मूल स्तुति
कि स्वि॒द्वनं॒ क उ॒ स वृ॒क्ष आ॑स॒ यतो॒ द्यावा॑पृथि॒वी नि॑ष्टत॒क्षुः।
मनी॑षिणो॒ मन॑सा पृ॒च्छतेदु॒ तद्यद॒ध्यति॑ष्ठ॒द् भुव॑नानि धा॒रय॑न्॥३६॥
यजु॰ १७।२०
व्याख्यान—(प्रश्न) विद्या क्या है? वन और वृक्ष किसको कहते हैं? (उत्तर) जिस सामर्थ्य से विश्वकर्मा ईश्वर ने जैसे तक्षा (बढ़ई) अनेकविध रचना से अनेक पदार्थ रचता है, वैसे ही स्वर्ग (सुखविशेष) और भूमि, मध्य सुखवाला लोक तथा नरक दुःखविशेष और सब लोकों को रचा है, उसी को वन और वृक्ष कहते हैं। हे “मनीषिणः” विद्वानो! जो सब भुवनों को धारण करके सब जगत् में और सबके ऊपर विराजमान हो रहा है, उसके विषय में प्रश्न तथा उसका निश्चय तुम लोग करो। “मनसा” उसी के विज्ञान से जीवों का कल्याण होता है, अन्यथा नहीं॥३६॥