मूल प्रार्थना
तच्चक्षु॑र्दे॒वहि॑तं पु॒रस्ता॑च्छु॒क्रमुच्च॑रत्। पश्ये॑म श॒रदः॑ श॒तं जीवे॑म श॒रदः॑ श॒तꣳ शृणु॑याम श॒रदः॑ श॒तं प्रब्र॑वाम श॒रदः॑ श॒तमदी॑नाः स्याम श॒रदः॑ श॒तं भूय॑श्च श॒रदः॑ श॒तात्॥३७॥ यजु॰ ३६।२४
व्याख्यान—वह ब्रह्म, “चक्षुः” सर्वदृक् चेतन है तथा देव, अर्थात् विद्वानों के लिए वा मन आदि इन्द्रियों के लिए हितकारक मोक्षादि सुख का दाता है, “पुरस्तात्” सबका आदि प्रथम कारण वही है “शुक्रम्” सबका करनेवाला किंवा शुद्धस्वरूप है। “उच्चरत्” प्रलय के ऊर्ध्व वही रहता है, उसी की कृपा से हम लोग १०० वर्ष तक देखें, जीवें, सुनें, कहें, किसी के पराधीन न हों, अर्थात् ब्रह्मज्ञान, बुद्धि और पराक्रमसहित इन्द्रिय तथा शरीर सब स्वस्थ रहें। ऐसी कृपा आप करें कि कोई अङ्ग मेरा निर्बल (क्षीण) तथा रोगयुक्त न हो तथा सौ वर्ष से अधिक भी आप कृपा करें कि (शत) सौ वर्ष से उपरान्त भी हम देखें, जीवें, सुनें, कहें और स्वाधीन ही रहें॥३७॥