मूल स्तुति
यो विश्व॑स्य॒ जग॑तः प्राण॒तस्पति॒र्यो ब्र॒ह्मणे॑ प्रथ॒मो गा अवि॑न्दत्।
इन्द्रो॒ यो दस्यूँ॒रध॑राँ अ॒वाति॑रन्म॒रुत्व॑न्तं स॒ख्याय॑ हवामहे॥४४॥ऋ॰ १।७।१२।५
व्याख्यान—हे मनुष्यो! जो सब जगत् (स्थावर), जड़, अप्राणी का और “प्राणतः” चेतनावाले जगत् का “पतिः” अधिष्ठाता और पालक है तथा जो सब जगत् के प्रथम सदा से है और “ब्रह्मणे, गाः, अविन्दत्” जिसने यही नियम किया है कि ब्रह्म, अर्थात् विद्वान् के ही लिये पृथिवी का लाभ और उसका राज्य है और जो “इन्द्रः” परमैश्वर्यवान् परमात्मा डाकुओं को “अधरान्” नीचे गिराता है तथा उनको मार ही डालता है। “मरुत्वन्तं, सख्याय, हवामहे” आओ मित्रो! भाई लोगो! अपने सब सम्प्रीति से मिलके मरुत्वान्, अर्थात् परमानन्त बलवाले इन्द्र परमात्मा को सखा होने के लिए अत्यन्त प्रार्थना से गद्गद होके पुकारें। वह शीघ्र ही कृपा करके अपने से सखित्व (परम मित्रता) करेगा, इसमें कुछ सन्देह नहीं॥४४॥