मूल स्तुति
दे॒वो न यः पृ॑थि॒वीं वि॒श्वधा॑या उप॒क्षेति॑ हि॒तमि॑त्रो॒ न राजा॑।
पु॒रः॒सदः॑ शर्म॒सदो॒ न वी॒रा अ॑नव॒द्या पति॑जुष्टेव॒ नारी॑॥४६॥ऋ॰ १।५।१९।३
व्याख्यान—हे प्रियबन्धु विद्वानो! “देवो न” ईश्वर सब जगत् के बाहर और भीतर सूर्य की नार्इं प्रकाश कर रहा है, “यः पृथिवीम्” जो पृथिव्यादि जगत् को रचके धारण कर रहा है और “विश्वधायाः उपक्षेति” विश्वधारक शक्ति का भी निवास देने और धारण करनेवाला है तथा जो सब जगत् का परममित्र, अर्थात् जैसे “हितमित्रो न राजा” प्रियमित्रवान् राजा अपनी प्रजा का यथावत् पालन करता है, वैसे ही हम लोगों का पालनकर्त्ता वही एक है, अन्य कोई भी नहीं। “पुरःसदः, शर्मसदो न वीराः” जो जन ईश्वर के पुरःसद हैं, (ईश्वराभिमुख ही हैं) वे ही शर्मसदः, अर्थात् सुख में सदा स्थिर रहते हैं। “न वीराः” जैसे पुत्रलोग अपने पिता के घर में आनन्दपूर्वक निवास करते हैं, वैसे ही जो परमात्मा के भक्त हैं वे सदा सुखी ही रहते हैं, परन्तु जो अनन्यचित्त होके निराकार, सर्वत्र व्याप्त ईश्वर की सत्य श्रद्धा से भक्ति करते हैं, जैसेकि “अनवद्या, पतिजुष्टेव, नारी” अत्यन्तोत्तम गुणयुक्त, पति की सेवा में तत्पर, पतिव्रता नारी (स्त्री) रात-दिन तन, मन, धन से अत्यन्त प्रीतियुक्त होके अनुकूल ही रहती है, वैसे प्रेम-प्रीतियुक्त होके, आओ भाई लोगो! ईश्वर की भक्ति करें और अपने सब मिलके परमात्मा से परमसुख-लाभ उठावें॥४६॥