प्रार्थनाविषय
सा मा॑ स॒त्योक्तिः॒ परि॑ पातु वि॒श्वतो॒ द्यावा॑ च॒ यत्र॑ त॒तन॒न्नहा॑नि च।
विश्व॑म॒न्यन्नि वि॑शते॒ यदेज॑ति वि॒श्वाहापो॑ वि॒श्वाहोदे॑ति॒ सूर्यः॑॥४७॥ऋ॰ ७।८।१२।२
व्याख्यान—हे सर्वाभिरक्षकेश्वर! “सा मा सत्योक्तिः” आपकी सत्य-आज्ञा, जिसका हमने अनुष्ठान किया है, वह “विश्वतः, परिपातु” हमको सब संसार से सर्वथा पालित और सब दुष्ट कामों से सदा पृथक् रक्खे, कि कभी हमको अधर्म करने की इच्छा भी न हो “द्यावा च” दिव्य सुख से सदा युक्त करके यथावत् हमारी रक्षा करे। “यत्र” जिस दिव्य सृष्टि में “अहानि” सूर्यादिकों को दिवस आदि होने के निमित्त “ततनन्” आपने ही विस्तारे हैं, वहाँ भी हमारा सब उपद्रवों से रक्षण करो। “विश्वमन्यत्” आपसे अन्य (भिन्न) विश्व, अर्थात् सब जगत् जिस समय आपके सामर्थ्यसे (प्रलय में) “निविशते” प्रवेश करता है (कार्य सब कारणात्मक होता है), उस समय में भी आप हमारी रक्षा करो। “यदेजति” जिस समय यह जगत् आपके सामर्थ्य से चलित होके उत्पन्न होता है, उस समय भी सब पीड़ाओं से आप हमारी रक्षा करें। “विश्वाहापो विश्वाहा” जो-जो विश्व का हन्ता (दुःख देनेवाला) उसको आप नष्ट कर देओ, क्योंकि आपके सामर्थ्य से सब जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होती है, आपके सामने कोई राक्षस (दुष्टजन) क्या कर सकता है, क्योंकि आप सब जगत् में उदित (प्रकाशमान) हो रहे हो। सूर्यवत् हमारे हृदय में कृपा करके प्रकाशित होओ, जिससे हमारी अविद्यान्धकारता सब नष्ट हो॥४७॥