मूल स्तुति
तमीशा॑नं॒ जग॑तस्त॒स्थुष॒स्पतिं॑ धियञ्जि॒न्वमव॑से हूमहे व॒यम्।
पू॒षा नो॒ यथा॒ वेद॑सा॒मस॑द्वृ॒धे र॑क्षि॒ता पा॒युरद॑ब्धः स्व॒स्तये॑॥५०॥
यजु॰ २५।१८
व्याख्यान—हे सुख और मोक्ष की इच्छा करनेवाले जनो! उस परमात्मा को ही “हूमहे” हम लोग प्राप्त होने के लिए अत्यन्त स्पर्धा करते हैं कि उसको हम कब मिलेंगे। क्योंकि वह “ईशानम्” (सब जगत् का स्वामी) है और ईषण (उत्पादन) करने की इच्छा करनेवाला है। दो प्रकार का जगत् है—चर और अचर इन दोनों प्रकार के जगत् का पालन करनेवाला वही है, “धियञ्जिन्वम्” विज्ञानमय, विज्ञानप्रद और तृप्तिकारक ईश्वर से अन्य कोई नहीं है। उसको “अवसे” अपनी रक्षा के लिए हम स्पर्धा (इच्छा) से आह्वान करते हैं, जैसे वह ईश्वर “पूषा” हमारे लिए पोषणप्रद है, वैसे ही “वेदसाम्” धन और विज्ञानों की वृद्धि का “रक्षिता” रक्षक है तथा “स्वस्तये” निरुपद्रवता के लिए हमारा “पायुः” पालक वही है और “अदब्धः” हिंसारहित है। इसलिए ईश्वर जो निराकार, सर्वानन्दप्रद है, हे मनुष्यो! उसको मत भूलो, विना उसके कोई सुख का ठिकाना नहीं है॥५०॥