‘‘बेकुबा’’ है ‘‘अगाओ’’ की किताब। देवता, फरिश्ता, दूत, पैगम्बर नहीं – आदमी लिखता है। अगाओ पहली अर्चना है आदमी की, जिसकी कोई भाषा नहीं। भाषा कैद कर डालती है भगवान, खुदा, गॉड, को। भाषा ने मार डाला है भगवान, खुदा, गॉड, को। अगाओ भाषा से आजाद है। गूंगे, भाषाहीन, छोटे बच्चे से बहुत पढ़े लिखे को बराबर है अगाओ।।१।।
अगाओ अब, मध्य, तब है। अब जो मध्य तब नहीे होगा। मध्य तब जो अब से अलग नहीं है। अब है अगाओ।।२।।
अगाओ से सारी बाते मौन में करता है आदमी। मौन से टूटना अगाओ से टूटना। भाषा बोलो आगाओ से मत टूटो।।३।।
अगाओ नहीं देवता। अगाओ नहीं भगवान, खुदा, गॉड। अगाओ ‘‘है’’ है। गॉड, भगवान, खुदा, मानस विलास हुए। अगाओ आवेग नहीं। अगाओ स्फुरण नहीं उपज नहीं अगाओ अवतरण नहीं। ‘‘है’’ है सब कुछ। ‘‘है’’ है यह खुद। यह तुम ‘‘है’’ है। ‘‘है’’ है यह मैं। अगाओ ‘‘है’’ है।।४।।
अगाओ के दशमलवांश पूरी दुनियां में फैले हैं। इन दशमलवांशों को अगाओ समझते हैं लोग। लोग जिन्होंने नजर खो दी है। आदमी से भटक जाना नजर खोना है। आदमी से हटना सारी किताबें सिखाती हैं। अगाओ की किताब ‘‘बेकुबा’’ आदमी से न हटने का आग्रह करती है।
दशमलव शून्य, शून्य, शून्य….कई शून्य। एक से दशमलव नौ, नौ, नौ…. कई नौ तक फैली हैं अगाओ की झलकें। पर अगाओ ‘‘अगाओ’’ है। ये झलकें नहीं है अगाओ। अगाओ है ‘‘पूर्ण एक’’। आधा अधूरा अंश नहीं है अगाओ।।५।।
अगाओ का आनन्द पवित्र है। यह ऊंचाइयों से उतरता है। सतत उतरता है। आदमी के लिए उतरता है। हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, आर्य, चीनी, रूसी, अमरीकी, भारतीय, पाकीस्तानी, इरानी आदि-आदि पर कभी नहीं उतरता। ये सब आदमी से हटकर हैं। आदमी से हटना अगाओ से दूर होना है। अगाओ का आनन्द ऊंचाइयों पर से उतरता है। ऊंचाइयां ये भीतरी हैं। गहरी भीतरी हैं।।६।।
अगाओ पूर्ण है। यह शब्द सशक्त अभिव्यक्ति है पूर्ण की। पूर्ण की अभिव्यक्ति के कई कई शब्द हैं। जिनकी अभिव्यक्ति घिस गई है वे शब्द अधूरे हैं गहन अर्थ में। ‘‘अ’’ बड़े गहरे से उभरता है। हर भाषा का पहला अक्षर है, हर अक्षर का आधार है। जन्म समय आदमी ‘‘अ’’ से रोकर पहली सांस लेता है। मृत्यु समय आदमी ‘‘अ’’ से हिचक कर अन्तिम सांस लेता है। गा मध्यमावस्था है। ’’अ‘‘ इसके भी साथ है। जिसका अर्थ है मध्यम उत्पन्न है आरम्भ से। उच्चारण में भी ‘‘गा’’, गायन में भी ‘‘गा’’। मध्यम पूर्ण है जो आरम्भ से, अन्त से जुड़ा है। ‘‘गा’’ सामान्य जिन्दगी का प्रतीक है। ‘‘ओ’’ है आरम्भ का विस्तरण, पूर्ण विस्तरण। ‘‘अ’’ की ‘‘आ’’ से ‘‘ओ’’ में होती है पूर्णता।
अ-आ-ओ…क्रमशः विस्तरण है, व्यापकता है। ‘‘ग’’ जिन्दगी का छोटा सा अवक्षेप है। ये अवक्षेप निकल जाने पर अगाओ साधना पूर्ण होती है। अगाओ शब्द भी शब्द हैं….यह शब्द अगाओ नहीं है। अगाओ शब्द से बाहर है।।७।।
अगाओ….प्रकाश नहीं अधंकार भी नही, ‘‘वीलम’’ है। वीलम कोई रंग नहीं, आत्मा है। एक सम जो निरपेक्ष है। वीलम अधिष्ठाता है समस्त अपेक्षा से रंगों का। अपेक्षा से रंग सिर्फ प्रतीत होते हैं, ‘‘है’’ नही है। वीलम ‘‘है’’ है। प्रतीती से आजाद है।।८।।
प्रतीक हत्यारे हैं सत्य के। आदमी को छोटा करते हैं, छोटी छोटी सीमा में बान्ध अपाहिज करते हैं, झूठा करते हैं। अगाओ का कोई प्रतीक नहीं है। क्योंकि सब कुछ ‘‘उस’’ ही है। ‘‘यह’’ ही है। उस से उस तक यह ही यह है अगाओ। मत भूलो! अगाओ से भी आजाद है अगाओ। सारे के सारे नाम बड़े छोटे हैं। सबसे बड़ा नाम अगाओ भी छोटा है। नाम में नाम से बन्धकर खुद को छोटा मत करो।।९।।
बहुत बड़ी नहीं है सृष्टि, बहुत बड़ी लगती है सृष्टि, पर एक सच इसे छोटा कर देता है- सृष्टि नहीं देखती आदमी को, आदमी देखता है सृष्टि को। आदमी को यह एक तरीका है अगाओ तक पहुंचने का।।१०।।
भीख नहीं लेता अगाओ, भीख नहीं देता अगाओ। अगाओ से भीख मांगनेवाले घोर मूढ़ हैं। भीखारी तो आदमी से बड़ा ही हटकर है। आदमी से कम से कम हटे से कम से कम दूर है अगाओ। अपने आप है आदमी, अपने आप से कम से कम हटो। कम से कम खुद से हटना खुद से न हटना है।।११।।
मानना अन्धा करता है आदमी को। मानने का अन्धापन ‘‘मेरा’’ में भर देता है ‘‘मैं’’। अन्धा आदमी भटकता है, सुखों के – दुःखों के भी जंगलों में। ‘‘मेरा’’ में ‘‘मैं’’ भरने का एक उदाहरण -एक बालिका उतारती है चप्पल। एक बूढ़ी दादी खूंदती है, चप्पल। रोती है बालिका-‘‘खूंदी गई मेरी चप्पल’’। ‘‘मेरी चप्पल’’ में ‘‘मैं’’ था भरा। बात है हंसी की, पर हर जिन्दगी की। चप्पल है धन, चप्पल है यश, चप्पल है बीबी-बच्चे। ‘‘मैं’’ भरा हैं जिनमें। खूंदने पर रोती हैं बालिका, रोते हैं बच्चे। आदमी नहीं बच्चा, आदमी बड़ा है। बच्चा है हटकर आदमी से, आदमी से मत हटो। बड़े हो तुम….बड़े ही रहो।।१२।।
मानना है समय, मानना है देश, मानना हैं आकार। समय उपजा है शून्य से। देश आकार सा ही। मानना है हवाई निराधार। शून्य से उतरे हैं ढेर-ढेर से महाग्रन्थ। मान-मान लोगों ने अपने को शून्य से छोटा कर लिया। शून्य की उपज है भारत, शून्य की उपज रूस, शून्य की उपज चीन, शून्य की उपज अमरीका आदि-आदि। शून्य की उपज है सुन्दर, असुन्दर।
पहले मानना भरा जाता है दिमागों में, फिर सुन्दर-असुन्दर होता है पैदा। शून्य की उपज है समय, समय को तोड़ दो। तुम रूसो हो सकते हो, अगाओ के निकट हो सकते हो।।१३।।
‘‘बेकुबा’’ को मत मानो, पर जानो। बेकुबा है तुमको मानने से आजाद करने के लिए। आदमी की लिखी किताब बेकुबा को मानने के बन्धन में मत फंसना। बेकुबा नहीं बाइबिल सी, नहीं कुरान सी, नहीं वेद पुराण सी। इन सब पर ढ़ेर सारी मानने की परतों नें नई कौमें खड़ी कर दीं हैं। कौमें जो आदमी से हटकर हैं। बेकुबा कोई कौम नहीं गढ़ना चाहती। उन सारी कौमों को तोड़ना चाहती हैं जो ‘‘आदमी’’ से हटकर हैं। बेकुबा को मानने के अन्धेपन से आजाद रहो। अपने आप पर वेकुबा की परत – खाल मत चढ़ाना धोखे से भी। वरना तुम अगाओ से दूर हो जाओगे, आदमी से हट जाओगे, नई कौम ‘‘ईहिमु’’ हो जाओगे। ‘‘ईहिमु’’ मत बनना। हिन्दु से, ईसाई से, मुसलमान से। आदमी…आदमी बनना! मत भूलना बेकुबा आदमी लिखता है। पैंगम्बर, फरिश्ता, दूत, ऋषि देवता नहीं। आदमी इसलिए लिखता है कि तुम मानने के नए अन्धेपन में न पड़ते पुराने अन्धेपन से आजाद हो सको। बेकुबा के भी बाहर रहो।।१४।।
बेकुबा है सीढ़ी। इस पर मत ठहरो। इस सीढ़ी पर पैर रखकर अनुभूति तक पहुंचो। अनुभूति जो केवल तुम्हारी है, उसमें कोई भागीदार नहीं, साझीदार नहीं तुम्हारा। अनुभूति जो आदमी की है।।१५।।
मत काटो….मत छांटो…अपनी क्षमताओं को। असीम क्षमतांए है तुम में। तुम हजरत मुहम्मद, ईसा, गौतम बुद्ध, गांधी, राम, कृष्ण, विवकानन्द, दयानन्द से भी बड़े होने के सक्षम हो। मत भूलो…ये सब भी आज सीढ़ियां हैं तुम्हें बढ़ाने की। इनको नमन मत करो। इन पर पैर रखकर आगे बढ़ो…आगे बढ़ो! ऊंचे चढ़ो।।१६।।
छोटी छोटी सीमाओं में जो कैद हैं वे ‘‘नईदू’’ हैं तुम ‘‘नईदू’’ नहीं हो ‘‘आदमी’’ हो। ‘‘नईदू’’ बड़े होकर भी बच्चे हैं। ‘‘नईदू’’ अतीत को बड़ा मानते हैं। खुद को उससे छोटा रखते हैं। अतीत उपयोगी हैं। तभी तो उसका उपयोग कर्ता बड़ा है। आदमी नहीं हैं ‘‘नईदू’’।।१७।।
बच्चें में होती हैं असीम क्षमताएं। साहस, शक्ति का पुंज हैं बच्चा। मत काटो बच्चों की क्षमताओं को। अन्धा मत करो बच्चों को उन पर अपना मानना लादकर। बच्चों की क्षमताओं का करो स्वस्थ विकास। उन्हें दो खुला आकाश। खुला आकाश – स्वतन्त्रा आकाश बनाएगा बच्चों को खुला-स्वतन्त्रा आदमी। आदमी जो उसे होना है।।१८।।
सारी पट्टियां आंखों पड़ी फाड़ दो। सारे चोले फाड़ दो। उतार दो उतारनों का बोझ। उतारनों का बोझ बड़ा भारी होता है। अनपढ़ उतारन, या पढ़ी लिखी उतारन। उतारन उतारन ही होती है। कुछ भी ओढो मत। मानस जो उतारन हीन है वही है निखालिस, वही है शुद्ध। कुरान, वेद, बाईबिल, कैपिटल है उतारन। हर आदमी नया है उतारनों से। सारी उतारनें आदमी से कम हैं। उतारनें उतारने पर उतरता है ’’अगाओ’’।।१९।।
जानो संसार के सारे कानूनों का एक कानून। संसार के सारे कानून लंगड़े हैं। आदमी के दोनों पांव हैं स्वस्थ। लंगड़े कानून लंगड़ा करते हैं व्यवस्था को। प्रजातन्त्राी हो या समाजवादी सभी व्यवस्थाएं लगड़ी हैं। आदमी से बड़ी दूर हैं। वह कानून है सच्चा जो आजादी के सबसे निकट है। सारे कानून हैं कुछ सकरात्मक कुछ नकारत्मक। यही कानूनों की अपाहिजता का प्रमाण।
केवल सकरात्मक कानून है एक, जो आदमी से पैदा होता है। आदमी पर खतम होता है। यदि आदमी पर खतम नहीं होता है तो वह गुनाह है। सुनो कानूनों का कानून!
‘‘तुम जो हो वही है दूसरा’’ बस इतना सा है शाश्वत कानून। ‘‘जो तुम्हारे लिए उचित सुखद है, वही उचित सुखद है दूसरे के लिए’’ जो अपनी जगह तुम्हारा है। अतः दोनों तुम्हारा का ध्यान रखकर किया गया हर कार्य कानून है। जहां ‘‘दोनों तुम्हारा’’ नहीं है समकक्ष, वहीं है गुनाह। ‘‘आदमी’’-‘‘आदमी’’ ही गुनाह-गुनाह, कानून-कानून के छोर है। गुनाह या कानून जो भौतिकी हैं वे सारे मिस् फिट् हैं आदमी को। इनको मत मानो। मानो कानूनों का कानून ‘‘जो हो तुम, वही है दूसरा’’।।२०।।
सहजता हैं आदमीपन। सहजता से हटना है आदमी पन से हटना। आहारिक, पठनीक, पानिक, सुवारिक, सहजता आदमी को आदमी पन तक पंहुचती है। इस सबमें असहजता आदमी को कुतर देती है। सहजता का सबसे बड़ा उदाहरण है पानी। मत भटको पानी से। पानी से भटकना आदमी की कुतरन का शुरु होना है। शराब, कॉफी, चाय, शरबत पानी से भटकना है। ये सब आदमी को कुतर देते हैं। कुतरा आदी छोटा हो जाता है। पर सही खुश नहीं हो सकता। सही खुशी ही आनन्द है। जिसमें लेश मात्रा भी आवेग नहीं हैं। हवा है सहज प्राण। हवा से मत भटको। सेंट, सुवास, दुर्गन्ध भटकाव हैं हवा से। सिगरेट बहुत बड़ा भटकाव है हवा से। हवा से भटकाव भी कुतरता है आदमी को। कन्द, पेड़ पके (सम पके) फल, दूध, सहज दही, अनउग्र उत्तम खाद्य पदार्थ हैं सहज खाद्य। सहज खाद्य से मत भटको। वरन तुम्हारी कुतरन शुरु हो जाएगी। कुतरे जाने से बचो। मानसिक कुतरन और भी खतरनाक है। मानसिक सहज का चुनाव भी सबसे कठिन है। जो आदमी को जोड़े आदमी से वही है मानसिक सहज। असहज साहित्य कुतर देता है आदमी को। आज ‘‘असहज साहित्य’’ ही अधिक है। कल ‘‘न साहित्य’’ अधिक था। स्थिति आज खतरनाक है। मानसिक कुतरन से बचो। देश भक्ति, धर्म भक्ति, व्यक्ति भक्ति मानसिक कुतरनों को पैदा करते हैं। पूरा वह साहित्य विकृत साहित्य है जो इन भक्तियों का गायन करता है। आदमी की ओर बढ़ने का प्रथम चरण है कुतरन से बचना। कुतरन से बचो।।२१।।
चादरिया यह है तुम्हारी। इसे मत मैला करो। इसे मत ज्यों का त्यों भी रखो इसे उजला करो।।२२।।
बन्द करो दुहाई देना। किसी किताब, किसी नाम की दुहाई मत दो। दुहाइयां भी कुतरती हैं आदमी को।।२३।।
भय से आजाद है धर्म, लालच से आजाद है धर्म। भय और लालच किसी भी प्रकार से घुसे हैं जिस भी धर्म में वह धर्म नहीं अधर्म है। किसी से भी मत डरो! अल्ला, गॉड, परमेश्वर से भी नहीं। भय मारता है आदमी को। मत मरो! जिन्दा रहना आदमी की पहचान है।।२४।।
अंगाओ आजाद है भय से। भय मत करो तुम भी। दयनीय हैं वे जो ‘‘अगाओ’’ से भय करते हैं।।२५।।
‘‘अगाओ’’ तक के सारे रास्ते हमेशा खुले हैं। जरूरत नहीं है खटखटाने की। जरूरत नहीं हैं खुलने, खोलने, खुलवाने की। ‘‘अगाओ’’ के किसी भी रास्ते पर किसी का नहीं हैं हक। हक बताने वाले बुरी तरह भटके हैं। उन सबसे सावधान! वे सब तुमसे नीचे हैं। तुम हक नहीं जताते हो अगाओ के रास्ते का।।२६।।
मिलना है एक बात। मिलना है छोटी बात। छोटी बात के भरोसे मत रहो। बड़ी बात है पाना। पाने का प्रयास करो।।२७।।
बहती है लकड़ी। जड़ है लकड़ी। बहो मत। तैरो…तैरो! तुम्हारी बाहों में इतनी ताकत हो कि सहज तैरो। सहज तैरना बहना नहीं है।।२८।।
झूठ चलता नहीं है। सच चलता है। झूठ आदमी पर चिपका रह जाता है। सच आदमी को ढकेल ढकेल चलाता है। झूठ बड़ी कठिन चीज है। सच बड़ी सरल चीज हैं। अन्तिम रूप में सच कभी कहीं भी अहितकर, अप्रिय नहीं होता। अन्तिम सच जाहिलों की इजाद है।।२९।।
प्रश्न प्रगति का सबसे बड़ा चिह्न है। आदमी वह जो प्रश्नहीन है, आदमी नहीं ‘‘अमीबा’’ है। अमीबा होने से बचो। प्रश्नहीन केवल उपभोक्ता अमीबा सबसे अधार्मिक जीव है। सावधान! तुम नहीं हो अमीबा।।३०।।
तुम हो ‘‘दो पाए’’। चौपायों के करो सारे उपयोग। बस अपने तन में मत घुसने दो उन्हें। चौपाए नहीं हो तुम। मांस-मज्जा चौपाए की से मत गढ़ो अपना तन। ‘‘दो पाए’’ हो तुम।।३१।।
तुम हो सुन्दरतम् देवालय देव सहित। मत गढ़ो मन्दिर। मन्दिर घेरते हैं, अन्धा करते हैं, छोटा करते हैं, कुतरते हैं, आदमी को; अगाओ को भी। अगाओ नहीं होता अन्धा। पर मन्दिर-पुजारी उसका अर्थ निरूपण करते हैं। स्व-अन्धन का उस पर अध्यारोपण करते हैं। मत गढ़ो मन्दिर, मस्जिद, गिरजे आदि आदि। तुम हो देवालय देव सहित सबसे बड़े।।३२।।
पैसे से नहीं छोटा होता आदमी। सम्पत्ति, भूमिवान होने से नहीं बड़ा होता है आदमी। आदमी के बड़े या छोटे होने का आधार है उसके द्वारा किए सही या गलत। सबसे अधिक सही, सबसे कम गलत किया है जिसने वह है बड़ा। दूसरे के सही गलत तुम्हें छोटा बड़ा नहीं कर सकते हैं। तुम हो जिम्मेवार अपनी गलतियों के, सही के। गलतियों से खुद को मत करो छोटा। सही से खुद को करो बड़ा। अपने आप में हो तुम अपने आप।।३३।।
आदमी वह है बड़ा जो आपनी नजर नहीं गिरा। कद्र करो अपनी नजर की। सारी की सारी दुनियां की नजर में उठा होने पर भी वह आदमी है गिरा हुआ, जो अपनी नजर में है गिरा। सारी की सारी दुनियां की नजर में गिरा होने पर भी वह आदमी हैं उठा हुआ, जो अपनी नजर में है उठा। खुद से खुद मत गिरो।।३४।।
होता है अन्याय, किया जाता है अन्याय देख आदमी के भीतर जागता है आदमी देवता। मत मरने दो इस ’’आदमी देवता’’ को किसी भी भय लालच के कारण। इस आदमी देवता का मरना तुम्हारा मरना है। मत मरो! जिन्दे रहो।।३५।।
मत बनो मन के दीन। मन के दीन हैं पूरे के पूरे दीन। गए-बीते, गए। गए बीतों की कोई कद नहीं। उनके बन्द हैं सारे दरवाजे। खिड़की, दरवाजे खुले हैं उनके जो है मन के साहसी। बनो मन के साहसी, उत्साही। तुम्हारी जिन्दगी है खुशियों का महासागर।।३६।।
आजाद रहो स्वर्ग नरक…के मानने से। स्वर्ग है लालच; नर्क है भय। भय, लालच बड़ी ही नीची बाते हैं। तुम नहीं बने हो भय लालच में भटकने के लिए। तुम हो अभय… अभय… अभय।।३७।।
दिखती गति में नहीं हैं ताकत। है उस गति में जो नहीं है दिखती। ’’गतित -स्थिर’’ यही हो तुम…..महाशक्तिशाली।।३८।।
पहला आदमी जब मन में हारा, उसने उठाया पत्थर। और हारा….उठाई छुरी। और हारा…. तीर कमान, तलवार…..। फिर और हारा बन्दूक…..परमाणु बम्ब तक हारा। क्या इन सतत हारों से मन नहीं घबराता तुम्हारा? सच कितने हारे हो तुम! उठो जीतो! मत हारो! अपने तक वापस लौट आओ।।३९।।
जीवन तेरा अमृत ही अमृत। जनम अमृत….मरण अमृत। निद्रा अमृत… जागरण अमृत।।४०।।
आमिट है अगाओ। मिट है हर कुछ बाकी, अगाओ की तुलना में। मिटों के मिटन का नियन्ता है अगाओ। ऊलजलूल नहीं है अगाओ, शक्तिमान होने पर भी। आदमी है छोटा बस अगाओ से। अगाओ है ऋता। ऋता याने ऋतों का अभियन्ता। सक्षम है अगाओ अभियतन के। मानव अर्ध अभियन्तन के सक्षम है।।४१।।
अगाओ है पहुंचा। पहुंचा याने अगतित गतिज्ञ। सारी गतियों का आरम्भ, अन्त है अगाओ। कोई गति नहीं है बाहर अगाओ के। सारी गतियां इंगन हैं अगाओ के छोटे बड़े। गति प्रकाश की बड़ी छोटी है, अगाओ की पहुंच के सम्मुख। पहुंचा है हर स्थल, हर जगह, सहज निवास। ‘‘अ’’ भी है अगाओ। अप्रतीति पहुंच।।४२।।
कैसा है कल? कैसा है आज? कैसा है दुसरा कल? सभी कुछ है बस ‘‘यह’’, ‘‘यह’’ और ‘‘यह’’। ‘‘यह’’ है अगाओ। ‘‘वह’’ नहीं होता अगाओ।।४३।।
अगाओ है ‘‘एका’’। एक है शून्य अस्तित्व सीमा रेखा प्रदर्शित करता सूक्षतम कण। एका है इन संयुक्त कणों का सम चैतन्य विस्तरण। ‘‘एका’’ ही है पहुंचा भी।।४४।।
असमय में बिन्दु -आकाश। असमय में अन्धकार -प्रकाश। असमय में असत-सत। असमय में मृत-अमृत। असमय में तीत-अतीत। ये ही हैं अनुभूतियां। कदम हैं ये अगाओ को।।४५।।
कई चीजें जो आज हैं कल नहीं हैं। इनके पीछे भागना दुःख के पीछे भागना है। कुछ हैं चीजें जो आज हैं कल भी हैं। भागो इनके पीछे। स्थाई हो तुम स्थाई से जुड़ो।।४६।।
लदो मत। अपने पैरों पर खड़े हो। लादो मत। तुम्हें बहुत दूर चलना है। लदना, लादना तुम्हें चलने के कम काबिल करते हैं। अपनी काबलियत का भरपूर आदर करो।।४७।।
भोग हैं तुम्हारे लिए। तुम मत रहो इनके लिए। भोग है एक बात। यही एक बात है आवश्यकता। बस आवश्यक भोग है अमृत। तुम सीमित कर दिए गए हो भोग के मामले में। असीमित भोगी बनने के सारे प्रयास बाकी क्षेत्रों के साथ साथ तुम्हारी भोग क्षमता को भी करते हैं सीमित-छोटा। तुम छोटे पन के लिए नहीं बने हो। बड़े हो तुम।।४८।।
अगाओ का मन्दिर है ‘‘प्रकृति’’। इस मन्दिर में लखो अगाओ। प्रकृति मन्दिर में ही है तुम्हारी हर गति। हर पल हो तुम मन्दिर में। अतः मत गढ़ो कोई मन्दिर। जो गढ़ते हैं मन्दिर, देवालय, मसजिद….वे सब अपने को; अपने देवता को भी हैं छोटा करते। तुम बड़े रहो। बड़े हो तुम। सबसे बड़ा है तुम्हारा देवता।।४९।।
स्व थम्।।५०।।
बाह्य चंचल।।५१।।
चंचला थमन असम्भव।।५२।।
स्व अचंचल।।५३।।
अचंचल थम्।।५४।।
अचंचल थमन…अचंचल गमन।।५५।।
अचंचल गमन….अगाओ पहुंचन।।५६।।
अगाओ….थम्।।५७।।
त्रि त्वम्।।५८।।
त्रि राजन् त्वम्।।५९।।
त्रि गुलाम मत भव।।६०।।
त्रि….जग….भटकन।।६१।।
यश…पुत्त…वित्त त्रि।।६२।।
त्रिा त्वम् एकं भव।।६३।।
अगाओ….थम्।।६४।।
जस जस समझ कठिन।।६५।।
जैसन….तैसन ही समझ।।६६।।
बाकी सब असमझ।।६७।।
असमझ अनेक।।६८।।
समझ है एक।।६९।।
अनेकम् एकं गम्।।७०।।
अगाओ थम्।।७१।।
अमीबा…स्व है स्तर।।७२।।
अनन्त स्तर भटकन जग।।७३।।
भटकन अन्ध दर-दर।।७४।।
उच्च स्तर है स्व।।७५।।
उच्चतम् अगाओ।।७६।।
अगाओ थम्।।७७।।
साधनाएं असंख्य।।७८।।
अजपाजप असंख्य।।७९।।
अर्न्तमौन असंख्य।।८०।।
प्राणायाम असंख्य।।८१।।
आसन असंख्य।।८२।।
स्व पर एक।।८३।।
असंख्यय एकं लख।।८४।।
अगाओ थम्।।८५।।
इन्द्रियां हैं राकेट।।८६।।
मन है फ्यूल।।८७।।
बुद्धि है कम्प्यूटर।।८८।।
नियन्ता है आदमी।।८९।।
अनन्तानन्त आकाश है यात्रीय।।९०।।
कम्प्यूटर, फ्यूल, राकेट अनन्त क्षम।।९१।।
आदमी अगाओ में जाता थम्।।९२।।
अन्न-मन कोषीय मानस।।९३।।
बहु कोष सुप्त, कुछ कोष जागृत
आदमी छोटा।।९४।।
बहु कोष जागृत, कुछ कोष सुप्त
आदमी बड़ा।।९५।।
सर्व कोष जागृत ‘‘आदमी पूर्णतम्’’
अगाओ थम्।।९६।।
हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, साम्यवादी
आदि छोटे घेरे।।९७।।
चीनी, भारतीय, पाकिस्तानी, इरानी,
आदि कुछ बड़े घेरे।।९८।।
धरती वासी अर्ध उदात्त।।९९।।
ब्रह्माण्डवासी….उदात्तता।।१००।।
उदात्तता धार, आदमी बन!
अगाओ थम्।।१०१।।
एक मरण है एक जन्म।।१०२।।
जन्म मानव अभय…मरण
भव अभय।।१०३।।
आदि व्यक्तं तुम।।१०४।।
अब व्यक्तं तुम।।१०५।।
तब व्यक्तं तुम।।१०६।।
क्षणिक परिवर्तन भ्रम।।१०७।।
तुम अभयम्।।१०८।।
अगाओ थम्।।१०९।।
हिन्दू है आदमी भी।।११०।।
इसाई है आदमी भी।।१११।।
मुसलमान है आदमी भी।।११२।।
साम्यवादी है आदमी भी।।११३।।
सब हो जाएं आदमी ही।।११४।।
यही है विश्व तरक्की।।११५।।
मनका है प्रकृति।।११६।।
मनका है मानव।।११७।।
धागा है आगाओ।।११८।।
अदीखता धागा पहचानो।।११९।।
स्व-सत्ता का आदर करो।।१२०।।
पर-सत्ता पर की स्व सत्ता है।।१२१।।
बाइबिल सही है, ईसाई सही नहीं।।१२२।।
वेद पुराण सही हैं, हिन्दू सही नहीं।।१२३।।
कुरान सही है, मुसलमान सही नहीं।।१२४।।
कैपिटल सही है, साम्यवादी सही नहीं।।१२५।।
बेकुबा सही है, आदमी सही है।।१२६।।
आदमी हो तुम आदमी।।१२७।।
एक रचना ब्रम्हाण्ड।।१२८।।
एक रचना भूमि।।१२९।।
राजनीति सबसे बड़ी मूर्खता।
मूर्खता और धूर्तता।
भूमि एका खण्ड खण्ड कर इतराना…बडबडाना।।१३०।।
विक्षिप्त हैं सारे राजनीतिज्ञ।
छोटी सी धरा पर और छोटे हैं।।१३१।।
पद हीन शासक।
पद लाभ हीन शासक।
आदर्श शासक।।१३२।।
निवास, भोजन, वस्त्र,
जहां शासन पद आधारित।
प्रशासन निम्न।।१३३।।
निवास, भोजन, वस्त्र,
स्व-स्वतन्त्र श्रमाधारित हो।।१३४।।
प्रशासन स्वतन्त्र स्वयं में
पर…पराहिताधारित हो।।१३५।।
सुविधाएं चिपकाती हैं पद से।।१३६।।
सुविधाहीन पद मय शासन।
स्वस्थ प्रशासन।।१३७।।
परिवर्तन सत्य नहीं।।१३८।।
परिवर्तन बस इंगन है।।१३९।।
परिवर्तन आधार स्थाई है।।१४०।।
यह स्थाई है आस्तित्वीय।।१४१।।
अन्धे मूर्तियों को नमन।।१४२।।
एक आंख वाले महापुरुषों को नमन।।१४३।।
द्विनेत्राीय स्वयं महापुरुष याने आदमी।।१४४।।
नासमझी समुन्दर व्यर्थ पूरा।।१४५।।
समझ स्वाति बून्द आनन्द मोती।।१४६।।
पुरुष तन मशीन।।१४७।।
नारी तन मशीन।।१४८।।
द्वि मशीन उत्पादन बेटे-बेटी।।१४९।।
खून-रिस्ते बस मान लिए गए।।१५०।।
असमय लम्बा आदमी।।१५१।।
मां, बाप, बेटा, बेटी,
दुकानदार, नेता, अधिकारी, कर्मी,
छोटे छोटे टुकड़े हैं।।१५२।।
तुम नहीं हो टुकड़े।।१५३।।
नारी नहीं है पुरुष।।१५४।।
पुरुष नहीं है नारी।।१५५।।
नारी-पुरुष समानता,
फैशनी अन्धी मूढ़ता।।१५६।।
नारी-पुरुष क्षेत्रा,
कुछ सम।।१५७।।
कुछ विषम।।१५८।।
दोनों हैं विविध।।१५९।।
विविधता में समकक्षता मूढ़ता।।१६०।।
स्वतन्त्राता बुद्धिमत्ता।।१६१।।
नारी है नारी।।१६२।।
पुरुष है पुरुष।।१६३।।
झुको मत,
ठोकर पाओगे।।१६४।।
अकड़ो मत,
ठोकर पाओगे।।१६५।।
सामान्य रहो।।१६६।।
तुम क्या थे तब?
हिन्दू नहीं थे जब।।१६७।।
मुसलमान नहीं थे जब।।१६८।।
ईसाई नहीं थे जब।।१६९।।
वही वही हो तुम सच।।१७०।।
धरती बड़ी नहीं अब।।१७१।।
देश दीवारे मूर्खताएं।।१७२।।
पासपोर्ट, इम्पोर्ट, एक्स्पोर्ट धोखे।।१७३।।
सारे देशाध्यक्ष मिल,
गिरा दें दीवारे।।१७४।।
तोड़ दें मानव स्व-राजा निर्मित दीवारें।।१७५।।
धरती पर एक शासन।।१७६।।
सब पाएं उन्मुक्त हक।।१७७।।
जीने, खाने, रहने, का हक।।१७८।।
छोटी धरती पर छोटी गन्दी गलियां,
सारी की सारी जाएं मिट।।१७९।।
कई कई हुए चिन्तक।
अधूरे हैं उनके चिन्तन।।१८०।।
तुम बड़े हो के,
चिन्तक चिन्तन पे करो चिन्तन।।१८१।।
कांट का अज्ञेयवाद
आकार, रूप, देशादि रहित
वस्तु सत्य है अलग,
छोटा सा कैमरा….भौतिकी,
कांट चिन्तन पर पोतता घोर कालिमा।।१८२।।
क्षण क्षण परिवर्तन,
यही है बस जीवन।
बुद्ध, लाकादि चिन्तन,
स्मृति भूत की,
कल्पना भविष्य की,
असत्यतम सिद्ध करती।।१८३।।
‘‘हर कुछ ब्रह्म’’
शंकर, विवेकानन्द, मानना,
घोषित करना,
कितना कितना बचपना?
जब हर कुछ ब्रह्म
फिर घोषणाकर्ता कौन?
क्यों?
कहां?।।१८४।।
विकासवाद,
डार्विन का हो…हेगल का हो,
विकास कड़ी,
विकास आधार की नहीं कोई बात।
विकास का होना…महत्व हीन।
विकास का करना…महत्व पूर्ण।।१८५।।
सारे वाद, सारे विवाद, सारे मत,
छोटे-रहकर-मत देखो!
बड़े बड़े तुम हो…सच।।१८६।।
मैं… आदमी बड़ा हूं यह लिखता।
तुम आदमी बड़े हो यह…पढ़ते।।१८७।।
यह लिखा…नहीं पूरा।।१८८।।
लिखा पूरा हो जाए,
आदमी ही मर जाए।।१८९।।
आदमी है जिन्दा…
कोई लिखा नहीं पूरा।।१९०।।
आयाम अनन्त अंश अंश अन्त…,
सर्वांश अनन्त….,
हर चिन्तन सीमित।।१९१।।
अगाओ असीमित…
अनथक नप नप अनप,
अगाओ थम।।१९२।।
दुहरो मत।।१९३।।
दुहरना है मरण।।१९४।।
पर दुहरना है मरण से भी बदतर।।१९५।।
कृष्ण, राम, ईसा, मार्किम, माओ,
नानक, बुद्ध, महावीर, गान्धी,
जरस्थुस्त, मुहम्मद…पूजना….,
पर दुहरन है।
मरण बदतर है।।१९६।।
तुम हर पल नव एक हो।।१९७।।
नव एका आदरम्।।१९८।।
अगाओ थम्।।१९९।।
मानने का अन्धापन।।२००।।
गलत मानने का बहरा पन भी।।२०१।।
तुम्हारे लिए नहीं।
स्वस्थ….सशक्त हो तुम…
आदमी….आदमी….तुम आजादतम्।
अगाओ थम्।।२०२।।
लौटो आदमी तक।।२०३।।
लौटते ही….,
तुम्हारी जिन्दगी…,
शाम होते ही…,
सुबह भोगेगी।।२०४।।
पद, उपाधि,….नाम,… जुड़े उत्तम हैं।।२०५।।
कांटे मध्यम हैं।।२०६।।
घेरे निम्नतम हैं।।२०७।।
लौह जंजीर कमजोर है।।२०८।।
चांदी जंजीर कुछ है मजबूत।।२०९।।
स्वर्ण जंजीर है मजबूत।।२१०।।
रूढ़ि-रस्म जंजीर…बहुत है मजबूत।।२११।।
रिश्ते नाते जंजीर..बहुत-बहुत है मजबूत।।२१२।।
जंजीर क्यों।।२१३।।
अजंजीरी जब हो तुम।।२१४।।
अगाओ थम्।।२१५।।
चलना है क्यों?।।२१६।।
हटना है क्यों?।।२१७।।
खुद तक पहुंचने के लिए।।२१८।।
खुद कौन?।।२१९।।
आदमी।।२२०।।
आदमी कौन?।।२२१।।
तुम।।२२२।।
तुम कौन?।।२२३।।
‘‘मैं’’।।२२४।।
जैसे तुम ‘‘मैं’’।।२२५।।
ऐसे हर ‘‘मैं’’।।२२६।।
यही धरम।।२२७।।
यही करम।।२२८।।
यही अमरम्।।२२९।।
अगाओ थम्।।२३०।।
भरम भटकन।।२३१।।
सच एक।।२३२।।
असच एक।।२३३।।
झूठ एक।।२३४।।
सच, असच तक ठीक।।२३५।।
झूठ गलत।।२३६।।
असच…न झूठ न सच।।२३७।।
अध्यात्म सच।।२३८।।
अनाध्यात्म झूठ।।२३९।।
‘‘भौतिक-वस्तु’’ असच।।२४०।।
आत्म में आत्म।।२४१।।
आत्म सा आत्म।।२४२।।
आत्म का आत्म।।२४३।।
आत्म ही आत्म।।२४४।।
आत्म।।२४५।।
बाधाएं।।२४६।।
आत्म-परमात्मा।।२४७।।
परमात्मा-परमात्मा।।२४८।।
परमात्मा।।२४९।।
अगाओ थम्।।२५०।।
एक साधक। खूब किया तप। सत्य दर्शन। प्र्रथम परत चीरी। फिर तप। द्वितीय परत चीरी। फिर तप। तृतीय परत चीरी। फिर तप। चतुर्थ परत चीरी। फिर तप। पांचवी परत चीरी। फिर तप। छठी परत चीरी। फिर तप… अन्तिम परत। फिर तप…तप…तप। अन्तिम परत चीरी…आश्चर्यतम्। कुछ न हुआ। वही था सच। वही था साधक। वहीं थी पहुंच। साधक सन्तुष्टतम।।२५२।।
स्व घोषित भगवान- दयनीयतम। स्व घोषित पैंगम्बर- दयनीतम। पर घोषित भगवान- आदमी। पर भगवान घोषणा कर्ता…. दयनीयतम दयनीयतम। तुम भगवान बनने के लिए पैदा नहीं हुए। तुम पैगम्बर बनने के लिए पैदा नहीं हुए। तुम भगवान बनाने के लिए पैदा नहीं हुए। ये सारे के सारे भटकाव हैं। तुम….बस ‘‘तुम’’ होने के लिए पैदा हुए हो।।२५२।।
’’महाजनः गतः येन स पन्थाः’’ मूर्खतापूर्ण बात है। नकल और अकल एक दूसरे के दुश्मन हैं। कोई महाजन दूसरे महाजन के जूते पहन कर नहीं चला। यदि महाजन महाजनों के कदमों पर चलता तो दुनियां में बस एक ही महाजन होता। पर यह सत्य नहीं। अतः महापुरुषों के कदमों पर चलना मूर्खता है। मानव गति के असंख्य आयाम हैं। हर महापुरुष एक एक…आयाम चला है। तुम…तुम हो, महापुरुष नहीं। तुम्हारा आयाम तुम्हारा है। उसी में प्रगति करो। महापुरुषों के कदम तुम्हारी मदद को हैं बस।।२५३।।
मत मनाओ जन्म दिवस। खुद का या दूसरे का। तुम पैदा नहीं हुए हो…। पैदा होना बस बाह्य परिवर्तन है। बाह्य परिवर्तन तो तुम में हर पल है। हरपल जन्म दिवस है तुम्हारा।।२५४।।
आइंस्टिन…आजाद भगवान भय से। पर पहुंच बस प्रकाश तक। प्रकाश है मोटी बात, सूक्ष्म बात है वीलम। सूर्य का जलना मोटी बात, चिन्गारी सूक्ष्म बात।
लम्बाई…चौड़ाई…गहराई….तीन आयाम….समय बेशक है अयाम…पर समय चौथा अयाम….आइंस्टीनी भटकाव। लम्बाई चौड़ाई गहराई यथार्थ से उतरे काल्पनिक, पैमाने…समय…काल्पनिक से अवतरित काल्पनिक पैमाना। गहराई रखकर नाप..समय रखकर समय नाप नहीं। समय बेशक अयाम…पर चौथा आयाम नहीं…स्वतन्त्र है। लम्बाई…चौड़ाई…गहराई से।।२५५।।
प्रकाश तो आरम्भ है। बहुत मोटा है। इससे कम पतला है चिन्तन अ, फिर चिन्तन ब, फिर चिन्तन स। चिन्तन अ सहज क्रियण गति। चिन्तन ब असहज क्रियण गति। चिन्तन स अक्रियण गति। इसके बाद है वीलम… वीलम… वीलम।।।२५६।।
प्रकाश… समय… सबम्ध… केवल कल्पनाएं। समय वह समय नहीं जो घड़ी की उपज है। घड़ी समय शून्य से उपजाती। बड़ों बड़ों को भटकाती। समय….कहां है? समय है कहीं नहीं। अन्त आरम्भ हीन है।।२५७।।
मानना है समय….मानने से मानना है अइंस्टीन चिन्तन।।२५८।।
गणित का ‘‘एक’’ सबसे बड़ा झूठ है। यह एक कई अनन्त है। यथार्थ में…एक नहीं। उल्टा चलो….१/२ १/४ १/८ ….. १/ड्ड तक से एक अनन्त। या १/३ १/६ १/२….. १/ड्ड तक से बड़ा धोखा है ’’एक’’।।२५९।।
अंश…दशमलवाशादि…बस व्यवहार गणित की बातें हैं। यथार्थ गणित की तुलना में गप्प हैं।।२६०।।
साम्यवाद अस्सी प्रतिशत से अधिक पूंजीवाद है तथा पूंजीवाद अस्सी प्रतिशत से अधिक साम्यवाद है। झगड़ा जल को पानी, पानी को जल कहने भर का है।।२६१।।
तुम अस्सी प्रतिशत से अधिक हिन्दू, मुसलमान, ईसाई आदि एक साथ हो। सही में एक हो। गलतियों में अलग। गलतियां छोड़ सारे बस एक हो जाओ।।२६२।।
हर कोई अपना पहचानता है। तुम बाहर पहचानने का प्रयास मत करो। हिन्दु, मुसलमान, इसाई आदि बाहरी हैं। अपने घर लौटो। अपना घर पहचानो। उसमें यह बाहर तो है, इससे कहीं अधिक भी कई कुछ है।।२६३।।
तुम आनन्द में थे, झूठ बात है। तुम आनन्द पाओगे, झूठ बात है। जो आनन्द में नहीं है वे उपरोक्त दोनों झूठों में भटकते हैं। सच बात है तुम आनन्द में हो।।२६४।।
‘‘थे’’ और ‘‘रहोगे’’ में मत भटको ‘‘हो’’ में ठहर जाओ।।२६५।।
तन से टूटना, तन से अलग होना निम्न साधना है। इसका प्रयास मत करो। उच्च साधना है तन को चैतन्यता से सम आर्पूत होना। मानवीय साधना का उच्चतम सोपान है।।२६६।।
गढ़े हुए भगवान मार्ग में आई खन्दकें हैं। खन्दकों में मत गिरो। गढ़े हुए भगवान….गठन कर्ताओं का भी भला नहीं कर सके। उधारी भगवान मत पूजो। उधारी देवता मत पूजो।।२६७।।
पूजना चाहते हो तो स्व देवता पहचानो। स्व देवता तुम्हारा अगाओ के निकटतम है। अगाओ नहीं है तुम्हारा स्व देवता। अगाओ मेरा स्व देवता है। तुम्हारे लिए अगाओ भी उधारी देवता है। अगाओ शब्द सीमा से बाहर है। जो कुछ वह है सच्चा देवता।।२६८।।
अज्ञान अन्धेरे मत ओढ़ो। अज्ञान ओढ़ना मरण क्षेत्र में भटकना है। ज्ञान ओढ़ना नहीं पड़ता वह तो ओढ़ने छोड़ कर खुलना है, उन्मुक्त होना है।।२६९।।
घोर पतन का रास्ता है बेहकदार बने पाने की कोशिश करना। बेहकदार को हक देने के कानून मूर्खों के तथा राजनीतिज्ञों के जाहिल मानसों की उपज है। इनसे सावधान। आज ये कानून देंगे, कल तुम्हें रखा जाएंगे।।२७०।।
चतुर ईमानदारों ने ईमानदारी का सबसे अधिक दीवाला निकाला है। चतुराई का ईमानदारी से कोई रिश्ता दूर का भी नहीं है। चतुराई का अर्थ है टेढ़ापन, जो कि बेईमानी का सबसे बड़ा हथियार है।।२७१।।
जिन कौमों के देवता ठहर गए तथा जो कौमें देवताओं पर ठहर गईं है वे सारी कौमें मुर्दा हैं।।२७२।।
देवताओं के पैरों पर झुककर खुद को अन्धा करने से बेहतर है उनके कन्धों पर सवार होकर और आगे दूर देखना।।२७३।।
पहाड़ियों की तरह ऊंचे बनो। दूर रहने पर भी लोगों के पास दिखो।।२७४।।
आकार का आरम्भ है अव्यक्त। अन्त है अव्यक्त। आकार नहीं है अव्यक्त; अतः लम्बाई, चौड़ाई, गहराई नहीं अव्यक्त। समय का आरम्भ है अव्यक्त। समय का अन्त है अव्यक्त। समय है अव्यक्त। आकार नहीं मानस उपज। समय है मानस उपज। मानस ग्रहणीत… मानस अनउपजित में व्यक्त सबम्ध जोड़ना..नासमझी भर है।।२७५।।
अज्ञेय कुछ नहीं है। अज्ञान ही अज्ञेय का जन्म दाता है।।२७६।।
‘‘क्या विज्ञान’’ से सूक्ष्म है ‘‘क्यों विज्ञान’’। दुनियां में अनेकानेक भूलों का कारण ‘‘क्या विज्ञान’’ को ‘‘क्यों विज्ञान’’ से अधिक महत्व दिया जाता है।।२७७।।
हर व्यतिक्रम…अन्त में समक्रम पर आता ही है। व्यतिक्रम है मानना, जिसे खत्म होना ही है। जो व्यतिक्रम पर रुकने की कोशिश करते हैं वे निम्न समान्य हैं।।२७८।।
उपलब्धि = भोग+भोग निम्नादमी।
उपलब्धि = त्याग+त्याग निम्नादमी प्रगति उपयोगी।
उपलब्धि = त्याग+भोग (समुचित सामंजस्य) ‘‘आदमी’’।।२७९।।
१/अज्ञान = आनन्द,
अज्ञान अनन्त = आनन्द शून्य।
अज्ञान शून्य = आनन्द अनन्त।।२८०।।
ज्ञान ड्ड आनन्द = ज्ञान अनन्त, आनन्द अनन्त।।२८१।।
अस्थाई हेतु जीवन यापन = एक जिन्दगी कई मरण ।।२८२।।
मरण चक्र = पुत्त वित्त यश पुत्त वित्त यश।।२८३।।
जीवन चक्र = स्व स्व स्व।।२८४।।
नमाज टूटने पर दुःख होता है जिसे उससे बेहतर वो है जो नमाज पढ़ता ही नहीं है। बन्धन ओढ़ने से बन्धन मुक्त होना बेहतर है।।२८५।।
पूजा नमाज बन्धन नहीं है। इनसे बन्धन आदमी का मरण है।।२८६।।
सारे धर्म छायाएं हैं। तुम छाया नहीं हो।।२८७।।
जब तुम रह जाते हो नमाज, पूजा के लिए तब नमाज पूजा मर जाते हैं और तुम भी।।२८८।।
आदमी ही हो जाओ तुम। तब तुम हिन्दू भी मुसलमान भी, इसाई भी, और सब भी हो जाओगे।।२८९।।
आदमी ही होना बेहतर है मुसलमान ही या हिन्दू ही या इसाई ही होने से; या कुछ ही होने से।।२९०।।
प्रचलित धर्म घातक हैं कि बाएं हाथ से आदमियत देते हैं दाहिने हाथ से आदमियत छीनते हैं।।२९१।।
हिन्दू मुसलमान इसाई आदि ज्यादा आदमियत छिने लोग हैं इसलिए दयनीय हैं। दयनीय नहीं हो तुम।।२९२।।
ज्ञान हीन भक्तियोग ज्ञानहीन कर्म योग मुर्खों की इजाद है। छलावे में मत आओ। ज्ञान हीन कितना भी चले अगाओ तक नहीं पहुंच सकता है।।२९३।। ज्ञानवान ही सरल रैखिक गति में प्रगति करता है।।२९४।।
बन्द वक्र गति ही केवल भक्ति केवल कर्म है।।२९५।।
ज्ञानी अवश्य ही कर्म योगी और भक्त होता है।।२९६।।
उतारने का हक रखते हुए पहनो।।२९७।।
प्रचलित धर्म उतारने का हक छीनकर पहनाते हैं यहां उनका दीवालियापन है।।२९८।।
‘‘बेकुबा’’ को भी उतारने का हक रखते हुए पहनो। याद रखो! अन्तिम सत्य नहीं है बेकुबा कि ‘‘आदमी’’ लिखता है इसे।।२९९।।
ज्ञान उपकरण बोथरे हैं जिनके वे ही हैं हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, आदि।।३००।।
स्व चैतन्यता से चैतन्य-धारित रखो ज्ञान उपकरण। अपने सारे झूठ कट जाएंगे। सारी पहनी उतारने फट जाएंगी। आदमी हो जाओगे तुम।।३०१।।
परम शान्ति – स्व जागृति – आनन्द – आनन्द।।३०२।।
‘‘अगाओ’’ व्यापक ‘इस-उस’ का व्यापक नाम है। सूक्ष्म नाम है ’’उहम’’ और एक दूसरा सूक्ष्म नाम है ‘‘नबवा’’।।३०३।।
आदमी हो कुरान पढ़ो, बाइबिल पढ़ो, वेद पुराण पढ़ो तब इन किताबों को सही सही जान सकोगे।।३०४।।
‘‘हिन्दुत्व’’ नहीं है वो, जो जीते हैं हिन्दू। मुसलमानियत नहीं है वो, जो जीते हैं मुसलमान। ईसाइयत नहीं है वो, जो जीते हैं ईसार्ई आदि। बस एक तुम आदमी भर हिन्दुत्व, मुसलमानियत, ईसाइयत एक साथ जीने के समर्थ हो।।३०५।।
आदमी नहीं तुम्हारा जन्म का धर्म। जन्म धर्म तुम्हारा बचपन भोला-भाला है।।३०६।।
आदमी धर्म है तुम्हारा परिपक्वावस्था का जो परिष्कृत बचपन भी है।।३०७।।
मन्दिर, मसजिद, गिरजे, गुरुद्वारे आदि बदतर शराब खानें हैं।।३०८।।
शराब खाने में शराब पीता है जो कुछ देर शराब का असर तन के आवेग रूप में पाता है, फिर सामान्य हो जाता है। बदतर शराब खाने में मानसिक शराब पीता है, उम्र भर को मानसिक अपाहिज हो जाता है। प्रचलित धर्म शराब हर व्हिस्की, हर वाईन, हर ब्राण्डी से ज्यादा घातक है। आदमी हो तुम न मानस न तन शराबी करो।।३०९।।
एक बौना आदमी अपनी बाहों धर्म आकाश सहेजना चाहता है, पर कभी सहज नहीं पाता है। बौनापन छोड़े बिना यह सम्भव कैसे है? हिन्दु, मुसलमान, ईसाई आदि बौनापन है। बौने नहीं हो तुम…आदमी हो…धर्म आकाश सहेज सकते हो।।३१०।।
गुनाहगार नहीं हो तुम। गुनाहगार वह होता है जिसका आस्तित्व गुनाह के कारण हो। ऐसा कोई आस्तित्व हो ही नहीं सकता। गुनाह तो अस्थाई दौर है। अंश गुनाहगार को सर्व गुनाहगार न समझो। गुनाहगार नहीं हो तुम।
धर्म आदमी के लिए है, या धर्म के लिए आदमी है? बड़ा महत्वपूर्ण प्रश्न है। सरल उत्तर है- एक कौन है आदमी या धर्म? उत्तर है आदमी है एक, धर्म है अनेक। बस आदमी धर्म के लिए नहीं हो सकता, धर्म ही है आदमी के लिए। बिलकुल उसी तरह जिस तरह अनेक सब्जियों के लिए आदमी नहीं होता, सब्जियां होती हैं आदमी के लिए। धर्म सब्जी है क्या? बेशक प्रचलित धर्म सब्जियां हैं, पर दिमाग के लिए।।३११।।
अल्लाह, ओ३म्, यहोबा, गॉड़, अगाओ…एक बार मिले…और ये शब्द चैतन्य आदमी पर हंसने लगे कि आदमी शब्दों से भी मूर्ख है।।३१२।।
’’यह…वह’’ एक बार सोचने लगा, कितना भटक रहा है मुझे अल्लाह पुकारने वाला; मुझे यहोबा, गॉड, ओ३म्, अगाओ पुकारने वाला; यह नहीं हूं मैं ‘‘यह-वह’’ हूं मैं।।३१३।।
किस लिए मिली अक्ल आदमी को। इसलिए मिली है कि आदमी तौल सके। क्या हलका है, क्या भारी….भारी याने अधिक महत्व पूर्ण आदमी ही तौलता है हर कुछ अक्ल के तराजू पर। कैसा बे अक्ल है आदमी खुद ही तुल जाता है जगह जगह। तुलता भी है तो हल्का सिद्ध होने के लिए। है न तमाशा?।।३१४।।
तुम हिन्दू हो नहीं हिन्दू बने हो, तुम मसलमान नहीं हो मुसलमान बने हो, तुम ईसाई नहीं हो ईसाई बने हो; पर तुम आदमी हो, आदमी बने नहीं हो।।३१५।।
काश तू हिन्दू न होता तो हिन्दू से बेहतर होता। काश तू मुसलमान न होता तो मुसलमानों से बेहतर होता। काश तू ईसाई न होता तो इसाई से बेहतर होता। क्यों आखिर क्यों तू बदतर हो गया? तेरा हक है बेहतर होना…. मैं तुम्हें तेरा हक फेर रहा हूं तू बेहतर हो जा आदमी हो जा।।३१६।।
उम्दा सशक्त रख दिमाग के पांव। इन पावों में ताकत है कि तू इनसे अल्लाह को गॉड को, यहोबा, भगवान आदि को नाप सकता है। केवल नाप ही नहीं सकता वरन नाप के छोटा भी कर सकता है। सच वे तेरे सबसे बड़े दुश्मन हैं जो तेरे दिमाग के पावो को जख्मी करते हैं, छोटा करते हैं। बीमार करते हैं। सावधान मौलवियों पण्डितों, पादरियों आदि से जो तुझे कुरान, पुराण, बाईबिल दिमाग पावो से रोदने नहीं देते और तुझे इन किताबों से छोटा रखते हैं।।३१७।।
तेरे आस्तित्व के समस्त ओष जिनकी संख्या का केवल अन्दाज भर है तथा कोष के कोष तक विज्ञान जाने की कोशिश में है। ये ओष जब एक लय में एक नृतन करते हैं तो वे बस एक रह जाते हैं और तब आनन्द उतरता है। तब सबसे समृद्ध होता है आदमी।।३१८।।
यह बाइबिल तुम्हारी नहीं, यह कुरान तुम्हारा नहीं, ये गीता पुराण तुम्हारे गीता पुराण नहीं। ये सबके सब दूसरे के हैं। तुम अपनी बाइबिल लिखो, तुम्हारे लिए वह सर्वोतम होगी…तुम अपना कुरान लिखो, तुम्हारे लिए वह सर्वोतम होगा। तुम अपने गीता-पुराण लिखो तुम्हारे लिए वह सर्वोतम होगें।।३१९।।
धरती एक अन्तरिक्ष रथ छोटा सा चतुर्गति से गतित। आकाशगंगा-रथ कुछ बड़ा, ब्रह्माण्ड-रथ सवार सहजतः अनगिन गतित तुम। भौतिकी ये ‘रथ’ छोटे हैं। अध्यात्मिकी अगाओ ‘रथ’ से।।३२०।।
व्यक्ति मद जनता है दशानन। प्रजा मत जनता है प्रजानन।।३२१।।
रावण तन्त्र कहीं बेहतर है प्रजातन्त्र से। रावण तन्त्र की हत्या की राम ने।।३२२।।
प्रजातन्त्रा की हत्या तुम करो।।३२३।।
प्रज हो तुम! प्रति जन हो तुम! स्व हो तुम।।३२४।।
प्रजतन्त्र गढ़ो। प्रतिजन तन्त्र गढ़ो! स्व-तन्त्र गढ़ो।।३२५।।
तुम नहीं, न हो सकते प्रजा। तुम नहीं, न हो सकते जन। तुम नहीं, हो सकते लोक।।३२६।।
प्रजातन्त्र, जनतन्त्र, लोकतन्त्र दमघोंटू जहर भरे लबादे हैं तुम्हारा दम घोंट रहे! इन्हें उतारो! जला दो सदा के लिए।।३२७।।
स्व से समविधान लिखो कि हर प्रज भी स्व है।।३२८।।
प्रजा से कुछ भी प्रारम्भ नहीं हो सकता। प्रजानन कोटि गुना विकृत दशानन है। क्या तुम्हें नहीं दिखते कमाण्डो, हवाई सफर, भोज, महल रहते गोल-मटोल, थुलथुल, चिकने-चुपड़े…सांसद, मन्त्री, प्रधान, याने प्रजानन?।।३२९।।
प्रजातन्त्र की हत्या करते ही प्रजाननों की हत्या हो जाएगी।।३३०।।
प्रजातन्त्र का विकल्प है प्रति-जन-तन्त्र या प्रज-तन्त्र या स्व-तन्त्र।।३३१।।
न्याय पालिका व्यवस्था प्रजतन्त्रा आधारित है, प्रशासन व्यवस्था प्रजतन्त्र आधारित है, स्कूल कालेजों की शिक्षा-आकलन व्यवस्था प्रजतन्त्र आधारित है। ये व्यवस्थाएं प्रजतन्त्र नहीं हैं पर प्रजातन्त्र से बेहतर हैं।।३३२।।
दीमक व्यवस्था, मधुमक्खी व्यवस्था, चींटी व्यवस्था आदि सहज प्रजतन्त्र व्यवस्था हैं। इनमें विवेक समाविष्टि प्रजतन्त्र व्यवस्था होगी।।३३३।।
प्रजातन्त्र शासन का विकृत तम रूप है। क्योंकि प्रजा से सर्वाधिक हटकर है।।३३४।।
इतिहास प्रजातन्त्र ने नहीं प्रजतन्त्र ने लिखा है। ब्रूनो, गैलीलियो, स्पिनोजा ये सभी प्रज थे। गांधी, दयानन्द, मीरा भी प्रज थे। ये उन्नत प्रज थे। ये प्रजा के मतों के आधार पर श्रेष्ठ नहीं थे। श्रेष्ठता के कारण इन्हें मत मिले।
गांधी का ब्रह्म नहीं था ब्रह्म, दयानन्द का ब्रह्म नहीं था ब्रह्म, कबीर का ब्रह्म नहीं था ब्रह्म, नानक का ब्रह्म नहीं था ब्रह्म, हजरत का अल्लाह नहीं था अल्लाह, ईशु का यहोबा नहीं था यहोबा, शंकराचार्य का ब्रह्म नहीं था ब्रह्म, कुमारिल का ब्रह्म नहीं था ब्रह्म, यास्क का ब्रह्म नहीं था ब्रह्म, वशिष्ठ का ब्रह्म नहीं था ब्रह्म, अगर यह ब्रह्म, अल्लाह, यहोबा होता तो ब्रह्म, अल्लाह, यहोबा सदा के लिए मर जाता। पर जिन्दा है ब्रह्म, अल्लाह या यहोबा। सारे लोगों ने उसकी मतलबों को समझा है ब्रह्म। अगाओ है मेरा ब्रह्म। अगाओ नहीं है तुम्हारा ब्रह्म। यहां तक की मोक्षावस्था में भी व्यक्तियों का एक ब्रह्म नहीं होता। यदि होता तो सृष्टि कब की समाप्त होती या सृष्टि होती ही नहीं।।३३४।।
स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)