मूल स्तुति
दे॒वो दे॒वाना॑मसि मि॒त्रो अद्भु॑तो॒ वसु॒र्वसू॑नामसि॒ चारु॑रध्व॒रे।
शर्म॑न्त्स्याम॒ तव॑ स॒प्रथ॑स्त॒मेऽग्ने॑ स॒ख्ये मा रि॑षामा व॒यं तव॑॥४८॥ऋ॰ १।६।३२।३
व्याख्यान—हे मनुष्यो! वह परमात्मा कैसा है कि हम लोग उसकी स्तुति करें। हे अग्ने! परमेश्वर! आप “देवो देवानामसि” देवों (परमविद्वानों) के भी देव (परमविद्वान्) हो तथा उनको परमानन्द देनेवाले हो तथा “अद्भुतः” अत्यन्त आश्चर्यरूप मित्र, सर्वसुखकारक, सबके सखा हो, “वसुर्वसूनामसि” पृथिव्यादि वसुओं के भी वास करानेवाले हो तथा “अध्वरे” ज्ञानादि यज्ञ में “चारुः” अत्यन्त शोभायमान और शोभा के देनेवाले हो। हे परमात्मन्! “सप्रथस्तमे सख्ये, शर्मन् तव” आपके अतिविस्तीर्ण, आनन्दस्वरूप, सखाओं के कर्म में हम लोग स्थिर हों, जिससे हमको कभी दुःख प्राप्त न हो और आपके अनुग्रह से हम लोग परस्पर अप्रीतियुक्त कभी न हों॥४८॥