‘‘जियो तो ऐसे जियो’’-सुख नगरी के नागरिक
-भापा वचन
(१) परमात्मा कायनात और मानवता नियमों का रचयिता तथा पालनकर्ता होने से बेफिक्र है। जीवात्मा भी कायनात और मानवता नियमों के पालन से बेफिक्र हो सकता है इसके अतिरिक्त बेफिक्र हो जाने का और कोई रास्ता नहीं है। बेफिक्र होने के अन्य सारे रास्ते फिक्र साथ लेकर चलते हैं।
(२) परमात्मा फिकर नहीं करता है। वह शत-प्रतिशत बेफिक्र है। परमात्मा जीवात्मा की अपनी फिकर से कभी गंदा नहीं हो सकता है। यह मत सोचो कि वह हमारी फिकर लेगा। अपनी फिकर खुद करो।
(३) हर आदमी अपनी बोयी, अपनी खाद-पानी दी हुई, अपनी निंदाई की हुई, अपनी कीट बचाई फसल काटता है। बबूल की फसल बोने वाले लकड़ी या दातौन बेचेंगे, गरीब बनेंगे। काजू-बादाम की फसल बोनेवाले ठंडी छांह तो पाएंगे ही, बड़े व्यापार करेंगे, धनी बनेंगे। अपनी कमाई के हकदार तुम बनो।
(४) परमात्मा की आज्ञा है कि कर्म करते जियो। सबसे कम जीनेवाली टिड्डी भी कर्म करते जीती है तो आकाश की हवा पाती है। अगर वह कर्म न करे तो मिट्टी दबे ही मर जाए। परमातमा सबका कर्म देखता है तब कर्मानुसार ही फल देता है।
(५) महाजन बनना चाहते हो तो महाजनों के रास्ते पर चलो। अपनी पीठ दुहरी मत करो। जी हुजूरी का नाम चमचागिरी है। चमचागिार भिखारी होने का रास्ता है। सीधी रीढ़ व्यक्ति परमात्मा की पहली पसन्द है। परमात्मा की सारी साधनाएं सीधी रीढ़ स्थिति की जाती हैं। सीधी सधी रीढ़ साधक ही ब्रह्म कृपा के हकदार हैं।
(६) मानव की खुशी का राज मानवता, ज्ञान, मेहनत, धरती मां, सत्य, विश्व कल्याण भावों को धारण करते हुए जीने में है।
(अ) मानवता : जो हर मानव की आत्मा को सुख-दुःख में अपनी आत्मा के समान मानता है और उसके जूते अपने पैर पहनकर उससे व्यवहार करता है, वह मानवता देवी मां की अर्चना करता है। मानवता भावना शाश्वत नैतिक मूल्य है।
(ब) ज्ञान : ज्ञान के दो क्षेत्र हैं- १. भौतिक (बाहरी), २. आत्मिक (भीतरी)। जिस मानव को ज्ञान बन्धु के समान रास्ता दिखाता है वह खुशी से भरा रहता है।
(स) मेहनत : मेहनत नाम श्रम का है। आश्रम सतत लगातार श्रम को कहते हैं। जो जीवन के आरम्भ पच्चीस वर्ष ज्ञान प्राप्ति हेतु मेहनत (श्रम) करता है, अगले पच्चीस वर्ष अर्थ प्रप्ति हेतु मेहनत (कर्म) करता है, अगले पच्चीस वर्ष अनुभव बांटने के लिए मेहनत (सेवा) करता है, वही अन्तिम पच्चीस वर्ष परमात्मा गुणों का आनन्द भोगता है। मेहनत उससे बहनवत स्नेह करती हुई उसे खुशियों से भर देती है।
(द) धरती मां : जो मानव पृथ्वी आधार से जुड़ा दिन-रात, पक्ष, माह, वर्ष, ऋतु-ऋतु, पर्व-पर्व कायदे से जीवन जीता है वह धरती मां की गोद में उसकी ममता से सरोबार खुश रहता है।
(ई) सत्य : जो इन्सान सुख को सुख, दुःख को दुःख, नित्य को नित्य, अनित्य को अनित्य, जड़ को जड़, चैतन्य को चैतन्य समझता है और इनका घाल-मेल अपने जीवन में नहीं करता वह खुशी से सदैव भरा रहता है। सत्य उसका जीवनसाथी के समान सलाहकार रहता है।
स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)