अथ ऋत्विग्वरणम्
यजमानोक्तिः :- ओम् आवसो सदने सीद।
ऋत्विगुक्तिः :- ओं सीदामि।
यजमानोक्तिः :- ओं तत्सत् श्रीब्रह्मणो द्वितीयप्रहरोत्तरार्द्धे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमें कलियुगे कलिप्रथम- चरणेऽमुक….. संवत्सरे, …..अयने, …..ऋतौ, …..मासे, …..पक्षे, …..तिथौ, …..दिवसे, …..लग्ने, …..मुहुर्ते जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तदेशान्तर्गते …..प्रान्ते, …..जनपदे, …..मण्डले, …..ग्रामे/नगरे, …..आवासे/भवने अहम् …..कर्मकरणाय भवन्तं वृणे।
ऋत्विगुक्तिः :- वृतोऽस्मि।
अथाचमन-मन्त्राः
ओम् अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।। १।। इससे एक
ओम् अमृतापिधानमसि स्वाहा।। २।। इससे दूसरा
ओ३म् सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा।। ३।। (तैत्तिरीय आरण्यक प्र. १०/अनु. ३२, ३५) इससे तीसरा आचमन करके तत्पश्चात् जल लेकर नीचे लिखे मन्त्रों से अंगों को स्पर्श करें।
अथ अङ्गस्पर्श-मन्त्राः
ओं वाङ्म आस्ये ऽ स्तु। इस मन्त्र से मुख
ओं नसोर्मे प्राणो ऽ स्तु। इस मन्त्र से नासिका के दोनों छिद्र
ओं अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु। इस मन्त्र से दोनों आंख
ओं कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु। इस मन्त्र से दोनों कान
ओं बाह्वोर्मे बलमस्तु। इस मन्त्र से दोनों बाहु
ओम् ऊर्वोर्म ओजो ऽ स्तु। इस मन्त्र से दोनों जंघा
ओम् अरिष्टानि मे ऽ ङ्गानि तनूस्तन्वा मे सह सन्तु। इस मन्त्र से दाहिने हाथ से जल स्पर्श करके मार्जन करना। (पारस्कर गृ.का.२/क.३/सू.२५)
अथ-ईश्वर-स्तुति-प्रार्थनोपासनामन्त्राः
ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।
यद् भद्रन्तन्न ऽ आसुव।। १।। (यजु अ.३०/मं.३)
हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके हमारे सम्पूर्ण दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए; जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं वह सब हमको प्राप्त कीजिए।
सकल जगत के उत्पादक हे, हे सुखदायक शुद्ध स्वरूप।
हे समग्र ऐश्वर्ययुक्त हे, परमेश्वर हे अगम अनूप।।
दुर्गुण-दुरित हमारे सारे, शीघ्र कीजिए हमसे दूर।
मंगलमय गुण-कर्म-शील से, करिए प्रभु हमको भरपूर।।
हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक ऽ आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।। २।। (यजु.अ.१३/मं.४)
जो स्वप्रकाश स्वरूप और जिसने प्रकाश करनेहारे सूर्य चन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किए हैं। जो उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का प्रसिद्ध स्वामी एक ही चेतन स्वरूप था। जो सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्व वर्तमान था। सो इस भूमि और सूर्यादि का धारण कर रहा है। हम लोग उस सुखस्वरूप शुद्ध परमात्मा के लिए ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अतिप्रेम से विशेष भक्ति किया करें।
छिपे हुए थे जिसके भीतर, नभ में तेजोमय दिनमान।
एक मात्र स्वामी भूतों का, सुप्रसिद्ध चिद्रूप महान्।।
धारण वह ही किए धरा को, सूर्यलोक का भी आधार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।
य ऽ आत्मदा बलदा यस्य विश्व ऽ उपासते प्रशिषं यस्य देवाः।
यस्य छाया ऽ मृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। ३।। (यजु.२५/१३)
जो आत्मज्ञान का दाता, शरीर, आत्मा और समाज के बल का देनेहारा है। जिसकी सब विद्वान लोग उपासना करते हैं। जिसके प्रत्यक्ष सत्यस्वरूप शासन, न्याय अर्थात् शिक्षा को मानते हैं। जिसका आश्रय ही मोक्ष सुखदायक है। जिसका न मानना अर्थात् भक्ति इत्यादि न करना ही मृत्यु आदि दुःख का हेतु है। हम लोग उस सुखस्वरूप, सकल ज्ञान के देनेहारे परमात्मा की प्राप्ति के लिए आत्मा और अन्तःकरण से भक्ति अर्थात् उसी की आज्ञा पालन करने में तत्पर रहें।
आत्मज्ञान का दाता है जो, करता हमको शक्ति प्रदान।
विद्वद्वर्ग सदा करता है, जिसके शासन का सम्मान।।
जिसकी छाया सुखद सुशीतल, दूरी है दुःख का भंडार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।
यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक ऽ इद्राजा जगतो बभूव।
य ऽ ईशे ऽ अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। ४।। (ऋ. १०/१२१/३)
जो प्राणवाले और अप्राणिरूप जगत् का अपनी अनन्त महिमा से एक ही विराजमान राजा है। जो इस मनुष्यादि और गौ आदि प्राणियों के शरीर की रचना करता है। हम लोग उस सुखस्वरूप सकल ऐश्वर्य के देनेहारे परमात्मा की उपासना अर्थात् अपनी सकल उत्तम सामग्री को उसकी आज्ञापालन में समर्पित करके उसकी विशेष भक्ति करें।
जो अनन्त महिमा से अपनी, जड़-जंगम का है अधिराज।
रचित और शासित हैं जिससे, जगतिभर का जीव समाज।।
जिसके बल विक्रम का यश का, कण-कण करता जयजयकार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।
येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढ़ा येन स्वः स्तभितं येन नाकः।
यो ऽ न्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। ५।। (यजु.अ.३२/मं.६)
जिस परमात्मा ने तीक्ष्ण स्वभाव वाले सूर्य आदि और भूमि को धारण किया है, जिस जगदीश्वर ने सुख को धारण किया है और जिस ईश्वर ने दुःख रहित मोक्ष को धारण किया है। जो आकाश में सब लोक-लोकान्तरों को विशेष मानयुक्त अर्थात् जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं वैसे सब लोकों निर्माण करता और भ्रमण कराता है, हम लोग उस सुखदायक कामना करने के योग्य परब्रह्म की प्राप्ति के लिए सब सामर्थ्य से विशेष भक्ति करें।
किया हुआ है धारण जिसने, नभ में तेजोमय दिनमान।
परमशक्तिमय जो प्रभु करता, वसुधा को अवलम्ब प्रदान।।
सुखद मुक्तिधारक लोकों का, अन्तरिक्ष में सिरजनहार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।
प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव।
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्।। ६।। (ऋ.म.१०/सू.१२१/मं.१०)
हे सब प्रजा के स्वामी परमात्मा आप से भिन्न दूसरा कोई उन इन सब उत्पन्न हुए जड़-चेतनादिकों को नहीं तिरस्कार करता है, अर्थात् आप सर्वोपरी हैं। जिस-जिस पदार्थ की कामनावाले हम लोग आपका आश्रय लेवें और वांच्छा करें, वह कामना हमारी सिद्ध होवे, जिससे हम लोग धनैश्वर्यों के स्वामी होवें।
जड़ चेतन जगति के स्वामी, हे प्रभु तुमसा और नहीं।
जहां समाए हुए न हो तुम, ऐसा कोई ठौर नहीं।।
जिन पावन इच्छाओं को ले, शरण आपकी हम आएं।
पूरी होवें सफल सदा हम, विद्या-धन-वैभव पाएं।।
स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।
यत्र देवा ऽ अमृतमानशाना- स्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त।। ७।। (यजु.अ.३२/मं.१०)
हे मनुष्यों वह परमात्मा अपने लोगों का भ्राता के समान सुखदायक, सकल जगत् का उत्पादक, वह सब कामों का पूर्ण करनेहारा, सम्पूर्ण लोकमात्र और नाम-स्थान-जन्मों को जानता है। जिस सांसारिक सुख-दुःख से रहित नित्यानन्दयुक्त मोक्षस्वरूप धारण करनेहारे परमात्मा में मोक्ष को प्राप्त होके विद्वान् लोग स्वेच्छापूर्व्रक विचरते हैं वही परमात्मा अपना गुरु, आचार्य, राजा और न्यायाधीश है। अपने लोग मिलके सदा उसकी भक्ति किया करें।
भ्राता तुल्य सुखद् वह ही प्रभु, सकल जगत् का जीवन प्राण।
मानव के सब यत्न उसी की, करुणा से होते फलवान।।
सदानन्दमय धाम तीसरा, सुख-दुःख के द्वन्द्वों से दूर।
करके प्राप्त उसे ज्ञानी जन, आनन्दित रहते भरपूर।।
अग्ने नय सुपथा राये ऽ अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम ऽ उक्तिं विधेम।। ८।। (यजु.अ.४०/मं.१६)
हे स्वप्रकाश, ज्ञानस्वरूप, सब जगत् के प्रकाश करनेहारे सकल सुखदाता परमेश्वर ! आप जिससे सम्पूर्ण विद्यायुक्त हैं, कृपा करके हम लोगों को विज्ञान वा राज्यादि ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए अच्छे धर्मयुक्त आप्त लोगों के मार्ग से सम्पूर्ण प्रज्ञान और उत्तम कर्म प्राप्त कराइये और हमसे कुटिलतायुक्त पापरूप कर्म को दूर कीजिए। इस कारण हम लोग आपकी बहुत प्रकार से नम्रतापूर्वक स्तुति सदा किया करें और आनन्द में रहें।
स्वयं प्रकाशित ज्ञानरूप हे ! सर्वविद्य हे दयानिधान।
धर्ममार्ग से प्राप्त कराएं, हमें आप ऐश्वर्य महान्।।
पापकर्म कौटिल्य आदि से, रहें दूर हम हे जगदीश।
अर्पित करते नमन आपको, बारंबार झुकाकर शीश।।
अथ स्वस्तिवाचनम्
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्।
होतारं रत्नधातमम्।। १।। (ऋ.१/१/१)
स नः पितेव सूनवेऽग्ने सूपायनो भव।
सचस्वा नः स्वस्तये।। २।। (ऋ.१/१/९)
स्वस्ति नो मिमीतामश्विना भगः स्वस्ति देव्यदितिरनर्वणः।
स्वस्ति पूषा असुरो दधातु नः स्वस्ति द्यावापृथिवी सुचेतुना।।३।। (ऋ.५/५१/११)
स्वस्तये वायुमुप ब्रवामहै सोमं स्वस्ति भुवनस्य यस्पतिः।
बृहस्पतिं सर्वगणं स्वस्तये स्वस्तय आदित्यासो भवन्तु नः।। ४।। (ऋ.५/५१/१२)
विश्वे देवा नो अद्या स्वस्तये वैश्वानरो वसुरग्निः स्वस्तये।
देवा अवन्त्वृभवः स्वस्तये स्वस्ति नो रुद्रः पात्वंहसः।। ५।। (ऋ.५/५१/१३)
स्वस्ति मित्रावरुणा स्वस्ति पथ्ये रेवति।
स्वस्ति न इन्द्रश्चाग्निश्च स्वस्ति नो अदिते कृधि।। ६।। (ऋ.५/५१/१४)
स्वस्ति पन्थामनु चरेम सूर्याचन्द्रमसाविव। पुनर्ददताघ्नता जानता सं गमेमहि।। ७।।
(ऋ.५/५१/१५)
ये देवानां यज्ञिया यज्ञियानां मनोर्यजत्रा अमृता ऋतज्ञाः।
ते नो रासन्तामुरुगायमद्य यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः।। ८।। (ऋ.७/३५/१५)
येभ्यो माता मधुमत्पिन्वते पयः पीयूषं द्यौ- रदितिरद्रिबर्हाः।
उक्थशुष्मान् वृषभरान्त्स्वप्नसस्ताँ आदित्याँ अनुमदा स्वस्तये।। ९।। (ऋ.१०/६३/३)
नृचक्षसो अनिमिषन्तो अर्हणा बृहद्देवासो अमृतत्वमानशुः।
ज्योतीरथा अहिमाया अनागसो दिवो वर्ष्माणं वसते स्वस्तये।। १०।।
(ऋ.१०/६३/४)
सम्राजो ये सुवृधो यज्ञमाययुरपरिह्वृता दधिरे दिवि क्षयम्।
ताँ आ विवास नमसा सुवृक्तिभिर्महो आदित्याँ अदितिं स्वस्तये।। ११।। (ऋ.१०/६३/५)
को वः स्तोमं राधति यं जुजोषथ विश्वे देवासो मनुषो यति ष्ठन।
को वोऽध्वरं तुविजाता अरं करद्यो नः पर्षदत्यंहः स्वस्तये।। १२।।
(ऋ.१०/६३/६)
येभ्यो होत्रां प्रथमामायेजे मनुः समिद्धाग्निर्मनसा सप्त होतृभिः।
त आदित्या अभयं शर्म यच्छत सुगा नः कर्त सुपथा स्वस्तये।। १३।। (ऋ.१०/६३/७)
य ईशिरे भुवनस्य प्रचेतसो विश्वस्य स्थातुर्जगतश्च मन्तवः।
ते नः कृतादकृतादेनसस्पर्यद्या देवासः पिपृता स्वस्तये।।
।। १४।। (ऋ.१०/६३/८)
भरेष्विन्द्रं सुहवं हवामहेंऽहोमुचं सुकृतं दैव्यं जनम्।
अग्निं मित्रं वरुणं सातये भगं द्यावापृथिवी मरुतः स्वस्तये।। १५।। (ऋ.१०/६३/९)
सुत्रामाणं पृथिवीं द्यामनेहसं सुशर्माणमदितिं सुप्रणीतिम्।
दैवीं नावं स्वरित्रामनागसमस्रवन्तीमा रुहेमा स्वस्तये।। १६।। (ऋ.१०/६३/१०)
विश्वे यजत्रा अधि वोचतोतये त्रायध्वं नो दुरेवाया अभिह्रुतः।
सत्यया वो देवहूत्या हुवेम शृण्वतो देवा अवसे स्वस्तये।। १७।। (ऋ.१०/६३/११)
अपामीवामप विश्वामनाहुतिमपारातिं दुर्विदत्रा- मघायतः।
आरे देवा द्वेषो अस्मद्युयोतनोरु णः शर्म यच्छता स्वस्तये।। १८।। (ऋ.१०/६३/१२)
अरिष्टः स मर्तो विश्व एधते प्र प्रजाभिर्जायते धर्मणस्परि।
यमादित्यासो नयथा सुनीतिभिरति विश्वानि दुरिता स्वस्तये।। १९।। (ऋ.१०/६३/१३)
यं देवासोऽवथ वाजसातौ यं शूरसाता मरुतो हिते धने।
प्रातर्यावाणं रथमिन्द्र सानसिमरिष्यन्तमा रुहेमा स्वस्तये।। २०।। (ऋ.१०/६३/१४)
स्वस्ति नः पथ्यासु धन्वसु स्वस्त्यप्सु वृजने स्वर्वति।
स्वस्ति नः पुत्रकृथेषु योनिषु स्वस्ति राये मरुतो दधातन।। २१।। (ऋ.१०/६३/१५)
स्वस्तिरिद्धि प्रपथे श्रेष्ठा रेक्णस्वत्यभि या वाममेति।
सा नो अमा सो अरणे नि पातु स्वावेशा भवतु देवगोपा।। २२।। (ऋ.१०/६३/१६)
इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणऽआप्यायध्वमघ्न्या इन्द्राय भागं प्रजावतीरनमीवाऽअयक्ष्मा मा व स्तेनऽईशत माघश सो ध्रुवाऽअस्मिन् गोपतौ स्यात बह्वीर्यजमानस्य पशून् पाहि।। २३।। (यजु.१/१)
आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो- ऽ अपरीतासऽउद्भिदः।
देवा नो यथा सदमिद् वृधेऽअसन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवेदिवे।। २४।।
(यजु.२५/१४)
देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवाना द्भञ रातिरभि नो निवर्त्तताम्।
देवाना द्भञ सख्यमुपसेदिमा वयं देवा न आयुः प्रतिरन्तु जीवसे ।।२५।।
(यजु.२५/१५)
तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियञ्जिन्वमवसे हूमहे वयम्।
पूषा नो यथा वेदसामसद् वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये।। २६।। (यजु.२५/१८)
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो ऽ अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।। २७।। (यजु.२५/१९)
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवा द्भञ सस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः।। २८।। (यजु.२५/२१)
अग्न आ याहि वीतये गृणानो हव्यदातये।
नि होता सत्सि बर्हिषि।। २९।। (सा.पू.१/१/१)
त्वमग्ने यज्ञाना द्भञ होता विश्वेषा द्भञ हितः।
देवेभिर्मानुषे जने।। ३०।। (सा.पू.१/१/२)
ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभ्रतः।
वाचस्पतिर्बला तेषां तन्वोऽअद्य दधातु मे।। ३१।। (अथर्व.१/१/१)
अथ शान्तिकरणम्
शं न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शं न इन्द्रावरुणा रातहव्या।
शमिन्द्रासोमा सुविताय शं योः शं न इन्द्रापूषणा वाजसातौ।। १।। (ऋ.७/३५/१)
शं नो भगः शमु नः शंसो अस्तु शं नः पुरन्धिः शमु सन्तु रायः।
शं नः सत्यस्य सुयमस्य शंसः शं नो अर्यमा पुरुजातो अस्तु।। २।। (ऋ.७/३५/२)
शं नो धाता शमु धर्ता नो अस्तु शं न उरूची भवतु स्वधाभिः।
शं रोदसी बृहती शं नो अद्रिः शं नो देवानां सुहवानि सन्तु।। ३।। (ऋ.७/३५/३)
शं नो अग्निर्ज्योतिरनीको अस्तु शं नो मित्रावरुणावश्विना शम्।
शं नः सुकृतां सुकृतानि सन्तु शं न इषिरो अभि वातु वातः।। ४।। (ऋ.७/३५/४)
शं नो द्यावापृथिवी पूर्वहूतौ शमन्तरिक्षं दृशये नो अस्तु।
शं न ओषधीर्वनिनो भवन्तु शं नो रजसस्पतिरस्तु जिष्णुः।। ५।। (ऋ.७/३५/५)
शं न इन्द्रो वसुभिर्देवो अस्तु शमादित्येभिर्वरुणः सुशंसः।
शं नो रुद्रो रुद्रेभिर्जलाषः शं नस्त्वष्टा- ग्नाभिरिह शृणोतु।। ६।। (ऋ.७/३५/६)
शं नः सोमो भवतु ब्रह्म शं नः शं नो ग्रावाणः शमु सन्तु यज्ञाः।
शं नः स्वरूणां मितयो भवन्तु शं नः प्रस्वः शम्वस्तु
वेदिः।। ७।। (ऋ.७/३५/७)
शं नः सूर्य उरुचक्षा उदेतु शं नश्चस्रः प्रदिशो भवन्तु।
शं नः पर्वता ध्रुवयो भवन्तु शं नः सिन्धवः शमु सन्त्वापः।। ८।। (ऋ.७/३५/८)
शं नो अदितिर्भवतु व्रतेभिः शं नो भवन्तु मरुतः स्वर्काः।
शं नो विष्णुः शमु पूषा नो अस्तु शं नो भवित्रं शम्वस्तु वायुः।। ९।।
(ऋ.७/३५/९)
शं नो देवः सविता त्रायमाणः शं नो भवन्तूषसो विभातीः
शं नः पर्जन्यो भवतु प्रजाभ्यः शं नः क्षेत्रस्य पतिरस्तु शम्भुः।। १०।। (ऋ.७/३५/१०)
शं नो देवा विश्वदेवा भवन्तु शं सरस्वती सह धीभिरस्तु।
शमभिषाचः शमुरातिषाचः शं नो दिव्याः पार्थिवाः शं नो अप्याः।। ११।।
(ऋ.७/३५/११)
शं नः सत्यस्य पतयो भवन्तु शं नो अर्वन्तः शमु सन्तु गावः।
शं नः ऋभवः सुकृतः सुहस्ताः शं नो भवन्तु पितरो हवेषु।। १२।।
(ऋ.७/३५/१२)
शं नो अज एकपाद्देवो अस्तु शं नोऽहिर्बुध्न्यः शं समुद्रः।
शं नो अपां नपात्पेरुरस्तु शं नः पृश्निर्भवतु देवगोपाः।। १३।। (ऋ.७/३५/१३)
इन्द्रो विश्वस्य राजति। शन्नोऽअस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे।। १४।। (यजु.३६/८)
शन्नो वातः पवता द्भञ शन्नस्तपतु सूर्य्यः।
शन्नः कनिक्रदद्देवः पर्जन्योऽअभि वर्षतु।। १५।। (यजु.३६/१०)
अहानि शम्भवन्तु नः श रात्रीः प्रति धीयताम्।
शन्न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शन्न इन्द्रावरुणा रातहव्या।
शन्न इन्द्रापूषणा वाजसातौ शमिन्द्रासोमा सुविताय शंयोः।। १६।। (यजु.३६/११)
शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये।
शंयोरभि स्रवन्तु नः।। १७।। (यजु.३६/१२)
द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि।। १८।। (यजु.३६/१७)
तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्।
पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शत शृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतम्भूयश्च शरदः शतात्।। १९।। (यजु.३६/२४)
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति।
दूरग्मं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।। २०।। (यजु.३४/१)
येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः।
यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२१।। (यजु.३४/२)
यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु।
यस्मान्नऽऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।। २२।। (यजु.३४/३)
येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत्परिगृहीतममृतेन सर्वम्।
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२३।। (यजु.३४/४)
यस्मिन्नृचः साम यजू द्भञ षि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः।
यस्मिँश्चित्त सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२४।। (यजु.३४/५)
सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिनऽइव।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२५।।
(यजु.३४/६)
स नः पवस्व शं गवे शं जनाय शमर्वते।
श द्भञ राजन्नोषधीभ्यः।। २६।। (साम.उ.१/१/३)
अभयं नः करत्यन्तरिक्षमभयं द्यावापृथिवी उभे इमे।
अभयं पश्चादभयं पुरस्तादुत्तरादधरा- दभयं नो अस्तु।।२७।। (अथर्व.१९/१५/५)
अभयं मित्रादभयममित्रादभयं ज्ञातादभयं परोक्षात्।
अभयं नक्तमभयं दिवा नः सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु।।२८।। (अथर्व.१९/१५/६)
अग्न्याधानम्
ओं भूर्भुवः स्वः। (गोभिल.गृ.प.१/खं.१/सू.११)
ओं भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा। तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठे ऽ ग्निमन्ना दमन्नाद्यायादधे।। (यजृ.अ.३/मं.५)
ओम् उद् बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते स ँ् सृजेथामय९च। अस्मिन्त्सधस्थे ऽ अध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्चसीदत।। (यजु. १५/५४)
समिदाधानम्
ओम् अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्द्धस्व चेद्ध वर्द्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसे नान्नाद्येन समेधय स्वाहा। इदमग्नये जातवेदसे – इदन्न मम।। १।।
(आश्वलायन गृ.सू. १/१०/१२) इस मन्त्र से घृत में डुबोकर पहली..
ओं समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम्।
आस्मिन् हव्या जुहोतन स्वाहा।।
इदमग्नये – इदन्न मम।। २।। (यजु. ३/१)
इससे और..
सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन।
अग्नये जातवेदसे स्वाहा।। इदमग्नये जातवेदसे – इदन्न मम।। ३।। (यजु.३/२)
इस मन्त्र से अर्थात् दोनों मन्त्रों से दूसरी और..
तं त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्द्धयामसि।
बृहच्छोचा यविष्ठ्या स्वाहा।। इदमग्नये ऽ ङ्गिरसे – इदन्न मम।। ४।। (यजु. ३/३)
इस मन्त्र से तीसरी समिधा समर्पित करें। उक्त मन्त्रों से समिधाधान करके नीचे लिखे मन्त्र को पांच बार पढ़कर पांच घृताहुतियां दें।
प९चघृताहुतिमन्त्रः
ओम् अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्द्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्बह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा। इदग्नये जातवेदसे – इदन्न मम।। (आश्व.गृ.सू. १/१०/१२)
जलसि९चनमन्त्राः
ओम् अदिते ऽ नुमन्यस्व।। १।। इससे पूर्व में
ओम् अनुमते ऽ नुमन्यस्व।। २।। इससे पश्चिम में
ओम् सरस्वत्यनुमन्यस्व।। ३।। इससे उत्तर दिशा में
ओं देव सवितः प्र सुव यज्ञं प्र सुव यज्ञपतिं भगाय। दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु।। ४।। (यजु.३०/१)
इस मन्त्रपाठ से वेदी के चारों ओर जल छिड़काएं।
आघारावाज्यभागाहुतिमन्त्राः
ओम् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये – इदन्न मम।। १।।
इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग अग्नि में
ओं सोमाय स्वाहा। इदं सोमाय – इदन्न मम।। २।। (गो.गृ.प्र.१/खं.८/सू.२४)
इससे दक्षिण भाग अग्नि में
ओं प्रजापतये स्वाहा। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। ३।। (यजु. २२ / ३२)
ओम् इन्द्राय स्वाहा। इदमिन्द्राय – इदन्न मम।। ४।। (यजु.२२/२७)
इन दोनों मन्त्रों से वेदी के मध्य में दो आहुतियां दें। उक्त चार घृत आहुतियां देकर नीचे लिखे चार मन्त्रों से प्रातःकाल अग्निहोत्र करें।
प्रातःकालीन-आहुतिमन्त्राः
ओं सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः स्वाहा।। १।।
ओं सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा।। २।।
ओं ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा।। ३।।
(यजु. ३/९)
ओं सजूर्देवेन सवित्रा सजूरुषसेन्द्रवत्या।
जुषाणः सूर्यो वेतु स्वाहा ।। ४।। (यजु. ३/१०)
अब नीचे लिखे मन्त्रों से प्रातः सांय दोनों समय आहुतियां दें।
प्रातः सांयकालीनमन्त्राः
ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा। इदमग्नये प्राणाय – इदन्न मम।। १।। (गोभिगृह्यसूत्र०प्र.१/खं.३/यू. १-३)
ओं भुवर्वायवे ऽ पानाय स्वाहा।
इदं वायवे ऽ पानाय – इदन्न मम ।। २।।
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।
इदमादित्याय व्यानाय – इदन्न मम।। ३।।
ओं भूर्भुवः स्वरग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा। इदमग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः इदन्न मम।। ४।। (तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनैकीकृता ऋ.भा.भू. पंचमहा.)
ओम् आपो ज्योतीरसो ऽ मृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा।। ५।। (तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनरचितः प९चमहायज्ञ.)
ओं यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते। तया मामद्य मेधया ऽ ग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा।। ६।। (यजु.३२/१४)
ओं विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।
यद्भद्रन्तन्न ऽ आसुव स्वाहा।। ७।। (यजु.३०/३)
ओम् अग्ने नय सुपथा राये ऽ अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्। युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम ऽ उक्तिं विधेम स्वाहा।। ८।।
(यजु.४०/१६)
सायंकालीन-आहुतिमन्त्राः
ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा।। १।।
ओम् अग्निर्वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा।। २।।
ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा।। ३।।
(यजु. ३/९ के अनुसार)
इस मन्त्र को मन में बोल कर आहुति दें।
ओं सजूर्देवेन सवित्रा सजू रात्र्येन्द्रवत्या।
जुषाणो ऽ अग्निर्वेतु स्वाहा।। ४।। (यजु.३/९, १०)
ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा।। १।।
(गोभिगृह्यसूत्र०प्र.१/खं.३/यू. १-३)
ओं भुवर्वायवे ऽ पानाय स्वाहा।। २।।
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।। ३।।
ओं भूर्भुवः स्वरग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा।
(तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनैकीकृता ऋ.भा.भू. पंचमहा.)
ओम् आपो ज्योतीरसो ऽ मृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा।। ५।। (तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनरचितः प९चमहायज्ञ.)
ओ३म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।। (यजु.३६/३)
इस मन्त्र से तीन आहुतियां दें।
पूर्णाहुति-प्रकरणम्
आघारावाज्यभागाहुतिमन्त्राः
ओम् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये – इदन्न मम।। १।।
इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग अग्नि में
ओं सोमाय स्वाहा।
इदं सोमाय – इदन्न मम।। २।।
(गो.गृ.प्र.१/खं.८/सू.२४)
इससे दक्षिण भाग अग्नि में
ओं प्रजापतये स्वाहा। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। ३।। (यजु. २२ / ३२)
ओम् इन्द्राय स्वाहा। इदमिन्द्राय – इदन्न मम।। ४।।
इन दो मन्त्रों से वेदी के मध्य में आहुति देनी, उसके पश्चात् उसी घृतपात्र में से स्रुवा को भरके प्रज्वलित समिधाओं पर व्याहृति की निम्न चार आहुतियाँ देवे।
व्याहृत्याहुतिमन्त्राः
ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा।
इदमग्नये प्राणाय – इदन्न मम।। १।।
ओं भुवर्वायवे ऽ पानाय स्वाहा।
इदं वायवे ऽ पानाय – इदन्न मम ।। २।।
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।
इदमादित्याय व्यानाय – इदन्न मम।। ३।।
निम्न मन्त्र से स्विष्टकृत् होमाहुति भात की अथवा घृत की देवें।
यदस्य कर्मणोऽत्यरीरिचं यद्वा न्यूनमिहाकरम्।
अग्निष्टत् स्विष्टकृद् विद्यात् सर्वं स्विष्टं सुहुतं करोतु मे।
अग्नये स्विष्टकृते सुहुतहुते सर्वप्रायश्चित्ताहुतीनां कामानां समर्द्धयित्रे सर्वान्नः कामान्त्समर्द्धय स्वाहा।।
इदमग्नये स्विष्टकृते – इदन्न मम।। १।। (आश्व.१/१०/२२)
ओं प्रजापतये स्वाहा।। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। २।।
(यजु.१८/२२) इस प्राजापत्याहुति को मन में बोलकर देनी चाहिए।
आज्याहुतिमन्त्राः (पवमानाहुतयः)
ओं भूर्भुवः स्वः। अग्न आयूंषि पवस आ सुवोर्जमिषं च नः।
आरे बाधस्व दुच्छुनां स्वाहा।। इदमग्नये पवमानाय – इदन्न मम।। ३।। (ऋ.९/६६/१९)
ओं भूर्भुवः स्वः। अग्निर्ऋषिः पवमानः पाञ्चजन्यः पुरोहितः।
तमीमहे महागयं स्वाहा।। इदमग्नये पवमानाय – इदन्न मम।। ४।।
(ऋ.९/६६/२०)
ओं भूर्भुवः स्वः। अग्ने पवस्व स्वपा अस्मे वर्चः सुवीर्यम्।
दधद्रयिं मयि पोषं स्वाहा।। इदमग्नये पवमानाय – इदन्न मम।। ५।।
(ऋ.९/६६/२१)
ओं भूर्भुवः स्वः। प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव।
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणां स्वाहा।। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। ६।।
(ऋ.१०/१२१/१०)
इनसे घृत की चार आहुतियाँ करके ‘अष्टाज्याहुति’ के निम्नलिखित मन्त्रों से सर्वत्र मंगल कार्यों में आठ आहुति देवें।
त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान्देवस्य हेळोऽवयासिसीष्ठाः।
यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषांसि प्र मुमुग्ध्यस्मत् स्वाहा।। इदमग्निवरुणाभ्याम् – इदन्न मम।। ७।। (ऋ. ४/१/४)
स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती नेदिष्ठोऽअस्या उषसो व्युष्टौ।
अव यक्ष्व नो वरुणं रराणो वीहि मृळीकं सुहवो न एधि स्वाहा।। इदमग्निवरुणाभ्याम् – इदन्न मम।। ८।।
(ऋ.४/१/५)
इमं मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृळय।
त्वामवस्युराचके स्वाहा।। इदं वरुणाय – इदन्न मम।। ९।। (ऋ.१/२५/१९)
तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः।
अहेळमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मा न आयुः प्र मोषीः स्वाहा।। इदं वरुणाय – इदन्न मम।। १०।। (ऋ.१/२४/११)
ये ते शतं वरुण ये सहस्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः।
तेभिर्नोऽअद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्काः स्वाहा।। इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यः – इदन्न मम।। ११।।
(का.श्रौत.२५/१/११)
अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च सत्यमित्त्वमयाऽसि।
अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भेषज द्भञ स्वाहा।। इदमग्नये अयसे – इदन्न मम ।। १२।। (का.श्रौत.२५/१/११)
उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय।
अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा।। इदं वरुणाया ऽऽ दित्यायाऽदितये च – इदन्न मम।। १३।।
(ऋ.१/२४/१५)
भवतन्नः समनसौ सचेतसावरेपसौ।
मा यज्ञ हि सिष्टं मा यज्ञपतिं जातवेदसौ शिवौ भवतमद्य नः स्वाहा।। इदं जातवेदोभ्याम्-इदन्न मम।। १४।। (यजु.५/३)
(1) वसन्तेन ऋतुना देवा वसवस्त्रिवृता स्तुताः।
रथन्तरेण तेजसा हविरिन्द्रे वयो दधुः।। -यजु. 21। 23
(2) मधुश्च माधवश्च वासन्तिकावृतू अग्नेरन्तः श्लेषोऽसि कल्पेतां द्यावापृथिवी कल्पन्तामाप ओषधयः कल्पन्तामग्नयः प्रथङ् मम ज्यैष्ठ्याय सव्रताः। ये अग्नयः समनसोऽन्तरा द्यावापृथिवी इमे वासन्तिकावृतू अभिकल्पमाना इन्द्रमिव देवा अभिसंविशन्तु तया देवतयागिंरस्वद् ध्रुवे सीदतम् स्वाहा। -यजु. 13। 25।।
(3) मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः।
माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः स्वाहा।।
(4) मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिवं रजः।
मधु द्यौरस्तु नः पिता स्वाहा।।
(5) मधुमान् नो वनस्पतिर्मधुमाँ२ऽअस्तु सूर्यः।
माध्वीर्गावो भवन्तु नः स्वाहा।। -यजु. 13। 27-29।।
ओ3म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।। (यजु 36/3) इस मन्त्र से तीन बार केवल घृत से आहुतियां दे।
पूर्णाहुति-मन्त्राः
ओं सर्वं वै पूर्ण ँ् स्वाहा। इस मन्त्र से तीन बार केवल घृत से आहुतियां देकर अग्नि होत्र को पूर्ण करें।
(५) अथ भूतयज्ञः (बलिवैश्वदेवयज्ञ)
निम्नलिखित दस मन्त्रों से घृत-मिश्रित भात की यदि भात न बना हो तो क्षार और लवणान्न को छोड़कर पाकशाला में जो कुछ भोजन बना हो उसी की आहुति देवें।
ओम् अग्नये स्वाहा।। १।। ओं सोमाय स्वाहा।। २।।
ओम् अग्निषोमाभ्यां स्वाहा।। ३।। ओं विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा।। ४।। ओं धन्वन्तरये स्वाहा।। ५।। ओम् कुह्वै स्वाहा।। ६।। ओम् अनुमत्यै स्वाहा।। ७।। ओं प्रजापतये स्वाहा।। ८।। ओं सह द्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा।। ९।। ओें स्विष्टकृते स्वाहा।। १।।
तत्पश्चात् निम्नलिखित मन्त्रों से बलिदान करें। एक पत्तल अथवा थाली में यथोक्त दिशाओं में भाग रखना। यदि भाग रखने के समय कोई अतिथि आ जाए तो उसी को देना अथवा अग्नि में डालना चाहिए।
ओं सानुगायेन्द्राय नमः।। १।। (इससे पूर्व)
ओं सानुगाय यमाय नमः।। २।। (इससे दक्षिण)
ओं सानुगाय वरुणाय नमः।। ३।। (इससे पश्चिम)
ओं सानुगाय सोमाय नमः।। ४।। (इससे उत्तर)
ओं मरुद्भ्यो नमः।। ५।। (इससे द्वार)
ओं अद्भ्यो नमः।। ६।। (इससे जल)
ओं वनस्पतिभ्यो नमः।। ७।। (इससे मूसल व ऊखल)
ओं मरुद्भ्यो नमः।। ८।। (इससे ईशान)
ओं भद्रकाल्यै नमः।। ९।। (इससे नैऋत्य)
ओं ब्रह्मपतये नमः।। १०।।
ओं वस्तुपतये नमः।। ११।। (इनसे मध्य)
ओं विश्वभ्यो देवेभ्यो नमः।। १२।।
ओं दिवाचारिभ्यो भूतेभ्यो नमः।। १३।।
ओं नक्तंचारिभ्यो भूतेभ्यो नमः।। १४।। (इनसे ऊपर)
ओं सर्वात्मभूतये नमः।। १५।। (इससे पृष्ठ)
ओं पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः।। १६।। (इससे दक्षिण) -मनु. ३/८७-९१
तत्पश्चात् घृतसहित लवणान्न लेके-
शुनां च पतितानां च श्वपचां पापरोगिणाम्।
वायसानां कृमीणां च शनकैर्निवपेद् भुवि।।
(मनु. ३/९२)
अर्थ :- कुत्ता, पतित, चाण्डाल, पापरोगी, काक और कृमि- इन छः नामों से छः भाग पृथ्वी पर धरे और वे भाग जिस-जिस नाम के हों उस-उस को देवें।
(६) अतिथियज्ञः
तद्यस्यैवं विद्वान् व्रात्योऽतिथिर्गृहानागच्छेत्।। १।।
स्वयमेनमभ्युदेत्य ब्रूयाद् व्रात्य क्वावासीत्सीर्व्रा- त्योदकं व्रात्य तर्पयन्तु व्रात्य यथा ते प्रियं तथास्तु व्रात्य यथा ते वशस्तथास्तु व्रात्य यथा ते निकामस्तथाऽस्त्विति।। २।।
(अथर्व. १५/११/१,२)
जब पूर्ण विद्वान् परोपकारी सत्योपदेशक गृहस्थों के घर आवें, तब गृहस्थ लोग स्वयं समीप जाकर उक्त विद्वानों को प्रणाम आदि करके उत्तम आसन पर बैठाकर पूछें कि कल के दिन कहाँ आपने निवास किया था ? हे ब्रह्मन् जलादि पदार्थ जो आपको अपेक्षित हों ग्रहण कीजिए, और हम लोगों को सत्योपदेश से तृप्त कीजिए।
जो धार्मिक, परोपकारी, सत्योपदेशक, पक्षपातरहित, शान्त, सर्वहितकारक विद्वानों की अन्नादि से सेवा और उनसे प्रश्नोत्तर आदि करके विद्या प्राप्त करना अतिथियज्ञ कहाता है, उसको नित्यप्रति किया करें।
यज्ञ-प्रार्थना
पूजनीय प्रभो हमारे भाव उज्जवल कीजिए।
छोड देवें छल कपट को मानसिक बल दीजिए।।
वेद की बोलें ऋचाएं सत्य को धारण करें।
हर्ष में हों मग्न सारे शोक सागर से तरें।।
अश्वमेधादिक रचाएं यज्ञ पर उपकार को।
धर्म मर्यादा चलाकर लाभ दें संसार को।।
नित्य श्रद्धा भक्ति से यज्ञादि हम करते रहें।
रोग पीड़ित विश्व के संताप सब हरते रहें।।
भावना मिट जाए मन से पाप अत्याचार की।
कामनाएं पूर्ण होवें यज्ञ से नर-नारि की।।
लाभकारी हो हवन हर प्राणधारी के लिए।
वायु जल सर्वत्र हों शुभ गन्ध को धारण किए।।
स्वार्थ भाव मिटे हमारा प्रेम पथ विस्तार हो।
इदन्न मम का सार्थक प्रत्येक में व्यवहार हो।।
हाथ जोड़ झुकाएं मस्तक वन्दना हम कर रहे।
नाथ! करुणारूप करुणा आपकी सब पर रहे।।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।।
हे नाथ सब सुखी हों, कोई न हो दुखारी।
सब हों निरोग भगवन, धन-धान्य के भंडारी।
सब भद्रभाव देखें, सन्मार्ग के पथिक हों।
दुःखिया न कोई होवे, सृष्टि में प्राणधारी।
शान्ति पाठः
ओं द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष ँ् शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व ँ् शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि। (यजु.३६/१७)
ओम् शान्तिः शान्तिः शान्तिः।
शान्ति कीजिए प्रभु त्रिभुवन में
जल में थल में और गगन में, अन्तरिक्ष में अग्नि पवन में।
ओषधि वनस्पति वन उपवन में, सकल विश्व में जड़ चेतन में।। 1।।
शान्ति कीजिए प्रभु त्रिभुवन में
ब्राह्मण के उपदेश वचन में, क्षत्रिय के द्वारा हो रण में।
वैश्य जनों के होवे धन में, और सेवक के परिचरणन में।। 2।।
शान्ति कीजिए प्रभु त्रिभुवन में
शान्ति राष्ट्र निर्माण सृजन में, नगर ग्राम में और भवन में।
जीव मात्र के तन में मन में, और जगत के हो कण कण में।। 3।।
शान्ति कीजिए प्रभु त्रिभुवन में
वसन्त-पंचमी
माघ शुद्धि पंचमी
कूलन में केलिन में कछारन में कुन्जन में।
क्यारिन में कलित कलीन किलकंत है।।
कहै पद्माकर कर परागन में पानहूं में।
पानन में पीक में पलाशन पगंत है।।
द्वार में दिशान में दुनी में देश-देश में।
देखो दीप दीपन में दीपन दिगंत है।।
वीथिन में ब्रज में नवेलिन में वेलिन में।
बतन में बागन में बगरो वसन्त हैं।।
-कवि पद्माकर
है ऋतुराज का आगमन, जल-थल में छवि आई है।
प्रकृति देवी नवल रंग में रंगमन्च पर आई है।।
विरस द्रुमों ने नवल दलों से निज श्रृंगार बनाया है।
मानो श्री वसन्त स्वागत हित रुचि वितान बनाया है।।
कुसुमभार का हार पहन कर मतवाले से झूम रहे।
कभी-कभी वे अनुरागवश अवनि चरण को चूम रहे।।
सरल रसाल साल में मन्जुल पीतमन्जरी आई है।
सरसों सुमन पीत भूतल में पीताम्बर छवि-छाई है।।
चित्र विचित्र वेश भूषा में चित्रित मन हो जाता है।
नीरस हृदयों में सहसा ही, प्रेम बीज बो जाता है।।
श्री ऋतुराज राज की लक्ष्मी नये ढंग से आती है।
‘श्रीहरि’ विश्व-रंगशाला में नये रंग दिखलाती है।।
-कविशिरोमणि श्रीहरि
शीत के आतंक का अपसार हो चला है, जराजीर्ण खल्वाट यष्टिधारी शिशिर का बहिष्कार करते हुए सरस वसन्त ने वन और उपवन में ही नहीं, किन्तु वसुधा भर में सर्वत्र अपने आगमन की घोषणा कर दी है। सारी प्रकृति ने वसन्ती बाना पहन लिया है। खेतों में सरसों फूल रही है। जहां तक दृष्टि दौड़ाइये, मानो पीतता सरिता की तरंगावली नेत्रों का आतिथ्य करती है, वनों में टेसू (पलाश-पुष्पों) की सर्वत्रव्यापिनी रक्ताभा दर्शनीय है। उपवन गेंदे और गुलदाऊदी की पुष्पावली के पीतपरिधान धारण किये हुए हैं, नगर और ग्राम में बाल-बच्चे वसन्ती वस्त्रों से सजे है। मन्द सुगन्ध मलय समीर सर्वत्र बह रहा है। ऋतुराज वसन्त के इस उदार अवसर पर इतने पुष्प खिलते हैं, कि वायुदेव को उन की गन्ध के भार से शनैः शनै सरकना पड़ता है। इस समय उपवनों में चारों ओर पुष्पों ही पुष्पों की शोभा नयनों को आनन्द देती है। जिधर देखिये उधर ही रंग-बिरंगे फूल खिल रहे है। कहीं गुलाब अपनी बहार दिखा रहा है तो कहीं गुले अब्बास के पंचरंगे फूल आंखो को लुभा रहे हैं। कहीं सूर्यप्रिया सूर्यमुखी सूर्य को निहार रही है, कहीं श्वेत कुन्द की कलियां दांत दिखला कर हंस रही हैं। गुलेलाल अपने गुलाबी पुष्पों के ओठों से मुस्करा रहा है। कमल अपने पुष्प नेत्रों से प्रकृति-सौन्दर्य को निहार रहा है। आम्रपुष्पों (बौरों) की छटा ही कुछ निराली है। उन पर भौंरो की गूंज और शाखाओं पर बैठी कोयल की कूक उस की शोभा को द्विगुणित कर देती है। आम के बौरों में कुछ ऐसी मदमाती सुगन्ध होती है कि वह मन को बलात् अपनी ओर खींच कर मोद से भर देती है। आयुर्वेद के सिद्धांतानुसार इस ऋतु में स्थावरों (वनस्पतियों) में नवीन रस का संचार ऊपर की ओर को होता है। जंगमों के शरीरो में भी नवीन रुधिर का प्रादुर्भाव होता है, जो उन में उमंग और उल्लास को बढ़ाता है। वसन्त ऋतु तो चैत्र और वैशाख में होती हैं। ‘मधुमाधवौ वसन्तः स्यात्’ यह वचन इसका पोषक प्रमाण है। किन्तु प्रकृति देवी का यह समारोह ऋतुराज वसन्त के लिए 40 दिन पूर्व से ही प्रारम्भ हो जाता हैं जब प्रकृति देवी ही सर्वतोभावेन ऋतुनायक के स्वागत में तन्मय है तो उसी के पन्चभूतों से बना हुआ रसिक शिरोमणि मनुष्य रसवन्त वसन्त के शुभागमन से किस प्रकार बहिर्मुख रह सकता है। फिर वनोपवनविहारी भारतवासी तो प्राकृतिक-शोभा निरीक्षण तथा प्रकृति के स्वर में स्वर मिलाने में और प्राचीन काल से प्रवीण रहे हैं। वे इस अवसर पर आनन्द अनुभव से कैसे वंचित रह सकत थे। प्रचीन भारतीयों ने इस उदार ऋतु का आनन्द मनाने के लिए वसन्त पंचमी के पर्व की रचना की।
यह समय ही कुछ ऐसा मोदप्रद और मादक होता है कि वायुमण्डल मद और मोद से भर जाता है, दिशाएं कलकण्ठा कोकिला आदि विविध विहंगमों के मधुर आलाप से प्रतिध्वनित हो उठती है। क्या पशु, क्या पक्षी क्या मनुज सब का हृदय आहाद से उद्वेलित होने लगता है, मनों में नयी-नयी उमंगे उठने लगती हैं। भारत के अन्नदाता किसान अपने अहर्निश के परिश्रम को आसन्न आषाढ़ी (साढ़ी) उपज सस्य के रूप में सफल देखकर फूले नही समाते। उन के गेहूँ और जौ के खेतों की नवाविर्भूत बालों से युक्त लहलहाती हरियाली उन की आंखों को तरावट और चित्त को अपूर्व आनन्द देती है, कृषि के सब कार्य इस समय समाप्त हो जाते है। अतः कृषि-प्रधान भारत को इस समय आमोद-प्रमोद और राग-रंग की सूझती है। माघ सुदि वसन्त पंचमी के दिन से उस का प्रारम्भ होता है। भारत के ऐश्वर्य-शिखर पर आरूढ़ता और विलास-सम्पन्नता के समय पौरणिक काल में इस अवसर पर मदन-महोत्सव मनाया जाता था। संस्कृत साहित्यज्ञ जानते है कि भारतवासी सदा से कविता के वातावरण में विहार करते रहे हैं और कविता प्रतिक्षण कल्पना के वाहन पर विचरती रहती है। इस लिए शायद ही कोई भाव बचा हो, जिस का काल्पनिक चित्र भारतीय कवियों ने न रचा हो। आर्य पुरुषों को उचित है कि वे कामदाहक महापुरुषों के उत्तम उदाहरण को सदा अपने सामने रखते हुए मर्यादातिक्रमणकारी कामादि विकारों को किसी ऋतु में भी अपने पास तक न फटकने दें और ऋतुराज वसन्त की शोभा को शुद्धभाव से निखरते हुए और परम प्रभु की रम्य रचना का गुणानुवाद करते हुए वसन्त पंचमी के ऋतूत्सव को पवित्र रूप में मनाकर उस का आनन्द उठायें। वसन्तोत्सव पर भारत में संगीत का विशेष समारोह होता है, किन्तु जनता में श्रृंगारिक गानों का ही अधिक प्रचार है। संगीत से बढ़कर मन और आत्मा का आह्नादक दूसरा पदार्थ नहीं है। सद्भावसमन्वित संगीत से आत्मा का अतीव उत्कर्ष होता है। आर्यसमाज ने भव्यभाव भरित गानों का प्रचार तो किया है, किन्तु उस के गाने प्रायः संगीत विद्या के विरुद्ध बेसुरे और काव्य रस से शून्य पाये जाते हैं। आर्य महाशयों को इस दोष का परिमार्जन शीघ्र करना चाहिए। वसन्त आदि उत्सव संगीत और काव्यकला की उन्नति के लिए उपयुक्त और उत्तम अवसर हो सकते हैं। इन पर्वों पर आर्य जनता में कवितामय सुन्दर संगीत की परिपाटी प्रचलित करनी चाहिए। संगीत का सुधार भी सुधारकशिरोमणि आर्यसमाज से ही सम्भव है।
सामाजिक कृत्य- स्वसुभीते के अनुसार अपराह्न में सब समूहरूप से सम्मिलित होकर उपवन वा कुसुमोद्यान में भ्रमण करे और वहीं सभा करके वसन्तवर्णनपरक कवितापाठ और गीत का आनन्द उठायें। इसी अवसर पर बालकों की क्रीड़ाओं के प्रदर्शन और फलों के सहभोज का स्वसुभीते के अनुसार आयोजन किया जाये तो अत्युत्तम है, उस से वसन्तोत्सव की उत्कर्ष-वृद्धि हो सकती है।
वसन्त-विकास
(गीत)
छवि ऋतुराज की रे, अपनी ओर निहार, निहारो।। टेक ।।
घटती है घडि़यां रजनी की, बढ़ता है दिनमान।
सकुचेगी इस भांति अविद्या, विकसेगा गुरु ज्ञान।।
छवि ऋतुराज की रे, अपनी ओर निहार, निहारो।। टेक ।।
कर पतझाड़ चढ़ी पेड़ों पै, हरियाली भरपूर।
यों अवनति की उन्नति द्वारा, अब तो कर दो दूर।।
छवि ऋतुराज की रे, अपनी ओर निहार, निहारो।। टेक ।।
छदन वेलि वृक्षों पर छाए, रहे अर्पण करील।
मन्द सुअवसर पाते तो भी, बने न वैभवशील।।
छवि ऋतुराज की रे, अपनी ओर निहार, निहारो।। टेक ।।
उलहे गुल्म, लता, तरु सारे अंकुर कोमल-काय।
जैसे न्याय-परायण नृप को, प्रजा बढ़े सुख पाय।।
छवि ऋतुराज की रे, अपनी ओर निहार, निहारो।। टेक ।।
हार हरे, कर दिये वसन्ती, सरसों ने सब खेत।
मानो सुमति मिली सम्पति से, धर्म सुकर्म समेत।।
छवि ऋतुराज की रे, अपनी ओर निहार, निहारो।। टेक ।।
मधुर रसीले फल देने को, बौरे सघन-रसाल ।
जैसे सकल सुलक्षण धारें, होनहार कुलपाल।।
छवि ऋतुराज की रे, अपनी ओर निहार, निहारो।। टेक ।।
बिगड़े फुलबुन्दे कदम्ब के, कलियानी कचनार।
बन बैठे धनहीन धनी यों, निर्धन कमलाधार।।
छवि ऋतुराज की रे, अपनी ओर निहार, निहारो।। टेक ।।
धीरे सुमन सुगन्धित धार, सदल सेवती सेव।
मानो शुद्ध सुयश दरसाते, हिलमिल देवी देव।।
छवि ऋतुराज की रे, अपनी ओर निहार, निहारो।। टेक ।।
गदा खिले कुसुम केसरिया, पाटल-पुष्प अनूप।
किंवा सहित समाज विराजे, बुध मंत्री गुरु भूप।।
छवि ऋतुराज की रे, अपनी ओर निहार, निहारो।। टेक ।।
फूल रहे सर में रस बांटे, उपकारी अरविन्द।
दान पाय गुरु गुण गाते है, याजक-वृन्द मिलिन्द।।
छवि ऋतुराज की रे, अपनी ओर निहार, निहारो।। टेक ।।
फूले मसि-मिश्रित-अरुणारे, किंशुक सौरभहीन।
विचरें यथा असाधु रंगीले, ज्ञानशून्य तन पीन।।
छवि ऋतुराज की रे, अपनी ओर निहार, निहारो।। टेक ।।
अरूण फूल फूले सेमर के, प्रकट कोश-गम्भीर।
क्या लोहित मणि की कुलियों मे, मांग रहे मधु वीर।।
छवि ऋतुराज की रे, अपनी ओर निहार, निहारो।। टेक ।।
बढ़ बढ़ गण सत्यानाशी के, विकसे कण्टक धार।
किंवा विशद-वेश कुटुभाषी, वन्चक करें विहार।।
छवि ऋतुराज की रे, अपनी ओर निहार, निहारो।। टेक ।।
सुमन मंजरी बरसाते हैं, बन बीहड़ आराम।
क्या शर मार मार रसिकों से, अटक रहा है काम।।
छवि ऋतुराज की रे, अपनी ओर निहार, निहारो।। टेक ।।
पुष्प-पराग सुगन्ध उड़ाता, शीतल-मन्द-समीर।
यों सब को सुख पहुँचाता है, धर्म-धुरन्धर-धीर।।
छवि ऋतुराज की रे, अपनी ओर निहार, निहारो।। टेक ।।
कोकिल कूजे मधुकर गूंजे, बोले विविध विहंग।
क्या मिल रहे साम-गायन से, मुरली, वेणु, मृदंग।।
छवि ऋतुराज की रे, अपनी ओर निहार, निहारो।। टेक ।।
त्याग विरोध मिले सकता से, सरदी और निदाघ।
वैर बिसार तपोवन में ज्यों, साथ रहें मृग बाघ।।
छवि ऋतुराज की रे, अपनी ओर निहार, निहारो।। टेक ।।
रसिक-शत्रु वासन्ती-विधि का, करते है अपमान।
ज्यों रस भाव-भरी कविता को, सुनते नहीं अजान।।
छवि ऋतुराज की रे, अपनी ओर निहार, निहारो।। टेक ।।
भर देता है भारत भर में, मधु आनन्द उमंग।
भंग पिलाकर शंकर का भी, कर डाला व्रत भंग।।
छवि ऋतुराज की रे, अपनी ओर निहार, निहारो।। टेक ।।
-कविवर पं. नाथूराम शर्मा ‘शंकर’
वसन्त-वर्णन
द्रुतविलम्बित
दुःखद दूर हुआ हिम-त्रास है, सुखद आगत श्री मधुमास है।
अब कहीं, दुःख का न निवास है, सब कहीं सब हास विलास है।। १ ।।
दिवस रम्य, निशा रमणीय है, सब दिशा विदिशा कमनीय हैं।
सुखद मन्द सुगन्ध समीर है, चित चहे अब शीतल नीर है।। २ ।।
विविध पुष्प खिले छविवन्त है, अति मनोहर रंग अनन्त है।
मधुप को करते मधु दान हैं, अतिथि का करते सब मान हैं।। ३ ।।
दुखित दीन जिन्हें हिम की व्यथा, असहनीय रही नित सर्वथा।
मुदित हैं अति शीत-विनाश से, छूट गये अब वे यम-पाश से।। ४ ।।
खिल गये अब पंकज-पुन्ज है, कर रहे जिन पै अलि पुन्ज हैं।
मिट तुषार गया सब सर्वथा, विशद क्रान्ति हुई शशि की तथा।। ५ ।।
भ्रमर-शब्द मनोहर गान हैं, सुमन ही जिन की मुसकान हैं।
पवन कम्पि मन्जु लता सब, सुखद नृत्य मनो करती अब।। ६ ।।
वसन्ततिलका
फूले अनार कचनार अशोक-जाल,
धीरे रसाल नवपल्लव लाल लाल।।
चम्पा-कली हर रही मनु रूप-राशि,
श्रीमद्वसन्त-नृप की बलि दीपिका-सी ।। ७ ।।
फूले-फले अब सभी द्रुम हैं सुहाते, बैठे विहंग जिन की सुषमा बढ़ाते।
शोभा मनोज्ञ शुक के मुख की चुराये, लेते पलाश वन में मन को लुभाये ।। ८ ।।
मन्दाक्रान्तः
है पृथ्वी में अतिशय सभी ओर आनन्द छाया,
क्या पक्षी क्या पशु तरु लता है सभी में समाया।
धीरे-धीरे अब गगन में श्री सहस्त्रांशु जाते,
मानो वह भी मुदित जग को देखते है मोद-माते ।। ९ ।।
पुष्पों की ले सुरभि बहता वायु है मन्द-मन्द,
लोनी-लोनी नवल लतिका कम्प पाती अमन्द।
मानो आता निकट लख के वायु को लजातीं,
जल्दी से वे बस इसलिए शीश नीचे लवातीं ।। १॰ ।।
बैठी वृक्षों पर मुदित हो कोकिलें बोलती हैं,
मानो मीठी श्रवण पुट में शर्करा घोलती हैं।
है भृंगो के सहित अति ही कुन्द का फूल भाता,
मानो मोती ललित अलकों से घिरा है सुहाता ।। ११ ।।
शार्दूलविक्रीडित
स्वर्णाभूषण कर्णिकार जिसका अत्यन्त शोभा सना,
धारे किंशुकरूप लाल पट जो सौन्दर्यशाली घना।
भाती कज्जल सी ललाम जिस के हैं मन्जु भृंगावली,
लेती मोह वनस्थली न किस को यों अंगना सी भली ।। १२ ।।
-कविवर श्री ठाकुर गोपालशरण सिंह