ईश्वर विषयक कुछ प्रश्न
१. किसी व्यक्ति का जीवन बिना ईश्वर को माने बिना उसकी उपासना किए अच्छी प्रकार से चल रहा है तो फिर ईश्वर को मानने व उसकी उपासना करने की आवश्यकता अपेक्षा ही क्या है ?
२. ईश्वर अपने भक्त के पापों बुरे कर्मों के दुःख रूप फलों को क्षमा नहीं करता तो फिर उसकी भक्ति करने का लाभ क्या है ?
३. संसार को बनाने, उसे चलाने से ईश्वर को क्या लाभ होता है ? यदि कोई लाभ नहीं होता है तो फिर क्यों बनाता है, चलाता है ?
४. ईश्वर सर्वज्ञ है, सर्वशक्तिमान् है तथा जीवों का हितैषी है तो फिर वह पापियों को (बुरे व्यक्तियों को) पाप करने से रोकता क्यों नहीं है ?
५. ईश्वर न्यायकारी है तो संसार में किसी को अंधा, लूला, लंगड़ा, कुरूप, निर्धन, निर्बल, निर्बुद्धि क्यों बनाता है ? और किसी को सुन्दर, पूर्णांग, धनवान, बलवान, विद्वान क्यों बनाता है ?
६. ईश्वर को न्यायकारी तथा दयालु दोनों गुणों वाला बताया गया है जब कि ये दोनों गुण एक-दूसरे के विरुद्ध हैं। यदि न्याय करे तो दण्ड मिले, यदि दया करे तो अन्यायी बन जाए ? इसका समाधान क्या हैं ?
७. क्या कुछ ऐसे गुण भी हैं जो ईश्वर में न हों ?
८. ईश्वर कोई वस्तु/द्रव्य/पदार्थ/चीज है ?
९. ईश्वर को सर्वव्यापक बताया गया है तो कागज के जलने, कपड़े के फटने, रोटी के चबाने, लकड़ी के छीलने, लोहे के पीटने पर वह भी जलता, फटता, चबाया, छीला जाता, पीटा जाता होगा ?
१०. ईश्वर पापों को क्षमा करता है ? यदि नहीं तो क्यों ? क्षमा कर दे तो क्या हानि होगी ?
११. ईश्वर कर्मों का फल तत्काल क्यों नहीं देता ? बाद में देरी से देवे तो मनुष्यों के मन में कर्मफल के विषय में शंका/अनास्था/अश्रद्धा/अविश्वास उत्पन्न होते हैं ?
१२. ईश्वर की उपासना करने वाले आस्तिक व्यक्ति संसार में दुःखी, दीन, हीन, निर्बल, निर्धन, पराधीन देखे जाते हैं, जबकि नास्तिक व्यक्ति सुखी, सम्पन्न, बलवान, स्वतंत्र देखे जाते हैं, ऐसा क्यों ?
१३. ईश्वर चेतन है तो ईंट, पत्थर, सोना, चांदी आदि जड़ पदार्थों में चेतनता (चलना, फिरना, हिलना, डुलना, इच्छा, प्रयत्न) आदि क्यों नहीं देखे जाते हैं ?
१४. ईश्वर स्वयं न हिलता हुआ अन्यों (संसार के पदार्थों को) कैसे हिलाता है ?
१५. क्या ईश्वर संसार में किसी स्थान विशेष में, किसी काल विशेष में, किसी समुदाय विशेष में, किसी जीव विशेष को उनका कल्याण करने के लिए और दुष्टों का नाश करने के लिए भेजता है ?
१६. क्या ईश्वर जीवों के भविष्य की बातों को जानता है कि वह कब, कहाँ, किसके साथ क्या करेगा ?
१७. ईश्वर सर्वज्ञ है, आनन्द स्वरूप है तथा सर्वव्यापक है इसलिए वह सभी जीवों के अन्दर भी है तो फिर सब जीव ईश्वर के सम्पर्क के कारण सर्वज्ञ, आनन्द की अनुभूति क्यों नहीं करते हैं ?
१८. ईश्वर सर्वव्यापक होने से शौचालय में विद्यमान मलमूत्र में भी उपस्थित है तो फिर उसे दुर्गन्ध की अनुभूति भी होती होगी ?
१९. क्या ईश्वर सब कुछ कर सकता है ? क्योंकि उसे सर्वशक्तिमान कहा गया है।
२०. क्या ईश्वर अपने भक्त उपासक के वश में भी हो जाता है ? अर्थात् जैसा भक्त चाहे वैसा ईश्वर करे, ऐसा भी होता है ?
२१. क्या ईश्वर की भक्ति, प्रार्थना, ध्यान, उपासना किन्हीं विशेष मंत्रों, सूत्रों, श्लोकों द्वारा ही की जा सकती है, अपनी भाषा में इच्छानुसार नहीं की जा सकती ?
२२. ईश्वर एक है किन्तु उसके रूप अनेक हैं क्या यह बात सत्य है ? अर्थात् एक ही ईश्वर ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, देवी आदि अनेक रूपों वाला है ?
२३. एक की बजाए अनेक ईश्वर क्यों न मान लिए जाएं ? ऐसा करने से सभी मत पन्थ सम्प्रदाय वाले भी सन्तुष्ट हो जाएंगे। सभी को एक मानने का असम्भव कार्य भी नहीं करना पड़ेगा।
२४. ईश्वर की प्रार्थना उपासना करने से क्या-क्या लाभ होते हैं ? और न करने से क्या-क्या हानियाँ होती है ?
२५. क्या ईश्वर कर्मफल देने में अन्य जीवों की सहायता लेता हैं ?
२६. क्या उपासना करने वाले व्यक्तियों को ईश्वर वास्तव में दिखाई देता है ?
२७. ईश्वर अपने उपासकों की रक्षा कैसे करता है ? उसकी रक्षा करने का तरीका, विधि, ढ़ंग क्या है ?
२८. क्या ईश्वर अपनी ही इच्छा से किसी व्यक्ति विशेष को धन, बल, प्रतिष्ठा, सम्मान, सफलता, सुख देता है ?
२९. किसी व्यक्ति ने ईश्वर का प्रत्यक्ष किया है, इस बात का पता कैसे लगाया जा सकता है ?
३०. क्या ईश्वर अपने भक्तों उपासकों से बातचीत भी करता है ? शंका-समाधान करता है ? निर्देश भी करता है ? प्रेरणा देता है ?