मूल स्तुति
ब्रह्म॑ जज्ञा॒नं प्र॑थ॒मं पु॒रस्ता॒द्वि सी॑म॒तः सु॒रुचो॑ वे॒नऽआ॑वः।
स बु॒ध्न्याऽउप॒माऽअ॑स्य वि॒ष्ठाः स॒तश्च॒ योनि॒मस॑तश्च॒ वि वः॑॥२८॥
यजु॰ १३।३
व्याख्यान—हे महीय परमेश्वर! आप बड़ों से भी बड़े हो, आपसे बड़ा वा आपके तुल्य कोई नहीं है “जज्ञानम्” सब जगत् में व्यापक (प्रादुर्भूत) हो, सब जगत् के प्रथम (आदिकारण) आप ही हो, सूर्यादि लोक “सीमतः” सीमा से युक्त (मर्यादासहित) “सुरुचः” आपसे प्रकाशित हैं, “पुरस्तात्” इनको पूर्व रचके आप ही धारण कर रहे हो, “वि आवः” इन सब लोकों को विविध नियमों से पृथक्-पृथक् यथायोग्य वर्त्ता रहे हो, “वेनः” आपके आनन्दस्वरूप होने से ऐसा कोई जन संसार में नहीं है जो आपकी कामना न करे, किन्तु सब ही आपको मिला चाहते हैं तथा आप अनन्त विद्यायुक्त हो, सब रीति से (आ समन्तात्) रक्षक आप ही हो। सो ही परमात्मा “बुध्न्याः” अन्तरिक्षान्तर्गत दिशादि पदार्थों को “विवः” विवृत=विभक्त करता है। वे अन्तरिक्षादि “उपमा” सब व्यवहारों में उपयुक्त होते हैं और वे इस विविध जगत् के निवासस्थान हैं। “सत्” विद्यमान स्थूलजगत् “असत्” अविद्यमान (अव्यक्त), चक्षुरादि इन्द्रियों से अगोचर इस विविध जगत् की “योनिः”=आदिकारण आपको ही वेदशास्त्र और विद्वान् लोग कहते हैं, इससे इस जगत् के माता-पिता आप ही हैं, हम लोगों के भजनीय इष्टदेव हो॥२८॥