3/1. विज्ञान और अध्यात्म

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  पदार्थ संघीभूत शक्ति है। मानव संघीभूत चैतन्यता हैं । “संघीभूत शक्ति” पदार्थ की पदार्थ नहीं जानता है। संघीभूत चैतन्यता मानव की मानव जान सकता है। पदार्थ की संघीभूत शक्ति को जानना विज्ञान है। संघीभूत चैतन्यता को जानना अध्यात्म है। विज्ञान मानव की उन क्रियाओं का परिणाम है जो मानव भौंतिक शक्ति के अन्वेषण के लिए करता है। मानव की समस्त क्रियाएं इंगन हैं.. उसके स्वयं की ओर। समस्त क्रियाओं का उद्गम स्थल एक केन्द्रक है। इस केन्द्रक की एक संज्ञा हैं आत्मा। इस केन्द्रक तक केन्द्रीभूत होना ही अध्यात्म हैं।

       मानव के पास अध्यात्मिक होने के अतिरिक्त और कोई विकल्प ही नहीं है। मानव ही नहीं सृष्टि के प्राणीभर के पास एक ही विकल्प हैं केन्द्रक तक केन्द्रीभूत होना। हर प्राणी स्व-केन्द्रीत होने का प्रयास करता है। इस स्व-केन्द्रक के पथ में कई अस्थाई पड़ाव हैं इन पड़ावों पर कोई बहुत अधिक देर तक रुक जाता है, तो कोई बहुत कम देर तक रुकता है” अंतर यही है कि कोई स्थाई को अस्थाई जानता है कोई नहीं जानता है या कम कम जानता है। “स्वकेन्द्रक” एक सहज प्रवृत्ति है जो हर सांस लेने छोड़ने वाले प्राणी के साथ जुड़ी है।

       इस केन्द्रक को जानते ही मानव “सर्व केन्द्रक” तक जा पहुंचता हैं । “वह प्रकट होते ही साथ अनंत तक फैला हैं” सर्व केन्द्रक के फैलाव में फैलना ही अध्यात्म है। “इस को  देखने के लिये जरा गर्दन झुकानी पड़ती है।” केन्द्रक यह संघीभूत चैतन्यता का आधार है। यह केन्द्रक निश्चित है। पर एक स्वच्छ पर्व सा है।

              “दिल के आइने में है तस्वीरे यार

                   जब जरा गर्दन झुकाई देख ली ।

       परिशुद्ध स्वकेन्द्रण अवस्था में हर मानव समान होता है। अध्यात्म वही है जो मानव मानव को समता के एक उच्च स्तर पर स्थापित कर देता है। “संसार के महानतम पुरुष या महानतम नारी निन्यानवे प्रतिशत तुम्हारे समकक्ष है” इस सूक्ति में बड़ा गहन अर्थ निहित है.. यह जो एक प्रतिशित की दूरी है यह दूरी भी केन्द्रक में केन्द्रित होने की दूरी है.. यदि मानव स्व-केन्द्रक में केन्द्रित हो जाए तो वह शत प्रतिशित महानतम पुरुषों या नारियों के समकक्ष होता है। “जीवन के लक्ष्य साधन में सिद्ध, पुरातन, पुण्यवान महात्माओं के भीतर जो शक्ति-सामर्थ्य विद्यमान थी तुम्हारे भीतर भी वही शक्ति सामर्थ्य विद्यमान है।” 62 हर पल की समझदारी मानव की प्रगति को तीव्र करती है। स्व केन्द्रक के पथ की बाधा है.. दासता, रूढ़ियां, रस्में और अपने आप से अपने आप का भटक जाना। मानव इस भटकाव से वापस लौट आओ” आत्मन सभी प्रकार के दासत्व, पराधीनता और आत्म विस्मृति के मोह ग्रास में अपना उद्धार करके अन्तर्निहित सुप्त शक्ति को जागृत कर डालो.. आज जो दुःसाध्य या असम्भव सा जान पड़ता है वही निरंतर साधना और अभ्यास के द्वारा सुसाध्य और सम्भव हो जाएगा परन्तु इसके लिए चाहिए विराट उद्योग, अंनत आसीम धैर्य्य, अदम्य, अनन्त असीम उत्साह उद्यम और अध्यवसाय”।       

‘सम्प्रदाय’ जिन्हे भूल से धर्म की संज्ञा दे दी गई है.. इस अध्यात्म की छाया मात्र है। हिन्दु, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, जैन आदि आदि धर्म कुछ महापुरुषों के अध्यात्म की धाराएं है। ये समस्त धाराएं अपने अपने क्षेत्र में समान है। इन छायाओं से अध्यात्म का भान तो होता है पर अध्यात्म के सही स्वरूप का बोध नही होता है।

(~क्रमशः)

स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)

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