मूल प्रार्थना
सु॒मि॒त्रि॒या न॒ऽआप॒ऽओष॑धयः सन्तु दुर्मित्रि॒यास्तस्मै॑ सन्तु॒
योऽस्मान् द्वेष्टि॒ यं च॑ व॒यं द्वि॒ष्मः॥२९॥यजु॰ ३६।२३॥
व्याख्यान—हे सर्वमित्रसम्पादक! आपकी कृपा से प्राण और जल तथा विद्या और ओषधि “सुमित्रियाः” सुखदायक हम लोगों के लिए सदा हों, कभी प्रतिकूल न हों और जो हमसे द्वेष, अप्रीति, शत्रुता करता है तथा जिस दुष्ट से हम द्वेष करते हैं, हे न्यायकारिन्! उसके लिए “दुर्मित्रियाः” पूर्वोक्त प्राणादि प्रतिकूल, दुःखकारक ही हों, अर्थात् जो अधर्म करे उसको आपके रचे जगत् के पदार्थ दुःखदायक ही हों, जिससे वह हमको दुःख न दे सके, पुनः हम लोग सदा सुखी ही रहें॥२९॥