१२ समावर्तन संस्कार June 15, 2019 By Arun Aryaveer परिणीत युवक, परिणीता युवती, नव्य-नव्य युवक, नव्या-नव्या युवती जो ब्रह्ममय, वेदमय उदात्त विचारों के आधुनिकतम सन्दर्भों के आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक विज्ञानों में निष्णांत हों उनके लिए यह संस्कार किया जाता है। 24 वर्ष के वसु ब्रह्मचारी अथवा 36 वर्ष के रुद्र ब्रह्मचारी या 48 वर्ष के आदित्य ब्रह्मचारी जब सांगोपांग वेदविद्या, उत्तम शिक्षा, और पदार्थ विज्ञान को पूर्ण रीति से प्राप्त होके विद्याध्ययन समाप्त करके घर लौटता था तब आचार्य उसे उपदेश देता था कि तू सत्य को कभी न छोड़ना, धर्म का आचरण सदैव करते रहना, स्वाध्याय में प्रमाद कभी न करना, इत्यादि। आचार्य का आश्रम द्वितीय गर्भ है जिसमें विद्या-अर्थी का विद्या पठन होता है। समावर्तन संस्कार द्वारा विद्यार्थी संसार में सहजतः सरलतापूर्वक दूसरा जन्म लेता है। मानव का द्विज नाम इसी सन्दर्भ में है। ब्रह्मचारी विद्यार्थी भिक्षाटन-अतिथि व्यवस्था द्वारा समाज के परिवारों से परिचित रहता है। समावर्तन संस्कार करानेवाले स्नातक तीन प्रकार के होते हैं- 1) विद्या-स्नातक :- विद्या समाप्त कर बिना विवाह आजीविका कार्य। 2) व्रत-स्नातक :- विवाह करके भी विद्याध्ययन जारी रखनेवाला। 3) विद्याव्रत स्नातक :- विवाहबद्ध आजीविकामय जीवन जीनेवाला अर्थात् विद्या अध्ययन एवं ब्रह्मचर्य व्रत की भी समाप्ति। ब्रह्मचर्य, विद्याव्रत-सिद्ध, सांगोपांग वेद विद्या, उत्तम शिक्षा, उपवेद (विद) ज्ञान या विद्या का सत्तार्थ, लाभार्थ, उपयोगार्थ, विचारार्थ उपयोग ज्ञान तथा वर्तमान विज्ञान को पूर्ण रूप से प्राप्त कर ले तब उस का पठन-समाप्ति पर घर में आना अर्थात् समाज में पुनर्जन्म या द्विज होना समावर्तन संस्कार कहलाता है। इसमें अभिप्राय प्राप्त ज्ञान के मान्य जनों तथा रिश्तेदारों के मध्य कल्याण कारक सम्प्रयोग हैं। गणमान्य माता-पिता, प्रतिष्ठित समाज पुरुषों के आगमन पश्चात् स्नातक को 1. आसन, 2. पाद्यम्- पग धोने हेतु जल, 3. अर्घ्यम्- मुख धोने हेतु जल, 4. आचमन हेतु जल, 5. मधुपर्क- दही-मलाई-शहद मिलाकर देना। यह स्वागत विधि है। समावर्तनी के निम्न गुण हैं- 1) सागर के समान गम्भीर, 2) ब्रह्म-सिद्ध, 3) तप-सिद्ध, 4) महा-तप करता, 5) वेद पठन-सिद्ध, 6) शुभ गुण-कर्म-स्वभाव से प्रकाशमान, 7) नव्य-नव्य, 8) परिवीत अर्थात् ज्ञान ओढ़ लिया है जिसने और 9) सुमनस। समावर्तन संस्कार में त्रिपाश भक्तिभाव से ब्रह्मचारी मेखलादि का त्याग कर अंग-अंग में ब्रह्म पवित्रता का भाव रखता है। वह सप्तेन्द्रियों के त्रि रूपों में ब्रह्म परितृप्त होता है तथा पंचेन्द्रियों में भी त्रि-सिद्ध होता है। त्रि-सप्त, त्रि-पंच सिद्ध वह द्वादशी होता है। ऐसा समावर्तनी युवक समावर्तनी युवती से विवाह कर अस्तित्व पहचानमय श्रेष्ठ जीवन का प्रारम्भ करता है। इनका द्वादशी रूप निम्न प्रकार से है। क्र. अंग देव ऋषि ब्रह्म ओऽम् नासिकागन्ध है ब्रह्म-लयम् गौतम पृथिवी ब्रह्मओऽम् रसनारस है ब्रह्म-लयम् इष्टतम आपो ब्रह्मओऽम् चक्षुःरूप है ब्रह्म-लयम् जमदग्नि अग्नि ब्रह्मओऽम् त्वक्स्पर्श है ब्रह्म-लयम् रोमश वरुण ब्रह्मओऽम् श्रोत्रम्शब्द है ब्रह्म-लयम् विश्वामित्र आकाश ब्रह्मओऽम् प्राणःप्राणन है ब्रह्म-लयम् विश्वामित्र खं ब्रह्मओऽम् वाक्वाकन् है ब्रह्म-लयम् वशिष्ठ ऋचा ब्रह्म यह त्रि-सप्त अवस्था है। ओऽम् मनःमनन है ब्रह्म-लयम् भरद्वाज वाजब्रह्मओऽम् बुद्धिःबोध है ब्रह्म-लयम् कण्व ध्येयतमओऽम् धीःध्यान है ब्रह्म-लयम् प्रस्कण्व एकम्ओऽम् स्वःस्व-आन है ब्रह्म-लयम् सच्चित स्वःओऽम् आत्माआत्मन् है ब्रह्म-लयम् आत्म आत्मा यह त्रि-पंच सिद्ध अवस्था है। द्वादशी अस्तित्व द्वादश परितृप्त द्वादश तर्पणमय दिव्य होता है। ऐसे पति-पत्नी 1 + 1 = 1 होते हैं। और आगे संस्कार योजना का नव जीवन के लिए विधान करते हैं। Leave a Reply Cancel replyYour email address will not be published. Required fields are marked *Comment * Name * Email * Website Save my name, email, and website in this browser for the next time I comment.