‘‘अंहस-प्रबंधन’’

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विश्व में सारी त्राुटियों, सारी बीमारियों, सारी कमजोरियों का कारण प्रज्ञा-अपराध् है। प्रज्ञा का घटिया में लिथड़ जाना ही प्रज्ञा-अपराध् है। सारी की सारी त्राुटियों और रोगों का मूल कारण पाप हैं जो सबसे पहले प्रज्ञा-विशेष से पैदा होता है। ‘‘सहं’’ का सुकृत रूप है स्व तथा अहं का विकृत रूप है अहंस। अपराध् का अर्थ घटिया से लगाव है। घटिया से जिसका लगाव होता है वह घटिया ही पंसद करता है इसलिए घटिया काम ही करता है उसकी घटिया करने की आदत ही बन जाया करती है।

इस समस्या का निदान क्या है? वर्तमान युग में शून्य त्राुटि विद्या-उपकरण जन्य बना दी गई हैं, अतः प्रायः इसकी प्राप्ति नहीं होती। अंतरिक्षयान गड़बड़ी से होने वाली मृत्युएं इस तथ्य की गवाह है कि मानव के प्रज्ञा-साध् हुए बिना व्यवस्था शून्य त्राुटि नहीं हो सकती है। ‘त्रुटिलोक’ अंधकार लोक है जो परमात्मा के ‘‘आत्म-हना’’ या ‘‘आत्म त्राुटि’’ लोगों के लिये बनाया है।

1. देंवों को देव है अग्नि! अग्नि अग्र्रणी है। अग्नि उर्ध्वगवी है। अग्नि ज्योतिरग्रा हैं। अग्नि यजन देव है। अग्नि गीता लियायमान नहीं होता है। हम इन अग्नि गुणों को धरण करें। अहं को इन गुणों से पूर्ण कर लें। हमारे कार्यो रचनाओं मंे क्रमशः शून्य त्राुटि उतरती यानि जाऐगी।

2. जीर्णता-शीर्णता-त्राुटियों को मूल कारण है। जीर्ण मशीनें जीर्ण उत्पादन शीर्ण मशीने शीर्ष उत्पादन। जीर्णशीर्ण मशीनें, जीर्ण, शीर्ष उत्पादन। जीर्ण-शीर्ष मशीनें ही नहीं जीर्ण शीर्ण व्यवस्था तथा जीर्ण शीर्ण मानव भी उत्पादन को त्राुटि-पूर्ण या चोंपट करते है। जीर्ण शीर्ण का दूूसरा नाम जर है। जर व्यवस्था का एक ओर दोष यह होता है कि वह परिवर्तन सह नहीं सकती। उघोग की जिंदगी परिवर्तन प्रबंध्न है। इसलिऐ अहंस प्रबंध्न केा दूसरा मंत्रा हैः-‘‘अजर’’।

3. रसः- अनअपेक्षित विजातीय से रसण शून्य त्राुटि का तीसरा तत्व है।

4. तपिष्ठैः- अत्यंत तप जनक प्रभावों द्वारा व्यवस्था को शून्य त्राुटि किया जाता है। इवट लक्ष्यों को पूर्णतः हठ समर्पण का नाम तपिष्ट होना है। इवट लक्ष्यों या अर्हताओं पर सुख-दुख, गर्मी-सर्दी, मान-अपमान, आदि की परवाह किये बगैर, हठ रहना अहंस के प्रबंध्न का चौथा महत्वपूर्ण तथ्य है। तन के द्वारा प्रज्ञा अपराध् का शमन होता है। तप ‘‘प्रज्ञा साध्’’ होने की एक महत्वपूर्ण शर्त है।

5. यविष्ठः- युवाओं से अध्कि युवा रहने वाला व्यक्ति यविष्ठ है। नव्य अहंस प्रबंध्न का पांचग तल है।

6. रीषतः- ईशन वह शांति है जिसके सहारे कोई भी कार्य प्रबंध्न सहज सरल संचालित होता है। ईरान शांति के पथ में बाध शक्तियों का नाम रीषतः है। इससे सहज सरल कार्य में निरर्थ बाध पड़ती है। त्रि एषणा ग्रस्त व्यक्ति सहल ईरान के स्यान पर ऐंचातानी करते रहते है।

7. प्रति सम दहः- यह अंहस् प्रबंधन का अति महत्वपूर्ण तत्व है। इसके अनुसार हर क्षेत्र के त्रुटि कारक को एक एक कर के जला देना चाहिये। त्रुटि कारक इक्कठे दूर करने की सकल्पना ही एक बड़ी त्राुटि है। प्रति स्म दह सिद्वांत में पच्चीस पछहतर सिद्वांत का उपयोग कर लेना चाहिए।इस प्रकार अग्नि गुण भाव, अजर, रस, तपिष्ठ, यविष्ठ, रीषतः, प्रतिस्मः, दह से सात मूल त्राुटि निराकरण कर देते है।

स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रियपी.एच.डी.(वेद), एम.ए.(आठ विषय), सत्यार्थ शास्त्री, बी.ई., एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)

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