अथ ऋत्विग्वरणम्
यजमानोक्तिः :- ओम् आवसो सदने सीद।
ऋत्विगुक्तिः :- ओं सीदामि।
यजमानोक्तिः :- ओं तत्सत् श्रीब्रह्मणो द्वितीयप्रहरोत्तरार्द्धे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमें कलियुगे कलिप्रथम- चरणेऽमुक….. संवत्सरे, …..अयने, …..ऋतौ, …..मासे, …..पक्षे, …..तिथौ, …..दिवसे, …..लग्ने, …..मुहुर्ते जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तदेशान्तर्गते …..प्रान्ते, …..जनपदे, …..मण्डले, …..ग्रामे/नगरे, …..आवासे/भवने अहम् …..कर्मकरणाय भवन्तं वृणे।
ऋत्विगुक्तिः :- वृतोऽस्मि।
अथाचमन-मन्त्राः
ओम् अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।। १।। इससे एक
ओम् अमृतापिधानमसि स्वाहा।। २।। इससे दूसरा
ओ३म् सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा।। ३।। (तैत्तिरीय आरण्यक प्र. १०/अनु. ३२, ३५) इससे तीसरा आचमन करके तत्पश्चात् जल लेकर नीचे लिखे मन्त्रों से अंगों को स्पर्श करें।
अथ अङ्गस्पर्श-मन्त्राः
ओं वाङ्म आस्ये ऽ स्तु। इस मन्त्र से मुख
ओं नसोर्मे प्राणो ऽ स्तु। इस मन्त्र से नासिका के दोनों छिद्र
ओं अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु। इस मन्त्र से दोनों आंख
ओं कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु। इस मन्त्र से दोनों कान
ओं बाह्वोर्मे बलमस्तु। इस मन्त्र से दोनों बाहु
ओम् ऊर्वोर्म ओजो ऽ स्तु। इस मन्त्र से दोनों जंघा
ओम् अरिष्टानि मे ऽ ङ्गानि तनूस्तन्वा मे सह सन्तु। इस मन्त्र से दाहिने हाथ से जल स्पर्श करके मार्जन करना। (पारस्कर गृ.का.२/क.३/सू.२५)
अथ-ईश्वर-स्तुति-प्रार्थनोपासनामन्त्राः
ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।
यद् भद्रन्तन्न ऽ आसुव।। १।। (यजु अ.३०/मं.३)
हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके हमारे सम्पूर्ण दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए; जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं वह सब हमको प्राप्त कीजिए।
सकल जगत के उत्पादक हे, हे सुखदायक शुद्ध स्वरूप।
हे समग्र ऐश्वर्ययुक्त हे, परमेश्वर हे अगम अनूप।।
दुर्गुण-दुरित हमारे सारे, शीघ्र कीजिए हमसे दूर।
मंगलमय गुण-कर्म-शील से, करिए प्रभु हमको भरपूर।।
हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक ऽ आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।। २।। (यजु.अ.१३/मं.४)
जो स्वप्रकाश स्वरूप और जिसने प्रकाश करनेहारे सूर्य चन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किए हैं। जो उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का प्रसिद्ध स्वामी एक ही चेतन स्वरूप था। जो सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्व वर्तमान था। सो इस भूमि और सूर्यादि का धारण कर रहा है। हम लोग उस सुखस्वरूप शुद्ध परमात्मा के लिए ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अतिप्रेम से विशेष भक्ति किया करें।
छिपे हुए थे जिसके भीतर, नभ में तेजोमय दिनमान।
एक मात्र स्वामी भूतों का, सुप्रसिद्ध चिद्रूप महान्।।
धारण वह ही किए धरा को, सूर्यलोक का भी आधार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।
य ऽ आत्मदा बलदा यस्य विश्व ऽ उपासते प्रशिषं यस्य देवाः।
यस्य छाया ऽ मृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। ३।। (यजु.२५/१३)
जो आत्मज्ञान का दाता, शरीर, आत्मा और समाज के बल का देनेहारा है। जिसकी सब विद्वान लोग उपासना करते हैं। जिसके प्रत्यक्ष सत्यस्वरूप शासन, न्याय अर्थात् शिक्षा को मानते हैं। जिसका आश्रय ही मोक्ष सुखदायक है। जिसका न मानना अर्थात् भक्ति इत्यादि न करना ही मृत्यु आदि दुःख का हेतु है। हम लोग उस सुखस्वरूप, सकल ज्ञान के देनेहारे परमात्मा की प्राप्ति के लिए आत्मा और अन्तःकरण से भक्ति अर्थात् उसी की आज्ञा पालन करने में तत्पर रहें।
आत्मज्ञान का दाता है जो, करता हमको शक्ति प्रदान।
विद्वद्वर्ग सदा करता है, जिसके शासन का सम्मान।।
जिसकी छाया सुखद सुशीतल, दूरी है दुःख का भंडार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।
यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक ऽ इद्राजा जगतो बभूव।
य ऽ ईशे ऽ अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। ४।। (ऋ. १०/१२१/३)
जो प्राणवाले और अप्राणिरूप जगत् का अपनी अनन्त महिमा से एक ही विराजमान राजा है। जो इस मनुष्यादि और गौ आदि प्राणियों के शरीर की रचना करता है। हम लोग उस सुखस्वरूप सकल ऐश्वर्य के देनेहारे परमात्मा की उपासना अर्थात् अपनी सकल उत्तम सामग्री को उसकी आज्ञापालन में समर्पित करके उसकी विशेष भक्ति करें।
जो अनन्त महिमा से अपनी, जड़-जंगम का है अधिराज।
रचित और शासित हैं जिससे, जगतिभर का जीव समाज।।
जिसके बल विक्रम का यश का, कण-कण करता जयजयकार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।
येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढ़ा येन स्वः स्तभितं येन नाकः।
यो ऽ न्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। ५।। (यजु.अ.३२/मं.६)
जिस परमात्मा ने तीक्ष्ण स्वभाव वाले सूर्य आदि और भूमि को धारण किया है, जिस जगदीश्वर ने सुख को धारण किया है और जिस ईश्वर ने दुःख रहित मोक्ष को धारण किया है। जो आकाश में सब लोक-लोकान्तरों को विशेष मानयुक्त अर्थात् जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं वैसे सब लोकों निर्माण करता और भ्रमण कराता है, हम लोग उस सुखदायक कामना करने के योग्य परब्रह्म की प्राप्ति के लिए सब सामर्थ्य से विशेष भक्ति करें।
किया हुआ है धारण जिसने, नभ में तेजोमय दिनमान।
परमशक्तिमय जो प्रभु करता, वसुधा को अवलम्ब प्रदान।।
सुखद मुक्तिधारक लोकों का, अन्तरिक्ष में सिरजनहार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।
प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव।
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्।। ६।। (ऋ.म.१०/सू.१२१/मं.१०)
हे सब प्रजा के स्वामी परमात्मा आप से भिन्न दूसरा कोई उन इन सब उत्पन्न हुए जड़-चेतनादिकों को नहीं तिरस्कार करता है, अर्थात् आप सर्वोपरी हैं। जिस-जिस पदार्थ की कामनावाले हम लोग आपका आश्रय लेवें और वांच्छा करें, वह कामना हमारी सिद्ध होवे, जिससे हम लोग धनैश्वर्यों के स्वामी होवें।
जड़ चेतन जगति के स्वामी, हे प्रभु तुमसा और नहीं।
जहां समाए हुए न हो तुम, ऐसा कोई ठौर नहीं।।
जिन पावन इच्छाओं को ले, शरण आपकी हम आएं।
पूरी होवें सफल सदा हम, विद्या-धन-वैभव पाएं।।
स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।
यत्र देवा ऽ अमृतमानशाना- स्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त।। ७।। (यजु.अ.३२/मं.१०)
हे मनुष्यों वह परमात्मा अपने लोगों का भ्राता के समान सुखदायक, सकल जगत् का उत्पादक, वह सब कामों का पूर्ण करनेहारा, सम्पूर्ण लोकमात्र और नाम-स्थान-जन्मों को जानता है। जिस सांसारिक सुख-दुःख से रहित नित्यानन्दयुक्त मोक्षस्वरूप धारण करनेहारे परमात्मा में मोक्ष को प्राप्त होके विद्वान् लोग स्वेच्छापूर्व्रक विचरते हैं वही परमात्मा अपना गुरु, आचार्य, राजा और न्यायाधीश है। अपने लोग मिलके सदा उसकी भक्ति किया करें।
भ्राता तुल्य सुखद् वह ही प्रभु, सकल जगत् का जीवन प्राण।
मानव के सब यत्न उसी की, करुणा से होते फलवान।।
सदानन्दमय धाम तीसरा, सुख-दुःख के द्वन्द्वों से दूर।
करके प्राप्त उसे ज्ञानी जन, आनन्दित रहते भरपूर।।
अग्ने नय सुपथा राये ऽ अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम ऽ उक्तिं विधेम।। ८।। (यजु.अ.४०/मं.१६)
हे स्वप्रकाश, ज्ञानस्वरूप, सब जगत् के प्रकाश करनेहारे सकल सुखदाता परमेश्वर ! आप जिससे सम्पूर्ण विद्यायुक्त हैं, कृपा करके हम लोगों को विज्ञान वा राज्यादि ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए अच्छे धर्मयुक्त आप्त लोगों के मार्ग से सम्पूर्ण प्रज्ञान और उत्तम कर्म प्राप्त कराइये और हमसे कुटिलतायुक्त पापरूप कर्म को दूर कीजिए। इस कारण हम लोग आपकी बहुत प्रकार से नम्रतापूर्वक स्तुति सदा किया करें और आनन्द में रहें।
स्वयं प्रकाशित ज्ञानरूप हे ! सर्वविद्य हे दयानिधान।
धर्ममार्ग से प्राप्त कराएं, हमें आप ऐश्वर्य महान्।।
पापकर्म कौटिल्य आदि से, रहें दूर हम हे जगदीश।
अर्पित करते नमन आपको, बारंबार झुकाकर शीश।।
अथ स्वस्तिवाचनम्
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्।
होतारं रत्नधातमम्।। १।। (ऋ.१/१/१)
स नः पितेव सूनवेऽग्ने सूपायनो भव।
सचस्वा नः स्वस्तये।। २।। (ऋ.१/१/९)
स्वस्ति नो मिमीतामश्विना भगः स्वस्ति देव्यदितिरनर्वणः।
स्वस्ति पूषा असुरो दधातु नः स्वस्ति द्यावापृथिवी सुचेतुना।।३।। (ऋ.५/५१/११)
स्वस्तये वायुमुप ब्रवामहै सोमं स्वस्ति भुवनस्य यस्पतिः।
बृहस्पतिं सर्वगणं स्वस्तये स्वस्तय आदित्यासो भवन्तु नः।। ४।। (ऋ.५/५१/१२)
विश्वे देवा नो अद्या स्वस्तये वैश्वानरो वसुरग्निः स्वस्तये।
देवा अवन्त्वृभवः स्वस्तये स्वस्ति नो रुद्रः पात्वंहसः।। ५।। (ऋ.५/५१/१३)
स्वस्ति मित्रावरुणा स्वस्ति पथ्ये रेवति।
स्वस्ति न इन्द्रश्चाग्निश्च स्वस्ति नो अदिते कृधि।। ६।। (ऋ.५/५१/१४)
स्वस्ति पन्थामनु चरेम सूर्याचन्द्रमसाविव। पुनर्ददताघ्नता जानता सं गमेमहि।। ७।।
(ऋ.५/५१/१५)
ये देवानां यज्ञिया यज्ञियानां मनोर्यजत्रा अमृता ऋतज्ञाः।
ते नो रासन्तामुरुगायमद्य यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः।। ८।। (ऋ.७/३५/१५)
येभ्यो माता मधुमत्पिन्वते पयः पीयूषं द्यौ- रदितिरद्रिबर्हाः।
उक्थशुष्मान् वृषभरान्त्स्वप्नसस्ताँ आदित्याँ अनुमदा स्वस्तये।। ९।। (ऋ.१०/६३/३)
नृचक्षसो अनिमिषन्तो अर्हणा बृहद्देवासो अमृतत्वमानशुः।
ज्योतीरथा अहिमाया अनागसो दिवो वर्ष्माणं वसते स्वस्तये।। १०।।
(ऋ.१०/६३/४)
सम्राजो ये सुवृधो यज्ञमाययुरपरिह्वृता दधिरे दिवि क्षयम्।
ताँ आ विवास नमसा सुवृक्तिभिर्महो आदित्याँ अदितिं स्वस्तये।। ११।। (ऋ.१०/६३/५)
को वः स्तोमं राधति यं जुजोषथ विश्वे देवासो मनुषो यति ष्ठन।
को वोऽध्वरं तुविजाता अरं करद्यो नः पर्षदत्यंहः स्वस्तये।। १२।।
(ऋ.१०/६३/६)
येभ्यो होत्रां प्रथमामायेजे मनुः समिद्धाग्निर्मनसा सप्त होतृभिः।
त आदित्या अभयं शर्म यच्छत सुगा नः कर्त सुपथा स्वस्तये।। १३।। (ऋ.१०/६३/७)
य ईशिरे भुवनस्य प्रचेतसो विश्वस्य स्थातुर्जगतश्च मन्तवः।
ते नः कृतादकृतादेनसस्पर्यद्या देवासः पिपृता स्वस्तये।।
।। १४।। (ऋ.१०/६३/८)
भरेष्विन्द्रं सुहवं हवामहेंऽहोमुचं सुकृतं दैव्यं जनम्।
अग्निं मित्रं वरुणं सातये भगं द्यावापृथिवी मरुतः स्वस्तये।। १५।। (ऋ.१०/६३/९)
सुत्रामाणं पृथिवीं द्यामनेहसं सुशर्माणमदितिं सुप्रणीतिम्।
दैवीं नावं स्वरित्रामनागसमस्रवन्तीमा रुहेमा स्वस्तये।। १६।। (ऋ.१०/६३/१०)
विश्वे यजत्रा अधि वोचतोतये त्रायध्वं नो दुरेवाया अभिह्रुतः।
सत्यया वो देवहूत्या हुवेम शृण्वतो देवा अवसे स्वस्तये।। १७।। (ऋ.१०/६३/११)
अपामीवामप विश्वामनाहुतिमपारातिं दुर्विदत्रा- मघायतः।
आरे देवा द्वेषो अस्मद्युयोतनोरु णः शर्म यच्छता स्वस्तये।। १८।। (ऋ.१०/६३/१२)
अरिष्टः स मर्तो विश्व एधते प्र प्रजाभिर्जायते धर्मणस्परि।
यमादित्यासो नयथा सुनीतिभिरति विश्वानि दुरिता स्वस्तये।। १९।। (ऋ.१०/६३/१३)
यं देवासोऽवथ वाजसातौ यं शूरसाता मरुतो हिते धने।
प्रातर्यावाणं रथमिन्द्र सानसिमरिष्यन्तमा रुहेमा स्वस्तये।। २०।। (ऋ.१०/६३/१४)
स्वस्ति नः पथ्यासु धन्वसु स्वस्त्यप्सु वृजने स्वर्वति।
स्वस्ति नः पुत्रकृथेषु योनिषु स्वस्ति राये मरुतो दधातन।। २१।। (ऋ.१०/६३/१५)
स्वस्तिरिद्धि प्रपथे श्रेष्ठा रेक्णस्वत्यभि या वाममेति।
सा नो अमा सो अरणे नि पातु स्वावेशा भवतु देवगोपा।। २२।। (ऋ.१०/६३/१६)
इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणऽआप्यायध्वमघ्न्या इन्द्राय भागं प्रजावतीरनमीवाऽअयक्ष्मा मा व स्तेनऽईशत माघश सो ध्रुवाऽअस्मिन् गोपतौ स्यात बह्वीर्यजमानस्य पशून् पाहि।। २३।। (यजु.१/१)
आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो- ऽ अपरीतासऽउद्भिदः।
देवा नो यथा सदमिद् वृधेऽअसन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवेदिवे।। २४।।
(यजु.२५/१४)
देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवाना द्भञ रातिरभि नो निवर्त्तताम्।
देवाना द्भञ सख्यमुपसेदिमा वयं देवा न आयुः प्रतिरन्तु जीवसे ।।२५।।
(यजु.२५/१५)
तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियञ्जिन्वमवसे हूमहे वयम्।
पूषा नो यथा वेदसामसद् वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये।। २६।। (यजु.२५/१८)
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो ऽ अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।। २७।। (यजु.२५/१९)
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवा द्भञ सस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः।। २८।। (यजु.२५/२१)
अग्न आ याहि वीतये गृणानो हव्यदातये।
नि होता सत्सि बर्हिषि।। २९।। (सा.पू.१/१/१)
त्वमग्ने यज्ञाना द्भञ होता विश्वेषा द्भञ हितः।
देवेभिर्मानुषे जने।। ३०।। (सा.पू.१/१/२)
ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभ्रतः।
वाचस्पतिर्बला तेषां तन्वोऽअद्य दधातु मे।। ३१।। (अथर्व.१/१/१)
अथ शान्तिकरणम्
शं न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शं न इन्द्रावरुणा रातहव्या।
शमिन्द्रासोमा सुविताय शं योः शं न इन्द्रापूषणा वाजसातौ।। १।। (ऋ.७/३५/१)
शं नो भगः शमु नः शंसो अस्तु शं नः पुरन्धिः शमु सन्तु रायः।
शं नः सत्यस्य सुयमस्य शंसः शं नो अर्यमा पुरुजातो अस्तु।। २।। (ऋ.७/३५/२)
शं नो धाता शमु धर्ता नो अस्तु शं न उरूची भवतु स्वधाभिः।
शं रोदसी बृहती शं नो अद्रिः शं नो देवानां सुहवानि सन्तु।। ३।। (ऋ.७/३५/३)
शं नो अग्निर्ज्योतिरनीको अस्तु शं नो मित्रावरुणावश्विना शम्।
शं नः सुकृतां सुकृतानि सन्तु शं न इषिरो अभि वातु वातः।। ४।। (ऋ.७/३५/४)
शं नो द्यावापृथिवी पूर्वहूतौ शमन्तरिक्षं दृशये नो अस्तु।
शं न ओषधीर्वनिनो भवन्तु शं नो रजसस्पतिरस्तु जिष्णुः।। ५।। (ऋ.७/३५/५)
शं न इन्द्रो वसुभिर्देवो अस्तु शमादित्येभिर्वरुणः सुशंसः।
शं नो रुद्रो रुद्रेभिर्जलाषः शं नस्त्वष्टा- ग्नाभिरिह शृणोतु।। ६।। (ऋ.७/३५/६)
शं नः सोमो भवतु ब्रह्म शं नः शं नो ग्रावाणः शमु सन्तु यज्ञाः।
शं नः स्वरूणां मितयो भवन्तु शं नः प्रस्वः शम्वस्तु
वेदिः।। ७।। (ऋ.७/३५/७)
शं नः सूर्य उरुचक्षा उदेतु शं नश्चस्रः प्रदिशो भवन्तु।
शं नः पर्वता ध्रुवयो भवन्तु शं नः सिन्धवः शमु सन्त्वापः।। ८।। (ऋ.७/३५/८)
शं नो अदितिर्भवतु व्रतेभिः शं नो भवन्तु मरुतः स्वर्काः।
शं नो विष्णुः शमु पूषा नो अस्तु शं नो भवित्रं शम्वस्तु वायुः।। ९।।
(ऋ.७/३५/९)
शं नो देवः सविता त्रायमाणः शं नो भवन्तूषसो विभातीः
शं नः पर्जन्यो भवतु प्रजाभ्यः शं नः क्षेत्रस्य पतिरस्तु शम्भुः।। १०।। (ऋ.७/३५/१०)
शं नो देवा विश्वदेवा भवन्तु शं सरस्वती सह धीभिरस्तु।
शमभिषाचः शमुरातिषाचः शं नो दिव्याः पार्थिवाः शं नो अप्याः।। ११।।
(ऋ.७/३५/११)
शं नः सत्यस्य पतयो भवन्तु शं नो अर्वन्तः शमु सन्तु गावः।
शं नः ऋभवः सुकृतः सुहस्ताः शं नो भवन्तु पितरो हवेषु।। १२।।
(ऋ.७/३५/१२)
शं नो अज एकपाद्देवो अस्तु शं नोऽहिर्बुध्न्यः शं समुद्रः।
शं नो अपां नपात्पेरुरस्तु शं नः पृश्निर्भवतु देवगोपाः।। १३।। (ऋ.७/३५/१३)
इन्द्रो विश्वस्य राजति। शन्नोऽअस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे।। १४।। (यजु.३६/८)
शन्नो वातः पवता द्भञ शन्नस्तपतु सूर्य्यः।
शन्नः कनिक्रदद्देवः पर्जन्योऽअभि वर्षतु।। १५।। (यजु.३६/१०)
अहानि शम्भवन्तु नः श रात्रीः प्रति धीयताम्।
शन्न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शन्न इन्द्रावरुणा रातहव्या।
शन्न इन्द्रापूषणा वाजसातौ शमिन्द्रासोमा सुविताय शंयोः।। १६।। (यजु.३६/११)
शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये।
शंयोरभि स्रवन्तु नः।। १७।। (यजु.३६/१२)
द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि।। १८।। (यजु.३६/१७)
तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्।
पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शत शृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतम्भूयश्च शरदः शतात्।। १९।। (यजु.३६/२४)
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति।
दूरग्मं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।। २०।। (यजु.३४/१)
येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः।
यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२१।। (यजु.३४/२)
यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु।
यस्मान्नऽऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।। २२।। (यजु.३४/३)
येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत्परिगृहीतममृतेन सर्वम्।
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२३।। (यजु.३४/४)
यस्मिन्नृचः साम यजू द्भञ षि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः।
यस्मिँश्चित्त सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२४।। (यजु.३४/५)
सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिनऽइव।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२५।।
(यजु.३४/६)
स नः पवस्व शं गवे शं जनाय शमर्वते।
श द्भञ राजन्नोषधीभ्यः।। २६।। (साम.उ.१/१/३)
अभयं नः करत्यन्तरिक्षमभयं द्यावापृथिवी उभे इमे।
अभयं पश्चादभयं पुरस्तादुत्तरादधरा- दभयं नो अस्तु।।२७।। (अथर्व.१९/१५/५)
अभयं मित्रादभयममित्रादभयं ज्ञातादभयं परोक्षात्।
अभयं नक्तमभयं दिवा नः सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु।।२८।। (अथर्व.१९/१५/६)
अग्न्याधानम्
ओं भूर्भुवः स्वः। (गोभिल.गृ.प.१/खं.१/सू.११)
ओं भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा। तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठे ऽ ग्निमन्ना दमन्नाद्यायादधे।। (यजृ.अ.३/मं.५)
ओम् उद् बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते स ँ् सृजेथामय९च। अस्मिन्त्सधस्थे ऽ अध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्चसीदत।। (यजु. १५/५४)
समिदाधानम्
ओम् अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्द्धस्व चेद्ध वर्द्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसे नान्नाद्येन समेधय स्वाहा। इदमग्नये जातवेदसे – इदन्न मम।। १।।
(आश्वलायन गृ.सू. १/१०/१२) इस मन्त्र से घृत में डुबोकर पहली..
ओं समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम्।
आस्मिन् हव्या जुहोतन स्वाहा।।
इदमग्नये – इदन्न मम।। २।। (यजु. ३/१)
इससे और..
सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन।
अग्नये जातवेदसे स्वाहा।। इदमग्नये जातवेदसे – इदन्न मम।। ३।। (यजु.३/२)
इस मन्त्र से अर्थात् दोनों मन्त्रों से दूसरी और..
तं त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्द्धयामसि।
बृहच्छोचा यविष्ठ्या स्वाहा।। इदमग्नये ऽ ङ्गिरसे – इदन्न मम।। ४।। (यजु. ३/३)
इस मन्त्र से तीसरी समिधा समर्पित करें। उक्त मन्त्रों से समिधाधान करके नीचे लिखे मन्त्र को पांच बार पढ़कर पांच घृताहुतियां दें।
प९चघृताहुतिमन्त्रः
ओम् अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्द्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्बह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा। इदग्नये जातवेदसे – इदन्न मम।। (आश्व.गृ.सू. १/१०/१२)
जलसि९चनमन्त्राः
ओम् अदिते ऽ नुमन्यस्व।। १।। इससे पूर्व में
ओम् अनुमते ऽ नुमन्यस्व।। २।। इससे पश्चिम में
ओम् सरस्वत्यनुमन्यस्व।। ३।। इससे उत्तर दिशा में
ओं देव सवितः प्र सुव यज्ञं प्र सुव यज्ञपतिं भगाय। दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु।। ४।। (यजु.३०/१)
इस मन्त्रपाठ से वेदी के चारों ओर जल छिड़काएं।
आघारावाज्यभागाहुतिमन्त्राः
ओम् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये – इदन्न मम।। १।।
इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग अग्नि में
ओं सोमाय स्वाहा। इदं सोमाय – इदन्न मम।। २।। (गो.गृ.प्र.१/खं.८/सू.२४)
इससे दक्षिण भाग अग्नि में
ओं प्रजापतये स्वाहा। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। ३।। (यजु. २२ / ३२)
ओम् इन्द्राय स्वाहा। इदमिन्द्राय – इदन्न मम।। ४।। (यजु.२२/२७)
इन दोनों मन्त्रों से वेदी के मध्य में दो आहुतियां दें। उक्त चार घृत आहुतियां देकर नीचे लिखे चार मन्त्रों से प्रातःकाल अग्निहोत्र करें।
प्रातःकालीन-आहुतिमन्त्राः
ओं सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः स्वाहा।। १।।
ओं सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा।। २।।
ओं ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा।। ३।।
(यजु. ३/९)
ओं सजूर्देवेन सवित्रा सजूरुषसेन्द्रवत्या।
जुषाणः सूर्यो वेतु स्वाहा ।। ४।। (यजु. ३/१०)
अब नीचे लिखे मन्त्रों से प्रातः सांय दोनों समय आहुतियां दें।
प्रातः सांयकालीनमन्त्राः
ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा। इदमग्नये प्राणाय – इदन्न मम।। १।। (गोभिगृह्यसूत्र०प्र.१/खं.३/यू. १-३)
ओं भुवर्वायवे ऽ पानाय स्वाहा।
इदं वायवे ऽ पानाय – इदन्न मम ।। २।।
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।
इदमादित्याय व्यानाय – इदन्न मम।। ३।।
ओं भूर्भुवः स्वरग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा। इदमग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः इदन्न मम।। ४।। (तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनैकीकृता ऋ.भा.भू. पंचमहा.)
ओम् आपो ज्योतीरसो ऽ मृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा।। ५।। (तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनरचितः प९चमहायज्ञ.)
ओं यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते। तया मामद्य मेधया ऽ ग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा।। ६।। (यजु.३२/१४)
ओं विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।
यद्भद्रन्तन्न ऽ आसुव स्वाहा।। ७।। (यजु.३०/३)
ओम् अग्ने नय सुपथा राये ऽ अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्। युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम ऽ उक्तिं विधेम स्वाहा।। ८।।
(यजु.४०/१६)
सायंकालीन-आहुतिमन्त्राः
ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा।। १।।
ओम् अग्निर्वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा।। २।।
ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा।। ३।।
(यजु. ३/९ के अनुसार)
इस मन्त्र को मन में बोल कर आहुति दें।
ओं सजूर्देवेन सवित्रा सजू रात्र्येन्द्रवत्या।
जुषाणो ऽ अग्निर्वेतु स्वाहा।। ४।। (यजु.३/९, १०)
ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा।। १।।
(गोभिगृह्यसूत्र०प्र.१/खं.३/यू. १-३)
ओं भुवर्वायवे ऽ पानाय स्वाहा।। २।।
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।। ३।।
ओं भूर्भुवः स्वरग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा।
(तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनैकीकृता ऋ.भा.भू. पंचमहा.)
ओम् आपो ज्योतीरसो ऽ मृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा।। ५।। (तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनरचितः प९चमहायज्ञ.)
आघारावाज्यभागाहुतिमन्त्राः
ओम् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये – इदन्न मम।। १।।
इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग अग्नि में
ओं सोमाय स्वाहा।
इदं सोमाय – इदन्न मम।। २।।
(गो.गृ.प्र.१/खं.८/सू.२४)
इससे दक्षिण भाग अग्नि में
ओं प्रजापतये स्वाहा। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। ३।। (यजु. २२ / ३२)
ओम् इन्द्राय स्वाहा। इदमिन्द्राय – इदन्न मम।। ४।।
इन दो मन्त्रों से वेदी के मध्य में आहुति देनी, उसके पश्चात् उसी घृतपात्र में से स्रुवा को भरके प्रज्वलित समिधाओं पर व्याहृति की निम्न चार आहुतियाँ देवे।
व्याहृत्याहुतिमन्त्राः
ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा।
इदमग्नये प्राणाय – इदन्न मम।। १।।
ओं भुवर्वायवे ऽ पानाय स्वाहा।
इदं वायवे ऽ पानाय – इदन्न मम ।। २।।
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।
इदमादित्याय व्यानाय – इदन्न मम।। ३।।
निम्न मन्त्र से स्विष्टकृत् होमाहुति भात की अथवा घृत की देवें।
यदस्य कर्मणोऽत्यरीरिचं यद्वा न्यूनमिहाकरम्।
अग्निष्टत् स्विष्टकृद् विद्यात् सर्वं स्विष्टं सुहुतं करोतु मे।
अग्नये स्विष्टकृते सुहुतहुते सर्वप्रायश्चित्ताहुतीनां कामानां समर्द्धयित्रे सर्वान्नः कामान्त्समर्द्धय स्वाहा।।
इदमग्नये स्विष्टकृते – इदन्न मम।। १।। (आश्व.१/१०/२२)
ओं प्रजापतये स्वाहा।। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। २।।
(यजु.१८/२२) इस प्राजापत्याहुति को मन में बोलकर देनी चाहिए।
आज्याहुतिमन्त्राः (पवमानाहुतयः)
(१) ब्रह्मणे स्वाहा। (२) छन्दोभ्यः स्वाहा।।
ये दो आहुतियां देकर, घी की निम्नलिखित दश आहुति दें-
(१) सावित्र्यै स्वाहा। (२) ब्रह्मणे स्वाहा। (३) श्रद्धायै स्वाहा। (४) मेधायै स्वाहा। (५) प्रज्ञायै स्वाहा। (६) धारणायै स्वाहा। (७) सदसस्पतये स्वाहा। (८) अनुमतये स्वाहा। (९) छन्दोभ्यः स्वाहा। (१०) ऋषिभ्यः स्वाहा।
तदनन्तर ऋग्वेद की निम्नलिखित ११ ऋचाओं से आहुति दें-
बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रे यत्प्रैरत नामधेयं दधानाः।
यदेषां श्रेष्ठं यदरि प्रमासीत् प्रेणा तदेषां निहितं गुहाविः ।।
-ऋ. १० । ७२ । १ ।।
सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत।
अत्रा सखायः सख्यानि जानते भद्रैषां लक्ष्मीर्निहिताधि वाचि ।।
-ऋ. १० । ७२ । १ ।।
यज्ञेन वाचः पदवीयमायन्तामन्वविदन्नृषिषु प्रविष्टाम्।
तामाभृत्या व्यदधुः पुरुत्रा तां सप्त रेभा अभि सं नवन्ते।।
-ऋ. १० । ७१ । ३ ।।उत त्वः पश्यन्न ददर्श वाचमुत त्वः श्रृण्वन्न श्रृणोत्येनाम्।
उतो त्वस्मै त्न्वं वि सस्त्रे जायेव पत्य उशती सुवासाः ।।
-ऋ. १० । ७१ । ४ ।।
उत त्वं सख्ये स्थिरपीतमाहुनैनं हिन्वन्त्यपि वाजिनेषु।
अधेन्वा चरति माययैष वाचं शुश्रुवाँ अफलामपुष्पाम्।
-ऋ. १० । ७१ । ५ ।।
यस्तित्याज सचिविदं सखायं न तस्य वाज्यपि भागो अस्ति।
यदीं श्रृणोत्यलकं श्रृणोति नहि प्रवेद सृकृतस्य पन्थाम्।।
-ऋ. १० । ७१ । ६ ।।
अक्षण्वन्तः कर्णवन्तः सखायो मनोजवेष्वसमा बभूवुः।
आदघ्नास उपकक्षास उ त्वे ह्नदा इव स्त्रात्वा उ त्वे ददृश्रे।।
-ऋ. १० । ७१ । ७ ।।
हृदा तष्टेषु मनसो जवेषु यद् ब्राह्मणाः संयजन्ते सखायः।
अत्राह त्वं वि जहुर्वेद्याभिरोह ब्रह्माणो वि चरन्तु त्वे ।।
-ऋ. १० । ७१ । ८ ।।
इमे ये नार्वाङ् न परश्चरन्ति न ब्राह्मणासो न सुतेकरासः।
त एते वाचमभिपद्य पापया सिरीस्तन्त्रं तन्वते अप्रजज्ञयः।।
-ऋ. १० । ७१ । ९ ।।
सर्वे नन्दन्ति यशसागतेन सभासाहेन सख्या सखायः।
किल्विषस्पृत् पितुषणिह्र्येषामरं हितों भवति वाजिनाय ।।
-ऋ. १० । ७१ । १० ।।
ऋचां त्वः पोषमास्ते पुपुष्वान् गायत्रं त्वो गायति शक्वरीषु।
ब्रह्मा त्वो वदति जातविद्यां यज्ञस्य मात्रां विमिमीत उ त्वः।।
-ऋ. १० । ७१ । ११ ।।
इस के पश्चात् यजुर्वेद के इस मन्त्र से-
सदसस्पतिमद्भुतं प्रियमिन्द्रस्य काम्यम्।
सनि मेधामयासिषं स्वाहा।।
यजु. ३२ । १३ ।।
यजमान वा गृहपति हवन करें, किन्तु मन्त्र सब बोलें। पश्चात् सब उपस्थित पारिवारिक जन पलाश की तीन-तीन हरी वा शुष्क समिधाओं को घी से भिगोकर सावित्री मन्त्र से आहुति दें। इस प्रकार तीन वार करें। पुनः स्विष्टकृत् आहुति दे
पूर्णाहुति-प्रकरणम्
ओं भूर्भुवः स्वः। अग्न आयूंषि पवस आ सुवोर्जमिषं च नः।
आरे बाधस्व दुच्छुनां स्वाहा।। इदमग्नये पवमानाय – इदन्न मम।। ३।। (ऋ.९/६६/१९)
ओं भूर्भुवः स्वः। अग्निर्ऋषिः पवमानः पाञ्चजन्यः पुरोहितः।
तमीमहे महागयं स्वाहा।। इदमग्नये पवमानाय – इदन्न मम।। ४।।
(ऋ.९/६६/२०)
ओं भूर्भुवः स्वः। अग्ने पवस्व स्वपा अस्मे वर्चः सुवीर्यम्।
दधद्रयिं मयि पोषं स्वाहा।। इदमग्नये पवमानाय – इदन्न मम।। ५।।
(ऋ.९/६६/२१)
ओं भूर्भुवः स्वः। प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव।
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणां स्वाहा।। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। ६।।
(ऋ.१०/१२१/१०)
इनसे घृत की चार आहुतियाँ करके ‘अष्टाज्याहुति’ के निम्नलिखित मन्त्रों से सर्वत्र मंगल कार्यों में आठ आहुति देवें।
त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान्देवस्य हेळोऽवयासिसीष्ठाः।
यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषांसि प्र मुमुग्ध्यस्मत् स्वाहा।। इदमग्निवरुणाभ्याम् – इदन्न मम।। ७।। (ऋ. ४/१/४)
स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती नेदिष्ठोऽअस्या उषसो व्युष्टौ।
अव यक्ष्व नो वरुणं रराणो वीहि मृळीकं सुहवो न एधि स्वाहा।। इदमग्निवरुणाभ्याम् – इदन्न मम।। ८।।
(ऋ.४/१/५)
इमं मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृळय।
त्वामवस्युराचके स्वाहा।। इदं वरुणाय – इदन्न मम।। ९।। (ऋ.१/२५/१९)
तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः।
अहेळमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मा न आयुः प्र मोषीः स्वाहा।। इदं वरुणाय – इदन्न मम।। १०।। (ऋ.१/२४/११)
ये ते शतं वरुण ये सहस्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः।
तेभिर्नोऽअद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्काः स्वाहा।। इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यः – इदन्न मम।। ११।।
(का.श्रौत.२५/१/११)
अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च सत्यमित्त्वमयाऽसि।
अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भेषज द्भञ स्वाहा।। इदमग्नये अयसे – इदन्न मम ।। १२।। (का.श्रौत.२५/१/११)
उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय।
अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा।। इदं वरुणाया ऽऽ दित्यायाऽदितये च – इदन्न मम।। १३।।
(ऋ.१/२४/१५)
भवतन्नः समनसौ सचेतसावरेपसौ।
मा यज्ञ हि सिष्टं मा यज्ञपतिं जातवेदसौ शिवौ भवतमद्य नः स्वाहा।। इदं जातवेदोभ्याम्-इदन्न मम।। १४।। (यजु.५/३)
ओ३म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।। (यजु.३६/३)
इस मन्त्र से तीन आहुतियां दें।
पूर्णाहुति-मन्त्राः
ओं सर्वं वै पूर्ण ँ् स्वाहा। इस मन्त्र से तीन बार केवल घृत से आहुतियां देकर अग्नि होत्र को पूर्ण करें।
(५) अथ भूतयज्ञः (बलिवैश्वदेवयज्ञ)
निम्नलिखित दस मन्त्रों से घृत-मिश्रित भात की यदि भात न बना हो तो क्षार और लवणान्न को छोड़कर पाकशाला में जो कुछ भोजन बना हो उसी की आहुति देवें।
ओम् अग्नये स्वाहा।। १।। ओं सोमाय स्वाहा।। २।।
ओम् अग्निषोमाभ्यां स्वाहा।। ३।। ओं विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा।। ४।। ओं धन्वन्तरये स्वाहा।। ५।। ओम् कुह्वै स्वाहा।। ६।। ओम् अनुमत्यै स्वाहा।। ७।। ओं प्रजापतये स्वाहा।। ८।। ओं सह द्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा।। ९।। ओें स्विष्टकृते स्वाहा।। १।।
तत्पश्चात् निम्नलिखित मन्त्रों से बलिदान करें। एक पत्तल अथवा थाली में यथोक्त दिशाओं में भाग रखना। यदि भाग रखने के समय कोई अतिथि आ जाए तो उसी को देना अथवा अग्नि में डालना चाहिए।
ओं सानुगायेन्द्राय नमः।। १।। (इससे पूर्व)
ओं सानुगाय यमाय नमः।। २।। (इससे दक्षिण)
ओं सानुगाय वरुणाय नमः।। ३।। (इससे पश्चिम)
ओं सानुगाय सोमाय नमः।। ४।। (इससे उत्तर)
ओं मरुद्भ्यो नमः।। ५।। (इससे द्वार)
ओं अद्भ्यो नमः।। ६।। (इससे जल)
ओं वनस्पतिभ्यो नमः।। ७।। (इससे मूसल व ऊखल)
ओं मरुद्भ्यो नमः।। ८।। (इससे ईशान)
ओं भद्रकाल्यै नमः।। ९।। (इससे नैऋत्य)
ओं ब्रह्मपतये नमः।। १०।।
ओं वस्तुपतये नमः।। ११।। (इनसे मध्य)
ओं विश्वभ्यो देवेभ्यो नमः।। १२।।
ओं दिवाचारिभ्यो भूतेभ्यो नमः।। १३।।
ओं नक्तंचारिभ्यो भूतेभ्यो नमः।। १४।। (इनसे ऊपर)
ओं सर्वात्मभूतये नमः।। १५।। (इससे पृष्ठ)
ओं पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः।। १६।। (इससे दक्षिण) -मनु. ३/८७-९१
तत्पश्चात् घृतसहित लवणान्न लेके-
शुनां च पतितानां च श्वपचां पापरोगिणाम्।
वायसानां कृमीणां च शनकैर्निवपेद् भुवि।।
(मनु. ३/९२)
अर्थ :- कुत्ता, पतित, चाण्डाल, पापरोगी, काक और कृमि- इन छः नामों से छः भाग पृथ्वी पर धरे और वे भाग जिस-जिस नाम के हों उस-उस को देवें।
(६) अतिथियज्ञः
तद्यस्यैवं विद्वान् व्रात्योऽतिथिर्गृहानागच्छेत्।। १।।
स्वयमेनमभ्युदेत्य ब्रूयाद् व्रात्य क्वावासीत्सीर्व्रा- त्योदकं व्रात्य तर्पयन्तु व्रात्य यथा ते प्रियं तथास्तु व्रात्य यथा ते वशस्तथास्तु व्रात्य यथा ते निकामस्तथाऽस्त्विति।। २।।
(अथर्व. १५/११/१,२)
जब पूर्ण विद्वान् परोपकारी सत्योपदेशक गृहस्थों के घर आवें, तब गृहस्थ लोग स्वयं समीप जाकर उक्त विद्वानों को प्रणाम आदि करके उत्तम आसन पर बैठाकर पूछें कि कल के दिन कहाँ आपने निवास किया था ? हे ब्रह्मन् जलादि पदार्थ जो आपको अपेक्षित हों ग्रहण कीजिए, और हम लोगों को सत्योपदेश से तृप्त कीजिए।
जो धार्मिक, परोपकारी, सत्योपदेशक, पक्षपातरहित, शान्त, सर्वहितकारक विद्वानों की अन्नादि से सेवा और उनसे प्रश्नोत्तर आदि करके विद्या प्राप्त करना अतिथियज्ञ कहाता है, उसको नित्यप्रति किया करें।
यज्ञ-प्रार्थना
पूजनीय प्रभो हमारे भाव उज्जवल कीजिए।
छोड देवें छल कपट को मानसिक बल दीजिए।।
वेद की बोलें ऋचाएं सत्य को धारण करें।
हर्ष में हों मग्न सारे शोक सागर से तरें।।
अश्वमेधादिक रचाएं यज्ञ पर उपकार को।
धर्म मर्यादा चलाकर लाभ दें संसार को।।
नित्य श्रद्धा भक्ति से यज्ञादि हम करते रहें।
रोग पीड़ित विश्व के संताप सब हरते रहें।।
भावना मिट जाए मन से पाप अत्याचार की।
कामनाएं पूर्ण होवें यज्ञ से नर-नारि की।।
लाभकारी हो हवन हर प्राणधारी के लिए।
वायु जल सर्वत्र हों शुभ गन्ध को धारण किए।।
स्वार्थ भाव मिटे हमारा प्रेम पथ विस्तार हो।
इदन्न मम का सार्थक प्रत्येक में व्यवहार हो।।
हाथ जोड़ झुकाएं मस्तक वन्दना हम कर रहे।
नाथ! करुणारूप करुणा आपकी सब पर रहे।।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।।
हे नाथ सब सुखी हों, कोई न हो दुखारी।
सब हों निरोग भगवन, धन-धान्य के भंडारी।
सब भद्रभाव देखें, सन्मार्ग के पथिक हों।
दुःखिया न कोई होवे, सृष्टि में प्राणधारी।
शान्ति पाठः
ओं द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष ँ् शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व ँ् शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि। (यजु.३६/१७)
ओम् शान्तिः शान्तिः शान्तिः।
शान्ति कीजिए प्रभु त्रिभुवन में
जल में थल में और गगन में, अन्तरिक्ष में अग्नि पवन में।
ओषधि वनस्पति वन उपवन में, सकल विश्व में जड़ चेतन में।। 1।।
शान्ति कीजिए प्रभु त्रिभुवन में
ब्राह्मण के उपदेश वचन में, क्षत्रिय के द्वारा हो रण में।
वैश्य जनों के होवे धन में, और सेवक के परिचरणन में।। 2।।
शान्ति कीजिए प्रभु त्रिभुवन में
शान्ति राष्ट्र निर्माण सृजन में, नगर ग्राम में और भवन में।
जीव मात्र के तन में मन में, और जगत के हो कण कण में।। 3।। शान्ति कीजिए प्रभु त्रिभुवन में
श्रावणी उपाकर्म
ऋषि-तर्पण
श्रावण सुदि पूर्णिमा
वैदिक धर्म में स्वाध्याय की सर्वोपरि प्रधानता और महिमा वार-वार वर्णन की गई है। उस पर यहां तक बल दिया गया है कि वह तारतम्य से प्रत्येक वर्ण और आश्रम के लिए अनिवार्य और आवश्यक रूप से विहित है। चारों वर्णों प्रथम वर्ण ब्राह्मण का स्वाध्याय (अध्ययना-ध्यापन) ही मुख्य कर्त्तव्य है, उसी के कारण ब्राह्मण सब वर्णों में श्रेष्ठ माना गया है और उसकी चातुर्वर्ण्य-देह वा विराट् पुरुष का सर्वश्रेष्ठ अंग ‘मुख’ कहा गया है। क्षत्रिय और वैश्य की भी द्विजन्मा संज्ञा स्वाध्याय से होती है।
आश्रमों में भी प्रथम आश्रम ब्रह्मचर्य की सृष्टि केवल स्वाध्याय के लिए ही हुई है। ब्रह्मचर्य की समाप्ति पर समावर्तन के समय स्त्रातक को आचार्य ‘स्वाध्यायान्मा प्रमदः।’, ‘स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्।’ का उपदेश देता है जिस का स्पष्ट प्रयोजन यही है कि आगे चलकर गृहस्थाश्रम में भी स्वाध्याय करते रहो और उस में कभी प्रमाद मत करो। गृहस्थ के पश्चात् वानप्रस्थ वा वनी का भी प्रधान कर्म स्वाध्याय और तप ही रह जाता है। संन्यासी का भी समय परम तत्त्वचिन्तन और उपदेश के अंगीभूत स्वाध्याय में ही व्यतीत होता है। संन्यासी के लिए आज्ञा है-‘संन्यसेत्सर्वकर्माणि वेदमेकन्न संन्यसेत्।’ अर्थात् संन्यासी सब कर्मों को त्याग देवे केवल वेद को न त्यागे। स्वाध्याय को इतना महत्त्व देने का उद्देश्य यही है कि जिस प्रकार शरीर की स्थिति और उन्नति अन्न से होती है उसी प्रकार सारे शरीर के राजा मन का भी उत्कर्ष और शिक्षण स्वाध्याय से होता है। और यतः मानसिक उन्नति के बिना आत्मिक उन्नति भी नहीं हो सकती, इसलिए स्वाध्याय आत्मिक उन्नति का भी प्रधान साधन है। मानसिक और आत्मिक उन्नति के बिना केवल शारीरिक उन्नति मनुष्य को मनुष्यता (मननशीलता) से गिराकर पशुत्व, पिशाचत्व और राक्षसत्व की ओर ले जाती है। अतएव स्वाध्याय मनुष्य के लिए अन्नाहार के समान ही आवश्यक और अनिवार्य है। स्वाध्याय के सातत्य से ही मनुष्य मानस मुकुर दर्पण ऐसा स्वच्छ और पारदर्शी बन जाता है कि उस में परम पुरुष की अनादि सरस्वती का साक्षात्कार उस को होने लगता है। इसी को मन्त्रदर्शन भी कहते हैं। मन्त्रदर्शन से ही मनुष्य ऋषि बन जाते हैं वा मन्त्रद्रष्टा की ऋषि कहलाते हैं। ‘ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः’ यह निरुक्त में महामुनि यास्क का वचन प्रसिद्ध ही है।
जो वस्तु जिस को प्रिय होती है, उसी से उस की पूजा और तृप्ति का तर्पण होता है। ऊपर ऋषियों और स्वाध्याय का अभेद्य वा समवाय सम्बन्ध दिखलाया जा चुका है, इसलिए ऋषियों की अर्चा तृप्ति वा तर्पण स्वाध्याय से बढ़कर और किसी वस्तु से नहीं हो सकता। जहां धर्मशास्त्रों में प्रतिदिन साधारण स्वाध्याय द्वारा ऋषियों के साधारण तर्पण की आज्ञा है, वहां इस विषय में मनुस्मृति के निम्नलिखित पद्य प्रमाण रूप से उद्धृत किये जाते हैं-
स्वाध्यायेनार्चयेतर्षीन् होमैर्देवान् यथाविधि।
पितृन् श्राद्धैश्च नृनन्नैः भूतानि बलिकर्मणा।
-मनुस्मृति ३ । ७१ ।।
स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्याद्दैवे चैवेह कर्मणि ।।
-मनुस्मृति ३ । ७५ ।।
अर्थ-स्वाध्याय से ऋषियों की, होम से देवों की, श्रद्धा से पितरों की, अन्न से नर (अतिथियों) की बलिकर्म (अन्नप्रदान) से (क्षुद्र) प्राणियों की यथाविधि पूजा करे। जहां स्वाध्याय और देवकर्म में नित्य तत्पर रहे, वहां विशेष समयों वा अवसरों पर विशेष स्वाध्याय द्वारा विशेष ऋषितर्पण का विधान है, क्योंकि वेदधर्मानुयायियों के यहां नित्य और नैमित्तिम कर्मों की शैली सर्वत्र विद्यमान है। इस समय यहां नैमित्तिक ऋषि तर्पण का ही प्रसंग प्रस्तुत है।
वैदिक काल में वेदों के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों की अविद्यमानता वा विरलता के कारण वेदों और वैदिक साहित्य के ही पठन-पाठन का विशेष प्रचार था। वैसे लोग नित्य ही वेदपाठ में रत रहते थे, किन्तु वर्षाऋतु में वेद के पारायण का विशेष आयोजन किया जाता था। इस का कारण यह था कि भारतवर्ष वर्षाबहुल तथा कृषिप्रधान देश है। यहां की जनता आषाढ़ और श्रावण में कृषि के कार्यों में विशेषताः व्यस्त रहती है। श्रावणी (सावनी) शस्य की जुताई और बुवाई आषाढ़ से प्रारम्भ होकर श्रावण के अन्त तक समाप्त हो जाती है। इस समय (श्रावणपूर्णिमा पर) ग्रामीण जनता कृषि के कार्यों से निवृत्ति पाकर तथा भावी शस्य के आगमन से आशान्वित हो कर चित्त की शान्ति और अवकाश लाभ करती है। क्षत्रियवर्ग भी इस समय दिग्विजय यात्रा से विरत हो जाता है। वैश्य भी व्यापार, यात्रा, वाणिज्य और कृषि से विश्राम पाते हैं। इसलिए इस दीर्घ अवकाश-काल में विशेष रूप से वेद के पारायण और प्रवचन में जनता प्रवृत्त होती थी। उधर ऋषि-मुनियों संन्यासी और महात्मा लोग भी वर्षा के कारण अरण्य और वनस्थली को छोड़कर ग्रामों के निकट में आकर रहने लगते थे ओर वहीं वेदपठन, धर्मोपदेश और ज्ञानचर्चा में अपना चातुर्मास्य (चैमासा) बिताते थे। श्रद्धालु श्रोता और वेदाध्यायी लोग उन के पास रहकर ज्ञान-श्रवण और वेदपाठ से अपने समय को सफल बनाते थे और ऋषियों के इस प्रिय कार्य से उन का (ऋषियों का) तर्पण मानते थे। जिस दिन से इस विशेष वेदपारायण का उपक्रम (प्रारम्भ) किया जाता था, उस को उपाकर्म कहते थे। और यह श्रावण शुदि पूर्णिमा वा श्रावण शुदि पंचमी को होता था। जैसा कि पारस्कर गृह्यसूत्र के निम्नलिखित सूत्रों में विहित है-
अथातोऽध्यायोपाकर्म ।। १ ।। ओषधीनां प्रादुभावे श्रवणेन श्रावण्यां पौर्णमास्यां श्रावणस्य पंचमीं हस्तेन वा ।। २ ।।
-पारस्कर गृह्यसूत्र २ । १० । १-२ ।।
इस पर श्रीमद् हरिहर का यह भाष्य हैं-
अथ पंचमहायज्ञकथनानन्तरम् अध्यायस्य अध्ययनस्य उपाकर्म उपाकरणं (आरम्भः) व्याख्यास्यत इति शेषः। ओषधीनाम-पामार्गादीनां प्रादुर्भावे उत्पत्तौ सत्यां श्रावणश्च पौर्णमास्या एवं विशेषणं तत्र तयोः प्रायशः सम्भवात् एवं च सति पौर्णमास्या एव प्राधान्यं तस्माद् विशेषणाभावेऽपि पौर्मामास्यां भवति। औषधि-प्रादुर्भावस्तु सर्वत्रापेक्षितः। श्रावणमास्य पंचमीं हस्तेन युक्तां वा प्राप्य भवति तत्रापि प्रायेण हस्तो भवति अतः श्रावणीपूर्णिमा श्रावणपंचमी वा विशिष्टा अविशिष्टा वा उपाकर्मणः कालः।
ऋषियों का तृप्तिकारक होने के कारण पीछे से उपाकर्म का नाम ऋषितर्पण भी पड़ गया। यह उपाकर्म वा ऋषितर्पण विशेष विधि से होता था, जिस का विवरण गृह्यसूत्रों में दिया हुआ है और जो उक्त पारस्कर गृह्यसूत्रानुसार आगे चलकर इस पर्व की पद्धति में सविस्तार लिया जायेगा। इस प्रकार यह विशेष वेदपाठ प्रारम्भ होकर साढ़े चार मास तक नियमपूर्वक बराबर चला जाता था और पौष मास में उस का ‘उत्सर्जन’ (त्याग वा समापन) होता था। ‘उत्सर्जन’ भी एक विशेष संस्कार के रूप में किया जाता था। उपाकर्म और उत्सर्जन के विधान विविध गृह्यसूत्रों में नाना अवान्तर भेदों के साथ वर्णित हैं। याज्ञिक काल में कर्मकाण्ड में बहुत से सूक्ष्मातिसूक्ष्म भेदप्रभेद, प्रचलित हो गये थे और जनता कर्मकाण्ड के मूल उद्देश्यों को भूलकर इन विविध विधानों की सूक्ष्मता वा जटिलता में ही फंसी रहती थी। उपाकर्म और उत्सर्जन के भिन्न-भिन्न काल ऋग्वेदी, सामवेदी और अथर्ववेदियों के लिए नियत हो गये थे, जिस से परस्पर भेदों के बढ़ने के अतिरिक्त और कोई लाभ न था। अस्तु !
मनुस्मृति में उपाकर्म और उत्सर्जन का आदेश निम्नलिखित पद्यों में दिया गया है-
श्रावण्यां प्रौष्ठपद्यां वाप्युपाकृत्य यथाविधि।
युक्तश्छन्दांस्यधीयीत मासान् विप्रोऽर्धपंचमान् ।। १५ ।।
पुष्ये तु छन्दसां कुर्यात् बहिरुत्सर्जनं द्विजः।
माघशुक्लस्य वा प्राप्त पूर्वाह्ने प्रथमेऽहनि ।। १६ ।।
मनुस्मृति ४ । ९५-९६ ।।
अर्थ-ब्राह्मणादि श्रावणी वा भाद्रपदी पूर्णिमा को उपाकर्म करके साढ़े चार मास में ध्यान पूर्वक वेदाध्ययन करे ।। ९५ ।। पुष्य नक्षत्र वाली पूर्णिमा (पौषी) में वेद का उत्सर्जन नामक कर्म ग्राम के बाहर जाकर करे या माघ शुक्ल के प्रथम दिन के पूर्वाह्न में करे ।। ९६ ।।
कई महानुभावों का यह विचार है कि उपाकर्म और उत्सर्जन ब्रह्मचारियों का कृत्य है। उन के मत में उपकर्म विद्यालयों के खुलने का दिन है और उत्सर्जन गुरुकुलों के सत्र समाप्ति की तिथि है, किन्तु मनुस्मृति और गृह्यसूत्र उन के इस विचार की पुष्टि नहीं करते हैं। मनुस्मृति के द्वितीय अध्याय में ब्रह्मचर्य और ब्रह्मचारी के सर्वकृत्यों को वर्णन समाप्त करके तथा तृतीय अध्याय में पाणिग्रहण तथा पंचमहायज्ञ का सविस्तार विधान देकर चतुर्थ अध्याय के प्रारम्भ से ‘कृतदारो गृहे वसेत्’ इत्यादि श्लोक से गृहस्थाश्रम के कर्त्तव्यों और वृत्तियों का वर्णन आरम्भ होता है। उसी के अन्तर्गत उपयुक्त ९५ और ९६ श्लोकों में उपाकर्म और उत्सर्जन का विधान है। तब उन को ब्रह्मचारियों का कृत्य कैसे माना जा सकता है? इस के अतिरिक्त पारस्कर गृह्यसूत्र के उपर्युक्त सूत्रों के भाष्य में री हरिहर स्पष्ट लिखते हैं।
तंचाग्निमतोऽध्यापनप्रवृत्तस्यैव भवति छन्दांस्युपाकृत्याधीयन्त इति वचनात्, उपाकरस्य चावसथ्याग्निसाध्यत्वात् निरग्नेर्नाधिकारः।
अर्थ-वह उपाकर्म अग्नि स्थापित किए हुए और अध्यापन में लगे हुए का ही होता है ( उसी का कर्तव्य है )। ‘छन्दांस्युपाकृत्याधीयन्ते’ इस वचन से उपाकर्म आवसथ्य नामक अग्नि में ही हो सकता है। उस अग्नि को न स्थापित किये हुए पुरुष को उस का अधिकार नहीं है।
आवसथ्याधानं दारकाले।। -पारस्कर गृह्यसूत्र १ । २ । १ ।।
इस सूत्र से आवसथ्याग्नि विवाह के समय में ही स्थापित होती है। विवाहकाल के अग्नि में उपाकर्म के करने की आज्ञा से स्पष्ट प्रामाणित होता है कि वह गृहस्थों का ही कर्त्तव्य है। श्री वैद्य हरिशंकर जी ने भी अपनी ‘त्यौहार-पद्धति’ में आगे चलकर स्वीकार किया है कि –
‘लोक मे प्रचार होने और शास्त्र के अनुसार कर्त्तव्य देखने से यह विदित होता है क इस मंगल दिवस का सम्बन्ध गृहस्थियों से भी अवश्य है।’
युक्त प्रान्तीय भारत धर्म-महामण्डल के प्रस्तावानुसार प्रकाशित ‘व्रतोत्सवचन्द्रिका’ में भी यह लिखा है कि-
जो छात्र ब्रह्मचर्य को समाप्त करके गार्हस्थ्य में प्रवेश करते थे, वे भी श्रावणी के दिन नित्य वेदपाठ का प्रारम्भ करके माघ में समाप्त करते थे।
गुरुकुलों में उपाकर्म और उत्सर्जन होता होगा? किन्तु यह केवल उन्हीं का पर्व था, ऐसा प्रतीत नहीं होता।
चिरकाल के पश्चात् वेद के पठन-पाठन का प्रचार न्यून हो जाने पर साढ़े चार मास तक नितय वेद-पारायण की परिपाटी उठ गई और जनता प्राचीन उपाकर्म और उत्सर्जन से स्मारक रूप में श्रावण सुदि पूर्णिमा को एक ही दिन उपाकर्म और उत्सर्जन की विधियों को पूरा करने लगी। इस बात की पुष्टि ‘धर्मसिन्धु’ ग्रन्थ के निम्नलिखित उद्धरण से भले प्रकार होती है-
‘उत्सर्जनकालस्तु नेह प्रपंचते, सर्वशिष्टानामिदानीमुपा-कर्मदिन एवोत्सर्जनकर्मानुष्ठानाचारेण तन्निर्णयस्यानुपयोगात्।’
अर्थ-यहां उत्सर्जन काल का निर्णय नहीं किया जाता है, क्योंकि आजकल सब शिष्ट लोग उपाकर्म के दिन उत्सर्जन भी कर लेते हैं। अतः उसके काल का निर्णय करना व्यर्थ है।
ज्ञात होता है कि ये दोनों कृत्य बहुत काल से एक ही दिन होते चले आये हैं। पीछे से जनता उपाकर्म और उत्सर्जन का नाम भी भूल गई और इस पर्व का नाम केवल ऋषितर्पण और श्रावणी ही प्रसिद्ध हो गया। पहले लोग उस दिन वेद के कुछ सूक्तों का पाठ कर लेते थे और उसी समय वर्षा ऋतु के विकृत जलवायु के संशोधनार्थ बृहद् हवन यज्ञ भी होता था। उसी अवसर पर सब अपने नवीन यज्ञोपवीत भी बदलते थे, और सम्भव है कि ऋषितर्पण यज्ञ में सम्मिलित होने के चिह्नस्वरूप से याजक और यजमानों के दाहिने हाथ में रक्षासूत्र (राखी) भी बांधे जाते हों और वर्तमान काल में श्रावणी के दिन रक्षा-बन्धन (राखी बांधने) का यही स्त्रोत हो। किन्तु इस का प्रमाण भविष्योत्तर पुराण को छोड़कर किसी प्राचीन ग्रन्थ में नहीं पाया जाता।
पौराणिक काल में इस पर्व पर वेद-स्वाध्यायात्मक ऋषितर्पण का सर्वथा लोप हो गया और श्रावणी कर्म के नाम से सर्पों को बलि देने आदि के नवीन विधान प्रचलित हो गये थे। होम या का प्रचार भी उठ गया। लोग नदी वा तालाब पर जाकर पंचगव्यप्राशन, स्नान तथा ऋषितर्पण के कुछ संस्कृतवाक्य-ओं ब्रह्मा तृत्यताम्, ओं विष्णुस्तृप्यताम्, ओं रुद्रस्तृप्यताम्, ओं सनकस्तृप्यताम्, ओं सनन्दनस्तृप्यताम्, ओं सनातनस्तृप्यताम्, ओं कपिलस्तृप्यताम्, ओम् आसुरिसतृप्यताम्, ओं वोढस्तृप्यताम्, ओं पंचशिखस्तृप्यताम्। उच्चारण करके अपने कर्त्तव्य की समाप्ति समझने लगे। आजकल पौराणिक घरों में स्त्रियाँ भित्तियों पर श्रावण की मूर्तियां गेरू से बनाकर उनको सेवियों से जिमाती हैं। राजपूत काल में अबलाओ के अपनी रथार्थ सबल वीरों के हाथ में राखी बांधने की परिपाटी का प्रचार हुआ है। जिस किसी वीर क्षत्रिय को कोई अबला राखी भेजकर अपनी राखी बांध भाई बना लेती थी, उस की आयु भर रक्षा करना उस का कर्त्तव्य हो जाता था। चित्तौड़ की महारानी कर्णवती ने मुगल बादशाह हुमायूं को गुजरात के बादशाह से अपनी रक्षार्थ राखी भेजी थी, जिस से उस ने चित्तौड़ पहुँचकर तत्काल अन्त समय पर उस की सहायता की थी और चित्तौड़ का बहादुरशाह के आक्रमण से उद्धार किया था। तब से बहुत से प्रान्तों में यह प्रथा प्रचलित है कि भगिनियां और पुत्रियां अपने भ्राताओं और पिताओं के हाथ में श्रावणी के दिन राखी बांधती हैं और वे उन से कुछ द्रव्य और वस्त्र पाती हैं। यदि यह प्रथा पुत्री और भगिनीवात्सल्य का दृढ़ करने वाली मानी जाए तो उस के प्रचलित रहने में कोई क्षति भी नहीं है।
आजकल की श्रावणी का प्राचीन काल के उपाकर्म-उत्सर्जन वेदस्वाध्यायरूप ऋषितर्पण और वर्षाकालीन बृहद् हवन-यज्ञ (वर्षाचातुर्मास्येष्टि) का विकृत तथा नाममात्र शेष स्मारक समझना चाहिए और प्राचीन प्रणाली के पुनरुज्जीवनार्थ उसको बीज मात्र मानकर उसको अंकुरित करके पत्रपुष्पसुफलसमन्वित विशाल वृक्ष का रूप देने का उद्योग करना चाहिए।
आर्य पुरुषों को उचित है कि श्रावणी के दिन बृहद् हवन और विधिपूर्वक उपाकर्म करके वेद तथा वैदिक ग्रन्थों के विशेष स्वाध्याय का उपाकर्म करें और उस को यथाशक्ति और यथावकाश नियमपूर्वक चलाते रहें।
श्रावणी पर्व
आर्यों के समाजिक और वैयक्तिक जीवन में पर्वों का सदा से स्थान रहा है। धरा पर सभी मानव जातियां किसी न किसी प्रकार का पर्व मनाती ही हैं। पर्व शब्द का अर्थ पूरक भी है और ग्रन्थि होने से धारक भी है। ईख के रस को ईख की ग्रन्थि सुरक्षित रखती है और बांस आदि की दृढ़ता को उस की गांठें स्थिर रखती हैं। इसी प्रकार शरीर की स्थिति-स्थापकता शरीर की ग्रन्थियों द्वारा सुरक्षित है।
श्रावणी आर्यों के प्रसिद्ध पर्वों में से एक महान् पर्व है। यह पर्व वैदिक पर्व है। इस का सीधा सम्बन्ध वेद की अध्यापन और अध्ययन करने वालों से है। गृह्यसूत्रों के अनुसार इस पर्व का सीधा सम्बध वेद और वैदिकों से दिखलाया गया है। यह पर्व जहां पर्व है वहां यह एक गृह्यकर्म भी है। गृह्यसूत्रों के अनुसार श्रावणी कर्म भी इसी अवसर पर होता है और उपाकर्म वेदाध्ययन का प्रारम्भ होता है। चार मास वर्षा के होते हैं। इस में बराबर वेदाध्ययन चलता रहता था और पौष में जाकर उत्सर्ग किया जाता था। इसी आधार को लेकर आर्यसमाज ने वेद सप्ताह का इस अवसर पर आयोजन किया। वेद के अध्ययन के मार्ग को आचार्य महर्षि दयानन्द सरस्वती ने प्रशस्त किया है अतः उन के द्वारा स्थापित वेद-प्रचारक आर्यसमाज का यह कत्र्तव्य ही है कि वह वेद के प्रचार को बढ़ावे।
श्रावणी नाम इस पर्व का क्यों है? इस का उत्तर यह है कि श्रवणा नक्षत्र से युक्त पूर्णिमा को यह पर्व होता है अतः यह श्रावणी है। इसी श्रावणी पूर्णिमा के आधार पर ही इस मास का नाम भी श्रावण मास है। इस श्रावणी की भी विधि है और वह गृह्यसूत्रों और हमारी पर्वपद्धति में लिखी है-जो प्रत्येक आर्य और आर्यसमाज को करनी चाहिए।
यह सब होने पर भी कुप्रथाओं और सुप्रथाओं के बीच में चलने वाले आर्यों में भी श्रावणी के वास्तविक स्वरूप के विषय में कहीं-कहीं पर अनभिज्ञता ही दिखाई पड़ती है। हमारी पत्र-पत्रिकाओं में भी ऐसी बातें कभी-कभी निकल जाती है। दीपावली के विषय में राम की लंका विजय के बाद दीपावली को दीपावली का कारण बताया जाता है और होली के विषय में प्रह्नाद का सम्बन्ध जोड़ा जाता है। ये दोनों ही कल्पनाएं भ्रान्त और गलत हैं। वस्तुतः ये दोनों ही गृह्य कर्म हैं। इसी प्रकार रक्षा-बन्धन पर्व के अतिरिक्त और कुछ नहीं समझा जाता है। रक्षा बांधने की प्रथा बीच में किसी समय प्रारम्भ हुई परन्तु श्रावणी तो वैदिक गृह्यकर्म है। वह बहुत पहले भी था और अब भी है।
एक दिन एक आर्य सज्जन कहने लगे कि श्रावणी के दिन ही चारों वदों का ज्ञान सृष्टि के प्रारम्भ में मिला था, इसलिए यह श्रावणी पर्व मनाया जाता है। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि जहां तक मेरा ज्ञान है मैंने ऐसी बात कहीं नही पढ़ी है। यह सम्भव नहीं, ऐसी-ऐसी अनेक कल्पनाएं लोग बना लेते हैं। मेरे कहने का तात्पर्य यही है कि श्रावणी के विषय में ऐसी कल्पनाओं के आधार नहीं बनाना चाहिए। उस के शुद्ध स्वरूप को समझना चाहिए। रक्षाबन्धन का लौकिक और सामाजिक कृत्य भी इसी दिन पड़ता है। यह ठीक है परन्तु यह प्रथा इस पर्व का कारण नहीं।
श्रावणी और स्वाध्याय
जैसा ऊपर कहा गया है वेदाध्ययन का इस पर्व से सीधा सम्बन्ध है। श्रावणी मनाने का एक उत्तम तरीका यह है कि वेदादि सच्छास्त्रों का स्वाध्याय इस पर्व से अवश्य चालू किया जाये। स्वाध्याय जीवन का अंग होना चाहिए परन्तु ऐसे पर्वों के अवसरों से प्रेरणा लेकर ही यदि हम इस प्रवृत्ति को बढ़ायें तो अच्छा हो।
‘आर्यों के जीवन का स्वाध्याय एक अंग है। स्वाध्याय में प्रमाद का हमारे शास्त्रों में निषेध है। स्वाध्याय (Self Study) का ज्ञान के परिवर्धन में बहुत बड़ा महत्व है। शतपथ ब्राह्मण ११ । ५ । ७ । १ में स्वाध्याय की प्रशंसा करते हुए लिखा गया है कि स्वाध्याय करने वाला सुख की नींद सोता है, युक्तमना होता है, अपना परम चिकित्सक होता है, उस में इन्द्रियों का संयम और एकाग्रता आती है और प्रज्ञा की अभिवृद्धि होती है।’
यहां पर ब्राह्मण ग्रन्थ का प्रत्येक शब्द महत्व से भरा हुआ है। पुनः उसी ब्राह्मण में ११ । ५ । ७ । १० में कहा गया है कि स्वाध्याय न करने वाला अब्राह्मण हो जाता है। अतः प्रतिदिन स्वाध्याय करना चाहिए, और ऋक्, यजुः साम, अथर्व आदि को पढ़ना चाहिए जिस से व्रत का भंग न होवे। ब्राह्मण ग्रन्थ स्वाध्याय को अन्य व्रतों की भांति एक व्रत बतला रहा है। शतपथ ११ । ५ । ६ । २ में इस स्वाध्याय को ब्राह्मण कहा गया है और आगे चलकर बताया गया है कि इस यज्ञ की वाणी जुहू है। मन उपभृत है, चक्षु ध्रुवा और मेधा स्त्रुवा है और सत्य इस का अवभृथ है। इस प्रकार स्वाध्याय की शास्त्रों में महती महिमा गाई गई है। ऋग्वेद में स्वयम् इस का सुन्दर वर्णन है। वर्षाकाल में मेंढक बोलते हैं। एक की बोली को दूसरा दुहराता है। यह उपमा ऋग्वेद में वेदपाठी ब्राह्मण को दी गई है। क्योकि वे इस चातुर्मास्य के समय में वेद को पढ़ते हैं। वस्तुतः वेद का मण्डूक शब्द और यह उपमा निर्देश का महत्व लिये हैं। इससे वेदवाणी, मण्डूक की वाणी और मानसून-मेघस्य वाणी का सुन्दर सम्मिश्रण और कब हो सकता है? इस वर्षा की ऋतु में वेदज्ञ के मुख से निकली वेदवाणी, मानसून की गड़गड़ाहट से निकली मध्यमा वाणी और मेंढकों की अनिरुक्त अव्यक्त वाणी-परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी के अनिरुक्त रूप की प्रतीक हैं और इस वर्षा की ऋतु में इन सब का समन्वय हो जाता है। अतः स्वाध्याय की प्रवृत्ति को प्रत्येक आर्य को बढ़ाना चाहिएं-यही यहां पर मेरा निवेदन है।
यज्ञोपवीत और श्रावणी
श्रावणी के साथ नये यज्ञोपवीत के धारण और पुराने के छोड़ने की भी प्रथा जुड़ी हुई है। इस का भी प्रधान कारण है। गृह्यसूत्रों में विभिन्न कर्मों के समय विभिन्न प्रकार से यज्ञोपवीत के धारण करने का विधान है। निवीति, उपवीति, प्राचीनावीति आदि संज्ञाएं इसी आधार पर हैं। यह भी एक गृह्यसूत्रों के आधार पर परिपाटी है कि प्रत्येक प्रधान उत्तम यज्ञयाग आदि कर्मों के समय नया यज्ञोपवीत धारण किया जाये। उसी आधार की पोषिका यह श्रावणी पर यज्ञोपवती बदलने की प्रथा भी है। यज्ञोपवीत का आर्यों के संस्कार और कर्मकाण्ड में बड़ा ही महत्व है। यज्ञोपवीत के तीन धागे गले में पड़ते ही वह पितृऋण, देवऋण और ऋषिऋण आदि कर्त्तव्यों से अपने को बन्धा हुआ समझने लगता है। यहां उपनयन, यज्ञोपवीत, व्रतबन्ध आदि पद इस सम्बन्ध में विशेष महत्वं के हैं। इसी क्रमपूर्वक आचार्य कुल में विद्यार्थी लाया जाता है अतः यह उपनयन है। यज्ञ और उत्तम कर्मों के लिए विद्यार्थी इससे प्रतिज्ञात और अधिकृत होता है अतः यज्ञोपवीत है। इस से अनुशासन और व्रतों के पालन की प्रतिज्ञा में बद्ध होता है। अतः यह व्रतबन्ध है। वेदों में भी इस यज्ञोपवीत धारण का वर्णन है। उसी को लेकर अन्यत्र शास्त्रों में इस का पल्लवन किया गया है। ऋग्वेद १० । ५७ । २ मन्त्र में कहा गया है कि-‘हो यज्ञोपवीत-तन्तु यज्ञों का प्रसाधक है और विद्वानों में आतत है उस को हम धारण करें। यद्यपि इस मन्त्र में बहुत से तथ्य छिपे हैं परन्तु विस्तार भय से यहां पर उन का वर्णन नहीं यिा जा रहा है। -(आचार्य) वैद्यनाथ शास्त्री
सब उपस्थित पारिवारिक जन पलाश की तीन-तीन हरी वा शुष्क समिधाओं को घी से भिगोकर सावित्री मन्त्र से आहुति दें। इस प्रकार तीन वार करें। पुनः स्विष्टकृत् आहुति देकर प्रातराश किया जाये।
‘शन्नो मित्र’ इस मन्त्र को पढ़ कर उस के पश्चात् मुख धोकर, आचमन करके अपने-अपने आसनों पर बैठकर, जलपात्रों में कुशाओं को रखकर, हाथ जोड़कर पुरोहित के साथ तीन-तीन वार ओंकार व्याहृतिपूर्वक सावित्री पढ़ कर वेदों के निम्नलिखित मन्त्र पढ़े।
ऋग्वेद-
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्।।
समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति।।
यजुर्वेद-
ओम् इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मण आप्यायध्वमध्न्या इन्द्राय भागं प्रजावतीरनमीवा अयक्ष्मा मा व स्तेन ईशत माघशं सो ध्रुवा अस्मिन् गोपतौ स्यात बह्नीर्यजमानस्य पशून पाहि ।।
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम् ।। ओं खं ब्रह्म ।।
-यजु. ४० । १७ ।।
सामवेद-
अग्न आयाहि वीतये गृणानो हव्यदातये।
नि होता सत्सि बर्हिषि ।। -साम. पूर्वा. १ । १ ।।
मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः परावत आ जगन्था परस्याः।
सृकं संशाय पविमिन्द्र तिग्म वि शत्रून्ताढि वि मृधो नुदस्व ।।
भद्रं कर्णेभिः श्रृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैंगैस्तुष्टुवां सस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धाश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्ताक्ष्योअरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।।
-साम. उ. प्र. ९ । ३ । १-३।
अथर्ववेद-
ओं शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये।
शंयोरभिस्त्रवन्तु नः।। -अथर्व. १ । ६ । १ ।।
पनाय्यं तदश्विना कृतं वां वृषभो दिवो रजसः पृथिव्याः।
सहस्त्रं शंसा ऊतये गविष्टौ सर्वां इत् ताँ उपयाता पिबध्यै।।
-अथर्व. २० । १४३ । ९ ।।
पश्चात् यह मन्त्र पढ़ें-
सह नोऽवतु सह न इदं वीर्य्यवदस्तु।
ब्रह्मा इन्द्रस्तद्वेद येन यथा न विद्विषामहे।।
इस वेद मन्त्र को पढ़कर सामवेद का वामदेव्यगान करें।
वेद तथा श्रावणी गीतिका
वेद ही जग में हमारा ज्योति जीवनसार है।
वेद ही सर्वस्व प्यारा, पूज्य प्राणाधार है ।। टेक ।।
सत्यविद्या का विधाता, ज्ञान गुरुगण गेय है।
मानवों का मुक्तिदाता, धर्म धी का ध्येय है।।
वेद ही परमेश प्रभु का प्रेम पारावार है ।। १ ।।
ब्रह्म-कुल का देवता है, राजकुल रक्षक रहा।
वैश्य-वेश विभूषिता है, शूद्र-कुल स्वामी महा ।।
वेद ही वर्णाश्रमों का आदि है आधार है ।। २ ।।
श्रावणी का श्रेष्ठ उत्सव पुण्य पावन पर्व है।
वेदव्रत स्वाध्याय वैभव, आज ही सुख सर्व है।
वेदपाठी विप्रगण का दिव्य दिन दातार है।। ३ ।।
वेद का पाठन-पठन हो वेद-वाद विवाद हो।
वेद हित जीवन मरण हो वेद-हित आह्नाद हो।।
आर्यजन का आज से व्रत विश्व वेद-प्रचार है ।। ४ ।।
‘विश्व भर को आर्य करना’ वेद का संदेश है।
‘मृत्यु से किंचित् न डरना’ ईश का आदेश है।।
सृष्टि-सागर में हमारा, वेद ही पतवार है।। ५ ।।
रोज-रोज सरोज सम श्रुति सूर्य से खिलते रहें।
वेद-चन्द्र चकोर हम, द्युति मोद से मिलते रहें।।
वेद ही स्वामी सखा सब वेद ही परिवार है ।। ६ ।।
-वैदिक-धर्म विशारद, श्री सूर्यदेव शर्मा, एम. ए.