सत्य प्रकाश कवितामृत 10 नवम समुल्लासः By admin - March 7, 2022 0 214 FacebookTwitterPinterestWhatsApp ओ३म्अथ नवम समुल्लासःअथ विद्याऽविद्याबन्धमोक्षविषयान् व्याख्यास्यामःविद्या और अविद्या रूपा, जो जाने इक साथ स्वरूपा।यह नर मृत्यु से तर जाता, सत्य ज्ञान से मुक्ति पाता।विद्यां चाऽविद्यां च यस्तद्वेदोभय सह।अविद्यया मृत्युं तीत्वां विद्ययाऽमृतमश्नुते।। -यजुः ० अ० ४० । मं० १४अनित्याशुचिदुः खानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या।। – योग द०, साधना पादे, सू० ५नश्वर जगत अनित्य सरीरा, नश्वर पृथिवी अगन समीरा।कार्य्य जगत जिसको हम देखें, सब अस्थिर जो वस्तु पेखें।नश्वर जग को जो थिर मानें, सदा रहेगा ऐसा जानें।दिव्य देह योगी जन पाएं, फिर वे मृत्यु मुख नहीं जाएं।इसका नाम अविद्या भाई, प्राणि मात्र को अति दुःख दाई।इसे अविद्या पहली जानो, महा दुःख का कारण मानो।द्वितीय अविद्या बुद्धि अपावन, मल के पाछे नर का धावन।काम कूपिका मलमय नारी, वाको माने मन में प्यारी।विषय वासना अति दुखदायिन, तृतीय अविद्या भीषण डाइन।परधन हरण चौर्य्य तस्करता, सुख निमित जो मानुष करता।तुरीय अविद्या अति दुख कारक, मानव के सगरे सुख हारक।लखे अनातम मँह जब आतम, प्रकृति को समझे परमातम।यही अविद्या चार प्रकारा, शोचनीय अति क्लेश अगारा।चार भान्ति वर्णन किया, दुख दायी अज्ञान।अब विद्या को वर्णिहूं, सुखदायी सज्ञान।।नश्वर को नश्वर जो जाने, नित को नित सुख को सुख माने।मलिनहुं देखे मलिन प्रवीना, आत्म रहित को आतम हीना।सातम को पुन सातम देखे, पावन वस्तु पावन पेखे।जो जैसा जग मांहि पदारथ, उसको वैसा लखे यथारथ।यह विद्या याही सद्ज्ञाना, सुख कारक दुख दारक नाना।अहो अविद्या कर्म उपासन, शुद्ध ज्ञान की सतत विनासन।बाह्याभ्यन्तर क्रिया विशेषा, इसमें नहीं विवेक निवेशा।ताँते मंत्र माँहि यह वरणा, ज्ञान कर्म बिन होय न तरणा।बिन सत्कर्म प्रभु की पूजा, मृत्यु तरण हित मार्गन दूजा।कर्म उपासन विद्या पावन, तीनहुं ते प्रभु मिले सुपावन।यह तीनों मुक्ति का द्वारा, मोक्ष मिले छूटे संसारा।मिथ्या भाषण पूजन मूरत, करें अपावन कारज धूरत।यह अज्ञान बंध का कारण, दुख दायक अरु आत्म प्रतारण।कर्मोपासन ज्ञान विहीना, क्षण भर भी हो सके न जीना।ज्ञान रु कर्म निरत यह मानस, छिन भर इन बिन रहे न मानस।सत भाषण आदिक बहु कर्मा, ताँते करत रहो नित धर्मा।मिथ्या भाषण आदिक कारज, कबहुं न करते उत्तम आरज।प्रश्न – किसको मुक्ति नहीं मिले, यह तो दें बतलाय।उत्तर – बद्धहुं मुक्ति नहीं मिले, बद्ध महा दुख पाय।।प्रश्न – कौन बद्ध है जगत में, क्यों नहीं मुक्ति पाय। कौन कर्म ते बद्ध नर, बंधन से छूट जाय।।उत्तर – पाप पंक में मग्न जो, जीव अति दुख पाय। जभी अविद्या दूर हो, तभी बंध छुट जाय।।प्रश्न – बंधरु मोक्ष स्वभाव से, होते हैं जग बीच। अथवा होय निमित्त से, मुक्ति जीवन मीच।।उत्तर – बंध मोक्ष नैमित्तिक कहिये, नहीं स्वभाव से इनको गहिये। यदि होते स्वभाविक भ्राता, बंध मोक्ष पुन छुट नहीं पाता।प्रश्न – ‘‘न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधकः। न मुमुक्षु र्न वै मुक्त इत्येषा परमार्थंता।’’ – गौडपादीय का०, प्र० २, कां० ३२माण्डूक्य उपनिषद में, ऐसा लिखा विधान।जीव वस्तुतः ब्रह्म है, मानें सब विद्वान।।नहीं निरोध नहीं जन्म न बंधा, नहीं मुक्ति नहीं माया फंधा।नहीं बंधन पुन कैसी मुक्ति, आर्ष जनों की ऐसी उक्ति।उत्तर – यह जो नये वेदान्ती, नहीं कछु इनको ज्ञान। प्राकृत ग्रंथों को पढ़ें, नहीं वेद विद्वान।।अल्प स्वरूप जीव को वरणा, आतम पर छावे आवरणा।पाप करे बंधन मँह फांसे, देह देह मँह जाय निवासे।सदा बंध से चाहे छूट, साधन कर मुक्ति रस लूटन।दुख से छूट मोक्ष पुन पाए, पार ब्रह्म की गोद समाए।प्रश्न – देह अरु अन्तःकरण के, सभी धर्म यह जान। पाप पुण्य से रहित है, आतम सदा समान।शीत उष्ण सब धर्म शरीरा, जीव कमल सम बिलसे नीरा।साक्षी मात्र जीव को मानो, दुख सुख देह धर्म को जानो।उत्तर – देह रु अन्तःकरण सब, जड़ हैं इन्हें न ज्ञान। दुख सुख शीत रु उष्ण का, राखें तनिक न भान।।चेतन को हों दुख सुख भाना, चेतन भोग भोगता नाना।जड़ प्राणन नहीं भूख पिपासा, खान पान प्राणी को आसा।।मन भी हर्ष रु शोक विहीना, हर्ष विषादे जीव विलीना।दुख सुख भोगे मन के द्वारा, मन साधन अरु जीव नियारा।बहिष्करण जिमि इन्द्रिय पंचक, सकल बाह्य विषयन का संचक।लखे सुने सब इनके द्वारा, आतम होवे दुख सुख वारा।अहंकार चित बुद्धि मन से, जीव सर्वदा अंत करन से।बहु संकल्प विकल्प उठावे, स्मरण करे अभिमान बढ़ावे।दण्ड पाय अरु पावे माना, केवल आतम ज्ञान निधाना।ज्यों कृपाण से मारे कोई, बधिक शूल पर चढ़ता सोई।दण्डनीय नाँही तरवारा, दण्ड गहे नित मारन वारा।देह इन्द्रिय साधन हैं सारे, कर्त्ता आतम इन ते न्यारे।कर्त्ता करे भरे पुन कर्त्ता, जो कर्त्ता सो फल को भरता।जीव कर्म का साक्षी नाहीं, भोगी लिप्त कर्म के माँहीं।कर्मों का साक्षी परमातम, करता कर्म लिप्त जीवातम।सोरठाप्रश्न – जीव ब्रह्म की छाँह, ऐसा शास्त्र पुकारते। ज्यों दर्पण के माँह, मानुष का प्रतिबिंब हो।।दर्पण फूटे बिंब न हानि, घट घट भासत बिंब समानी।एहि विधि जीव ब्रह्म की छाया, दर्पण अन्तः कर्णिक काया।जब लग प्रभु दर्पण में भासे, अन्तः करणोपाधि प्रकासे।अन्तष्करण पात्र जब टूटे, जीव मुक्त पिंजरे से छूटे।उत्तर – वाहरे अहं ब्रह्म के सनकी, कही बात क्या बालकपन की।बिन काया नहीं होवे छाया, जीव ब्रह्म दोऊ रखें न काया।जो वस्तु होवे साकार, वाको बिंबित हो आकारा।पृथक् पृथक् पुन होवे अंतर, तभी बिंब हो दर्पण अंतर।दोऊ वस्तु यदि नहीं अलगावें, प्रतिछाया पुन देख न पावें।निराकार व्यापक वह ईश्वर, ताँते बिंबित नहीं जगदीश्वर।प्रश्न – निराकार विभु भासता, व्यापक नील आकास। निर्मल नीर गंभीर में, उसका पड़े आभास।।एहि विधि अन्तःकरण गंभीरा, ज्यों सरवर में निर्मल नीरा।तिस में व्यापक ब्रह्म आभासा, चिदाभास जैसे आकासा।उत्तर – निराकार आकाश को, देख न कोऊ पाय। गगन विषय नहीं नेत्र का, कैसे उसे लखाय।।नभ ते पवन होय कछु थूला, वाको आँख न देखे मूला।नभ पुन कैसे देखा जाये, निराकार किम नयन समाए।प्रश्न – यह जो ऊपर धुंधला, नीला सा आभास। क्या है वह बतलाइये, क्या वह नहीं आकास।।उत्तर – नहीं आकाश जो ऊपर देखें, नीला धुंध सरीखा पेखें।मृत जल अग्नि के त्रसरेणु, चढ़े गगन पर जैसे रेणु।इन में जो दिखती नीलाई, वह है नील नीर अधिकाई।वह जल जो भूमि पर बरसे, जिस वर्षा से पृथिवी सरसे।धूल उड़े पृथिवी से ऊँची, पवन बीच जा मिले समूँची।वही धूंध है दृष्टि गोचर, नभ नाहीं नभ नयन अगोचर।लखें धूलि की जल में छाया, यह सब जल माटी की माया।प्रश्न – घट मठ मेघाकाश महाना, स्थान भेद से संज्ञा नाना। एहि विधि पार ब्रह्म को जानें, विविध उपाधि द्वारा मानें। अब ब्रह्माण्डे व्यापक ईश्वर, ब्रह्म नाम पावे जगदीश्वर। अन्तःकरण मांहि जब आवे, वही ब्रह्म पुन जीव कहावे। घट मठादि जब होंय प्रणाशा, शेष रहे तब महदाकाशा। अन्तःकरण जब एहि विधि नाशे, तब पुन केवन ब्रह्म प्रकाशे।सो० उत्तर – यह मूरखता की बात, गगन छिन्न होता नहीं। घटाकाश को लात, ‘घट लाओ’ सब ही कहें।।प्रश्न – ज्यों सागर में मछली कीड़ा, उड़गण रचें गगन में नींड़ा।तेहि विधि चिदाकाश प्रभु माहीं, सगरे अन्तःकरण भ्रमाहीं।वे सब अन्तःकरण अचेतन, विभु सत्ता से होवें चेतन।ज्यों लोहा अग्नि के संगे, लाल होय अग्नि सम रंगे।पंछी उड़े निचल भू मण्डल, एहि विधि निश्चल ब्रह्म अखंडल।पारब्रह्म तिमि जीवहुं मानो, इसमें तनिक दोष नहीं जानो।उत्तर – उचित नहीं दृष्यान्त तुम्हारा, तर्क युक्ति के नहीं अनुहारा।अन्तःकरण मांझ जो ईश्वर, जीव बने जब विभु जगदीश्वर।सर्वज्ञादिक गुण तिस मांही, तब उसमें होवे वा नाहीं।जो तब मानों नहीं सर्वज्ञा, पर्दे से हो जाय अल्पज्ञा।आवृत प्रभु तब मानहु खण्डित, अथवा फिर भी रहे अखण्डित।जो तुम वाको कहो अखण्डित, नहीं अखण्ड पर्दे से मण्डित।खण्ड बिना पर्दा नहीं सम्भव, यदि अखण्ड आवरण असम्भव।पर्दा नहीं यदि प्रभु के माँहीं, तौ सव्रज्ञ फेर क्यों नाहीं।सोरठाप्रश्न – भूला अपना रूप, अन्तकरण के संग चले। उसका आत्मस्वरूप, अन्तकरण से परे है।।उत्तर – स्वयं ब्रह्म यदि करे न हरकत, केवल अन्तःकरण ही सरकत।जँह पहुँचे पुन अन्तःकरणा, वँह का ब्रह्म होय सावरणा।जँह चिदभासी वँह अज्ञानी, जँह चित छांड़े वँह का ज्ञानी।कहीं बद्ध कहीं मुक्त कहावे, कहीं अपवित्र पवित्र सदावे।छिन ज्ञानी छिन हो अज्ञानी, को माने अस मिथ्या बाणी।अन्तःकरण असंख्य अपारा, प्रभु मँह करते रहें विकारा।तुमरा कथन सत्य यदि मानें, कोऊ काहू को नहीं पहचाने।स्मरण न होता पूरब देखा, सब देखा होता अन देखा।जिस ईश्वर ने लखा था, ब्रह्म रहा वह नाँहि।पुन क्यों नर नहीं भूलता, क्या युक्ति इस माँहि।तांते जीव न ब्रह्म बेचारा, ब्रह्म न हो पुन आतमसारा।पृथक् पृथक् दोनों अविनाशी, चेतन सतावान प्रकाशी।प्रश्न – यह सब अध्यारोप है, यह सब अध्यारोप। अन्य वस्तु में अन्य का, स्थापन होय आरोप।।ब्रह्म माँहि जग जग व्यवहारा, अध्यारोप ज्ञान को द्वारा।जिज्ञासु को उपजे ज्ञाना, वास्तव में सब है भगवाना।उत्तर – अध्यारोपक कौन है, कहो यदि तुम ‘जीव’।किसको कहते जीव तुम, नहीं ब्रह्म की सीव।।करे जगत की कल्पना, ब्रह्महि अपने माँहि।ऐसी झूठी कल्पना, ईश्वर करता नाँहि।।प्रश्न – ब्रह्म कल्पना करता झूठी, इसमें क्या है बात अनूठी। इसमें क्या ईश्वर का बिगरे, यही कल्पना दीखत सिगरे।उत्तर – वाह वाह तुम्हारा तर्क अनूठा, प्रभु को तुम बतलाते झूठा। जो प्रभु झूठ कल्पना कारक, क्या वह नहीं पुन सृष्टि प्रतारक।प्रश्न – मन कल्पित अरु मुखके वचना, यह सब झूठ झूठ की रचना। ताँते इसमें दोष न लागे, केवल ब्रह्म सत्य में पावे।उत्तर – झूठ कल्पना करने हारा, झूठा जिसने वचन उचारा। क्या झूठा कल्पित भगवाना, क्या तुमने प्रभु झूठा माना।प्रश्न – झूठा होय या होय विकल्पित, अध्यारोपित मन सों कल्पित। हमको इसमें नहीं विपत्ति, हमको तो है इष्टापत्ति।उत्तर – रे झूठे वेदान्तियो! त्यागो झूठ विचार। सत्यकाम भगवान को, कीना मिथ्याचार।।वह भगवान सत्य संकल्पा, उसमें नाँही झूठ विकल्पा।क्या यह नहीं तुवदुर्गति कारण, क्या करते हो जगत प्रतारण।कँह उपनिषदें वेद प्रमाना, किसने प्रभु को झूठा माना।आह! बुद्धि के पड़ गये घाटे, उलटे चोर कुतवारहिं डाटे।सब मिथ्या संकल्प तुम्हारा, तुम हो झूठ पाप भण्डारा।पार ब्रह्म को कहते झूठा, एहि कारण प्रभु तुम पर रूठा।ईश्वर पर निज दोष लगाओ, मिथ्याचारी उसे बताओ।ब्रह्म होय यदि मिथ्या ज्ञानी, जगत होय सारा अज्ञानी।जो प्रभु होते मिथ्यावादी, दुनियाँ की होती बरबादी।सतकारी सतवादी ज्ञानी, सत्स्वरूप ईश्वर की बानी।उसके ऊपर दोष लगाओ, तजो कुमारग सत पर आओ।जिसको तुम सब कहते विद्या, बह तुमरी है निपट अविद्या।मिथ्या तुमरा अध्यारोपा, वृथा झूठा ईश्वर पर रोपा।ब्रह्म मानते अपने ताहीं, यद्यपि पार ब्रह्म तुम नाहीं।प्रभु को कहते जीव बेचारा, कैसा उल्टा तर्क तुम्हारा।वह व्यापक ब्रह्माण्ड में, इक देशी नहीं होय।बन्धन अरु अज्ञान में, कभी न पड़ता सोय।इक देशी है जीव बेचारा, अल्प अल्प को जानन हारा।वही जीव बन्धन में आता, शुभ कर्मों से मुक्ति पाता।मुक्ति और बंधन का वर्णनप्रश्न – मुक्ति किसको कहते हैं, किससे मुक्ति होय। किससे इच्छा मुक्ति की, वर्णन कीजे सोय।उत्तर – जिसमें होवे छूटना, उसका मुक्ति नाम। जिससे छूटना सब चहें, बंधन दुख का धाम।प्रश्न – किस कारण से बंध हो, क्या मुक्ति का हेतु। बंधन नद क्यों कर तरें, क्या साधन का सेतु।।उत्तर – परमेश्वर की आज्ञापालन, त्याग कुसंग अविद्या घालन।कुत्सित संस्कार को त्यागा, सत्संगति से हो अनुरागा।दूर दूर दुर्व्यसनों सेती, प्रभु भक्ति की करना खेती।विद्या परोपकार सद्वानी, किसी जीव की करे न हानि।पक्षपात बिन करना न्याया, सदा दीन की करे सहाया।धर्म वृद्धि अरु योगाभ्यासा, इनते होवे आत्म प्रकासा।विद्या पढ़ना और पढ़ाना, पुरुषारथ से ज्ञान बढ़ाना।इत्यादि मुक्ति के साधन, सकल दुःख अरु क्लेश प्रबाधन।इन ते उल्टे कारज जेते, बंधन हेतु सगरे तेते।प्रश्न – लय होता है जीव का, जब वह मुक्ति पाय। विद्यमान अथवा रहे, इतना दें बतलाय।उत्तर – लय नहीं होता जीव का, रहे ब्रह्म की गोद। विद्यमान यह नित रहे, भोगे सुःख प्रमोद।।प्रश्न – कहो ब्रह्म का कौन ठिकाना, कौन देश जीवों ने जाना। मुक्त जीव इक ठाँव विहारी, अथवा भ्रमता स्वेच्छाचारी।उत्तर – सकल लोक व्यापक भगवाना, जाय जीव जँह चाहे जाना।अव्याहत गति नहीं कोई बाधा, मौज करे जँह इसकी साधा।वह स्वतन्त्र आनन्द उठावे, वही करे जो उसको भावे।प्रश्न – मुक्त जीव का स्थूल तनु, होता है या नाँय। तनु साधन बिन किस तरह, जीव आनन्द उठाँय।।उत्तर – सत्संकल्प आदि गुण सारे, सहज न होते उससे न्यारे। सहज समर्थ रहे उस माँहीं, भौतिक संगति रहती नाहीं।८ाृण्वन् श्रोत्रं भवति, स्पर्शयन् त्वग्भवति, पश्यन् चक्षुर्भवति,रसयन् रसना भवति, जिघ्रन घ्राणं भवति, मन्वानो मनो भवति,बोधयन् बुद्धिर्भवति, चेतयँश्चित्तम्भवत्यहड्कुर्वाणोऽहङ्कारो भवति।। – शतपथ कां० १४इन्द्रिय गोलक भौतिक अंगा, मुक्त जीव के रहें न संगा।शुद्ध स्वाभाविक गुण पुन राजें, आतम हित वे सब सुख साजें।सुना चहे तो होवें काना, चित्त होय जब चाहे ध्याना।नैन होंय जब चाहे दरसन, त्वचा होय जब चाहे परसन।रस चाहे जब रसना पावे, गन्ध चहे नासा बन जावे।मन संकल्प विकल्प रचावे, निश्चय के हित बुद्धि आवे।हो संकल्प मात्र तनु धारी, मुक्त जीव की रचना न्यारी।ज्यों पर इन्द्रिय गोलक द्वारा, भोग भोगता तनु आधारा।निज शक्ति सों त्यौं मुक्तातम, सब सुख भोगे थित परमात्म।प्रश्न – जीवातम की शक्तियाँ, कितनी कै परकार। किस विधि आनन्द भोगता, किस किस के आधार।।उत्तर – चतुविंशति शक्तियाँ, मुक्त जीव की जान। जिनसे सब सुख भोगता, सब कुछ करता भान।।एक शक्ति वाकी परधाना, पर सामर्थ्य रखे वह नाना।आकर्षण बल और पराक्रम, प्रेरण पुन गति भीषण आक्रमण।क्रिया विवेचन अरु उत्साहा, निश्चय सिमरण ज्ञान अथाहा।इच्छा द्वेष प्रेम अनुरागा, जोड़न तोड़न योग विभागा।दरसन परसन सुनना चखना, गंध ग्रहण ज्ञानहुँ को रखना।मुक्ति में यह शक्ति न छूटे, मुक्त होय इनसे सुख लूटे।मुक्ति पाय यदि लय हो जाता, कौन फेर मुक्ति सुख पाता।कहें जीव के नाश को, मुक्ति जो जन मूढ।वे रहस्य नहीं जानते, मोक्ष ज्ञान अति गूढ।।सुख स्वरूप प्रभु में रमें, सकल दुःखों से छूट।या को मुक्ति नाम है, गहे आनन्द अटूट।।अभावं बादरिराह ह्येवम्। – वेदान्त ४ । ४। १०जीव रु मन दोनों रहें, मुक्ति अवस्था माँहि।वादरि ऋषि यह मानते, दोनों का लय नाँहि।।भावं जैमिनिर्विकल्पामननात्।। – वेदान्त द० ४ । ११मन समान सूक्षम तनु, सब इन्द्रिय अरु प्राण।मुक्त जीव के सँग रहें, जैमिनि करे प्रमाण।।द्वादशाहवदुभयविधं बादरायणोऽतः।। – वेदान्त द० ४ । ४ । १२मुक्ति दशा मँह भाव अभावा, दोऊ रहें मुनि व्यासहु गावा।समरथ शुद्ध जीव को भावा, अज्ञानादिक होय अभावा।यदा प९चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह।बुद्धिश्च न विचेष्टते तामाहुः परमां गतिम्।। -कठो० अ० २ व० ६ मं० १०पंच ज्ञान इन्द्रिय मन संगा, जीव संग जब रहें अभंगा।प्रतिभा निश्चय स्थिर हो जावे, परम गति वह मोक्ष कहावे।य आत्मा अपहतपाप्मा विजरो विमृत्युर्विशोकोऽविजिघत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसङ्कल्प सोऽन्वेष्टव्यः सविजिज्ञासितव्यःसर्वांश्च लोकानाप्नोति सर्वांश्च कामान् यस्तमात्मानमनुविद्य विजानातीति।। – छान्दो० प्र० ८, खं० ७, मं० १स वा एष एतेन दैवेन चक्षुषा मनसैतान् कामान् पश्यन् रमते।।य एते ब्रह्मलोके तं वा एतं देवा आत्मानमुपासते तस्मात्तेषां सर्वेच लोका आत्ताः सर्वे च कामाः स सर्वांश्च लोकानाप्रोति सर्वांश्चकामान् यस्तमात्मानमनुविद्य विजानातीति।। – छान्दो० ८२ । ५ । ६मघवन्मर्त्य वा इद शरीरमात्तं मृत्युना तदस्याऽमृतस्याऽशरीर-स्यातमनोऽनोऽधिष्ठानमात्तो वै सशरीरः प्रियापिप्रयाभ्यां न वै सशरीरस्यसतः प्रियाप्रिययोरपहतिरस्त्यशरीरं वाव सन्तं न प्रियाप्रिये स्पृशतः।। – छान्दो० ८ । १२ । १जो परमातम अपहत पापम, सत्य काम आतम को आतम।जरा मृत्यु अरु शोक विहीना, भूख प्यास से होय न दीना।इच्छा कर उसके पाने की, उसकी गोद मांहि जाने की।जिस प्रभु के सम्बन्ध से, मुक्त जीव सुख पाय।सब कामों को पा सके, सब लोकों में जाय।।जो नर पारब्रह्म पहचाने, मुक्ति के सब साधन जाने।आतम शुद्धि जिसने कीनी, परम गति उसने पा लीनी।मुक्त जीव पुन सब कुछ देखें, दिव्य नेत्र उनके अनुपेखें।शुद्ध चित से सब में रमता, जँह चाहे वँह सुख से भ्रमता।ब्रह्म लोक मँह थिर को प्रानी, चरम गति पावे मन मानी।मुक्ति का भोगे आनन्दा, मुक्त जीव हो परमानन्दा।उस प्रभु का नित करे उपासन, घट घट में जिसका अनुशासन।सो० – सर्व लोक सब काम, प्रापत होते जीव को। रमे ब्रह्म के धाम, जो भक्ति उसकी करे।।उनका हो संकल्प सरीरा, जहां नहीं व्याधि दुख पीरा।जँह संकल्प करे निज मन में, उसी लोक जा पहुँचे छन में।करे कामना जो मन मांहीं, पूरन होत बिलम वँह नाहीं।थूल काय मुक्ति मँह त्यागे, तनु संकल्प युक्त सुख पागे।सूक्ष्म तनु से चरहि आकाशे, पारब्रह्म जँह सदा प्रकाशे।तनु धारी जे जीव है, वे नहीं दुख से हीन।जग में रहकर जगत के, दुख सुख में लवलीन।यथा इन्द्र से कहे प्रजापत, पूजनीय हे पुरुष निरापत।स्थूल देह यह नहीं अविनाशी, इक दिन विनसे अन्त विनाशी।अजा फसी जिमि सिंह के आनन, इक दिन अवस खाय पंचानन।नश्वर तनु मँह आतम वासा, यह शरीर दुख सुख आवासा।ताँते जीवहु सुख दुख भोगी, क्लेश ग्रस्त चिंतित अरु रोगी।जब लग जीवहुँ संग सरीरा, तब लग सहे जगत की पीरा।मुक्त जीव तनु रहित आनन्दी, ब्रह्म मांहि बिचरे स्वच्छन्दी।प्रश्न – मुक्त जीव संसार में, फेर लौट कर आंय। जन्म मरण के चक्र में, फिर पड़ते या जांय।।न च पुनरावर्त्तते न च पुनरावर्त्तत इति।। – छान्दो० ८। १५अनावृत्तिः शब्दादनावृत्तिः शब्दात्।। – शारीरिक सूत्र ४।४।३३यद् गत्वा न निवर्त्तन्ते तद्धाम परमं मम।। – भगवद्गीतायह जो ऊपर लिखे प्रमाना, इन से तत्व यही हम जाना।मुक्त जीव पुनः लौट न आवे, इस जग में फिर जनम न पावे।उत्तर – उचित नहीं यह बात तुम्हारी, वेद सम्मति इससे न्यारी।कस्य नूनं कतमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम।को नो मह्या अदितये पुनर्दात् पितर च दृशेय मातर च।।१।।अग्रेर्वयं प्रथमस्यामृताना मनामहे चारु देवस्य नाम।स नो मह्या अदितये पुनर्दात् पितरे च दृशेय मातर च।।२।। – ऋ० म० १। सू० २४। मं० १-६इदानीमिव सर्वत्र नात्यन्तोच्छेदः।। – सांख्य० १ । १५९किसका नाम सुपावन जानें, किसको हम अविनाशी मानें।जिते पदारथ हैं अविनाशी, कौन देब उनमें परकाशी।को मुक्ति सुख हमें भुगावें, पुनः जगत में कौन लौटावे।जनम देत पुनः इस संसारे, उसी देव के हौं बलिहारे।मात पिता के दरस करावे, लाले पाले लाड़ लड़ावे।जोत स्वरूप मुक्त परमातम, मुक्ति सुख भोगे जँह आतम।वही पुनः पृथिवी पर लाता, मात पिता के दरस कराता।वही देव देवों का स्वामी, घट घट वासी अन्तर्यामी।जेहि विधि हैं इस काल में, बद्ध मुक्त बहु जीव।तेहि विधि हों सब काल में, मुक्ति नहीं असीव।।प्रश्न – तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः। दुःखजन्मप्रत्तिदोषमिथ्या-ज्ञज्ञनानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः।। – न्याय० १। २२।२जब होता है दुःख का, जनु अत्यन्त विछेद।मुक्ति वा को नाम है, कहे शास्त्र अरु वेद।।छूट जाय जब मिथ्या ज्ञाना, नशत अविद्या अरु अज्ञाना।लोभादिक दोषन निवृत्ति, विषय व्यसन की हटे प्रवृत्ति।जन्म रु दुख के बन्धन टूटें, उत्तर उत्तर जब सब छूटें।पूर्व पूर्व का होय निवारण, सब दुःखों का होय विदारण।फिर मानुष मुक्ति पद पाये, नित सुख पाये बहुरि न आये।उत्तर – अहो शत्र्द ‘अत्यन्त’ का, क्योंकर लीना भान। ‘सदा’ अर्थ ‘अत्यन्त’ का, क्योंकर लीना मान।।दुख अत्यन्त बहु दुख कहिये, अति का अर्थ बहुत सा गहिये।यह जो पद ‘अत्यन्ताभावा’ बहु अभाव है’ या को भावा।प्रश्न – मुक्ति का सुख भोग कर, लौट आय यदि जीव। तो कहिये पुन मुक्ति की, किते समय की सीव।।उत्तर – ते ब्रह्मलोके ह परान्तकाले परामृतात् परिमुच्यन्ति सर्वें। – मु० ३ । २ । ६मुक्त जीव मुक्ति सुख पाकर, पुन जन्मे जग में फिर आकर।महाकल्प पाछे पुन आवे, फेर जन्म सृष्टि में पावे।बीस सहस्त्र अरु लाख तिताली, इते वर्ष जानहु समकाली।चतुर्युगी इसको इक, गुनिये, महाकल्प का व्योरा सुनिये।दो सहस्त्र चौयुगी का, अहोरात्र इक जान।अहोरात्र पुन तीस का, एक महीना मान।।एक वर्ष अस द्वादश मासा, एहि विधि हो शत वर्ष निवासा।काल परान्त इसे बतलाते, मुक्त जीव तब तक सुख पाते।प्रश्न – ग्रन्थकार सगरे कहें, कहें सकल संसार। मुक्त जीव नहीं लौटता, मुक्ति पा इक बार।।उत्तर – परिमित साधन जीव के, परिमित शक्ति शरीर। किम अनन्त फल पा सके, तनिक सोचिये वीर।।जीव कर्म समरथ सब परिमित, फल कैसे पुन लहै अपरमित।नित्य नहीं फिर साधन वाके, कैसे नित्य पाय फल ताके।मुक्त जीव यदि लौट न आवे, जगत सून्य इक दिन हो जावे।जग में रहें जीव नहीं शेषा, जीव जन्तु सब होंय अशेषा।प्रश्न – जीव मुक्त होवें जिते, उतने जग में और। भेजे नये रचाय कर, ईश्वर उन की ठौर।।उत्तर – यह युङि्क्त तब महा असम्भव, नये जीव रचने नहीं सम्भव।हों अनित्य यदि नये बनाये, जो उपजे सो अवस नसाये।नशहिं जीव अपवर्गहु पाकर, मोक्ष बने नश्वरता आकर।मुङि्क्त से यदि लौट न आवें, इते मुक्त पुन कहां ठहरावें।बड़ी भीड़ होवे उस लोके, जीव असंख्य धाम सब रोके।इतनी संख्या होय अपारा, जिसका नहीं कछु पारावारा।दुःख क्लेश का होय पसारा, कँह भोगे सुख मुक्त बेचारा।बिन कटु रस मीठा को जाने, मधुर बिना कड़वा को माने।रसना लेत तभी सुख स्वादा, जब होवे षट् रस आस्वादा।मीठा ही मीठा जब खावे, मीठे का फिर स्वाद न भावे।मधुर सलोने मीठे खारे, सभी स्वाद सुख देने हारे।फल अनन्त यदि दे प्रभु, किये कर्म हो सान्त।न्याय व्यवस्था प्रभु की, हो जाय सब भ्रान्त।।जो नर भार उठावे जेता, उसके सिर पर धरना तेता।बल से बढ़ कर बोझ लदाना, करें न एहि विधि बुद्धिमाना।नये जीव सृजता जिस कारण, वह कारण चुक जाय अकारण।।चाहे जितना कोष हो, जिसमें होय न आय।व्यय ही व्यय होता रहे, वह इक दिन चुक जाय।।जाय जाय नहीं आने वाला, इक दिन निकसे अवस दिवाला।तांते यही व्यवस्था नीकी, इससे उलट होय सब फीकी।मुक्ति पाना अरु पुन आना, नूतन जीव न उचित बनाना।मुक्ति पाकर लौट न आना, वह जीवन भर बन्दी खाना।उसमें इसमें नहीं बहु अन्तर, दोनों बन्दी रहें निरन्तर।यहाँ के जीव मजूरी करते, करते काम उदर को भरते।ब्रह्म मांहि लय होना ऐसा, मरना डूब जलधि में जैसा।प्रश्न – नित्य मुक्त नित सुखी ज्यों, रहता है परमेश। जीवातम तैसे रहे, नहीं दोष का लेश।।उत्तर – प्रभु को रूप अनन्त स्वरूपा, सर्व शक्ति गुण कर्म अनूपा।तांते बन्धन में नहीं आवे, दुख अज्ञान न उसे सतावे।यद्यपि मुक्त होय यह जीवा, पर अल्पज्ञ सुपरिमित सीवा।परमेश्वर के नहीं समाना, परिमित याको कर्म विधाना।प्रश्न – व्यर्थ परिश्रम क्यों करे, वृथा उपासन ज्ञान। अहो निरर्थक मुक्ति यह, आना पड़े निदान।।उत्तर – यह है वृथा तुम्हारी युक्ति, जन्म मरण सदृश नहीं मुक्ति।उत्पति प्रलय होय संसारा, सुनहु सहस षट् त्रिंशत् वारा।इतना दीर्घ मुक्ति को काला, सुख भोगे जँह जीव निराला।छिन भर भी जहां दुःख न पाये, अरु निष्कंट आनन्द उठाये।क्या वह थोड़ा सुख है भाई, इतनी लम्बी अवधि पाई।आज खाओ कल भूख पिपासा, पुन खाने की राखो आसा।इक दिन का सुख इतना भाया, जिसका करते नित्य उपाया।भूख प्यास धन जन हितु नाना, प्यारी नारी अरु सन्ताना।इनके हित नित करो उपोया, मुक्ति का सुख क्यों नहीं भाया।जेहि विधि आवश्यक है मरना, जीवन साधन पड़ता करना।तेहि विधि लौट मुक्ति से आना, समुचित करने साधन नाना।प्रश्न – कैसे टूट फंद, इस माया के जाल का। मोह ममता में अंध, किस साधन से मुक्त हो।।उत्तर – कछु साधन पाछे कहे, कछु दें और बताय। जिन के द्वारा बद्ध नर, परम गति को पाय।।जो नर जग में मुक्ति चहाता, जीवन्मुक्त यहीं बन जाता।मिथ्या भाषण निंदा चोरी, पाप कर्म त्यागे बरजोरी।यह कुकर्म सब दुख के दाता, तुरत तोड़ दे इन से नाता।सत भाषण आदिक सुखदायी, उन से नाता जोड़ो भाई।जग में सत्यासत्य अनेका, सत्संगति से करहु विवेका।देह अरु प्रान विवेचन कीजे, जान पंच कोषों को लीजे।प९चकोषपहला कोष अन्नमय जानें, त्वक से अस्थि तक पहचाने।अन्नकोष मिट्टी का ढांचा, रक्त नाड़ि नस जिस में राँचा।कोष प्राणमय दूसर कहिये, पंच भेद प्राणों के गहिये।प्राणापान रु व्यान समाना, पंचम होवे भेद उदाना।जो बाहर से भीतर आवे, सो प्रश्वास अपान सदावे।जो भीतर से बाहर जावे, पवन श्वास सो प्राण कहावे।पवन तीसरा होय समाना, नाभि मण्डल जाको स्थाना।सगरे तन यह रस पहुँचाता, नस नाड़ी में चले समाता।चौथा वायु नाम उदाना, कण्ठदेश याको है स्थाना।अन्न पान कण्ठहु ते खैंचे, आमाशय तक उसको ऐंचे।जिससे बढ़ती बल अरु शक्ति, सुखमय जीवन की अनुरक्ति।व्यान पांचवां गति का साधन, देह सचेष्ट करे निर्बाधन।तीसर कोष मनोभय भ्राता, अहंकार आदिक से नाता।हाथ पांव पायु अरु वाणी, अरु उपस्थ इन्द्रिय परमाणी।यह सब मिल हों मनमय कोषा, इसका ज्ञान करे निर्दोषा।चतुरथ है विज्ञानमय, कोष ज्ञान की खान।जिसके द्वारा जीव यह, प्रापत करता ज्ञान।।नयन कान त्वग रसना नासा, इन्द्रि पंचक ज्ञानावासा।चित्त बुद्धि दोनों पुन संगा, ज्ञान कोष के यह सब अंगा।पंचम कोष आनन्दमय, जिससे होत आनन्द।इन कोषों से जीव यह, करे कार्य स्वच्छन्द।।कर्म उपासन आदिक नाना, जेते जग के कार्य बिधाना।जीव करे इन कोषों द्वारा, सभी काम अरु आत्म पसारा।।स्वप्न सुषुप्ति जागरण, तीन अवस्था भेद।इन तीनों ही में मिले, आतम को निर्वेद।।त्रय शरीर कीजे अवधारण, स्थूल सूक्ष्म तीसर तनु कारण।स्थूल देह देखें हम वाको, कर पद आदि अवयवन ताको।सूक्ष्म तनु हो द्वितीय अभंगी, मुक्ति दशा में रहता संगी।इन्द्रिय पंच रखें जो ज्ञाना, पांचहु रहें संग में प्राना।सूक्ष्म भूत पंच अरु धी मन, इन तत्वों का है सूक्ष्म तन।सूक्ष्म शरीर जीव का अंगी, जनम मरण मंह रहता संगी।दोऊ भेद इसके पुन जाने, भौतिक अचर स्वाभाविक माने।सूक्ष्म भूत अंशों के द्वारा, सूक्ष्म तनु जो बना हमारा।या तनु को कहते तनु भौतिक, स्वाभाविक को कहें अभौतिक।रहे अभौतिक मुक्ति संगा, या को कबहुँ न होवे भंगा।मुक्ति काल में जीव हमारा, मुक्ति सुख भोगे इस द्वारा।यह तनु आतम को गुण रूपा, आतम सुख जिहिं लहे अनूपा।तीसर तनु पुन होवे कारण, गहरी निद्रा दुःख निवारण।प्रकृति रूप है या को भाई, सकल जीव जग अन्दर छाई।चौथा होय तुरीय शरीरा, जानहिं इसे समाधि धीरा।जिसमें जीव होय प्रभु मगना, लहें आनन्द ध्यान में लगना।यह समाधि संस्कार में, प्रापित शुद्ध शरीर।मोक्ष काल में जीव का, रहे सहायक वीर।।सब कोषों से आतम न्यारा, सकल अवस्थाओं से पारा।यह जानत सगरो संसारा, जीव अवस्थाओं से न्यारा।प्राणी की जब मृत्यु होती, तब सृष्टि कहती अरु रोती।आतम पंछी उड़ा बेचारा, तनु पंजर तज किया किनारा।सब का प्रेरक सब का कर्त्ता, जीवहि केवल सब का धर्त्ता।साक्षी आतम भोगे भोगा, जीवहि का संयोग वियोगा।जो जीवहिं कर्त्ता नहीं मानें, उस नर को अज्ञानी जानें।बिना जीव के सभी पदारथ, जड़ है इन्हें न ज्ञान यथारथ।नहीं दुख सुख वेदन इन मांही, पाप पुण्य कर्तापन नाहीं।इन्द्रिय मन आदिक के द्वारा, सुख दुख भोगे आतम सारा।अर्थों में जब इन्द्रियां, मन इन्द्रिय के संग।आतम पुन मन से जुड़े, रहती ज्ञान तरंग।।तब यह आतम सब कुछ हेरे, देह फेर प्राणों को प्रेरे।अच्छे बुरे कर्म अपनावे, तब यह बहिर्मुखी हो जावे।अन्तर जगे तभी तत्काला, होवे दुख सुख लज्जा वाला।सत्कर्मों से आनन्द पावे, निर्भयता उत्साह बढ़ावे।बुरे कर्म से होवे शंका, भय लज्जा पावे यह रंका।यह ईश्वर की शिक्षा पावन, रुचिर सिखावन सुखद सुहावन।जो इस शिक्षा का अनुगामी,सदा सुखी मुक्ति का धामी।जो इससे चलिहैं विपरीता, वह दुख गहें बुद्धि के रीता।दूजा साधक मुक्ति का, कहैं शास्त्र वैराग।परम शान्ति जिससे मिले, शमत विषय की आग।।इसमें होय विवेक विचारा, ज्ञान होय जसु सार असारा।सत्य ग्रहण मिथ्या कंह त्यागा, यह शिक्षा उपजाय विरागा।पृथ्वी से ईश्वर पर्यन्ता, जेते जग में द्रव्य अनन्ता।उन सब के गुण कर्म स्वभावा, भली भाँति जो जान सुपावा।पुन ईश्वर की आज्ञा पालन, भक्ति अरु शुभ कर्म सुचालन।प्रभु से कबहुं न करहि विरोधा, मन मँह सत्य ज्ञान करि बोधा।सृष्टि से लेना उपकारा, याको नाम विवेक विचारा।‘षटक संपति’ है पुनः, साधन तृतीय प्रमान।छः कर्मां का अब सुनें, आगे करहुं बखान।।प्रथम कर्म ‘शम’ शान्ति प्रदाना, दुष्कर्मों से चित हटाना।शुभ कर्मों में मनहुं लगावे, शान्त सुख इससे नर पावे।‘दम’ से छूट जांय व्यभिचारा, इन्द्रिय जित सुख पाय अपारा।‘उपरति’ दुष्ट संग कह त्यागा, सत्संगति सों हो अनुरागा।साधु ‘तितिक्षा’ उत्तम धर्मा, यह कर्मों मँह भलो सुकर्मा।स्तुति निन्दा मँह संसरस होना, आये हर्ष गये नहीं रोना।सदा मोक्ष हित करना साधन, रखे उपेक्षा विघ्रन बाधन।‘पंचम’ ‘श्रद्धा’ कर्म सुपावन, वेद पाठ ईश्वर गुन गावन।माने वेद शास्त्र उपदेशा, इन को जाने झूठ न लेशा।आत जनों पर हो विश्वासा, सदा धर्म मँह राखे आसा।‘समाधान’ मन राखे स्थाई, दूर करे चित चंचलताई।मन एकाग्र करत अति दुष्कर, यत्न करे तो हो समरथ नर।चौथा साधन सुन जिज्ञासु, ‘मुमुक्षुत्व’ नित मोक्ष पिपासु।अन्न ध्यान ज्यों करे बुभुक्षु, मोक्ष मांहि त्यों रखे मुमुक्षु।साधन चार चार अनुबन्धा, जिससे कटता नर का फन्धा।ब्रह्म प्राप्ति प्रतिपाद्या मुक्ति, प्रति पादक वेदादिक सूक्ति।इनका अन्वय करे यथारत, यह संबंध दूसर कहलावत।तीसर जाने ‘विषयी’ नामा, जाते मिले ब्रह्म को धामा।ब्रह्म ‘विषय’ अरु प्रापक विषई, जिसे जान नर का दुख नशर्ड।चौथा है अनुबन्ध ‘प्रयोजन’, करे सुयुक्ति चाहे जो जन।दुख छूटे परमानन्द लूटे, माया मोह जाल सब टूटे।‘श्रवण चतुष्टय’ आगे सुनिये, सुन विचारिये मन मँह गुनिये।जब उपदेश करे विद्वाना, ताको सुने लगा कर ध्याना।ब्रह्मज्ञान मँह ध्यान विशेषा, कठिन होत इस मांहि प्रवेशा।‘मनन’ पुनः श्रुत वचन विचारण, शंका समाधान निर्धारण।तीजा साधन पुन निदिध्यासन, ध्यान योग करना थित आसन।श्रुत शिक्षा को वहां विचारे, सत्यासत्य बैठ निर्धारे।चौथा ‘साक्षात पुन दर्शन’ सकल वस्तु का तथ्य प्रदर्शन।द्रव्यन के गुन कर्म स्वभावा, जो जिसका जैसा सो पाक।श्रवण चतुष्टय याको नामा, सत्य ज्ञान मुक्ति को धामा।रज तम गुण कँह दूर भगावे, मन को सतगुण मांहि रमावे।क्रोध मलिनता अलस प्रमादा, यह सब तुम गुण देत विषादा।ईर्षा द्वेष काम अभिमाना, रजगुण दुखद जीव को नाना।तांते इन दोषों को त्यागे, कबहुं पाप के संग न लागे।शुचिता विद्या शान्त स्वभावा, प्रभु भक्ति मँह रखे सुचावा।सुखी जनों से मित्रता, दया दीन पर धार।वैर न प्रीति दुष्ट से, भले पुरुष से प्यार।।दो घंटा नित प्रभु को ध्याना, बैठ एकान्त करे धी माना।तनु के अन्दर जिते पदारथ, उनका हो विज्ञान यथारथ।इन्द्रिय प्राण आदि को ज्ञाता, सब कुछ ध्येय एक तुम ध्याता।पूर्व दृष्ट का सिमरण कर्ता, आकर्षक कर्ता अरु धर्ता।एक काल मंह अनिक पदारथ, तुम ही जानो नेक यथारथ।तुम स्वतन्त्र कर्ता अरु प्रेरक, स्वामी सब द्रव्यों के हेरक।अविद्याऽस्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः प९च क्लेशाः। – योगशास्त्रे पाद २ । सू० ३अहो अविद्याऽस्मिता अपर राग और द्वेष।अभिनिवेश पुन पांचवां, यह सगरे हैं क्लेश।।पहले कहें अविद्या लक्षण, समझ गये तुम बुद्धि विचक्षण।बुद्धि को ही आतम जाने, इन दोनों को पृथक न माने।क्लेश ‘अस्मिता’ याको नामा, सुख विहीन अति दुख परिनामा।सुख की इच्छा दुख से द्वेषा, मृत्यु से भय अभिनिवेशा।इन पांचो क्लेशों को त्यागे, मन को ब्रह्म मांहि अनुरागे।योगाभ्यास निपट इक साधन, पंच क्लेश दुःखों का बाधन।प्रश्न – जिस प्रकार का मानते, तुम मुक्ति का रूप। अवर न कोई मानता, तुमरी मुक्ति अनूप।।जैन मती शिवपुर के अन्दर, बैठें मोक्ष शिला के मन्दर।मौन रहें मुख से नहीं बोलें, खायें पीयें हिलें न डोलें।ईसाई चौथे असमाने, गाँव बजाँय मुक्ति सुख माने।मुसलमान सप्तम असमाना, वामी नर ने श्री पुर जाना।शैव मुक्ति का धाम कैलाशा, तोड़ सकल संसारिक आशा।विष्णु भक्त बैकुण्ठ पधारें, गोसाईं गोलोक सिधारें।असन वसन जँह सुन्दर नारी, रत्न जटित प्रासाद अटारी।सयुज समीप सलोक त्रय, हैं मुक्ति के धाम।पौराणिक अस मानते, तीन भाव अभिराम।ब्रह्म लोक मंह नित्यावासा, यह सालोक्य मुक्ति को भासा।लघु भ्राता सम प्रभु सँग रहना, यह सायुज्य भावना कहना।जो उपास्य का होय स्वरूपा, मुक्त जीव होवे तद्रूपा।जो वेदान्त मत का अवलंबी, उसकी दौड़ सभी से लंबी।लय होवें परमातम माँही, उनके मत आतम पुन नाँही।उत्तर – बारह तेरह चतुर्दश, समुल्लास यह तीन। जैन ईसाई मुसलमां, इनका वर्णन कीन।।श्री पुर को जो चाहें वामी, मद्य माँस नारी के कामी।यहीं मिलें वस्तु यह सगरी, कुछ विशेष नहीं श्रीपुर नगरी।शिव की पत्नी जेहि विधि गौरी, रमा विष्णु की चन्दन खौरी।मोक्ष धाम में तिनहिं समाना, भोग भोगना सुन्दर नाना।जग के राजा अरु महाराजा, यह सब राखें साज समाजा।अनिक रानियाँ खान रु पाना, दास दासियाँ रूप निधाना।केवल वँह पर सदा जवानी, व्याधि नहीं यह कहे पुरानी।पर यह उनका कथन असम्भव, नियम विरुद्ध नहीं पुन सम्भव।जंह मानुष भोगेंगे भोगा, वंह पर अवस होएंगे रोगा।वृद्ध होय अन्तहु तरुणाई, कोई अवस्था थिर नहीं भाई।चार भांति की मुक्ति तो, कीटहुं को मिल जाय।बिन उद्यम पुरुषार्थ बिन, उनको सहज सुभाय।।प्रभु के लोक यहां हैं सारे, प्रभु से रहित लोक नहीं न्यारे।सकल लोक मँह जीव निवासा, यह सालोक्य मुक्ति अनयासा।अब सायुज्य मुक्ति को सुनिये, सहज सिद्ध क्योंकर मन गुनिये।प्रभु महान आतम लघु भ्राता, ज्येष्ठ भ्रात आतम को त्राता।नहीं सामीप्य मुक्ति मंह अन्तर, प्रभु समीप ही रहे निरन्तर।वह चिभु अंग संग है प्यारा, जड़ चेतन का एक आधारा।सबी जीव ईश्वर मँह व्यापत, जग में भोगें भोग निरापत।यह सायुज्य मुक्ति अनयासा, स्वतः सिद्ध है बिना प्रयासा।सो० – जब मानुष मर जाय, तत्व तत्व में जा मिले। यही मुक्ति कहलाय, नास्तिक ऐसा मानते।।तब तो जीव जन्तु सब कूकर, घोड़े गधे मुक्त सब सूकर।मोक्ष नहीं यह बन्धन सारे, शिवपुर मोक्ष शिला के द्वारे।सप्तम अरु चतुरथ असमाना, श्री पुर वा कैलाश महाना।पुन गो लोक बैकुण्ठ निवासा, इन में नहीं मुक्ति को वासा।मुक्त जीव इक देशी सारे, यद्यपि स्थान सभी के न्यारे।इन स्थानों से जो वे छूटें, तब तो मोक्ष सभी के टूटें।नरजबन्द कैदी हों जैसे, मुक्त जीव इस विधि हैं तैसे।मोक्ष वही जँह बन्धन नाहीं, नहीं बाधक जँह इच्छा मांही।खुला जीव विचरे जँह चाहे, लोक लोकान्त सभी अवगाहे।भव शंका दुख निकट न आवे, मुक्त जीव सोई कहलावे।जन्म नाम उत्पति का, मृत्यु प्रलय कहाय।मुक्ति भोग कर जीव पुन, जन्म समय पर पाय।प्रश्न – जन्म एक ही होत है, अथवा होंय अनेक। इसका उत्तर दीजिए, दयानिधे सविक्के।उत्तर – एकहु जन्म न केवल प्यारे, नाना जन्म जीव यह धारे। कर्म करे यह जैसे जैसे, धारण करे जन्म पुन तैसे।प्रश्न – जीव जन्म यदि धारत नाना, क्यों नहीं पूर्व जन्म को ज्ञाना। सगरे पूर्व जन्म क्यों भूले, क्योंकर विस्मृत होंय समूले।उत्तर – जीव अपूरण है अल्पज्ञा, पारब्रह्म केवल सर्वज्ञा।अल्प बुद्धि बहु रखे न ज्ञाना, वही भूल का हेतु माना।जो कुछ जाने मन के द्वारा, मन भी है अति क्षुद्र बेचारा।एक काल बहु ज्ञान न राखे, पूर्व जन्म की क्या कोई भाखे।इसी जन्म की जितनी बातें, गर्भ स्थित अंधियारी रातें।बचपन के वह खेल खेलावन, भूल गये नहीं रहे चेतावन।दिन की बातें निद्रा मांही, रहें न एकहुं स्मृति पथ माँही।पहले बारह वर्ष से, वर्ष त्रयोदश मांहि।क्या कुछ थे तुम कर रहे, स्मरण रहे कछु नांहि।।क्या थे मुख था किधर तुम्हारा, क्या बतलावे कोई बेचारा।इस तन की जब यह हैं बतियां, पूर्व जन्म की क्या पुन गतियां।विस्मृति ही में है सुख सारा, स्मरण रहे ते दुख अपारा।पूर्व जन्म दुख सिमरन आते, रोय रोय सारे मर जाते।प्रश्न – पूरव ज्ञान न जीव को, दंड प्रभु पुन देत। क्या जाने यह आतमा, दण्ड मिला किस हेत।।उसका नहीं हो सके सुधारा, भेद न जाने जीव बेचारा।क्या कीना किसका फल पाया, क्यों दुर्दिन प्रभु ने दिखलाया।सो० – नहीं जीव को ज्ञान, किस कुकर्म का फल मिला। कैसे होवे भान, कौन कर्म फिर न करूँ।उत्तर – को है साधन ज्ञान का, कै बाके परकार। स्पष्ट स्पष्ट बतलाइये, निज मन में निर्धार।।सो० प्रश्न – आठ भांति का ज्ञान, प्रत्यक्षादि प्रमाण से। कहें वेद विद्वान, जिसके द्वारा ज्ञान हो।।उत्तर – नित देखहु तुम यह संसारे, सभी मनुष हैं न्यारे न्यारे।कोऊ निर्धन है कोऊ धनवाना, कोऊ मूरख अरु कोऊ विद्वाना।राजा कोऊ अरु कोऊ भिखारी, कोऊ सुखारी कोऊ दुखारी।या को लख कर ले अनुमाना, पूर्व जन्म कर्मन को ज्ञाना।वैद्य अवैद्य यथा ज्वर ग्रस्ता, वैद्य रखे रुज ज्ञान समस्ता।कारण भले अवैद्य न जाने, निस्पंशय यह तो पहचाने।कोऊ कुपथ्य मैंने कर दीना, जेहि कारण ज्वर ने ग्रस लीना।पूरब जन्म यदि नहीं जानें, तो प्रभु को पखपाती मानें।बिना पाप यदि बहु दुख देता, बिना पुण्य के सुख समवेता।सो० प्रश्न – प्रभु कर सकता न्याय, जन्म होय यदि एक ही। जो नृप के मन भाय, किसकी समरथ रोक ले।।दो० – जैसे माली बाग में, सिंचहि उगाय लगाय। कांट छांट करता रहे, सिंचहि उगाय लगाय।।सब माली के निजू पदारथ, जो कछु करता सोई यथारथ।नहीं कोई उसे दण्ड का दाता, है नरेश निज देश विधाता।उत्तर – न्याय करे प्रभु नहीं अन्यायी, वह अत्कर्मी पुरुष सहायी।ज्यों माली रचता फुलवारी, फल फुल उपजावे तरकारी।करे युक्ति से कारज सारे, नहीं करता कछु बिना विचारे।कांटे छांटे काअन जागू, होंय यदि वे उपवन रोगू।उचित स्थान पर पेड़ लगावे, उचित समय पर सिंचे सिंचावे।जो इससे करता विपरीता, सो माली बुद्धि से रीता।एहि विधि प्रभु फल देत सकारण, नहीं उसका कोऊ कार्य अकारण।है स्वभाव से ईश्वर पावन, कबहुं न कारज करे अपावन।पागल सम यदि कुछ कर डाले, नशहि जगत पुन कौन संभाले।दुष्टों को सुख देने हारा, भद्रहिं चहे नरक में डारा।ऐसा मानुष मूढ़ कहावे, जग मँह अँधाधुन्ध मचावे।ताँते अन्यायी नहीं ईश्वर, निर्भय पारब्रह्म जगदीश्वर।प्रश्न – पहले ही से प्रभु ने, सब कुछ किया विचार। जितना देना था जिसे, दिया भाग्य मँह डार।।कुंड० उत्तर – बिन कारण नहीं प्रभु का, होता कोई विचार।सब जीवहुं कोदेत है, कर्मों के अनुसार।।कर्मों के अनुसार, सभी ईश्वर के काजा।कोई घर घर में भीख मांगता, कोई महाराजा।कोऊ के सिर नहीं पाग, छत्र कोऊ करता धारण।नहीं अन्यायी नहीं प्रभु का, कोऊ काज अकारण।प्रश्न – बड़े बड़े दुख भोगते, छोटों को दुख थोर।चिंता रहती बड़ों को, सोते रैन न भोर।।इक डोली मँह सेठ सवारा, उसे उठाते चार कहारा।सेठहु के सिर झूले छाता, पांओं कहारन सूर्य तपाता।उन्हें देख जन कहने लागे, जिनके हदय दया से पागे।पुण्यों का फल देखहु भाई, पूर्व जन्म की भली कमाई।वरु क्या जानें वे नर भोले, बड़ा दुखी जो बैठा डोले।लाख रुपये का है अभियोगा, आज इसी का निर्णय होगा।न्यायालय में यदि वह हारा, मर जाये किस्मत का मारा।निकट कचहरी ज्यों ज्यों आवे, त्यों त्यों उसका प्राण सुखावे।पर कहार आनन्द उठावें, न्यायालय को निकट लखावें।सेठ भटकता वहाँ बेचारा, बैठ तमाखू पियें कहारा।एहि विधि राजा चेन न पावे, स्वर्ण पलंग पर नींद न आवे।राजा को निद्रा नहीं, पी पी मद भरपूर।रूखी सूखी खाय कर, सोता सुखी मजूर।।कुंड० उत्तर – कही बात अज्ञान की, किया न तनिक विचार।कह कर देखो सेठ को, लाला बने कहार।।लाला बनो कहार, कहारों सा सुख पाओ।बुरा अदालत काम, पालकी नित्य उठाओ।।नहीं चाहेगा लाला, डोले कभी उठाना।बिन विचार की बातें, यह तुमरो अज्ञाना।।बने कहार नहीं सहुकारा, सेठ बनूं हां चहें कहारा।यही बात सोंचे मन मांही, दोनों में समता कछु नाहीं।इक राजा के घर में जनमें, तैल स्नान उबटन हो तन में।फल रस दूध दास अरु दासी, रेशम चीर सुगन्धि सुवासी।खेल खिलौने गज अंबारी, बाग बगीचे फल फुलवारी।इक घसियारे के हां जनमा, जल बिन धूलि लगी सब तन मां।पड़ा भूमि पर रोवे लेटा, दूध चहें तो मिले चपेटा।नहीं कोऊ उसे पूछने हारा, जीवन भर की हाहाकारा।बिन कारण यदि प्रभु दुख दीना, तब तो पाप प्रभु ने कीना।बिना किये यदि दुख सुख कहिये, स्वर्ग नर्क का नाम न लहिये।जिसको चहे नर्क में डाले, जिसको चहे स्वर्ग में घाले।धर्म करेंगे क्यों पुन प्रानी, जप तप विपता वृथा उठानी।पाप पुण्य को प्रभु नहीं देखे, उसके अपने मन के लेखे।जो प्रभु ऐसा करे ब्योहारा, तो अन्यायी हो कर्तारा।तांते पूर्व जन्म अनुसारा, सुख दुख भोगे जीव बेचारा।अब का किया मिलेगा आगे, तांते धर्म मांहि अनुरागे।प्रश्न – मनुष और पशु पंछि का, आतम एक समान। अथवा भिन्न प्रकार का, अंतर कोऊ महान।।उत्तर – आतम हैं सब एक से, नहीं कोई उतम हीन। पाप पुण्य के योग से, पावन कोऊ मलीन।।प्रश्न – मनुष जीव पशु पंछिन मांही, प्रविशे अथवा प्रविशे नाहीं। पुरुष जीव नारी मँह जावे, नार जीव क्या पुरुष समावे।उत्तर – नर का पुण्य कर्म घट जावे, तब वह पशु योनि मँह जावे।पुण्य अधिक नर का हो जाए, देव तनु को तब वह पाए।देव वही जो हैं विद्वाना, जिनके मन में प्रभु को ध्याना।जिनके हों साधारण कर्मां, वे उपजें साधारण घर मां।उत्तम मध्यम कर्म से, उत्तम मध्य शरीर।सुःख दुःख सब कर्म के, कर्म करो नर धीर।।पापों का पूरा फल पाकर, लेखा पिछला सभी चुका कर।पशु पंछी पुन नर तनु पाते, कर्म क्षेत्र मँह पुन सब आते।मृत्यु नाम तनु सेति वियोगा, जन्म कहें तनु सों संयोगा।तनु त्यागे यमपुर मँह जाये, गगन पवन ही यम कहलाये।यम संज्ञा वायु की जाने, वेद मन्त्र माने परमाने।कल्पित यम नहीं गरुड़ पुरानी, निराधार वह गप्प कहानी।धर्मराज पुन करते न्याया, जो जिस किया सोई फल पाया।जीवों के कर्मन अनुसारा, होता सदा न्याय व्यापारा।धर्मराज ईश्वर को नामा, परम दयालु न्याय को धामा।देता जन्म कर्म अनुसारा, जित देखो तित कर्म प्रसारा।वायु अन्न सलिल के द्वारा, अथवा तनु की छिद्र गुहारा।प्रविशे जीव तनु के अन्दर, नार गर्भ के अथवा मन्दर।जैसे जिसने कर्म कमाए, तैसे नर नारी तनु पाए।जँह रज वीरज होय समाना, तहाँ नपुंसक तनु विधाना।जनम मरण मँह एहि विधि रमता, नाना योनि चक्र मँह भ्रमता।जब लग जीव मोक्ष नहीं पावे, जन्म मरण का दुःख उठावे।कर्म रु ज्ञान उपासन द्वारा, खुल जावे वह मुक्ति द्वारा।आवागमन चक्र मिट जावे, प्रभु से मिले मुक्ति पद पावे। प्रश्न – एक जन्म मंह मुक्ति हो, अथवा जन्म अनेक। वेद शास्त्र इस विषय में, कैसा करें विवेक।।उत्तर – जन्म जन्म के यतन से, जीव मोक्ष को पाय। गांठ कटे अज्ञान की, ईश्वर मांहि रमाय।।भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे पराऽवरे।।१।। – मुं० २ । ८ प्रश्न – पृथग रहे मिल जाय वा, जीव ब्रह्म में जाय। मुक्ति पाकर आत्मा, कैसे जाय समाय।।उत्तर – पृथक रहे जीवात्मा, प्रभु में नहीं समाय। मिल जाए तो मुक्ति सुख, किस विध फेर उठाय।।मुक्ति के सारे पुरुषारथ, निष्फल जांयें सभी अकारथ।प्रलय हुई आतम की भाई, मुक्ति किसी काम नहीं आई।सत्यं ज्ञनमनन्तं ब्रह्म यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन्।सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चितेति।। – तैत्तिरो० आनन्दवल्ली। अनु० १निज बुद्धि निज आत्म थित, जो जाने भगवान।सुख स्वरूप दर्शन करे, ताको है कल्याण।।थित हो व्यापक प्रभु के मांही, प्रभु के संग संग सब ठाँही।जो अभिलाषा करता मन में, पूरी होवे उसकी छन में।यही मुक्ति या ही कल्याना, परम गति आनन्द विधाना। प्रश्न – ज्यों जग में बिन देह के, संभव नहीं सुख कोय। त्यों मुक्ति में देह बिन, सुख संभव नहीं होय।उत्तर – संसारिक सुख देह अधारा, जैसे जीव पाय अनिवारा।मुक्ति में वह प्रभु आधारे, पाता आतम आनन्द सारे।जो अनन्त व्यापक भगवाना, वही जीव हित सुःख निधाना।जीव स्वछन्द भ्रमे जँह चाहे, व्यापक ब्रह्म सरित अवगाहे।शुद्ध ज्ञान से जग अवलोके, जँह चाहे जाए बिन रोके।मुक्तों सन करता सहवासा, पूरी करता मन की आसा।दृष्ट अदृष्ट लोक मँह जाये, सृष्टि ज्ञान क्रम क्रम से पाये।सब देखे जो सन्मुख आवे, अधिक ज्ञान से अति सुख पावे।विमल ज्ञन हो मुक्ति मांही, पूरण ज्ञान भूल कोऊ नाहीं।ताँते जेते निकट पदारथ, उनका जाने सार यथारथ।सुख विशेष याही को नामा, याही स्वर्ग परम सुख धामा।‘स्वः’ पद सांचे सुख का बोधक, मिथ्या विषय जन्म दुख रोधक।विषयों की तृष्णा दुख जानो, नरक धाम विषयों को मानो।जग का सुख साधारण स्वर्गा, सुख विशेष गनिये अपवर्गा।वह सुख प्रभु दर्शन ते पहिये, मोक्ष धाम वाको ही कहिये।सुख की अभिलाषा करें, दुख का चहें अभाव।यही जीव प्रत्येक का, होता सहज स्वभाव।।जब लग धर्म कर्म नहीं करते, पुण्य मार्ग में पाँव न धरते।जब लग तजें न अत्याचारा, करें न जब लग चरित सुधारा।तब लौं सुख की आश दुराशा, कबहुं न होवे दुख को नाशा।रे नर पाप दुःख को मूला, क्यों पुन पाप पंथ में भूला।छिन्ने मूले वृक्षो नश्यति तथा पापे क्षीणे दुःखं नश्यति।वृक्ष नशहि जब जड़ कट जाये, पाप कटे तो दुःख नशाये।बहु गति पाप पुण्य की भाई, निज पुस्तक मँह मनु ने गाई।मानसं मनसैवायमुपभुङ्क्ते शुभाऽशुभम्।वाचा वाचा कृतं कर्म कायेनैव च कायिकम्।।१।।शरीरजैः कर्मदौषैर्याति स्ािावरतां नरः।वाचिकैः पक्षिमृगतां मानसैरन्त्यजातिताम्।।२।।यो यदैषां गुणो देहे साकल्येनातिरिच्यते।य तदा तद्गुण प्रायं तं करोति शरीरिणम्।।३।।सत्त्वं ज्ञानं तमोऽज्ञानं रागद्वेषौ रजः स्मृतम्।एतद्व्याातिमदेतेषां सर्वभूताश्रितं वपुः।।४।।तत्र यत्प्रीतिसंयुक्तं कि९िचदात्मनि लक्षयेत्।प्रशान्तमिव शुद्धाभं सत्त्वं तदुपधारयेत्।।५।।यत्तु दुःखसमायुक्तमप्रीतिकरमात्मनः।तद्रजोऽप्रतिघं विद्यात् सततं हारि देहिनाम्।।६।।यत्तु स्यान्मोहसंयुक्तमव्यक्तं विषयात्मकम्।अप्रतर्क्यमविज्ञेयं तमस्तदुपधारयेत्।।७।।त्रयाणामपि चैतेषां गुणानां यः फलोदयः।अग्र्याो मध्यो जघन्यश्च तं प्रवक्ष्याम्यशेषतः।।८।।वेदाभ्यासस्तपो ज्ञानं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।धर्मक्रियात्मचिन्ता च सात्त्विकं गुणलक्षणम्।।९।।आरम्भरुचिताऽधैर्य्यमसत्कार्यपरिग्रहः।विषयोपसेवा चाजस्त्रं राजसं गुणलक्षणम्।।१०।।लोभः स्वप्रोऽधृतिः क्रौर्यं नास्तिक्यं भिन्नवृत्तिता।याचिष्णुता प्रमादश्च तामसं गुणलक्षणम्।।११।।यत्कर्म कृत्वा कुर्वंश्च करिष्यंश्चैव लज्जति।तज्ज्ञेयं विदुषा सर्वं तामसं गुणलक्षणम्।।१२।।येनास्मिन्कर्मणा लोके ख्यातिमिच्छति पुष्कलाम्।न च शोचत्यसम्पत्तौ तद्विज्ञेयं तु राजसम्।।१३।।यत्सर्वेणेच्छति ज्ञातुं यन्न लज्जति चाचरन्।येन तुष्यति चात्मास्य तत्सत्त्वगुणलक्षणम्।।१४।।तमसो लक्षणं कामो रजसस्त्वर्थ उच्यते।सत्त्वस्य लक्षणं धर्मः श्रैष्ट्यामेषां यथोत्तरम्।।१५।। – मनु० अ० १२ । ८-९ । २५-३३ । ३५-३८उत्तम मध्यम नीच पुन, नर के तीन स्वभाव।ग्रहण करें उत्तम सदा, नीचहिं तजें लगाव।।मन से बुरा भला जो करता, मन से ही उसका फल भरता।बानी करे तो पाये बानी, एहि विधि तनु कृत लाभ रु हानि।जो नर करते तन से चोरी, भद्र जनहिं मारें बरजोरी।पर नारी भोगी व्यभिचारी, स्थावरता के वह अधिकारी।वृक्षादिक की योनि पाएं, जड़ हो जमें खड़े रह जायें।जो बाणी से पाप कमावें, ते पशु पंछी योनि पावें।तन में जो जो गुण अधिकावें, निज सदृश वे जीव बनावें।ज्ञान रहे जब जीव मँह, तब सत गुण उपजाय।जब अज्ञान प्रधान हो, तब तम गुण अधिकाय।।रागद्वेष मँह जब यह लागे, तौ रजगुण की वृत्ति जागे।तीनहुं गुण प्रकृति के माँही, इनसे रहित वस्तु कोऊ नाहीं।जब आतम मँह होय अनांदा, अन्तःकरण शान्त निर्द्वन्दा।तब सतगुण का उदय प्रधाना, परम शान्ति आनन्द निधाना।मन आतम जब दुख संयोगी, इत उत विषय भोग उपभोगी।निरानन्द रजगुण यह कहिये, इसमें आतम सुख नहीं पहिये।मोहग्रस्त जब हों मन आतम, जग लिंपित भूले परमातम।मन आतम हों शून्य विवेका, विषयसक्ति हो अतिरेका।तर्क वितर्क रहित अज्ञाना, फंसा हो विषयों में नाना।तम गुण का तब ज्ञान प्रभावा, तीन गुणों का यही स्वभावा।तीनहुं गुण का जब फल पावे, वह पुन पूरनभाव कहावे।धर्म कर्म अरु वेदाभ्यासा, ज्ञान वृद्धि शुद्धि की आशा।इन्द्रिय निग्रह आत्म विचारा, यह सब सतगुण केरि आधारा।सत अरु तम का अन्तर्भावा, मन मँह रजगुन का उपजावा।रजगुण पहले लागे रोचन, विषयासक्ति धैर्य विमोचन।दुराचार आदिक व्यभिचारा, यह रजगुण अति दुखित असारा।उदय होय जब तमगुण केरा, सत रज डूबें अंध अँधेरा।पाप मूल तब वर्धहि लोभा, आलस निद्रा मन में क्षोभा।धैर्य नाश निष्ठुरता आवे, प्रभु का चिंतन तनिक न भावे।वेद शास्त्र से श्रद्धा टूटे, धर्म कर्म मानुष का टूटे।छिन्न भिन्न वृत्ति हो मन की, दुष्ट वृत्ति हो तामस जन की।चित्त एकाग्र रहे नहीं ताका, व्यसनों में मन फसता जाका।यह सब तम गुण के हैं क्षण, जानें इसको धीर विचक्षण।जिस नर का जब आत्मा, कर्म करे लजिजाय।शंका भय से भत हो, जानो तम अधिकाय।।जो जन चाहे आतम चर्चा, जग कीरति अरु अपनी अर्चा।भाट जनों को देवे दाना, अरु सुनता निज कीरति गाना।निर्धन है पर यश अभिलाष, ताके मन रजगुण को बासा।जो नर अपना ज्ञान बढ़ाए, ज्ञान प्राप्ति में चित्त लगाये।सत्कर्मों में अति रुचि राखे, मन में सतगुण को अभिलाखे।चित प्रसन्न मन ज्ञान विकासा, सतगुण का इसमें परकासा।तम गुण का है लक्षण कामा, धन संग्रह रुचि रजगुण धामा।धर्म भाव जिसके मन सेवा, सो चाखे सतगुण को मेवा।देवत्वं सात्त्विका यान्ति मनुष्यत्व९च राजसाः।तिर्यक्त्वं तामसा नित्यमित्येषा त्रिविधा गतिः।।१।।स्थावाः कृमिकीटाश्च मत्स्याः सर्पाश्च कच्छपाः।पशवश्च मृगाश्चैव जघन्या तामसी गतिः।।२।।हस्तिनश्च तुरङ्गाश्च शूद्रा म्लेच्छाश्च गर्हिताः।सिंहा व्याघ्रा वराहाश्च मध्यमा तामसी गतिः।।३।।चारणाश्च सुपर्णाश्च पुरुषाश्चैव दाम्भिकाः।रक्षांसि च पिशाचाश्च तामसीषूत्तमा गतिः।।४।।झल्ला मल्ला नटाश्चैव पुरुषाः शस्त्रवृत्तयः।द्यूतपानप्रसक्ताश्च जघन्या राजसी गतिः।।५।।राजानः क्षत्रियाश्चैव राज्ञां चैव पुरोहिताः।वादयुद्धप्रधानाश्च मध्यमा राजसी गतिः।।६।।गन्धवां गुह्यका यक्षा विबुधानुचराश्च ये।तथैवात्सरसः सर्वा राजसीषूत्तमा गतिः।।७।।तापसा यतयो विप्रा ये च वैमानिका गुणाः।नक्षत्राणि च दैत्याश्च प्रथमा सात्त्विकी गतिः।।८।।य९वान ऋषयो देवा वेदा ज्योतींषि वत्सराः।पितरश्चैव साध्याश्च द्वितीया सात्त्विकी गतिः।।९।।ब्रह्मा विश्वसृजो धर्म्मो महानव्यक्तमेव च।उत्तमां सात्त्विकीमेतां गतिमाहुर्मनीषिणः।।१०।।इन्द्रियाणां प्रसङ्गेन धर्मस्यासेवनेन च।पापान्संयान्ति संसारानविद्वांसो नराधमाः।।११।। – मनु० अ० १२२ । ४० । ४२-५० । ५२सत गुण जिनके मन बसे, वही देव विद्वान।जिसकी गति है राजसी, उनको मानुष जान।।तमो गुणी जेते नर नारी, नीच गति तिनकी दुखियारी।अतिशय तमगुण जिनमें व्यापहि, ते नर स्थावर योनिहिं प्रापहिं।वृक्ष कीट कृमि कच्छप मीना, मृग पशु सर्प आदि अति दीना।मध्यम तम गुण जिनके अन्दर, हाथी बनें रहें गिरि कंदर।शूद्र मलेच्छ आदि घसियारे, नीच कर्म के करने हारे।सिंह व्याघ्र सूकर अरु घोड़े, इनमें उनमें नर तनु छोड़े।उत्तम तमो गुणी हों चारण, जो विरदावलि करें उचारण।सुन्दर पंछी आतम शंसी, दंभी कपटी पर विध्वंसी।हिंसक राक्षक और पिशाचा, मद्य मांस जिनके मन राचा।अधम रजोगुण बनते झज्जा, नट पुन कुश्ती गीर रु मल्ला।खेवट शस्त्रहार मदपाई, किंकर चाकर बनते भाई।जो मध्यम गुण राजसी, वे पुन बने नरेश।राज गुरु शास्त्रार्थी, राज पुत्र शुभ वेश।।सेनापति अरु प्राड़ विवाका, मध्यम रजपरिणाम विपाका।जे उत्तम रज गुण के धारी, वे गंधर्व बनें नर नारी।गुह्यक वाद्य बजाने हारे, धनिक जनों की सेवा वारे।सुन्दर नारी का तनु पावें, सुख लूटें नाचें अरु गावें।प्रथम सतोगुण जहाँ प्रधाना, उसका यह फल मनु ने माना।यति तपस्वी अरु सन्यासी, बहुर वेद विद्या के रासो।नभ में व्योम यान संचालक, ज्योतिष से निज उदर प्रपालक।दैत्य पुरुष तनुपोषण हारे, पुष्ट देह अरु रहें सुखारे।मध्यम सत गुण युक्त जे ते नर अति विद्वान।वेद अर्थवित अति कुशल, सकल कालवित जान।।काल रु विद्युत कला प्रवीना, याजक यज्ञ पाप से हीना।निर्बल रक्षक ज्ञान अधारा, अध्यातम विद्या भण्डारा।जो उत्तम सतगुण के स्वामी, वे नर ब्रह्मा सुख के धामी।चतुरवेद विद्या के ज्ञाता, विश्वसृज वे विश्व विधाता।सृष्टि क्रम को जानन हारे, ज्ञान पसारे इह संसारे।सुन्दर वायु विमान बनावें, नूतन नित्य कला उपजावें।वशीभूत प्रकृति को करते, आवागमन चक्र से टरते।जे नर पापी विषय रत, मन इन्द्रिय के दास।नीच योनि में जन्म लें, दुख पावें यम त्रास।।जो जो कर्म जीव जसु कर्ता, तेहि विधि योनि में अवतरता।यही त्रिविध माया को फंदा, फसे जाल में मानुष अन्धा।त्रिगुणातीत पुरुष जन योगी, मुक्त होय ब्रह्मानन्द भोगी।योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।१।।तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।।२।। – योगदर्शन पा० १जब एकाग्र चित हो जावे, सगरे विषयों से रुक जावे।तब उस को मिलता परमातम, ब्रह्म अंक में बैठे आतम।यह साधन मुक्ति को करता, इनको करके भवनिधि तरता।अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः।। – सांख्य० १। १सत रज तम से रोक मन, प्रभु में चित्त लगाय।मन को थिर कर लीजिए, वृत्ति सकल हटाय।।अधिभौतिक अध्यात्मिक, अधिदैविक दुख तीन।इनसे निवृत्ति पाय कर, मुक्ति पाँय प्रवीन।।इति श्री आर्य महाकवि जयगोपाल विरचिते सत्यार्थप्रकाशकवितामृते नवमः समुल्लासः समाप्तः।।