि-एष – त्रि-क्लेश।
{२} (३) ४.१. वित्तेष- वित्त क्लेश।
{२} (३) ४.२. पुत्रेष- पुत्र क्लेश।
{२} (३) ४.३. यशेष- यश क्लेश।
{२} (३) ४.४. विपुयेश- महाक्लेश।
{२} (३) ४.५ ब्रह्मेष- आनन्द अशेष।
{२} (३) ५. त्रियोग-निरोग।
{२} (३) ५.१. सम-योग।
{२} (३) ५.२. त्रि-सप्त-सुखम् आसनम्।
{२} (३) ५.३. सद् योग।
{२} (३) ५.४. सद्वृत स्वस्थवृत जीवन।
{२} (३) ५.५. ब्रह्म-योग।
{२} (३) ५.६ त्म-योग।
{२} (३) ५.७. अत्रि-अत्रि।
{२} (३) ५.८ त्रि-रोग निरुद्ध, त्रि-योग सिद्ध।
{२} (३) ६. स्वस्थ।
{२} (३) ६.१. सहजं शान्तं स्वस्थम्।
{२} (३) ६.२. सहजं शान्तम् आत्मस्थम्।
{२} (३) ६.३. भरद्वाजम्।
{२} (३) ६.४. अव्याहतम्।
{२} (४) निरुक्तम्।
{२} (४) १. पद, सम्बन्ध, अर्थभाव सहितम्।
{२} (४) २. गूढार्थ।
{२} (४) ३. अनिरुक्तम्।
{२} (५) दर्शनम्।
{२} (५) १. अनुशासनम्।
{२} (५) २. शब्द-अशब्दम्।
{२} (५) २.१. ईक्षते शब्दम्।
{२} (५) २.२. ईक्षते न अशब्दम्।
{२} (५) ३. पंच परीक्षण।
{२} (५) ३.१. प्रमाण।
{२} (५) ३.२. ब्रह्मगुण-साम्य।
{२} (५) ३.३. ऋतानुकूल।
{२} (५) ३.४. शृतानुकूल।
{२} (५) ३.५. आत्मवत सटीक।
{२} (५) ४. यमलोक।
{२} (५) ४.१. यमन।
{२} (५) ४.२. नियमन।
{२} (५) ४.३. वियमन।
{२} (५) ४.४. संयमन।
{२} (५) ५. प्रणव।
{२} (५) ५.१. सम् एकम्।
{२} (५) ५.२ नव्य-नव्य सततम्।
{२} (६) उपनिषदम्।
{२} (६) १. ब्रह्म निकटतम।
{२} (६) २. अयमात्मा ब्रह्म।
{२} (६) २.१. यह आत्मा।
{२} (६) २.२. यह ब्रह्म।
{२} (६) २.३. यह आत्मा, यह ब्रह्म।
{२} (६) २.४. आत्मा, ब्रह्म यह है।
{२} (६) ३. अहं ब्रह्मास्मि।
{२} (६) ३.१. मैं है।
{२} (६) ३.२. ब्रह्म है।
{२} (६) ३.३. मैं है, ब्रह्म है।
{२} (६) ३.४. मैं, ब्रह्म है।
{२} (६) ४. तत्वमसि।
{२} (६) ४.१. तू है।
{२} (६) ४.२. ब्रह्म है।
{२} (६) ४.३. तू है, ब्रह्म है।
{२} (६) ४.४. तू, ब्रह्म है।
{२} (६) ५. संकल्पम् ब्रह्म।
{२} (६) ५.१. संकल्प है, ब्रह्म है।
{२} (६) ५.२. संकल्प, ब्रह्म है।
{२} (६) ५.३. अव्याहत संकल्प।
{२} (६) ६. उद्गीथम्।
{२} (६) ६.१. उद्- ब्रह्म-स्फुरणम्।
{२} (६) ६.२. गी- अव्याहतम् आनन्दम्।
{२} (६) ६.३. ब्रह्म ठहरन।
{२} (६) ७. ओऽम् खं ब्रह्म।
{२} (६) ७.१. अ।
{२} (६) ७.२. उ।
{२} (६) ७.३. म्।
{२} (६) ७.४. खम् ओऽम्मय नमन।
{२} (६) ७.५. ब्रह्म विस्तरण।
{२} (७) अरण्यकम्।
{२} (७) १. अर्- ओऽम् कर्मन्।
{२} (७) २. ण्य- ओऽम् ज्ञानन्- नव्यातिनव्यं ज्ञानन्।
{२} (७) ३. कम्- ऋचाक्षरम्।
{२} (८) ब्रह्मणम्।
{२} (८) १. प्रकटते अननतम्।
{२} (८) २. सूक्ष्मतम्-महानतम्।
{२} (८) ३. अकम्प-सर्वकम्पनम्।
{२} (८) ४. एकानन्तम्।
{२} (८) ५. निकटतम्-दूरतम्।
{२} (८) ६. बाह्यतम्-अन्तरतम्।
{२} (८) ७. त्रित्वम्।
{२} (८) ७.१. सच्चिदानन्दः।
{२} (८) ७.२. चिद्-बिन्दु-अनन्तम्।
{२} (९) वेदम्।
{२} (९) १. चतुर्वेदम्।
{२} (९) १.१. ज्ञान।
{२} (९) १.२. कर्म।
{२} (९) १.३. उपासना।
{२} (९) १.४. वेदत्रयी।
{२} (९) २. चतुर्विदम्।
{२} (९) २.१. त्रि-सिद्धम्।
{२} (९) २.२. ज्ञान-सिद्धम्।
{२} (९) २.३. कर्म-सिद्धम्।
{२} (९) २.४. उपासना-सिद्धम्।
{२} (९) ३. ऋचाक्षरं सिद्धम्।
{२} (९) ४. व्योमन्।
{२} (९) ५. परम व्योमन्।
{२} (९) ३. वेदत्वम्।
{२} (१०) अगाओ उन्नयनम्।
{२} (१०) १. वेदत्वा।
{२} (१०) २. वेदवान।
{२} (१०) ३. वेदमान।
{२} (१०) ४. वेदाधान।
{२} (१०) ५. वेदधा।
{२} (१०) ६. वेददा।
{२} (१०) ७. वेदपा।
{२} (१०) ८. अस्तित्व यह।
{२} (१०) ९. वेदामृत है भरा।
{२} (१०) १०. वेदन अगाओमय।
{२} (१०) ११. अगाओमय वेदन।
{२} (१०) १२. शुद्धम् अपापविद्धम्।
{२} (१०) १३. अदीनं स्वस्थम्।
{२} (१०) १४. दिव्यातिदिव्यम्।
{२} (१०) १५. अगाओ-अगाओ।
{३} अगाओ आत्म सहजं शान्तम्।
{३} (१) द्युतिशील सहजं शान्तम्।
{३} (२) अन्तरिक्षं सहजं शान्तम्।
{३} (३) आधार धरा सहजं शान्तम्।
{३} (४) प्रवहणशील सहजं शान्तम्।
{३} (५) औषध-अनाज सहजं शान्तम्।
{३} (६) वनस्पति-रस सहजं शान्तम्।
{३} (७) विश्व देव सहजं शान्तम्।
{३} (८) ज्ञान विततं सहजं शान्तम्।
{३} (९) सर्व सामंजस्य सहजं शान्तम्।
{३} (१०) दैविक वितानं सहजं शान्तम्।
{३} (११) भौतिक वितानं सहजं शान्तम्।
{३} (१२) आत्मिक वितानं सहजं शान्तम्।
{३} (१३) ब्रह्म वितानं सहजं शान्तम्।
{३} (१४) शान्ति वितानं सहजं शान्तम्।
{३} (१५) शान्तित्वम्।
{३} (१६) अगाओ उन्नयनम्।
{३} (१६) १. शान्तित्वा
{३} (१६) २. शान्तिवान।
{३} (१६) ३. शान्तिमान।
{३} (१६) ४. शान्ति आधान।
{३} (१६) ५. शान्तिधा।
{३} (१६) ६. शान्तिदा।
{३} (१६) ७. शान्तिपा।
{३} (१६) ८. अस्तित्व यह।
{३} (१६) ९. शान्ति अमृत भरा।
{३} (१६) १०. शान्तिः अगाओमय।
{३} (१६) ११. अगाओमय शान्तिः।
{३} (१६) १२. शुद्धम् अपापविद्धम्।
{३} (१६) १३. अदीनं स्वस्थम्।
{३} (१६) १४. दिव्यानन्दम्।
{३} (१६) १५. दिव्यातिदिव्यम्।
{३} (१६) १६. अगाओ-अगाओ।
{४} अगाओ आत्म पर संस्थान में।
{४} (१) धातु संस्थानम्।
{४} (१) १. रस स्व-हविषम्।
{४} (१) २. रक्त स्व-ओषम्।
{४} (१) ३. मांसं स्व-कोषम्।
{४} (१) ४. मेदं स्व-निग्धम्।
{४} (१) ५. अस्थि स्व-स्फुरम्।
{४} (१) ६. मज्जा स्व-उत्सर्जम्।
{४} (१) ७. शुक्र स्व-तेजम्।
{४} (१) ८. तन्तुं तन्वम् (जीन) स्व-शुभम्।
{५} अगाओ आत्म सूक्ष्म संस्थान में।
{५} (१) सुपदार्थ संस्थानम्।
{५} (१) १. अणु संस्थानम् स्व-समन्वयम्।
{५} (१) २. परमाणु संस्थानम् स्व-समन्वयम्।
{५} (१) ३. घूर्णान संस्थानं (क्वार्क) स्व-अक्षनम्।
{५} (१) ४. अल्पसत्वं स्व-प्रकम्पनम्।
{५} (१) ५. महासत्वं स्व-तरंगनम्।
{५} (१) ६. अयन स्व-शक्तिन्।
{५} (१) ७. अयनार स्व-विततम्।
{५} (१) ८. सुपदार्थ स्व-व्ययम्।
{६} अगाओ आत्म अपरापर संस्थान में।
{६} (१) धी संस्थानम्।
{६} (१) १. अस्तित्व स्व-ऊर्जम्।
{६} (१) २. धरा ऊर्जित स्वगन्ध संस्थानम्।
{६} (१) ३. आप ऊर्जित स्वरस संस्थानम्।
{६} (१) ४. ज्योति ऊर्जित स्वरूप संस्थानम्।
{६} (१) ५. वरुण ऊर्जित स्वस्पर्श संस्थानम्।
{६} (१) ६. नभ ऊर्जित स्वशब्द संस्थानम्।
{६} (१) ७. खम् ऊर्जित स्व-प्राण संस्थानम्।
{६} (१) ८. शिव ऊर्जित स्व-मन संस्थानम्।
{६} (१) ९. अग्नि ऊर्जित स्व-वाक् संस्थानम्।
{६} (१) १०. धारणोर्जित स्व-बोध संस्थानम्।
{६} (१) ११. ध्यानोर्जित स्व-धियं संस्थानम्।
{७} अगाओ आत्म पर संस्थानम्।
{७} (१) पर संस्थानम्।
{७} (१) १. अति इन्द्रियां अथर्वा।
{७} (१) २. अति प्राण सामम्।
{७} (१) ३. अति मन यजुः।
{७} (१) ४. अति वाक् ऋचम्।
{७} (१) ५. वेदी चतुर्वेदम्।
{७} (१) ६. मन चतुर्विदम्।
{७} (१) ७. अस्तित्व तपम्।
{७} (१) ८. बोधा तितिक्षा।
{७} (१) ९. अन्तसा भृता।
{७} (१) १०. प्रज्ञा ऋता।
{७} (१) ११. मेधा शृता।
{७} (१) १२. श्रद्धा ऋद्धा।
{७} (१) १३. निष्ठा धृता।
{७} (१) १४. इष्ठा विधृता।
{७} (१) १५. प्रतिभा ऋजीया।
{७} (१) १६. गुहा वेनत्वम्।
{७} (१) १७. स्व बोध भर्गम्।
{७} (१) १८. स्व कारणम्।
{७} (१) १९. आत्म संकल्पम्।
{८} अगाओ आत्म संकल्प में।
{८} (१) संकल्प उन्नयनम्।
{८} (१) १. संकल्पत्वा।
{८} (१) २. संकल्पवान्।
{८} (१) ३. संकल्पमान।
{८} (१) ४. संकल्पाधान।
{८} (१) ५. संकल्पधा।
{८} (१) ६. संकल्पदा।
{८} (१) ७. संकल्पपा।
{८} (१) ८. अस्तित्व यह।
{८} (१) ९. संकल्पामृत भरा।
{८} (१) १०. संकल्पन अगाओमय।
{८} (१) ११. अगाओमय संकल्पन।
{८} (१) १२. अपापविद्धं शुद्धम्।
{८} (१) १३. अदीनं स्वस्थम्।
{८} (१) १४. अदीनं दिव्यम्।
{८} (१) १५. दिव्यातिदिव्यम्।
{८} (१) १६. अगाओ… अगाओ… अगाओ.
{९} अगाओ.. अगाओ.. त्म संस्थान में।
{९} (१) त्म संस्थानम्।
{९} (१) १. अगाओ आत्म अव्याहतम्- दिव्यातिदिव्य संकल्प शरीर द्वारा शून्य समय में अनन्त गति ब्रह्म सानिध्य का अहसास।
{९} (१) २. अगाओ पारत्म नारायणम्।
{९} (१) ३. अगाओ दिव्यात्मा प्रणव- प्रकृष्टतम्।
{९} (१) ४. अगाओ दिव्यात्म उद्गीथम्- उद् उत्तम गति सततं में थमन।
{९} (१) ५. अगाओ अपरात्मा एकवृत्तम्।
{९} (१) ६. अगाओ आपरत्म एकत्व।
{९} (१) ७. अगाओ परात्मा कैवल्यम्।
{९} (१) ८. अगाओ परत्म उच्छिष्टं लबालब छलकं छलकम्।
{९} (१) ९. अगाओ परमात्मा स्कम्भम्।
{९} (१) १०. अगाओ परमत्म पुरुषम्।
{९} (१) ११. अगाओ समत्मा अक्षरम्।
{९} (१) १२. अगाओ समत्म ओऽम्।
{९} (१) १३. अगाओ अतित्मा ऋचाक्षरम्- ऋचाओं के अक्षर-अक्षर से व्यक्त अमृत रस ब्रह्म।
{९} (१) १४. अगाओ अन्तर् ओऽम् व्योम।
{९} (१) १५. अगाओ त्मा- परमे व्योम।
{९} (१) १६. अगाओ त्म सर्व ब्रह्म।
{९} (१) १७. अगाओ… अगाओ… अगाओ
स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)