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ओ३म्

सत्यार्थ प्रकाश कवितामृत
काव्यरचना : आर्य महाकवि पं. जयगोपाल जी
स्वर : ब्र. अरुणकुमार “आर्यवीर”
ध्वनिमुद्रण : श्री आशीष सक्सेना (स्वर दर्पण साऊंड स्टूडियो, जबलपुर)

तृतीय समुल्लासः
समुल्लास भाग (1)
अथाऽध्ययनाऽध्यापनविधिं व्याख्यास्यामः

दोहा
विद्या शील स्वभाव युत, गुणमणि गुंफित माल।
जग में शेभा देत हैं, गुण भूषण से बाल।।

चौपाई
गुण भूषण बालक के नीके,
स्वर्ण रत्न सब लागें फीके,
गुण से होवे शील स्वभावा,
स्वर्ण पहन अभिमान बढ़ावा।
पतित आत्मा करे सुवर्णा,
निर्मल मन को करे सुवर्णा,
हत्या चोरी अरु अभिमाना,
सोना पद पद विपद निधाना।
शिशु घाती डोलें हत्यारे,
लाखों बालक सोने मारे,
शीलवन्त नर सत्य उपासी,
विद्या प्रेमी वाग्विलासी।
जग उपकारी पर दुखदारी, धन्य धन्य ऐसे नरनारी।
धार सत्य सद्गुण के भूषण, मेटें जग दुख दारिद दूषण।

विद्याविलासमनसो धृतशीलशिक्षाः सत्यव्रता रहितमानमलापहाराः।
संसारदुःखदलनेन सुभूषिता ये, धन्या नरा विहितकर्मपरोपकाराः।।

दोहा
आठ वर्ष के वयस में, पग धारे जिहिकाल।
पुत्री पुत्र पठाइये, पठन हेत चट साल।।

चौपाई
दो दो कोस दूर चट सारी,
बाल बालिका न्यारी न्यारी।
कन्या को सद् नारी पढ़ावे,
सदाचार शिक्षा जहँ पावे।
दुश्चरित्र हों गुरु गुरुआनी,
उचित न उनसे शिक्षा पानी।
ताँते भेजें सद्गुरु पांही,
दोष पाप जिनके मन नाहीं।
संसकार उपनयन करावे,
पाछे गुरु के धाम पठावे।
इह विधि भेजें कन्या बालक,
धर्म जान तिनके प्रतिपालक।

दोहा
सुन्दर प्रान्त एकान्त में, गुरु गृह हो अभिराम।
वहां वटुक विद्या पढ़ें, निवसें आठों याम।।
अंतर हो द्वै कोस का, चटसाला के माँहि।
देखें बालक बालिका इक दुसर को नाँहि।।
कन्या गुरुकुल में करे, महिलाएँ सब काम।
पुरुष दरस वर्जित तहाँ, यही सिद्धि को धाम।।

चौपाई
जब तक पढ़ें कुमार कुमारी,
ब्रह्मचर्य सेवहिं व्रतधारी।
नर नारी का करें न दर्शन,
भाषण चिन्तन वर्जित पर्सन।
विषय कथन अरु मिलन अकेले,
सँग न कबहुं परस्पर खेले।
यह मैथुन है अष्ट प्रकारा,
ब्रह्मचारी रह इन ते न्यारा।
अध्यापक का है यह कारज,
छात्र बनावें साँचे आरज।
सब वटुकन को ज्ञान समाना,
आसन वासन खान रु पाना।
दारिद हो उत राजकुमारा,
सब से करे समान व्यवहारा।
तपः काल सब बनें तपस्वी,
सतवादी बलवान मनस्वी।
दोहा
गुरु जननी गुरु जनक अब, गुरु का धाम स्वधाम।
मात पिता नहीं मिल सकें, गुरुकुल में विश्राम।।

चौपाई
गुरु अर्पण कीनी सन्ताना,
बहुरि न उनको मिले सुजाना।
कबहुं न भेजे चिट्ठी पाती,
छूटी ममता पुन नहीं आती।
मिटे सकल चिन्ता संसारी,
छात्र पढ़ें गुरु के अनुहारी।
भ्रमण हेतु जाएँ विद्यारथि,
गुरु महाराज रहें तिन सारथि।
करन न पावें कोऊ कुचालें,
गुरु जन उन को सदा सम्हालें।
हितकर बालक गुरु गृह वासन,
मानव धर्म शास्त्र अनुशासन।
जाति नियम अथ हो नृप धर्मा,
वटुकहुँ रखे न कोउ निज घर मा।
पठन काज जो पठे न बाला,
कठिन दण्ड देवे भूपाला।

श्लोक
कन्यानां सम्प्रदानं च कुमाराणां च रक्षणम्।। – मनु0 अ0 7 । श्लोक 152

दोहा
मात पिता और गुरु का, प्रथम धर्म यह जान।
सार्थ गायत्री मंत्र का, शिशुहिं करावे भान।।
ओ3म् भूर्भवः स्वः। तर्त्सवितुर्वरैण्यं भर्गों देवस्यं धीमहि।
धियो यो नः प्रचोद्यात्।। – यजु0 अ0 36।। मं0 3।।

सोरठा
‘ओ3म्’ शब्द व्याख्यान, प्रथम समुल्लासे किया।
वही अर्थ परमान, सब शास्त्रन में सिद्ध है।

सोरठा
महा व्याहृति तीन, अर्थ लिखें संक्षेप से।
भ्रमर कमल रस लीन, अमृत रस नित पीवहीं।।

चौपाई
‘भूः’ परमेश्वर प्राण आधारा,
प्राण रूप से सकल पसारा।
‘भुवः’ शब्द का अर्थ अपाना,
सबके कष्ट कटे भगवाना।
‘स्वः’ बखाने मुनिवर व्याना,
व्यापक विश्वाधार समाना।
तैत्तिरीय मुनि धर्म स्वरूपा,
भक्तन हित यह अर्थ निरूपा।
सविता है उत्पादन कर्ता,
सुख का दाता दुःख निवर्ता।
‘देवस्य’ परयोजन गहिये,
दिवा रूप सुख साधन लहिये।
जिंह पावन की सबको आशा,
जिंह ते पूरन हो अभिलाषा।
सब से श्रेष्ठ स्वीकारन जोगा,
कहें ‘वरेण्यम्’ आरज लोगा।

दोहा
भर्गः नाम सराहिये, चेतन ब्रह्म स्वरूप।
पतितन को पावन करे, सुन्दर शुद्ध अनूप।।

चौपाई
‘तत्’ उसको ‘धीमहि’ हम धारे
‘यो’ जिसको जगदीश पुकारें।
‘धियः’ बुद्धियाँ ‘नः’ हमारी,
‘प्रचोदयात्’ रु करे सुधारी।
जो सत चित आनन्द सरूपा,
बड़ समरथ भूपन को भूपा।
शुद्ध बुद्ध नित मुक्त स्वभावा,
दयावन्त असु मूरति न्यावा।
जन्म मरण का कष्ट न पावे,
निराकार घट माँहि समावे।
कर्त्ता धर्त्ता पालन हारा,
ईश्वर जगत रचाया सारा।
शुद्ध रूप सुन्दर कमनीया,
रोम रोम में है रमनीया।
रे नर उस प्रभु का धर प्रयाना,
जाते मूढ होय मतिमाना।
मन के अन्दर मन का स्वामी,
मन की जाने अन्तर्यामी।
जेहि छिन दया दृष्टि तिस होवे,
मलिन मति को मति वह धोवे।
कुपथ हटाय सुपन्थ चलावे, सदा
सत्य का मार्ग दिखावे।

अभ्दिर्गात्रााणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति। विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति।। – मनु0 अ0 5 । श्लो0 102

स्नान करे नित उठ कर प्राता,
जल से शुद्ध होंय सब गाता।
सत्य वचन से मन की शुद्धि,
ज्ञान भये पावन हो बुद्धि।
विद्या तप का परम महातम,
शुद्ध होय इनसे जीवातम।
भूमि से ईश्वर पर्यन्ता,
अगणित द्रव्य पदार्थ अनन्ता।
बिन विवेक कछु समझ न लावे,
ज्ञानवान निश्चय कर पावे।

दोहा
ज्ञान बढ़ावे मल नशै, जानहु एक उपाय।
दलन दोष मल जरण कर, प्राणायाम सहाय।।

प्राणायामादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः।। – योग साधन पादे स0 28

चौपाई
ज्यों ज्यों नर करि प्राणायामा,
शुद्ध होय मन इन्द्रिय ग्रामा।
अन्तःकरण ज्ञान परगासा,
अन्धकार का होय विनासा।
अन्त काल मुक्ति पद पावे,
जन्म मरण बन्धन नहीं आवे।
अगन माँहि जिमि तपे सुवर्णा,
कुन्दन हो दमके शुभ वर्णा।
तैसेऊ प्राणायाम जलावे,
इन्द्रिय गत सब दोष हटावे।

श्लोक
दह्यन्ते घ्मायमानानां धातूनां च यथा मलाः। तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात्।। – मनु0 6 । 71
अथ प्राणायाम विधि
प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य। – योग0 समाधिपादे सू0 34।

चौपाई
प्रबल वेगि जस वमनहि वामे,
निकसे अन्न थमत नहीं थामे।
इह विधि श्वासहि बहिर निकासे,
बहिर रोक भीतर मत स्वासे।
खींचे ऊपर इन्द्रिय मूला,
श्वास टिके समरथ अनुकूला।
जब देखे अब मन घबरावे,
बहिर श्वास रोका नहीं जावे।
खैंचे अन्दर धीरे धीरे,
तब लग मन में ओ3म् उचारे।
दूर होय मन चंचलताई,
पावे स्थिरता और निकाई।
प्राणायामहु चार प्रकारा,
सकल योग इसके आधारा।
वाह्य विषय पहले को कहिये,
बाहिर श्वास निरोधे रहिये।
कहते दूसर को अभ्यन्तर,
खँच बहिर से रोके अन्तर।
थामे जहँ का तहँ इक बारा,
स्तम्भन वृत्ति तृतीय प्रकारा।
वाह्यभ्यन्तर क्षेपी नामा,
जानहि चतुरथ प्राणायामा।
अन्दर खेंचत बहिर धकेले,
बहिर निकारत अन्दर रेले।
क्रिया परस्पर श्वास विरोधी,
इन्द्रिय मन चांचल्य निरोधी।
बल वीरज पुरुषार्थ बढ़ाए,
सूक्ष्म रूप प्रतिभा हो जाए।
गहरे कठिन विषय सरलाये,
व्याधि जरा निकट नहीं आये।
नारिन के हित भी हित कारक,
प्राणायाम कुदोष विदारक।
ब्रह्म यज्ञ है सन्ध्योपासन,
संध्या करे जमाए आसन।
कर तल गत जल अँचहि आचमनी,
शोधे कंठ हृदयगत धमनी।

दोहा
कीजे इतना आचमन, नीर हृदय तक जाय।
कण्ठ शुद्धि तत्काल हो, कफ़ अरु पित्त नशाय।।

चौपाई
मार्जन करे उपासन कामा,
मध्यम अँगुरी सहित अनामा।
नयनादिक सों जलका परसन,
आलस हरे करे चित परसन।
जो जलका कहुं होय अभावा,
मार्जन बिन नित नेम निभावा।
प्राणायामहुं मंत्र समेता,
बालहिं शिक्षा दे उपनेता।
उपस्थान मनसा परिकर्मा,
स्तवन उपासन सिखहि सुधर्मा।
अघमर्षण पुन मंत्र सिखावे,
पाप कर्म इच्छा नहीं आवे।
निर्जन देशे सलिल किनारे,
गायत्री जप मनहिं उचारे।
वहीं करे संध्या नित नेमा,
घ्यानावस्थित मग्न सप्रेमा।

श्लोक
अपां समीपे नियतो नैत्यकं विधिमास्थितः। सावित्रीमप्यधीर्यात गत्वारण्यं समाहितः।। – मनु0 अ0 2 । 104
दोहा
देव यज्ञ नित हवन कर, ब्रह्म यज्ञ पश्चात।
अग्नि होत्र सुख शान्तिमय, सन्ध्या और प्रभात।।
प्रातर उदय होय जब भानु,
हवन करे करि दीप्त कृशानु।
साँझ समय रवि अस्त न होवे,
अग्निहोत्र करि कल्मप धोवे।
दोऊ सन्धि प्रातः अरु रजनी,
संध्या हवन करे प्रभु भजनी।
हो कर मग्न लगावे ध्याना,
सायं प्रातः भजि भगवाना।
माटी का इक कुण्ड रचावे,
चाहे धातु का बनवावे।
चतुष्कोण सुन्दर समरेखी,
दर्शनीय दृढ़ होय बिसेखी।
सोलह अंगुल मुख चौड़ाई,
एती ही जानहु गहराई।
तल में वेदि अंगुलि चारी,
होम करे नित साँझ सवारी।
ऊपर चौड़ा जेहि परमाने,
चतुर्थांश तल वेदी जाने।
अरणी आम्र पलाश सुचन्दन,
वायु शुद्धि कर अरु मन रंजन।
खंड खंड समिधा करवावे,
जो वेदी मुख माँहि समावे।
कुण्ड मध्य अग्नि कँह धरिये,
ऊपर समिधा राख सँवरिये।
प्रोक्षणि पात्र रु पात्र प्रणीता,
आज्यस्थाली चमसा रीता।
आज्यस्थाली मँह घृत डारे,
प्रोक्षणी पात्रे नीर सुढारे।
घृत को अग्नि चढ़ाए तपावे,
जल हित प्रोक्षणी निकट रखावे।
अधोलिखित मन्त्रण उच्चारे,
घृत सामग्री आगिहिं डारे।
श्लोक
ओं भूरगन्ये प्राणाय स्वाहा।
भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा।
स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।
भूर्भवः स्वरग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्याणेभ्यः स्वाहा।।

चौपाई
मंत्र मंत्र प्रति डार आहूति,
जल वायु की होवे पूती।
जो जानहु आहूती थोरी,
गायत्री पढ़ ड़ार बहोरी।
अथवा पढ़ विश्वानि देवा,
भूरि आहुति चहत जो देवा।

श्लोक
विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परां सुव। यदभ्द्रं तन्न आ र्सुव।। – यजु0 30। 3
चौपाई
‘ओ3म्’ ‘भूः’ प्राणादिक जेते,
सभी नाम ईश्वर के तेते।
तात्पर्य स्वाहा का ऐसा,
जैसा जाने बोले वैसा।
जैसे प्रभु ने जगत रचाया,
प्राणिमात्र पर करके दाया।
रे नर तू भी हो उपकारी,
अपने प्रभु के गुण अनुसारी।
पर हित दे निज दान पदारथ,
वाको जानिये भक्त यथारथ।
प्रश्न
होम किये ते क्या फल होवे,
धृत सामग्री व्यर्थ न खोवे।
चन्दन चर्चे फूल चढ़ावे,
प्राणिन को घृत अन्न खिलावे।
इससे होवे पर उपकारा,
अगन ढार क्यों करिये छारा।
केसर चन्दन गृह में धरिये,
गृह को सुमन सुवासित करिये।

उत्तर
दुर्गन्धि से उपजें रोगा,
पवन सुवासित सुख संजोगा।
जल कर अग्नि माँहि पदारथ,
नाश न होवे द्रव्य यथारथ।
दूर देश थित नर की नासा,
अनुभव करती वास सुवासा।
पवन उड़ा कर गन्धि ले जावे,
वायु मण्डल मँह फैलावे।
जल कर द्रव्य होंय अति हलके,
क्षय कारक वायु के मल के।
भस्म हुए बिन रहते भारी,
दूर देश हित नहीं हितकारी।
घर का वायु बाहिर न लावें,
बिना जरे कँह समरथ पावें।
अगन माँहि है शक्ति भेदन,
दुर्गन्धित वस्तु करि छेदन।
सूक्षम कर तिंहि बहिर आवे,
शुद्ध पवन को भीतर लावे।
जो घृत अन्न खिलावें रंका,
लघु उपकार तनिक नहीं शंका।
सामग्री वरु होम जलाई,
लाखों जन की करें भलाई।
हवन करे बरसे शुभ वारिद,
हरे होम व्याधि दुख दारिद।

जिज्ञासु
हवन प्रयोजन मलहिं निवारण,
पुन मन्त्रन केहि हेतु उचारण।
बिना होम क्या होवे दूषण,
शाप देयं क्या जल और पूषण।
कितनी डालें नित्य आहुति,
जिन ते हो जल वायु पुती।
आहूती का क्या परिमाना,
शास्त्रन में केहि भाँति विधाना।

समीक्षक
सुनहु वत्स मन्त्रन का गाना,
हवन यज्ञ का लाभ बखाना।
वेद मंत्र कण्ठागर होवें,
जग में वेद उजागर होवें।
मल पुद्गल नर मल उपजावे,
रोम रोम से मल फैलावे।
मानस तन दुर्गन्धि अधारा,
जल वायु मँह करे विकारा।
यह नर रोग व्याधि का कारण,
ताँते मल का करहिं निवारण।
जो नहीं हवन करहि नर नारी,
पाप दण्ड पावन अधिकारी।
सोलह सोलह आहुति देवे,
छः छः मासा घृत संग लेवे।
न्यून करे होवे फल हानी,
होमहि अधिक अधिक फल जानी।

दोहा
राजा राजर्षि अरु मुनि, करते यज्ञ महान।
रोग शोक जग का हरें, पावहिं पद कल्यान।

चौपाई
घर घर था जब हवन प्रचारा,
रोग शोक सों भारत न्यारा।
बाल मृत्यु नहीं मृत्यु अकाला,
चिंरजीव आयु शत साला।
हष्ट पुष्ट सुन्दर बलवन्ता,
आर्यवर्त वासी श्रीमन्ता।
यह दो वैदिक यज्ञ सनानत,
अति उपयोगी परम पुरातन।
श्लोक
ब्राह्मणस्त्रयाणां वर्णानामुपनयनं कर्त्तुमर्हति।
राजन्यो द्वयस्य।
वैश्यो वैश्यस्यैवेति।
शूद्रमपि कुलगुणसम्पन्न मन्त्रवर्जमनुपनीतमध्यापयेदित्येके।।

चौपाई
यज्ञसूत्र ब्राह्मण पहरावे,
त्रय वण्रन उपनयन करावे।
शूद्र होय शुभ लक्षण वंशा,
बढ़े जो होवे बुद्धि अवतंसा।
मन्त्र संहिता त्याग पढ़ाना,
शेष सपूरन शास्त्र बताना।
शूद्र पठन का है अधिकारी,
पर नहीं होवहिं सूतरधारी।
मानहिं ऐसा अनिक अचारज,
पूर्व काल के ब्राह्मण आरज।
बाल बालिका विद्या पारन,
बहुरि जाँय निज निज चटसारन।
अंगन और उपांग समेता,
पढ़ें वेद त्रय ऊरध रेता।
छत्तिस वर्ष व्यतीत निरापद,
विद्या पूनरन करें समापत।
अष्टादश अथवा नव वर्षा,
विद्या पूरन करें सहर्षा।
ज्ञान सपूरन करहिं न जब लौं,
ब्रह्मचर्य को सेवहिं तब लौं।

श्लोक
षट्त्रिंशदाब्दिकं चर्य्यं गुरौ त्रैवैदिकं व्रतम्। तदर्धिकं पादिकं वा ब्रहणान्तिकमेव वा।। – मनु0 3 । 1
पुरुषो वाब यज्ञस्तस्य यानि चतुर्विशति वर्षाणि तत्प्रातःसवनं चतुर्विंशत्यक्षरा गायत्री गायत्रं प्रातःसवनं तदस्य वसवोऽन्वायत्ताः प्राणा वाव वसव एते हीद सर्वं वासयन्ति।। 1 ।।
त०चेदेतस्मिन् वयसि कि०िचदुपतपेत्स ब्रूयात्प्राणा वसव इदं मे प्रातःसवनं माध्यन्दिन सवनमनुसंतनुतेति माहं प्राणानां वसूनां मध्ये यज्ञो विलोप्सीयेत्युभ्दैव तत एत्यगदो ह भवति।।2।।
अथ यानि चतुश्चत्वारिशद्वर्षाणि तन्माध्यन्दिन सवं चतुश्चत्वारिशदक्षरा त्रिष्टुप् त्रैष्टुभं माध्यंदिनसवनं तदस्य रुद्रा अन्वायत्ताः प्राणा वाव रुद्रा एते हीदसर्वरोदयन्ति।। 3 ।।
तं चेदेतस्मिन्वयसि कि०िचदुपतपेत्स ब्रूयात्प्राणा रुद्रा इदं मे माध्यन्दिन सवनं तृतीयसवनमनुसन्तनुतेति माहं प्राणाना रुद्राणां मध्ये यज्ञो विलोप्सीयेत्युभ्दैव तत एत्यगदो ह भवति।।4।।
अथ यान्यष्टाचत्वारि शद्वर्षाणि तत्तृतीयसवनमष्आचत्वारि शदक्षरा जगती जागतं तृतीयसवनं तदस्यादित्या अन्वायत्ताः प्राणा वावादित्या एते हीदसर्वमाददते।। 5 ।।
तं चेदेतस्मिन् वयसि कि०िचदुपतपेत्स ब्रूयात् प्राणा आदितया इदं मे तृतीयसवनमायुरनुसंतनूतेति माहं प्राणानामादित्यानां मध्ये यज्ञो विलोप्सीयेत्सुद्धैव तत एत्यगदो हैव भवति।।6।। – छान्दोग्य0

चौपाई
ब्रह्मचर्य के तीन प्रकारा,
उत्तम मध्य कनिष्ठ विचारा।
तनु अरु तन में रहने हारा,
यज्ञ रूप सद्गुण आधारा।
इन्द्रिय जित रह चौबि वर्षा,
वैद शास्त्र करि ज्ञान विमर्षा।
विद्या तप से आत्म तपावे,
हो बलवन्त विवाह करावे।
कबहुं न होवे लंपट भोगी,
गृह आश्रम मह मानहु योगी।
ब्रह्मचारी राखे विश्वासा,
ब्रह्मचर्य में जीवन आसा।
ब्रह्मचर्य जो रखूं अखंडित,
जीवन हो बल बुद्धि मण्डित।
जीवन सों जग करहिं सचेता,
रे प्राणि रह ऊरध रेता।
ब्रह्मचर्य सब सुक्खागारा,
ब्रह्मचर्य बल बुद्धि अधारा
ब्रह्मचर्य यश सम्पति गेहा,
रहे निरोग निरन्तर देहा।
मो सम ब्रह्मचर्य तुम सेवहु,
असी वर्ष लौं आयु लेवहु।
इन्द्रिय जित रहे वर्ष चवाली,
मध्यम ब्रह्मचर्य प्रणपाली।
रुद्र रूप वह अति बलवन्ता,
दुर्जन दुष्ट जनों का हन्ता।
वर्ष चार शत आयु पावे,
वाके मृत्यु निकट नहीं आवे।
करतल वाके चार पदारथ,
मानस जीवन सफल सकारथ।
चतस्त्रोऽवस्थाः शरीरस्य वृद्धियौंवनं सम्पूर्णंता कि०िचत् परिहाणिश्चेति। आषोडशादृद्धिः। आपश्चविंशतेयौंवनम्। आचत्वारिंशतः सम्पूर्णता।
ततः कि०िचत् परिहाणिश्चेति। प०चविंशे ततो वर्षे पुमान् नारी तु षोडशे। समत्वागतवीर्यौ तौ जानीयात्कुशलो भिषक्।। – सुश्रुत सूत्र0 अ0 35

चार अवस्था हैं नर तन की,
वृद्धि यौवन पूरनपन की।
पुन किंचित् परिहाणि आवे,
इस आयु में विवाह करावे।
सोलह से पच्चीस तक वृद्धि,
चालिस तक यौवन की सिद्धि।
हष्ट पुष्ट तब होवें अंगा,
पूरणता की उठें तरंगा।
बढ़ते धातु ठौर न पावें,
स्वेदादि संग बहिर आवें।
सर्वोत्तम अठतालिस वर्षे,
पाणि गह नर तन मन हर्षे।
नियम भेद नारी के जाने,
नर नारी नहीं एक समाने।
नर पचीस तो सोलह नारी,
ब्रह्मचर्य रख रहे कँवारी।
सत्रह तीस अठारह छती,
नर नारी सम न्यून न रत्ती।
नर होवे चालीस सपूरन,
बीस वर्ष में कन्या पूरन।
अठतालिस की आयु में नर,
करे विवाह सु जानहु वर तर।
ब्रह्मचर्य आगे मत धारे,
कर विवाह सन्तान प्रसारे।
जीवन भर रहना ब्रह्मचारी,
महा कठिन अति दुष्कर भारी।
इन्द्रिय जित पूरन विद्वाना,
योगी जन का कर्म महाना।
काम महानद प्रबल प्रवाहा,
अगम गभीर अपार अथाहा।
नद का नीर तीर जिमि फोड़े,
काम बाढ़ संयम तट तोड़े।
बिना योग नैष्ठिक ब्रह्मचारी,
मानहु इक भूकम्पन भारी।
अति तीक्ष्ण काँटों की शय्या,
भीष्म सरिस कोउ बिरला भैया।
अठतालिस पर विवाह रचावे,
चार पदारथ सहजहि पावे।

अथ पढ़ने-पढ़ाने वालों के नियम
ऋंत च स्वाध्यायप्रवचने च। सत्यं च सवाध्यायप्रवचने च। तपश्च स्वाध्यायप्रवचने च। दमश्च स्वाध्यायप्रवचने च। शमश्च स्वाध्यायप्रवचने च। अगन्यश्च स्वाध्यायप्रवचने च। अग्निहोत्रं च स्वाध्यायप्रवचने च। अतिथयश्च स्वाध्यायप्रवचने च। मानुषं च स्वाध्यायप्रवचने च । प्रजा च स्वाध्यायप्रवचने च। प्रजनश्च स्वाध्यायप्रवचने च। प्रजातिश्च स्वाध्यायप्रवचने च। – तैत्तिरीय उ0 7 । 1

सदाचार अरु सद्विद्याएं,
वेद शास्त्र सब पढ़े पढ़ाएँ।
पढ़े वेद अरु रहे तपस्वी,
इन्द्रिय वश कर रहे मनस्वी।
निर्मल वृत्ति रखे सुजाना,
अग्नि अरु विद्युत कर ज्ञाना।
अग्नि होत्र दोउ काल रचावे,
दत्त चित्त हो पढ़े पढ़ावे।
भूले नहीं अतिथि की सेवा,
कहें अतिथि को शास्तर देवा।
मनुषोचित करते व्यवहारा,
पढ़े पढ़ाये जीवन सारा।
सन्तति शिष्य राज्य कर पालन,
पाठन पठन रखे नित चालन।
करत वीर्य रक्षा और वृद्धि,
पढ़े पढ़ाएँ पाएँ सिद्धि।
अथ यम नियम
दोहा
पाँच नियम और पाँच यम, भजहिं जो नर विद्वान।
केवल नियम न सेवहिं, जो चाहत कल्यान।।

चौपाई
यम बिन नियम जो जन अपनावे,
सो नर गिरे पतित हो जावे।
शास्त्र कहें यम पाँच प्रकारा,
सत्य अहिंसा चोर नकारा।
ब्रह्मचर्य अभिमान विहीना,
पंच विधि यम कहें प्रवीना।

यमान् सेवेत सततं न नियमान् केवलान् बुधः।
यमान्पतत्यकुर्वाणो नियमान् केवलान् भजन्।। – मनु. अ. 4 । 204
तत्राहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः।। – योग0 साधनपादे सूत्र 30
शोचसन्तोषतपः स्वाध्यायेधरप्राणिधानानि नियमाः।। – योग0 साधनपादे सूत्र 32

चौपाई
तप सन्तोष शौच स्वध्याया,
अरु ईश्वर प्राणिधान बताया।
हर्ष शोक तज लाभ रु हानि,
धर्महु त्यागे नहीं जो प्रानी।
सन्तोषी उस नर को मानूँ,
आलस को सन्तोष न जानूँ।
जल सों स्नान निमज्जन धावन,
वाको नाम शौच शुभ पावन।
लाख कष्ट दुख चाहे आवे,
धर्म कृत्य पुन करता जावे।
शास्त्र इसी को तप बतलाए,
धूनी ताप न तप कहलावे।
चौथे पढ़ना और पढ़ाना,
ईश भक्ति ईश्वर प्रणिधाना।
कामातुरता भली न जानो,
काम हीन भी उचित न मानो।
कामातुरता नरहिं गिरावे,
उत्तम नर को पशु बनावे।
कामात्मता न प्रशस्ता न चैवेहास्त्यकामता।
काम्यो हि वेदाधिगमः कर्मयोगश्च वैदिकः।। – मनु0 अ0 2।28

निपट निकामी मनुज निरर्थक,
याको नाहीं शास्त्र समर्थक।
लोप होंय सब वैदिक कर्मा,
होंय समापत सृष्टि धर्मा।
ताँते मनु ने कियो बखना,
धर्म तत्व भल विधि सोई जाना।
केहि विधि ब्राह्मी तनु हो भाई,
सुनहु जो मनु, गाथा गाई।

श्लोक
स्वाध्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः।
महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राहीयं क्रियते तनुः।। – यजु0 2 । 21

चौपाई
स्वाध्याय व्रत होम त्रिविद्या,
महायज्ञ यज्ञरु सुत इज्या।
साधन अष्ट करहि नर धीरा,
इनते होवहि ब्राह्म शरीरा।
सब विद्या पढ़ना ‘स्वाध्याया’,
अनपढ़ नर पाछे पछताया।
ब्रह्मचर्य्य धारे सत बोले,
सत्य तुला पर जिह्वा तोले।
सत्य नियम दृढ़ होय निभावन,
यही नेम यह व्रत अतिपावन।
भूखों रहना व्रत नहीं होई,
ऐसे व्रत से फल नहीं कोई।
वैदिक ज्ञान उपासन कर्मा,
यही त्रिविद्या कहिये धर्मा।
पक्ष पक्ष जो इष्टि करिये,
यह इज्या करि भव को तरिये।
करि सुशील उत्पन्न सन्ताना,
आज्ञा देंय वेद भगवाना।
ब्रह्मदेव पितरों का याजन,
अतिथि वैश्वदेव प्रिय भाजन।
पंच महा यह यज्ञा बखाने,
मनु शास्त्र नित नेम प्रमाने।
अग्निष्ओमादिक सब यज्ञा,
करहिं न जो ते पशु सम अज्ञा।
अथवा शिल्प ज्ञान विज्ञाना,
यज्ञ शब्द का अर्थ सुजाना।
जो नर साधहिं आठो साधन,
ब्राह्मी तनु पावें निर्बाधन।
ब्राह्मी तनु है भजन अधारा,
प्रभु को भजे तो होवे पारा।
यह इन्द्रिय हैं अश्व समाना,
रथ शरीर खैंचहिं मैं जाना।
श्लोक
इन्द्रियाणां विचरतां विषयेष्वपहारिषु।
संयमे यंतमातिष्ठेद् विद्वान् यन्तेव वाजिनाम्।। – मनु0 2। 88
इन्द्रियाणां प्रसङेग्न दोषमृच्छत्यसंशयम्।
सन्नियम्य तु तान्येव ततः सिद्धिं नियच्छति।। -मनु0 2 । 13

चौपाई
सारथि सम शुभ पन्थ चलाओ,
विषय कूप नहीं गिरे बचाओ।
इन्द्रिय वश जीवातम भाई,
दुख पावे नाना गिर खाई।
जो इन्द्रिय वश दुष्टाचारी,
सुकृत क्रिया तस निष्फल सारी।
निष्फल यज्ञ वेद तप त्यागा,
शुभ गति पाए न कभी अभागा।

श्लोक
वेदास्त्यागश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांसि च।
न विप्रदुष्टभावस्य सिद्धिं गच्छन्ति कहिंचित्।। – मनु. 2 । 17

चौपाई
वेद पाठ स्वाध्याय क्रियाएँ,
यह सब नित्य कर्म सरसाएँ।
हवन करें नित पढ़ें ऋचाएँ,
अनध्याय नागा नहीं पाएँ।
जैसे रुके न श्वास प्रश्वासा,
विना श्वास नहीं जीवन आसा।
ऐसेहि जानो यह नित कर्मा,
कबहुं न छोड़े जीवन धर्मा।
दुष्कृत मँह नित नागा करिये,
सुकृत कर्म नागा परिहरिये।

वेदोपकरणे चैव स्वाध्याये चैव नैत्यके।
नानुरोधोऽस्त्यनध्याये होममन्त्रेषु चैव हि।। 1।।
नैत्यके नास्त्यनध्यायो ब्रह्मसत्रं हि तत्स्मृतम्।
ब्रह्माहुतिहुतं पुण्यमनध्यायवषट्कृतम्।। 2 ।। – मनु0 2 । 105-106

चौपाई
जो नर नम्र सुशील स्वभावा,
आज्ञा पालक गुरु मन भावा।
सो आयु बल विद्या पावे,
नर नारी तस कीरति गावे।

श्लोक
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्द्धन्त आयुर्विद्या यशो बलम्।। – मनु0 अ0 2 । 121
अहिंसयैव भूतानां कार्यं श्रेयोऽनुशासनम्।
वाक् चैव मधुरा श्लक्ष्णा प्रयोज्या धर्ममिच्छता।।1।।
यस्य वाङ्मनसे शुद्धे सम्यग्गुप्ते च सर्वदा।
स वै सर्वमवाप्रोति वेदान्तोपगतं फलम्।।2।। – मनु0 151 । 160

चौपाई
पण्डित जन का कर्म प्रधाना,
अन्ध कूप से जगत बचाना।
बैर त्याग उपदेश सुनाएँ,
सब को सन्मार्ग पर लाएँ।
शील सहित सत मीठा बोलें,
करि उपदेश ज्ञान दृग खोलें।
जो चाहे नर धर्म उधारन,
पाप पंक सों जगत उबारन।
सत आचरे सत्य उच्चारे,
सत के बल से झूठ पछारे।
पावन मन अरु वाणी जाँकी,
ब्रह्म वेद की देखें झाँकी।
श्लोक
संमानाद् ब्राह्मणो नित्यमुद्विजेत विषादिव।
अमृतस्येव चाकाङ्क्षेदवमानस्य सर्वदा। – मनु0 2 । 162

चौपाई
ब्राह्मण वही वेद का ज्ञाता,
साक्षात् वह प्रभु को पाता।
वही समय का जानन वाला,
जो स्तुति जाने विष का प्याला।।
निंदा को अमृत करि जाने,
जग उसको सद् ब्राह्मण माने।

श्लोक
अनेन क्रमयोगेन संस्कृतात्मा द्विजः शनैः।
गुरौ वसन् सँचिनुयाद् ब्रह्माधिगमिकं तपः।।
योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्।
स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः।। – मनु0 2 । 164-168

चौपाई
संस्कृतात्मा द्विज ब्रह्मचारी,
कृत उपनयन कुमार कुमारी।
वेद ज्ञान तप धीरे धीरे,
उन्नति करें गुरु के नीरे।
विप्र होय जो पढ़े न वेदा,
विप्र शूद्र में नहीं कोई भेदा।
ब्राह्मणपन को लाज लगाए,
वंश सहित शूदर गति पाए।

ब्रह्मचारी के धर्म
वर्जयेन्मधुमांस०च गन्धं माल्यं रसान् स्त्रियः।
शुक्तानि यानि सर्वाणि प्राणिनां चैव हिंसनम्।।1।।
अभ्यङग्म०जनं चाक्ष्णोरुपानच्छत्रधारणम्।
कामं क्रोधं च लोभं च नर्त्तनं गीतवादनम्।।2।।
द्यूतं च जनवादं च परिवादं तथानृतम्।
स्त्रीणां च प्रेक्षणालम्भमुपघातं परस्य च।।3।।
एकः शयीत सर्वत्र न रेतः स्कन्दयेत्क्वचित्।
कामाद्धि स्कन्दयन् रेतो हिनस्ति व्रतमात्मनः।।4।। – मनु0 2 । 177-180

ब्रह्मचारी नर हों वा नारी,
सदा रहें सब शुद्धाचारी।
मद्य मांस गन्धि और माला,
कबहूं करे न दर्शन बाला।
नारी पुरुष करें नहीं संगा,
अ०जन जूते मद्रन अंगा।
हिंसा द्वेष नृत्य अरु गाना,
गुप्तेन्द्रिय को हाथ लगाना।
सब प्रकार की तजे खटाई,
काम क्रोध मद मोह नशाई।
जन-जन की निंदा अरु चर्चा,
मिथ्या वचन कुमर्म कुचर्चा।
ब्रह्मचारी नित सोये अकेला,
काम केरि खेले नहिं खेला।
जो नर करे वीर्य की स्खलना,
निज आतम सों करता छलना।
पतित होय मूरख ब्रत नारी,
रूठ जाँय आतम अविनाशी।
आचार्य का शिष्य का उपदेश
वेदमनूच्याचार्योऽन्तेवासिनमनुशास्ति। सतयं वद। धर्म चर। स्वाध्यायान्मा प्रमदः। आचार्य्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः। सत्यान्न प्रमदितव्यम्। धर्मान्न प्रमदितव्यम्। कुशलान्न प्रमदितव्यम्। भूत्यै न प्रमदितव्यम्। स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्।।1।।
देवपितृकाय्या्रभ्यां न प्रमदितव्यम्। मातृदेवो भव। पितृदेवो भय।। आचार्य्यदेवो भय। अतिथिदेवो भव। यान्यस्काम सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि।।2।। नो इतराणि। ये के चास्मच्छ्रेयांसो ब्राह्मणास्तेषां त्वयासनेन प्रश्वसितव्यम्। श्रद्धया देयम्। अश्रद्धया देयम्। श्रिया देयम्। हित्रया देयम्। भिया देयम्। संविदा देयम्। अथ यदि ते कर्मविचिकित्सा वा वृत्तविचिकित्सा वा स्यात्।।3।।
ये तत्र ब्राह्मणाः समदर्शिनो युक्ता अयुक्ता अलूक्षा धर्मकामाः स्युर्यथा ते तत्र वर्त्तेरन्। तथा तत्र वर्त्तेथाः। (अथाभ्याख्यातेषु। ये तत्र ब्राह्मणाः संमर्शिनः। युक्ता आयुक्ताः। अलूक्षा धर्मकामाः स्युः। यथा ते तेषु वर्त्तेरन्। तथा तेषु वर्त्तेथाः।।) एष आदेश एष उपदेश एषा वेदोपनिषत्। एतदनुशासनम्। एवमुपासितव्यम्। एवमु चैतदुपास्यम्।।4।। – तैत्तिरीय0 प्रपा0 7 । अनु0 11 । कं0 1 । 2 । 3 । 4

सुनहु तात अब देकर काना,
दत्तचित्त सावध धरि ध्याना।
सत्य बोल अरु धर्महु आचर,
बिन प्रमाद पढ़ विद्या प्रियवर।।
पूरन ब्रह्मचर्य को धारहु,
गुरु को प्रिय धन से सत्कारहु।
करि विवाह सन्तति उत्पादन,
भूलेहु झठ न कर प्रतिपादन।
कर प्रमाद धन से मत भागे,
आलस सों धर्महु नहीं त्यागे।
स्वास्थ्य निरोग न तज चतुराई,
विद्या पढ़ चित ध्यान लगाई।
मात पिता गुरु अरु विद्वाना,
सदा करें इनका सन्माना।
सत्याचरण शास्त्र अभिविन्दित,
धर्म कर्म कर सदा अनिंदित।
शुभ गुण करियो ब्रहण हमारे,
दुर्गुण हमरे गहो न प्यारे।
सद् ब्राह्मण की कर सत्संगति,
दुर्जन की मत बैठ कुसंगति।
हो कल्याण जो देवे दाना,
दान करे तज कर अभिमाना।
श्रद्धा और अश्रद्धा होवे,
फल हित दान बीज किन बोवे।
शोभा लज्जा भय से देवे,
बिन बीजे फल कैसे लेवे।
कबहुं होय धर्म पर संसा,
डोल जाय जो मन की मंसा।
करिये वही शील अचारा,
धर्मातम जन के अनुसारा।
यही वेद है यही उपदेशा,
यही मोर आज्ञा सन्देशा।
यह शिक्षा निज मन मँह धारो,
इस पर चल निज चलन सुधारो।
या विधि गुरु शिष्यहिं उपदेशे,
धर्म पंथ में तिनहिं प्रवेशे।

अकामस्य क्रिया काचिद् दृश्यते नेह कर्हिचित्।
यद्यद्धि कुरुते कि०िचत् तत्तत्कामस्य चेष्टितम्।। – मनु0 2 । 4

जो जन कहें ीालो नहीं कामा,
समुचित है जीवन निष्कामा।
वे प्राणी हैं भूले भ्रम के,
बिना कामना पलक न झमके।
सोच समझ देखो संसारा,
बिन काम नहीं कोऊ व्यापारा।
कामहि जग के काज चलावे,
काम बिना जग गति रुक जावे।
आचार की महिमा
आचारः प्रथमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त्त एव च।
तस्मादस्मिन्त्सदा युक्तो नित्यं स्यादात्मवान् द्विजः।।1।।
आचाराद्विच्युतो विप्रो न वेदफलमश्नुते।
आचारेण तु संयुक्तः सम्पूर्णफलभाग्भवेत्।।2।। – मनु0 1। 108-109

कथन श्रवण का यह फल जानो,
धर्म शास्त्र प्रतिपादित मानो।
वही आचार जो वेद बखाने,
जाको स्मृतियाँ गातीं गाने।
ताँते चलहु धर्म अनुकूला,
धर्म जगत में सुख कर मूला।
पतिताचार न सुख को पावे,
निष्फल वाकी विद्या जावे।

श्लोक
योऽवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विजः।
स साधुभिर्बहिष्कार्यों नास्तिको वेदनिन्दकः।।1।। – मनु0 2 । 11

चौपाई
वेद शास्त्र जो करि अपमाना,
करे चरे अपने मन माना।
वह निंदक नास्तिक अति भारा,
उसे जाति से कीजिये न्यारा।
एंगत वीच न बैठन दीजे,
नगर देशसों बाहर कीजे।

धर्म का लक्षण
श्रुतिः स्मृति सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः।
एतच्चतुर्विध्र प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्।।1।। – मनु0 2 । 12

वेद विहित स्मृति कथित आचरणा, भद्रलोक जिन्ह मग धरु चरणा।
जो मन को अथ लागे प्यारा, लक्षण यही धर्म के चारा।
सत्य गहे मिथ्या परित्यागे, जन्म जन्म तस पाप न लागे।
अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते।
धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः।। – मनु0 2 । 13

चौपाई
जिसने मन से माया त्यागी,
काम कला से भला विरागी।
पावे वही धर्म को ज्ञाना,
दया दृष्टि राखें भगवाना।
जाके होय धर्म जिज्ञासा,
वेद मिटाएँ वाकी प्यासा।
वेदहि संशय सकल मिटावें,
धर्म वेद निर्णय करवावें।
नरपति का यह कर्म प्रधाना,
सब जातिन दे विद्या दाना।
ब्राह्मण क्षत्रिय सबहिं पढ़ावें,
शुद्रहु उत्तम विद्या पावे।
विद्या हीन रहे नहीं कोऊ,
विद्या लोक सुधारे दोऊ।
पठित होयं यदि ब्राह्मण सारे,
शेष वर्ग हों अपढ़ बेचारे।
नहीं राज्य की होवे वृद्धि,
धन संपत्ति की क्यों कर सिद्धि।
उच्छृखङल ब्राह्मण विद्वाना,
छल पाखंड करेंगे नाना।
फैले पाप पुण्य दिव्य जाई,
धर्म लुप्त सत्कर्म नशाई।
तीन वर्ग विप्रन अनुसरिहैं,
स्वेच्छाचार सकल नर करिहैं।
वेद छाँड़ ब्राह्मण की बानी,
नियम बने हो देश की हानि।
चतुर्वर्ण जब विद्या पावें,
मनमानी पुन कौन रचावें।
सभी पठित सब होंगे चातर,
हो निर्मल दंभ तरु पातर।
विप्रहु चहै जो निज कल्याना,
सब वर्गन दे विद्या दाना।
क्षत्रिय राज्य बढ़ाने हारे,
क्षत्रिय देश बचाने वारे।
क्षत्रिय के चहे प्राण निकारें,
अन्न हेतु नहीं हाथ पसारें।
पक्षपात नहीं राखें रंचक,
न्यायशील क्यों होंवे वंचक।
विप्र रखें क्षत्रिय पर अंकुश,
ब्राह्मण भी नहीं होंय निरंकुश।
क्षत्रिय करें विप्र पर शासन,
दोनों का सम ऊँचा आसन।
परीक्षा पाँच प्रकार से होती है
पंचविधि की होय परीक्षा,
या ते होवे सत्य समीक्षा।
प्रथम परीक्षा सुनहु बखानूं,
सत्यासत्य परख कर जानूं।
जो ईश्वर गुण कर्म स्वभावा,
चतुर्वेद प्रतिपादित भावा।
जो कछु है उसके अनुकूला,
वहा सत्य संतत सुख मूला।
दूसर परख सत्य की कहिये,
सृष्टि क्रम प्रतिकूल न गहिये।
विश्व सृजन के जो अनुसारा,
वही सत्य सुंदर सुख सारा।
श्रवण आत का सदुपदेशा,
मन मँह करे न संशय लेशा।
चौथी परख आत्म की शुद्धि,
सब जीवों में हो सम बुद्धि।
पंचम जानहु अष्अ प्रमाना,
हैं प्रत्यक्ष शबद अनुमाना।
अर्थापत्ति अरु उपमाना,
जिन ते बढ़े सत्य विज्ञाना।
संभव अरु ऐतिह्य अभावा,
इन ते पाखों सत्य प्रभावा।

अथ अष्ट प्रमाणों का लक्षण
इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पत्रं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि
व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्।। – न्याय अ0 1 ं आ0 1 । सूत्र 4

प्रत्यक्ष ज्ञान
चौपाई
इन्द्रिय से जब जुड़े पदारथ,
तब होवे प्रत्यक्ष यथारथ।
इन्द्रिय का मन से संजोगा,
मन आतम कर होवे योगा।
हो प्रत्यक्ष ज्ञान हितकारी,
अव्यपदेशी अव्यभिचारी।
नाम नामि संयोगज ज्ञाना,
न्याय शास्त्र व्यपदेशी माना।
यथा कहे कोई जल ले आओ,
है परयोजन पानी लाओ।
पानी द्रव्य पियास बुझावे,
जल संज्ञा कोई देख न पावे।
संज्ञा नहीं अर्थ संयोगा,
हो प्रत्यक्ष द्रव्य उपभोगा।
व्यभिचारी प्रत्यक्ष न जाने,
वह तो वह भूल सम माने।
यथा रात्रि मँह लख का खंभा,
मानस समझा नहीं अचम्भा।
प्रात रात्रि मँह लख का खंभा,
मानस समझा नहीं अचम्भा।
प्रात होय निश्चय का जाना,
याहि कह व्यभिचारी ज्ञाना।
व्यवसायात्मक निश्चित ज्ञाना,
जिसमें होय न भ्रम का भाना।
राम खड़ा वा कृष्ण खड़ा है,
जब लग यह सन्देह पड़ा है।
तब लग जानहु अव्यवसायी,
सत्य परीक्षा होय न भाई।

अनुमान
अथ तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतो दृष्ट०च।। – न्याय0 ।। अ0 1। आ0 1। सू0 5।।
चौपाई
एक देश में द्रव्य जो देखा,
अन्य ठौर पुन वह अवलेखा।
अंश मात्र अथ देखा सारा,
मन महँ पुन तत्काल विचारा।
निश्चय यह तो वही पदारथ,
यह जानहु अनुमान यथारथ।
बिन प्रत्यक्ष न हो अनुमाना,
परख हेतू दूसर परमाना।
धूम देख अग्नि अनुमाने,
पिता देख पुत्रहिं पहिचाने।
सुख दुख देख जगत् के नाना,
पूर्व जन्म का हो अनुमाना।
अनुमानहुँ के तीन प्रकारा,
प्रथम ‘पूर्ववत्’ करहिं विचारा।
मेघ देख वर्षा अनुमाने,
हो विवाह सन्तति अनुमाने।
कारण देख कार्य को ज्ञाना,
होय पूर्ववत यह अनुमाना।
नाम ‘शेषवत्’ दूसर कहिये,
कार्य देख कारण को गहिये।
सुत को देख पिता कँह जाने,
बादरु लखि वर्षा अनुमाने।
रचना लख कर रचने हारा,
सुख दुख देख आचार विचारा।
सामान्यतो दृष्ट साधारण,
कोई काहू का कार्य न कारण।
संग रहे इक धर्म समाना,
यह तृतीय जानहु अनुमाना।
एक ठौर से दूसर जाए,
बिनाचले कोई जान न पाए।
गति साधर्म्य देख मन ठाना,
गति से होवे आना जाना।
‘अनु’ का अर्थ अनन्तर जाने,
‘मान’ अर्थ ‘उत्पति’ पहिचाने।
पूर्व प्रत्यक्ष पाछे अनुमाना,
यथा धूम लख अग्नि जाना।

उपमान
प्रसिद्धसाधर्म्यात्साध्यसाधनमुपमानम्।। -न्याय0 ।। अ0 1 ।। आ0 1 ।। सू0 6।।
चौपाई
जो साधर्म्य होय विख्याता,
उससे साधें साध्य को ज्ञाता।
वह साधन उपमान कहावे,
सिद्ध साध्य साधर्म्य लखावे।
यथा कहे कोई “रामहिं लाओ”,
काज आवश्यक शीघ्र बुलाओ।
पर वह बोले “राम न जानूं”,
क्योंकर रामहिं मैं पहिचानूं।
जिमि देखो तुम कृष्ण की सूरत,
वही अनुहार राम की मूरत।
गया तुर्त वह पहुंच ठिकाने,
रामहिं देख शीघ्र पहिचाने।
निश्चय भया राम जब दीखा,
रूप रंग सब कृष्ण सरीखा।

शब्द
आप्तोपदेशः शब्दः।। -न्याय0 । अ0 1 । आ0 1 । सू0 7।।

चौपाई
आप्त पुरुष उपदेश बखाने,
शब्द प्रामाणिक उस का माने।
कीजे श्रवण आप्त का लक्षण,
धर्म धुरंधर पठित विचक्षण।
परोपकारी अरु सतवादी,
उद्यमशील जितेन्द्रिय त्यागी।।
पृथिवी से ईश्वर पर्य्यन्ता,
यावन्मात्र पदार्थ अनन्ता।
भली भाँति सब का कर ज्ञाना,
पुन उपदेश करे कल्याना।।
ऐसे पुरुष और परमेश्वर,
आप्त कहावें योग योगेश्वर।
चतुर्वेद उनके उपदेशा,
या में संशय भ्रम नहीं लेशा।
वेद वचन है शब्द प्रमाना,
जो माने पावे सुख नाना।
ऐतिह्य
न चतुष्ट्वमैतिह्यार्थापत्तिसम्भवाभावप्रामाण्यात्।। – न्याय0 ।। अ0 2 । आ0 2 । सू0 1 ।।
चौपाई
है ऐतिह्य चरित जीवन का,
राज राजर्षि अरु धीमान् का।
पढ़ इतिहास पुरातन जाने,
सुपथ कुपथ दोनों पहिचाने।
निज इतिहास सुमार्ग बतावे,
भावी जग को मार्ग दिखावे।
अर्थापत्ति
बिन कारण कारज नहीं संभव,
मेघ बिना जिमि वृष्टि असम्भव।
याको अर्थापत्ति नामा,
छठा प्रमाण ज्ञान को धामा।
संभव
सप्तम ‘संभव’ सत्य समूला
है प्रमाण सृष्टि अनुकूला।
बात असंभव कोऊ न माने,
जो संभव सो सत्य प्रमाने।
रंगे स्यार साधु लंगोड़े, जैसे
हाँकें गप्प गपोड़े।
हमने देखा मृतक जिवाना,
बिना पिता के भई सन्ताना।
अँगुरि पर गिरि अमुक उठाये,
सागर में पत्थर तैराये।
चांद किया दो टुकड़े भाई,
जन्मा ईश्वर मिली बधाई।
मानस के सिर सींग उगावें,
वंध्या सुत का विवाह करावें।
कोरी गप्प असंभव बैना,
कानों सुनीं न देखी नैना।
अभाव
जहाँ न होय पदारथ भावा,
जानहिं वहाँ प्रमाण अभावा।
यथा कहे कोई ‘हाथी लाएँ’,
पर वहाँ हाथी देख न पाएँ।
जहाँ होय हाथी उत जावे,
वहाँ जाय हाथी ले आवे।
अष्ट प्रमाणहिं जो मन धारे,
पुन वह सत्यासत्य विचारे।
पाँच भाँत की यही परीक्षा,
करहि सो जानहि सत्य समीक्षा।
धर्मविशेषप्रसूताद् द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां
पदार्थानां साधर्म्यवैधर्म्माभ्यां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसम्।। – वै0 अ0 1 । आ0 1 । सू0 4 ।।
चौपाई
जो नर कर धर्मानुष्ठाना,
हो पवित्र पाकर पद ज्ञाना।
जाने सब साधमय्र विधरमा,
टूट जांय वाके सब भरमा।
यथा भूमि जड़ अरु जड़ पानी,
जड़ता दोऊन माँहि समानी।
धर्म यही साधर्म्य समाना,
विरुध धर्म वैधर्म बखाना।
भू कठोर और कोमल नीरा,
अगन तप्त जल सीतल सीरा।
यह वैधर्म्य धर्म असमाना,
जिसने इसका तत्व पछाना।
द्रव्य गुणादिक छहो पदारथ,
जान लिया जिस रूप यथारथ।
वाक सहज मोक्ष मिल जावे,
बहुरि न माया उसे फँसावे।
पृथिव्यापस्तेजोवायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति द्रव्याणि।
– वै0 अ0 1 । आ0 1 । सू0 5 ।
चौपाई
पृथिवी जल मनतेज अकाशा,
आतम काल वायु अरु आशा।
द्रव्य कथित नव ऋषि कणादा,
कर विचार नर छाँड प्रमादा।
वाक सहज मोक्ष मिल जावे,
बहुरि न माया उसे फँसावे।

चौपाई
पृथिवी जल मन तेज अकाशा,
आतम काल वायु अरु आशा।
द्रव्य कथित नव ऋषि कणादा,
कर विचार नर छाँड प्रमादा।

द्रव्य लक्षण
क्रियागुणवतसमवायिकारणमिति द्रव्यलक्षणम्।। – वै0 । अ0 1 । आ0 1 । सू0 15 ।।

द्रव्य क्रिया मय गुण मय जानें,
क्रियावान गुण वत छहः माने।
तीन विहीन क्रिया गुणवंता,
दिशा काल आकाश अनन्ता।
समवायि कारण युत लक्षण,
जग महँ यह नव द्रव्य विलक्षण।

रूपपसगन्धस्पर्शवती पृथिवी।। – वै0 ं अ0 2 । आ0 1। सू0 1।।

चौपाई
स्पर्श गंध रस रूप विराजे,
चार गुणों से भूमि भ्राजे।
अगन योग से हुई सरूपा,
जल से रसमय भई अनूपा।
स्पर्श मयी वायु के कारण,
सकल पदारथ करती धारण।

व्यवस्थितः पृथिव्यां गन्धः।। – वे0 । अ0 2 । आ0 2 । सू0 2।।

चौपाई
गन्ध स्वाभाविक पृथिवी मांही,
जल में रस जिमि रहत प्रवाहीं।
अग्नि मांहि व्यवस्थित रूपा,
जिंह ते पावे द्रव्य सरूपा।
स्पर्श स्वाभाविक पवन मँझारा,
गगन माँहि सब शब्द पसारा।

रूपरसस्पर्शवतय आपो द्रवाः स्त्रिग्धाः।। – वै0 । अ0 2। आ0 1 । सू0 2 ।।

अप्सु शीतता।। – वै0 । अ0 2 । आ0 2 । सू0 5।।

चौपाई
कोमलता रस रूप रु द्रवणा,
स्पर्श गुणी है जल प्रस्त्रवणा।
स्वाभाविक रस मय अरु सीरा,
दोउ गुण युक्त व्यवस्थित नीरा।

तेजो रूपस्पर्शवत्।। – वै0 । अ0 2 । आ0 1 । सू0 3।।
स्पर्शवान् वायुः।। – वै । अ0 2। आ0 1। सू0 4।।

स्पर्श रूप वत तेजहुं जानें,
रूप व्यवस्थित गुण पहिचानें।
स्पर्श होय वायु की संगत,
चमके भानु नखत दिवंगत।

त आकाशे न विद्यन्ते।। – वै0 । अ0 2। आ0 1 । सू0 5।।

केवल शब्द गगन के माँही,
शेष चार गुण इसमें नाँही।

निष्क्रमणं प्रवेशनमित्याकाशस्य लिङग्म्।। – वै0 । अ0 2 । आ0 1 । सू0 20।।

है प्रवेश अरु निपट निकासा,
याहि चिन्ह सों जान अकासा।

कार्य्यान्तराप्रादुर्भावाच्च शब्दः स्पर्शवतामगुणः।। – वै0 । अ0 2। आ0 1। सू0 25।

स्पर्शगुणी पवनादिक जेते,
शब्द हीन जानो सब तेते।
केवल मात्र एक आकासा,
करे शबद जिस माँहि निवासा।

अपरस्मिन्नपरं युगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिङगनि।। – वै0 ं अ0 2 । आ0 2। सू0 6।।

पहले पाछे अचिर चिरादि,
है प्रयोग सों काल अनादि।

नित्येष्वभावादनित्येषु भावात्कारणे कालाख्येति।। – वै0 । अ0 2। आ0 2। सू0 1।।

जेते लखें अनित्य पदारथ,
उन सब में है काल सकारथ।
नित्य वस्तु में काल नहीं है,
जहँ अनित्यता काल वहीं है।
संज्ञा काल रहे कारण में,
क्षणिक वस्तु जीवन मारण में।

इत इदमिति यतस्तद्दिश्यं लिङगम्।। – वै0 । अ0 2। आ0 2। सू0 10।।

उत्तर दक्खन दाँएं बाँएं,
उपर जाएं नीचे आएं।
जिंह ते होवे यह व्यवहारा,
दिशा नाम सर्वत्र पसारा।

आदित्यसंयोगाद् भूतपूर्वाद् भविष्यतो भूताच्च प्राची।। – वे0 अ0 2। आ0 2। सू0 14।।

उदय होय भानु जिस ओरा,
वाको कहें पूर्व की छोरा।
अस्त होय पच्छम की आशा,
रवि डूबे नहीं रहे प्रकाशा।
दाँएं दकखन पच्छम वामा,
चार दिशा सुन्दर अभिरामा।

एतेन दिगन्तरालानि व्याख्यातानि।। – वै0 अ0 2। आ0 2। सू0 16।।

पूरब दक्खन कोण विराजे,
आगिनेय दिक नाम सुसाजे।
दक्खन पच्छम कोण सहारा,
नैर्ऋति दिक् करे पसारा।
उत्तर पच्छम कोण सुहावे,
दिशा वायवी शास्त्र बतावे।
उत्तर पूरब मध्य इशानी,
शोभायुत यह कोण सुहानी।
जीवात्मा के लक्षण
इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिङगमिति।। – न्याय0 अ0 1। आ0 1। सू0 10।।

जीवातम के यह छः लक्षण,
जानहिं पंडित बुद्धि विचक्षण।
इच्छा द्वेष यतन अरु ज्ञाना,
सुःख दुःख जो होवें नाना।
जीव माँझ इनका है वासा,
छः गुण आतम मध्य प्रकासा।

प्राणाऽपाननिमेषोन्मेषजीवनमनोगतीन्द्रियान्तरविकाराः सुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नाश्चात्मनो लिङगनि।। – वै0 अ0 3। आ0 2। सू0 4।।

चौपाई
प्राणापान निमेष उन्मेषा,
प्राण रु मन गति चाल विशेषा।
विषय ग्रहण इन्द्रिय के द्वारा,
क्षुत्पिपास ज्वर आदि विकारा।
सुख दुख इच्छा द्वेष प्रयतना,
जीव कर्म गुण जानहु जतना।

युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङगम्।। – न्याय0। अ0 1। आ0 1। सू0 16।।

चौपाई
जाते एककाल मँह एका, ग्रहण करे नहीं वस्तु अनेका।
वह मन है यह शास्त्र बखानें, मन की गति अति तीक्षण जानें।

अथ गुण वर्णन
रूपरसगन्धस्पर्शाः संख्याः परिमाणानि पृथक्त्वं संयोगविभागौ
परत्वाऽपरत्वे बुद्धयः सुखदुःखेच्छाद्वेषौ प्रयत्नाश्च गुणाः।। – वै0 । अ0 1। आ0 1। सू0 6।।

चतुर्विंशति गुण विख्याता,
नित संबंध गुणी सो भ्राता।
रूप गंध रस और स्पर्शा,
पंडित जन नित करें विमर्षा।
पार्थक्य संख्या परिमाना,
योग विभाग उभय गुण माना।
परता और अपरता बुद्धि,
जान पाय जो हो मति शुद्धि।
सुख दुख इच्छा द्वेष प्रयतना,
कैसे जान पाय बिनु जतना।
गुरुता द्रवता स्नेह संस्कारा,
धर्माधर्म चुबीस प्रकारा।
गुण के लक्षण
द्रव्याश्रय्यगुणवान् संयोगविभागेष्वकारणमनपेक्ष इति गुणलक्षणम्।। – वै0। अ0 1। आ0 1 । सू0 16।।

नित्य रहे गुण गुणी अधारे,
दूसर गुण नहीं निज मँह धारे।
नहीं संयोग वियोगे कारन,
करे अपेक्षा सदा निवारन।
यह लक्षण हैं गुण के ज्ञानी,
ऋषि कणाद उचरी यह बाणी।

शब्द लक्षण
क्षोत्रोपलब्धिर्बुद्धिनिर्ग्राह्यः प्रयोगेणाऽभिज्वलित आकाशदेशः शब्दः।। – महाभाष्य।।

चौपाई
कानों से जाको सुन पाए,
बुद्धि द्वारा जिसे लखाए।
बिना प्रयोग प्रकाश न जाका,
केवल गगन देश है ताका।
शब्द कहें मुनि वाको नामा,
बार-बार मुनि गण परनामा।
नयना ग्रहण करें नित जाको,
रूप नाम जाने नर ताको।
रसना जिससे मीठे खारे,
ग्रहण करे वह ‘रस’ है प्यारे।
दुर्गन्धि वा होय सुगन्धि,
नासा ग्रहण करे वह ‘गन्धि’।
त्वग् द्वारा जिसकी अनुभूति,
‘स्पर्श’ नाम जाको तन छूती।
हलका भारी है परिमाना, है
‘पृथक्त्व’ संज्ञा विलगाना।
टुकड़ों का मिलना ‘संयोगा’,
संज्ञा खंड विभाग “वियोगा”।
निकट ‘अपर’ ‘पर’ दूरहिं कहिये,
सद् असद् ‘बुद्धि’ सों गहिये।
‘सुख’ कहते जो होय आनन्दा,
दुख है नाम कष्ट का मंदा।
‘इच्छा’ राग अरु द्वेष विरोधा,
द्वेष से उपजे मन मँह क्रोधा।
‘यंत्र’ नाम है बल पुरुषारथ,
उद्यम सों सब कर्म सकारथ।
‘द्रवता’ पिघलन ‘गुरुता’ भारी,
जानत हैं सब नर अरु नारी।
‘स्नेह’ नाम प्रीति चिकनाई,
संस्कार पुन वासना भाई।
संगति से होवे संस्कारा,
संगति से आचार विचारा।
काठिन्यादिक न्यायाधारा,
या को धर्म कहे संसारा।
कोमलतादिक अरु दुष्कर्मा,
वाकी संज्ञा जान अधर्मा।
कर्म
उत्क्षेपणमवक्षेपणमाकु०चनं प्रसारणं गमनमिति कर्माणि।। – वै0 अ0 1 । आ0 1 । सू0 7।।

चौपाई
उत्क्षेपण है उठना ऊपर,
अवक्षेप गिर जाना भू पर।
‘आकुच्चन’ संकोचहिं कहिये,
अर्थ फैलाव ‘प्रसारण’ गहिये।
गमन नाम है आना जाना,
कर्म गति यह कर्म विधाना।

एकद्रव्यमगुणं संयोगविभागेष्वनपेक्षकारणमिति कर्मलक्षणम्।। – वै0 अ0 1 । आ0 1 । सू0 17।।

कर्म रहे नित द्रव्य सहारे,
गुण से रहित कर्म हैं सारे।
निरपेक्ष संयोग विभागे,
सदा रहें द्रव्यन से लागे।

द्रव्यगुणकर्मणां द्रव्यं कारणं सामान्यम्। – वै0 अ0 1 । आ0 1। सू0 18।।

द्रव्य कर्म अरु गुण का कारण,
जो है द्रव्य सो द्रव्य साधारण।

द्रव्याणां द्रव्यं कार्य्यं सामान्यम्।। – वे0 अ0 1। आ0 1। सू0 23।।

द्रव्य द्रव्य का कार्य्य जो माना,
कार्य्य रूप वह द्रव्य समाना।

द्रव्यत्वं गुणत्वं कर्मत्व०च सामान्यानि विशेषाश्च।। – वै. अ. 1 । आ0 2 । सू0 5।।

द्रव्यों में द्रव्यत्व निवासा,
कर्म माँहि कर्मत्व विलासा।
गुण में गुणता रखे प्रवेशा,
या को नाम ‘सामान्य विशेषा’।
गुण महँ गुणता है साधारण,
करि विशेष द्रव्यत्वहिं धारण।

सामान्यं विशेष इति बुद्धयपेक्षम्।। – वै0 अ0 1 । आ0 2 । सू0 3।।

बुद्धिगत सामान्य बिशेषा,
इसमें नहीं संशय को लेषा।
नर में नरता यथा समाना,
पशुपन सों सविशेषहि जाना।

इहेदमिति यतः कार्यकारणयोः स समवायः।। – वै0 अ0 7 । आ0 2 । सू0 26।।

नित सम्बन्धी कारज कारण,
यह सम्बन्ध न होय निवारण।
तैसे क्रिया क्रिया का कारक,
समवायी सम्बन्ध के धारक।
अपर द्रव्य सम्बन्ध संयोगा,
वाको होवहि अवस वियोगा।

द्रव्यगुणयोः सजातीयारम्भकत्वं साधर्म्यम्।। – वे0 अ0 1 । आ0 1। सू0 9।।

द्रव्य और गुण को यही विधाना,
कारज करहिं आरंभ समाना।
शास्त्र कहें याको साधर्म्या,
विरुध धर्म होवे वैधर्म्या।
जैसे जड़ता पृथिवी माँही,
घट में भी चेतनता नाहीं।
कारज घट कारण अनुकूला,
सदृश गुण हों नहीं प्रतिकूला।
विरुध धर्म वैधर्म्य कहावे,
दोनों मँह समता नहीं आवे।
यथा भूमि मँह है कठिनाई,
सूखापन अरु गंधि सवाई।
जल में रहती कोमलताई,
द्रवता रसता अंग रमाई।
यही धर्म वैधर्म्य कहावे,
सम सदृशता मिल नहीं पावे।

कारणभावात्कार्यभावः।। – वै0 अ0 4 ं आ0 1 । सू0 3 ।।
न तु कार्याभावात्कारणाभावः।। – वै0 अ0 1। आ0 2 । सू0 2।।

बिन कारण नहीं कारज सम्भव,
जनक बिना सुत जन्म असम्भव।
बिना कार्य कारण को पेखें,
सुत बिन पिता जगत में देखें।

कारणगुणपूर्वकः कार्यगुणा दृष्टः।। – वे0 अ0 2 । आ0 1 । सू0 24 ।।

जो गुण कारण माँह विराजें,
वैसे ही गुण कारज में छाजें।
अणुमहदिति तस्मिन्विशेषभावाद्विशेषाभावाच्च।। – वै0 अ0 7 । आ0 1 । सू0 11।।

बड़ा ‘महत्’ ‘अणु’ सूक्ष्म जाने,
अणु महत् का भेद पछाने।
जिमि त्रिसरेणु लीख सों छोटा,
होय परन्तु द्वयगुण सों मोटा।
छोटे हों पृथिवी से जैसे,
पर महान वृक्षों से तैसे।

सदिति यतो द्रव्यगुणकर्मसु सा सत्ता।। – वै0 अ0 1 । आ0 2 । सू0 7।।

द्रव्य गणन कर्मन के संगा,
लगा रहे ‘सत’ शब्द अभंगा।
उसको ‘सत्ता’ कहें सुजाना,
‘सता’ वर्तमान करि माना।
यथा द्रव्य ‘सत’ सत गुण कर्मा,
‘सत्ता’ वर्तमान को धर्मा।

भावोऽनुवृत्तेरेवे हेतुत्वात्सामान्यमेव।। – वे0अ0 1 । आ0 2 । सू0 4।।

सकल संग सत्ता को भावा,
वही महा सामान्य कहावा।

दोहा
प्रागभाग प्रध्वांस अरु, अन्योअन्य अभाव।
पुन सम्बन्ध अत्यन्त यह, पंच अभाव कहाव।

चौपाई
इन पंचन के कहिहौं लक्षण,
जिमि कणाद मुनि कहे विलक्षण।

क्रियागुणव्यपदेशाभावात्प्रागसत्।। – वै0 अ0 1। आ0 1। सू0 1।।

उत्पति सों पूरव नहीं भावा,
याकी संज्ञा प्राग अभावा।
उत्पति पूरव कहीं न घट था,
प्राक् बुनन ते रहा न पट था।
उत्पन होय बहुरि बिनसावे,
यह प्रध्वंस अभाव कहावे।
यथा घड़ा वन कर के टूटा,
भया अभाव भाव सों छूटा।
अन्य भाव नहीं अन्य स्थाने,
यह अन्योन्याभाव पछाने।
यह घोड़ा है गैया नाहीं,
गोत्व भाव नहीं घोड़े माँही।
असम्भाव्य अत्यन्ताभावा,
जिमि बंध्या सुत नहीं उपजावा।
नर शिर शृंग गगन नहीं फूले,
उपजे पेड़ नहीं बिन मूले।
है अभाव अन्तिम संसर्गा,
यह अभाव के पाँचहु वर्गा।
जिमि घट घर के भीतर नाहीं,
है अर्थात् अन्य कोऊ ठाहीं।
घर घर कर सम्बन्ध न कोई,
है अभाव संसर्गज सोई।
इन्द्रियदोषात्संस्कारदोषाच्चाविद्या।। – वै0 अ0 1 । आ0 2 । सू0 10 ।।
दोहा
इन्द्रिय अरु संस्कार का, होवहि दोष महान।
होय अविद्या उत्पति, यह दूषित अज्ञान।
तद्दुष्टं ज्ञानम्।। – वै0 अ0 1 । आ0 2 । सू0 11 ।।
अदुष्टं विद्या।। – वै0 अ0 1 । आ0 2 । सू0 12 ।।
पृथिव्यादिरूपरसगन्धस्पर्शा द्रव्यानित्यत्वादनित्याश्च।।
एतेन नित्येषु नित्यत्वमुक्तम्।। – वै0 अ0 7 । आ0 1। सू0 2-3।।

चौपाई
विद्या नाम यथारथ ज्ञाना,
या ते होय सत्य को भाना।
भूम्यादिक जे कार्य पदारथ,
सब अनित्य नहीं नित्य यथारथ।
रूपादिक गुण इनके जेते,
हैं अनित्य सब के सब तेते।
पृथिवी जल जे कारण रूपा,
तिनके गुण हैं नित्य स्वरूपा।

सदकारणवन्नित्यम्।। – वै0 अ0 4 । आ0 1 । सू0 1 ।।

विद्यमान जो हैं बिन कारण,
नित्य पदारथ जान साधारण।
कारण सहित कार्य गुण रूपा,
तिनका होय अनित्य स्वरूपा।

अस्येदं कार्यं कारणं संयोगि विरोधि समवायि चेति लैङिगकम्।। – वै0 अ0 1 । आ0 2 । सू0 1 ।।

चार खानि लैंगिक विज्ञाना,
लिंग लिंगी सम्बन्ध सुजाना।
समवायि, समवायि एकारथ,
इनते होवे ज्ञान यथारथ।
है तृतीय लैंगिक संयोगी,
चौथा जानहु लिंग विरोधी।
है परिमाण युक्त आकासा,
यह समवायी लिंग प्रकासा।
यह शरीर है नित त्वक् वाला,
त्वक् बिन पिंड न देखाभाला।
त्वचा देह का नित संयोगा,
त्वचा देह के हैं सब भोगा।
जानहु एकारथ समवायी,
अर्थ दोय इक मांहि समायी।
‘छूना’ कारज रूप निहारा,
कारज लिंग जानने वारा।
चतुरथ लिंग विरोधी कहिये,
विरुद्ध लिंग सों सत को गहिये।
वर्षा भई हमने यह जानी,
अब नहीं होगी पुन यह मानी।
याको भाषहिं लिंग विरोधी,
जानहिं सो जो आतम बोधी।

नियतधर्मसाहित्यमुभयोरेकतरस्य वा व्याप्तिः।।
निजशक्त्युद्भवमित्याचार्याः।।
आधेयशक्तियोग इति प०चशिखः।। – सांख्यशास्त्र 29, 31, 32।।

साधन साध्य नियत सहचारा,
‘व्याप्ति’ नाम ताको निर्धारा।
साहचर्य अथवा साधन का,
निश्चित होय न संशय मन का।
यथा धूम अग्नि सहचारी,
जानत हैं सब नर अरु नारी।
व्याप्य धूम जो करे पसारा,
अग्नि उत्पति करने हारा।
दूर देश पहुंचा जब धूमा,
रूम झूम अग्नि बिन धूमा।
‘व्याप्ति’ कहें याको विद्वाना,
रूप अग्नि के हैं यह जाना।
अग्नि का बल मारन भेदन,
जारण छारन द्रव्यहिं छेदन।
निज समरथ से अग्नि जलावे,
जल को धूम रूप प्रगटावे।
महत्तत्व में प्रकृति व्यापहि,
व्याप्य होए बुद्धि में आपहि।
वल आधेय अरु बली आधारा,
व्यापक व्याप्त सम्बन्ध विचारा।
याको व्याप्ति नाम बखाने,
व्यापक व्याप्य धर्म पहिचाने।
इस विध प्रथमहि करे परीक्षा,
सांच झूठ की होय समीक्षा।
जो जो ग्रन्ाि सत्य परमाना,
तिनको पढ़ना और पढ़ाना।
बिन परखे जो पढ़े पढ़ावें,
आयु निरर्थक मूर्ख गंवावें।

लक्षणप्रमाणाभ्याम् वस्तुसिद्धिः

बिन लक्षण अरु बिन परमाना,
सत्यासत्य ना जाए जाना।
पढ़ने पढ़ाने की विधि
दोहा
प्रथम पाणिनि मुनि की, ‘शिक्षा’ कंठ कराय।
स्थान यत्न अक्षरन के, विधि सों दे बतलाय।।
चौपाई
जिमि पकार को ओष्ठ स्थाना,
स्पृष्ट प्रयतन होय शुभ ज्ञाना।
प्राण जीभ की क्रिया सुकरना,
‘प’ अक्षर इस रीति उचरना।
पुनः पाठ पढ़ अष्टाध्यायी,
पाणिनीय बिधि हो अनुयायी।
यथा सूत्र वृद्धिरादेचा,
पदच्छेद जिमि आत् अरु ऐचा।
आत् एच आदैच समासा,
पढ़ समास पुन अर्थ प्रकासा।
आ ऐ औ कँह वृद्धि भाखें,
परे तकार आत् क्यों राखें।
आगे पाछे होय तकारा,
जहाँ तपर तंह वृद्धि विकारा।
याको तात्पर्य यह जाने,
दीर्घाक्षर में वृद्धि माने।
लघु अकार नहीं वृद्धि पावे,
केवल दीर्घ वृद्ध हो जावे।
यथा उदाहरण लखिये भागा,
भज् धातु घ०ा प्रत्यय लागा।
इत् संज्ञक घ०ा् भये लोपा,
भज् अ ऐसा रूप अरोपा।
भज् के भ में लखें अकारा,
भया वृद्धि सों वहां विकारा।
भाज् रूप अब प्रत्यय कीना,
ज् के स्थानहिं न कर दीना।
इमि ‘भागः’ का भया प्रयोगा,
विन व्याकरण ज्ञान किमि होगा।
शब्द अन्य ‘अध्यायः’ लखिये,
अधि पूर्वक इङ् धातु रखिये।
इ आगे घ०ा् प्रत्यय राजे, तिहिं पाछे ऐकार विराजे।
‘ऐ’ के स्थानहिं आय बनाया, या विधि बना शब्द स्वाध्याया।
देखें अन्य शबद इक ‘नायक’, नी०ा् धातु ‘एवुल’ लगा विधायक।
ई को ऐ पुन आय् विंकारा, मिल कर ‘नायक’ बना संवारा।
‘स्तु’ से स्तावक कृ से कारक, इनकी सिद्ध सीखे बारक।
सब सूत्रों के कार्य बतावे, पट्टी पर लिख लिख समझावे।
कच्चा रूप शबद अवतरिये, शब्द सिद्धि पुन चित्रित करिये।
धातु पाठ पुन अर्थ समेता, कण्ठ करावे विद्यावेता।
घोटे दश लकार के वर्गा, संग प्रक्रिया सूत्राोत्सर्गा।
‘कुंभकार’ में जिमि ‘कर्मण्यण’, धातु मात्र संग हो प्रत्यय ‘अण्’।
उपपद कर्म साथ यदि आवे, ‘कुंभकार’ इमि सिद्धि पावे।
तत्पश्चात् ‘सूत्र अपवादा’ पढ़े पढ़ावे त्याग प्रमादा।
‘आतोनुपसर्गेकः’ जैसे, नियम सामान्य न लगता ऐसे।
धात्वन्त हो दीर्घाकारा, अण् स्थाने कः प्रत्यय धारा।
उत्सर्गहु अपवाद निवारे, बल विशेष अपने मँह धारे।
चक्रवर्ति जिमि एक नरेशा, शासन करे सामन्तन देशा।
पाणिनि सहस सूत्र के अंदर, भरा गगरिया मांहि समुंदर।
गण उणादि मंह सर्व सुबन्ता, अष्टाध्यायि आदि सों अंता।
दूसर बार फेर दोहरावे, समाधान शंका कर पावे।
अष्टाध्यायी ज्ञान अनन्तर, महाभाष्य को पढ़े निरन्तर।
तीन वर्ष मंह दोनों ग्रन्थन, प्रज्ञावान करे अवमन्थन।
लोक वेद शब्दन कर ज्ञाना, पूरन पंडित हो विद्वाना।
शब्द शास्त्र में श्रम हो भारी, पाणिनि मुनि का जगत आभारी।
पढ़ें ग्रन्थ केवल यह आरष, पुस्तक भूल न पढ़ें अनारष।
महाभाष्य अरु अष्टाध्यायी, तीन वर्ष तक किये पढ़ाई।
यावत ज्ञान होय इन माँही, सो अनार्ष ग्रन्थों में नाँही।
कुण्डलिया
सारस्वत अरु चन्द्रिका, ग्रंथ सभी जंजाल।
यह कौमुदी मनोरमा, पढ़त पचासों साल।।
पढ़त पचासों साल जाल क्या व्यर्थ फैलाया।
खोदा बड़ा पहाड़ निकल इक मूषक आया।।
‘जयगोपाल’ पढ़ आर्ष ग्रन्थ सचमुच सारस्वत।
कुमति कौमुदी चंड चन्द्रिका साड़ सारस्वत।।
चौपाई
ऋषि जन का हो ऊँचा आशय, सरल भाव में कहें महाशय।
गूढ़ विषय मुनि करें प्रकासा, सहज भाव में होय विकासा।
क्षुद्र लोग नहीं राखें ज्ञाना, कल्पित अर्थ बतावें नाना।
रचना कठिन अल्प अति भावा, मथे नीर नवनीत न पावा।
आर्ष ग्रंथ सागर लहराये, मुक्ता पाए डुबहि लगाए।
पढ़ व्याकरण निघण्टु देखे, अचरज कर्म यास्क का पेखे।
क्या निरुक्त की सुंदर रचना, वैदिक शब्द किये निर्वचना।
आठ मास में पढ़े पढ़ज्ञवे, वैयाकरणी पूर्ण कहावे।
अमरकोष नास्तिक को कोषा, ताको पढ़ें तो होय सदोषा।
पिंगल मुनि कृत पढ़ले छन्दा, रचे छन्द मुदमय अनन्दा।
नव प्राचीन छन्द जंह नाना, वैदिक अरु लौकिक दोऊ ज्ञाना।
चार मास मंह कीजे पूरा, छन्द ज्ञान नहीं रहे अधूरा।
वृतरत्नाकर आदिक त्यागे, इन मँह समय व्यर्थ बहु लागे।
बाल्मीकि मुनि रची रामायण, राम चरित सब सुख को आयन।
संग संग वाचे महाभारत, विदुर नीति सब दुरित निवारत।
मनु कृत मानव शास्त्र विचारे, पढ़ आचार विचार सुधारे।
विधि पूर्वक आचार्य पढ़ावे, पदच्छेद करने सिखलावे।
उक्ति पदारथ अन्वय आदि, पढ़े शिष्य मत होय प्रमादी।
भली भाँति जानहि सब भावा, काव्य रीति अति मन हर्षावा।
एक वर्ष में पूरण करिये, पुन छः दश्रन परिचित धरिये।
साँख्य न्याय वैशेषिक योगा, द्रव्य पदारथ तर्क प्रयोगा।
पढ़ वेदान्त सूत्र मीमाँसा, निष्फल जाय न एकहुं साँसा।
ऋषि मुनि अथवा जो विद्वाना, उनकी व्याख्या सहज प्रमाना।
उन्हें पढ़े गुरु उन्हें पढ़ाए, शिष्यहिं सहज बोध समझाए।
सूत्र वेदान्त पठन ते पूरब, दश उपनिषदें पढ़े अपूरब।
ईश केन कठ प्रश्न मंडूका, मुण्डक बृहदारण्य अनूपा। तैत्तिरीय ऐतरेय छन्दोगा, पढ़े जो होवे शिष्य सुयोगा।
षट् दर्शन दो वर्षन माँही, पूरन करे तो अचरज नाही।
चारों ब्राह्मण वेदहु चारा, छः वर्षों तक करे विचारा।
शतपथ गोपथ एतर सामा, यह चारहु ब्राह्मण अभिरामा।
वैदिक शब्द अर्थ सम्बन्धा, स्वर अरु क्रिया सहित अनुबंधा।
स्थाणुरयं भारहारः किलाभूदधीत्य वेदं न विंजानाति योऽथम्।
योऽथज्ञ इत्सकल भद्रमश्नुते नाकमेति ज्ञानविधूतपाप्मा।। – निरुक्त 1 । 18
चौपाई
वेद पढ़े पर अर्थ न जानहि, भारहार पशु सम तेहि मानहिं।
अर्थ सहित जो जानहिं वेदा, ते नर पाँय ब्रह्म को भेदा।
ज्ञानी के सब पाप नशावें, मृत्यु बाद परमानन्द पावें।
उत त्वः पश्यन्न ददश्र वाचमुत त्वः शृण्वन्न शृणोत्येनाम्।
उतो त्वस्मै तन्वं वि सस्त्रे जायेव पत्यं उशती सुवासाः।।
चौपाई
जो मूरख अज्ञानी आहीं, सुनते हैं वरु सुनते नाहीं।
अन्धे हैं पर रखते नैना, बोलत हैं वरु बोल न बैना।
मूरख जान न सकहिं रहस्या, सुलझ न पावें कोउ समस्या।
जो जानते है शब्दरु अर्था, ते ज्ञानी और सकल समर्था।
जग में यथा पतिव्रत नारी, सुन्दर भूषण वस्त्र संवारी।
पति सन्मुख निज रूप दिखवे, प्रियतम प्रेम पिपासा बुझावे।
तेहि विधि विद्या है इक नारी, सुन्दर पद अरु अर्थ सिंगारी।
ज्ञानी सों निज रूप प्रकासे, अज्ञानी कंह तुरत विनासे।
ऋचो अक्षरें परमे व्योमन्यस्मिन्देवा अधि विश्वें निषेदुः।
यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमें समासते।।
– ऋ0 मं0 1 । सू0 164 । मं0 31।।
चौपाई
व्यापक देव एक अविनाशी, पारब्रह्म घट घट को बासी।
लोक सूर्य चन्द्रादिक नाना, जिस में स्थित हैं सब विद्वाना।
जिसने उसका ज्ञान न पाया, जीवन उसने वृथा गँवाया।
वेद पढ़े पर सुख नहीं पावे, अर्थ ज्ञान बिन भार उठावे।
वेद पढ़ा अर्थों को जाना, योगी हो ईश्वर पहिचाना।
परमानन्द उन्होंने पाया, मानुष जीवन सफल बनाया।
चतुर्वेद पूरे कर पावे, आयुर्वेदहिं चित्त लगावे।
ऋषि प्रणीत जे वैद्यक ग्रन्था, तिनका करे गहन अवमन्था।
सुश्रुत चरक आदि बड़ ऊंचे, वैद्यक पुस्तक पढ़े समूचे।
अर्थ क्रिया शस्त्रन सों छेदन, चीर फाड़ लेपन अरु भेदन।
पथ्य चिकित्सा औषध नाना, भली भांति सब रोग निदाना।
देह द्रव्य गुण देशरु काला, भिषग् होय पूरण गुण वाला।
चार वर्ष मँह पूरन करिये, आयुर्वेदिक सागर तरिये।
धनुर्वेद पुन कर अभ्यासा, जाते होवे शत्रु विनाशा।
धनुर्वेद के दो परकारा, राज्य सुरक्षा प्रजा सहारा।
राज्य कार्य में सेनानायक, तोप बन्दूक और धनु सायक।
अस्त्र शस्त्र मंह होय प्रवीना, लक्ष्य वेध जिमि अर्जुन कीना।
व्यूह रचना सेना परिचालन, सैन्य प्रबन्धरू आज्ञा पालन।
युद्ध कला जब होय लड़ाई, शत्रु देश पर सैन्य चढ़ाई।
द्वितीय भेद प्रजा की वृद्धि, राज्य कार्य जिमि होवहि सिद्धि।
न्याय सहित करना नित शासन, विकृत होय न राजनुशासन।
दुष्टन दण्ड श्रेष्ठ प्रतिपाला, दीन दुःखी पर होय दयाला।
इस प्रकार दो वर्ष लगावे, भुज बल सों नृप प्रजा रिझावे।
पुन गन्धर्व वेद को सीखे, कोमल स्वर और तीवर तीखे।
राग रागिनी ग्राम रु ताला, कौन राग को क्या है काला।
नृत वादित्र गीत अरु ताना, ओडव पाडव आदिक नाना।
सीखे सामवेद को गाना, वीणा आदिक सहित सुजाना।
नारदादि संहिता समाना, आर्ष ग्रन्थ कृत गान विधाना।
भाँड मिरासी भडुए रंडी, विषयासक्त पाप की मण्डी।
वैरागिन गर्दभ आलापा, कबहुं न सीखे व्यर्थ प्रलापा।
शिल्प ज्ञान वा वेद अथर्वा, कौशल क्रिया भरी जहाँ सर्वा।
द्रव्य पदारथ गुण विज्ञाना, जितनी दीखें विद्या नाना।
ज्योतिष बीज गणित भूगोला, अंक गणित भूगर्थ खगोला।
हस्त यन्त्र कल सीखे सारे, पढ़ पढ़ाय जग माँहि प्रसारे।
मिथ्या जन्म पत्र ग्रह राशि, निष्फल झूठे दुखद विनाशी।
इन को कभी न पढ़े पढ़ाये, हो विद्वान् सदा सुख पाए। इस प्रकार जो पढ़ता प्राणी, बीस वर्ष मंह होवे ज्ञानी।
दोहा
बीस वर्ष इमि पठन कर, होवहि नर विद्वान।
अन्य विधि सों वर्ष शत, पढ़े न हो कल्यान।।
चौपाई
ऋषि मुनि रहे बड़े विद्वाना, धर्मातम अरु हृदय महाना।
पक्षपात मन मांहि न राखें, गुप्त न राखें सूनृत भाखें।
उनके ग्रन्थ परम उपयोगी, वे साँचे साधु और योगी।
पूर्व मीमांसा शास्त्र महाना, व्यासदेव मुनि कृत विख्याना।
वैशेषिक दर्शन परमोत्तम, भाष्य किया जाका ऋषि गौतम।
न्याय सूत्र पर मुनि वात्स्यायन, कीना भाष्य सुगमता आयन।
दर्शन सांख्य कपिल कृत जाना, जागुरि कृत व्याख्यान सुहाना।
सूत्र वेदान्त रचे मुनि व्यासा, वात्स्यायन कृत सुन्दर भाषा।
बौद्धायन वा व्याख्या कीनी, वृत्ति टीका टिप्पणी दीनी।
योग शास्त्र कँह रचा पंतजलि, सागर भरा मनहु इक अंजलि।
कल्प अंग यह दर्शन जानें, मुनि महर्षि ऐसा मानें।
ऋग यजु साम अथर्वन नामा, वेद रचे प्रभु जग हित कामा।
ऐतरेय गोपथ साम रु शतपथ, आर्ष ग्रन्थ दिखलावें सतपथ।
शिक्षा कल्प निघण्टु छन्दा, शब्द शास्त्र निर्वचन अमंदा।
ज्योतिष सकल वेद के अंगा, षट् दर्शन हैं वेद उपंगा।
धनु गंधर्व आयु अरु अर्था, चतुर्वेद उपवेद समर्था।
ऋषि गण यह सब ग्रंथ रचाये, इन ग्रन्थन को पढ़े पढ़ाये।
इन मंह जे जे वेद विरुद्धा, हों प्रतीत तज नर बुद्धा।
भ्राँति हीन ईश्वरकृत वेदा, स्वतः प्रमाण मान मत भेदा।
वेदों का वेदहि परमाना, भ्राँति हीन ईश्वर निर्माना।
शेष शास्त्र परतः परमानें, वेदाधीन प्रमाणिक मानें।
अथ परित्याग योग ग्रंथ
शेखर कौमुदि शब्दन जाला, मनोरमा मिथ्या जंजाला।
सारस्वत का तन्त्र प्रपंचा, आर्ष ग्रन्थ कंचन यह कंचा।
सारस्वत चन्द्रिका निरर्थक, पंडित वर्ग न होंय समर्थक।
मुग्ध बोध निर्बोध अबोधा, बर्सों पढ़िये होंय न बोधा।
इन को वैयाकरणी त्यागे, ऋषि ग्रंथों में मन अनुरागे।
अमरकोष कोषों में तजिये, ऋषि कृत कोष निघण्टु भजिये।
छन्द शास्त्र में वृत रतनाकर, रत्नाकर नहीं हैं पतनाकर।
सोरठा
पाणिनीयं मतं यथा, अथ शिक्षां प्रवक्ष्यामि।
माखन हित जल को मथा, शिक्षा में यह त्यागिये।
चौपाई
शीघ्रबोध ज्योतिष मंह तजिये, चिन्तामणि मुहूर्त न भजिये।
काव्य माँहि यह ग्रन्थ निषेधा, कुत्सित वर्णन नायिका भेदा।
कालीदास काव्य रघुवंशा, कुवलयानन्द माघ सब अंशा।
अर्जुनीय किरातादिक कंह, ग्रंथ निषिद्ध चरित नहीं इन मँह।
धर्म सिन्धु अरु अक्र व्रतादी, मीमाँसा में ग्रंथ प्रमादी।
तर्क संग्रह जैसी पोथी, वैशेषिक मँह कोरी थोथी।
जगदीशी तज न्याय के माँही, या में बात बुद्धि की नाँही।
दोहा
तज दृढ़ योग प्रदीपिका, चहे जो योग सबोध।
या पुस्तक का योग सों, पूरणतया विरोध।।
चौपाई
सांख्य तत्व कौमुदी निरर्था, या को पढ़ खो समय न व्यर्था।
पंचदशी और योग वसिष्ठा, यह वेदान्त के ग्रन्थ अनिष्ठा।
वैद्यक में शारंगधर जैसे, ग्रन्थ नहीं उपयोगी ऐसे।
मनु सिमरति प्रक्षित शलोका, पढ़े तो बिगड़े लोक परलोका।
स्मृतियां अन्य सकल निस्सारा, तंत्र ग्रन्थ सब झूठ पसारा।
उप पुराण अरु सभी पुराना, तत्त्व हीन निष्फल हौं जाना।
तुलसी कृत रामायण तजिये, बालमीकि रामायण भजिये।
रुक्मणि मंगल आदिक पोथे, भाषा के यह पुस्तक थोथे।
मन गंढ़त मिथ्या अरु कोरे, इन को पढ़े बुद्धि के भोरे।
प्रश्न
क्या इन मंह कुछ भी सच नाहीं, केवल झूठ भरा इन माँही।
मानत नाहीं आप पुराना, सब इतिहास और उपखाना।
यह पुराण सब कथा सुनावें, पुरखों का वृत्तान्त बतावें।
जिन बीरों की हम सन्ताना, रीत नीत अपनी हैं नाना।
उत्तर
सुनहु मित्र वचन इक मोरा, इन ग्रन्थन मंह सत है थोरा।
मिथ्या अंश बहुत है भाई, कहा लाभ यूं समय गंवाई।
विष संयुक्त होय जो भोजन, मरिहै वाको खावहि जो जन।
हम मानहिं इतिहास पुराना, नहीं मानहिं मिथ्या उपखाना।
जिनको तुम कहते इतिहासा, वे इतिहास नहीं उपहासा।
नाम पुराण जिन्हें है दीना, नाम व्याज जग सों छल कीना।
ब्राह्मणानीतिहासान् पुराणानि कल्पान् गाथा नाराशंसीरिति।। – गृह्यसूत्र
चौपाई
शतपथादि ब्राह्मण अभिरामा, ऐतिह्य पुराण उन्हीं को नामा।
गाथा नाराशंसी कल्पा, यह सब ब्राह्मण नाम विकल्पा।
नहीं भागवत आदि पुराना, इनका सुनना व्यर्थ सुनाना।
जो यह प्रश्न उठे तुव मन में, सत्य अंश जो इन ग्रन्थन में।
ग्रहण करे अरु झूठ तियागे, पुण्य मिले अरु पाप न लागे।
सुन याको अत्तर दे काना, पठन योग्य क्यों नहीं पुराना।
इन ग्रन्थन में जे सत वचना, वह सब वेद विहित है रचना।
जो मिथ्या सो इनके घर का, झूठ करे कल्याण न नर का।
सब सत रूप वेद स्वीकारे, पुन क्यों भटके मारे मारे।
मिथ्यामय सत ग्रहण न करिये, विष से युक्त अन्न खा मरिये।
वैदिक मत मेरा जिज्ञासु, वेदामृत पी धर्म पिपासु।
हम वह करहिं जो वेद विधाना, चतुर्वेद मानहिं परिमाना।
जो सब आर्य एक मत होवें, कलह मिटे दुख दारिद खोवें।
प्रश्न
देखे आर्ष ग्रन्थ हम सारे, हैं विरोध उन मंह भी भारे।
सृष्टि विषय में यह छः दर्शन, रखें परस्पर बहु संघर्षन।
मीमांसा मंह कर्म प्रधाना, वैशेषिक ने काल प्रमाना।
न्याय शास्त्र की यह व्युत्पति, परमाणु सों जगदुत्पति।
योग कहे केवल पुरुषारथ, प्रकृति माने सांख्य यथारथ।
कह वेदान्त ब्रह्म से सर्गा, पारब्रह्म सों सर्ग विसर्गा।
यह विरोध छः दर्शन मांही, बिन विरोध कोउ पुस्तक नांही।
उत्तर
सुन जिज्ञासु बात हमारी, भुल हुई तुम से अति भारी।
हैं वेदान्त सांख्य द्वै दर्शन, जिन मंह सृष्टयुत्पत्ति विमर्पण।
शेष चार मंह सृष्टि रचना, नहीं प्रसिद्ध लिखा कोउ वचना।
इन मंह भी पुन नहीं विरोधा, नहीं विरोध का तुम को बोधा।
हो विरोध किस थल पर भाई, यही बात तुम जान न पाई।
एक विषय अथवा नाना में, क्या विरोध रहता है तामें।
यदि यह कहो विषय हो एका, उस पर होवें कथन अनेका।
कहें परस्पर सब विपरीता, याको कहें विरोध सुनीता।
यही अवस्था छः दर्शन की, सृष्टि विषय पर संघर्षण की।
तौ सुनिये उत्तर धरि ध्याना, शास्त्रों का तुम भेद न जाना।
इक विद्या वा दो बतलावें, याको जान भेद सब पावें।
एकहि विद्या है जग जाने, विषय भिन्न पुन लोक क्यों मानें।
वैद्यक ज्योतिष विषय अनेका, अनिक विषय वरु विद्या एका।
इक विद्या के बहुतर अंगा, भिन्न भिन्न प्रतिपादन ढंगा।
तथा सृष्टि की विद्या एका, छः अवयव मुनि कहें अनेका।
इक इक अंग सभी ने लीना, अंग अंग प्रतिपादित कीना।
यथा प्रजापति घड़ा बनावे, कर्म काल पुरुषार्थ लगावे।
मट्टी से पुन कर निर्माना, इन कारण ते घट को जाना।
तथा सृष्टि रचना के कारण, हैं अनेक यह बात साधारण।
कारण कर्म एक हौं जाना, मीमाँसा ने उसे बखाना।
व्याख्ना काल वैशेषिक कीनी, एक विषय पर निज मति दीनी।
उपादानहुं न्याय बखाने, पुरुषारथ को योग पछाने।
क्रम से तत्व गणन को भाखा, सांख्य शास्त्र यह निज मत राखा।
अरु निमित्त कारण जो ईश्वर, व्याख्या की वेदान्त मुनीश्वर।
या में नाहीं कछु विरोधा, क्या जानें न बाल अबोधा।
वैद्यक शास्त्र यथा नहीं दोऊ, अकि अंग राखे पुन सोऊ।
पथ्य चिकित्सा औषधि दाना, परिचर्या अस रोग निदाना।
भिन्न प्रकरण भिन्न प्रतिपादक, रोग निवारण के सब साधक।
तिमि सृष्टि के हैं छः कारण, समझ सोच न भ्रांति निवारण।
अथ विद्या पठन पाठन के विघन
पठन काल मंह विघ्न जो आवें, उन्हें दूर कर पढ़ें पढ़ावें।
विषयी लंपट दुष्ट कुसंगा, इन को त्याग करे सत्संगा।
वेश्यागम ओर मद पाना, बाल्य काल मँह विवाह कराना।
जाको ब्रह्मचर्य नहीं होवें, वह दुर्भग आयु भर रोवें।
जो नृप मात पिता विद्वाना, वेद शास्त्र का करे न माना।
रखे न प्रेम वेद प्रचारे, उस से सब सम्बन्ध तज डारे।
अति जागमण छांड़ अति खाना, विद्या में दोऊ विघन प्रधाना।
पाठन पइन परीक्षा काले, इन में आलस करने वाले।
श्रेष्ठ न जाने विद्या पाना, यह भी जानहु विघन महाना।
बल बुद्धि धन राज्य अरोगा, यह सब ब्रह्मचर्य सों होगा।
जिस मूरख ने नहीं अस जाना, उसका पढ़ना व्यर्थ पढ़ाना।
पाथर पूजे समय गवावे, पारब्रह्म मन में नहीं ध्यावे।
मात पिता गुरु की सतमूरत, तजे जो इनकी पूजा धूरत।
उसकी विद्या निष्फल जाए, पढ़ा लिखा कुछ काम न आए।
वर्णाश्रम तज तिलक लगाना, कण्ठी माल त्रिपुण्ड सजाना।
व्रत तीरथ यात्रा जप जापा, माने इन ते छूटे पापा।
विद्या विघन झूठ विश्वासा, वे विद्या की रखें न आसा।
पाखण्डी मूरख बकवादी, विद्या वैरी बकहिं प्रमादी।
बात न इनकी सुने सुजाना, यह विद्या मँह विघन समाना।
विद्या योग ईश की भक्ति, इतने चित्त मँह रखे विरक्ति।
कथा पुराणन मुक्ति माने, वह विद्या कबहुं नहीं जाने।
व्यर्थ डोलना धन कर लोभा, उन्हं न देती विद्या शोभा।
वामण साधु निपट निरक्षर, अंट संट दो पढ़ कर अक्षर।
विद्या पढ़ना बुरा बतावें, भोले जन पर जाल बिछावें।
लूट लूट पर संपति खाते, धूर्त पाखण्डी नहीं लजाते।
डरहिं न क्षत्रिय हों विद्वाना, पढ़ हमरा करिहैं अपमाना।
प्रजा प्रजापति ध्यान लगावें, इन विघ्रन कह वेगि हटावें।
कन्या हो वा होवे बालक, सब को विद्या दे गृह पालक।
प्रश्न
स्त्रीशूद्रौ नाधीयातामिति श्रुतेः
कहिये प्रभु्! शुद्र अरु नारी, वेद पठन के हैं अधिकारी।
जो यह वेद पठन मँह लागे, तो ब्राह्मण क्या करहिं अभागे।
लखिये वेद स्वयं परमाना, नारी शूदर नहीं पढ़ाना।
उत्तर
श्रुति विरुद्ध यह वचन तुम्हारा, मान न पाए हृदय हमारा।
पढ़ने का सबको अधिकारा, ब्राह्मण हो वा होय चमारा।
पड़े कूप मँह श्रुति तुम्हारी, मन घड़न्त यह लीला सारी।
यजुर्वेद छब्बिस अध्याये, वेद पठन अधिकार बताये।
सथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेंभ्यः।
ब्रह्मराज्रन्याभ्या शूद्राय चायींय च स्वाय चारणाय।। – यजु0 26
स्वयं ब्रह्म इमि कहते प्यारे, चार वेद मंह वचन हमारे।
यह वाणी कल्याण की कारक, मनुष मात्र की है उपकारक।
तुम भी सब को जाय सुनाओ, सब का भला करो सुख पाओ।
ब्राह्मण क्षत्रिय नहीं कोऊ भेद, वैश्य शूद्र सब पढ़ लें वेदा।
अतहि शूद्र किंकर अरु नारी, मम वाणी के सब अधिकारी।
वेद सभी जन पढ़ें पढ़ावें, गहें भला बुरा टुकावें।
एक ओर ईश्वर की वाणी, एक ओर तुमरी मनमानी।
तुमहिं कहो किस को अपनावें, सत्य झूठ किस को ठहरावें।
परमेश्वर का वचन प्रमाना, नास्तिक सो जिसने नहीं माना।
वह नास्तिक जो वेद न माने, वह नास्तिक जो श्रुति अपमाने।
तनिक सोच तू मन मंह भाई, ईश न चाहे शूद्र भलाई।
पक्षपात ईश्वर के मन में, रखे भेद शूद्र ब्राह्मण में।
ईश द्विजों को वेद सुनावे, शूद्रों को जड़ मुक बनावे।
आँख कान ब्राह्मण को दीने, अन्धे बहरे शूद्र न कीने।
सब कँह दीने अंग समाना, हाथ पाँव नाक अरु काना।
अग्नि जल आकाश समीरा, सब कँह दिये समान शरीरा।
सूरज चांद नछत्तर तारक, प्राणि मात्र के हैं उपकारक।
सब जन हेत वेद परकासा, सब के मन मँह प्रभु निवासा।
केवल उसके लिये निषेधा, जो मूरख राखे नहीं मेधा।
चाहे कितना पढ़े पढ़ाये, फिर भी उसको समझ न आए।
वह नर जड़ मति मूर्ख कहाये, वृथा न उस पर समय गंवाये।
नारी हित जो तोर विचार, इसमें नहीं तनिक भी सारा।
यह कोरी मूरखता स्वारथ, भूल गये तुम सब परमारथ।
कन्याओं को उचित पढ़ाना, तुम्हें सुनाऊं वेद प्रमाना।
ब्रह्यचर्य्येण कन्या3 युवानं विन्दते पतिम्।।
– अथर्व0 ।। अनु0 3 । प्र0 24 । कां0 11 । मं0 18।।
कन्या ब्रह्मचर्य कर धारन, वेद शास्त्र का करके पारन।
युवती होय विवाह कराये, अपने सदृश पति वर पावे।
सोरठा
इमं मन्त्रं पत्नी पठेत, श्रीत सूत्र का वचन यह।
हवन करे निज पति संग, वेद पढ़े बिन होय किम।।

दोहा
पूरन विदूषी गार्गी, हुई पुरातन काल।
शतपथ ब्राह्मण में लिखा, झूठ न हो त्रैकाल।।
चौपाई
पुरुष पठित अरु अनपढ़ नारी, किस विधि दोनों हों सहचारी।
घर मह होवे नित्य लड़ाई, सुख सम्पति सब दूर नशाई।
किमि अनपढ़ गृह काज सम्हारे, वह तो उल्टे काज बिगारे।
कैकेयी दशरथ की रानी, धनुर्वेद मंह चतुर सयानी।
रण मंह पति की भई सहायक, आपत्काल बचावे नायक।
तांते ब्राह्मणि अरु छत्रानी, इन मंह विद्या सकल प्रानी।
वैश्या की विद्या व्यवहारी, सिखै रसोई शूद्र नारी।
नारी सीखे विद्या नाना, व्याकरणादिक पुरुष समाना।
शिल्प गणित वैद्यक पढ़ जावे, थोड़ी थोड़ी अवस सिखावे।
जो नारी विद्या की कोरी, कैसे काज चलावे भोरी।
क्योंकर सत्यासत्य विचारे, कैसे गृह के कार्य संवारे।
कैसे रहे पति अनुकूला, संतति पालन ज्ञान न मूला।
संतति के किमि चरित सुधारे, कैसे गृह के रोग निवारे।
कैसे टूटा घर बनवाए, सुन्दर भूषण किमि गढ़वाए।
व्यर्थ खर्च मत होवे पैसे, अनपढ़ नारी समझे कैसे।
नित्य करे जड़ जापू टोने, पड़े रहें घर मँह नित रोने।
जिसने निज सन्तान पढ़ाई, धन्य पुरुष वह धन्य लुगाई।
पठित बाल जानहि व्यवहारा, मात पिता सब का वह प्यारा।
सास ससुर और सखा सहेली, सब को रखे प्रसन्न नवेली।
ओस पड़ोसी प्रीतम प्यारे, पठित पुरुष को चाहें सारे।
यह विद्या अक्षय भण्डारा, खर्च करने से बढ़ने हारा।
घट जाते हैं सभी खजाने, विद्या कोष घटन नहीं जाने।
नहीं कोउ इसको चोर चुराए, दया भाग कोउ छीन न पाए।
नृपति प्रजा दोउन को धर्मा, विद्या कोष बढ़ावन कर्मा।
यह कर्तव्य नृपति का भारी, अनपढ़ रहे न को नर नारी।
आठ वर्ष की आयु अवन्तर, गुरुकुल में सब रहे निरन्तर।
जो नहीं मानें नर उद्दंडा, वाके मात पितहिं दे दण्डा।
जब तक पढ़ कर लौट न आवे, कोउ विवाह न करने पावे।
कन्यानां सम्प्रदानं च कुमाराणां च रक्षणम्।। – मनु0 7 । 152
सर्वेषामेव दानानां ब्रह्मदानं विशिष्यते।
वार्यन्नगोमहीवासस्तिलका०चनसर्षिषाम्।। – मनु0 4 । 133
चौपाई
जग मँह बहु प्रकार के दाना, स्वर्ण अन्न घृत आदिक नाना।
वेद दान पर दान महाना, या ते सब का हो कल्याना।
यथा शक्ति तांते कर जतना, वेद धर्म का होय न पतना।
वेद शास्त्र का डंका बाजे, सुख सम्पति सब ठौर विराजे।

इति श्री आर्य महाकवि जयगोपाल विरचिते सत्यार्थ प्रकाश
कवितामृते तृतीयः समुल्लासः समाप्तः।

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