ओ३म्
सत्यार्थ प्रकाश कवितामृत
काव्यरचना : आर्य महाकवि पं. जयगोपाल जी
स्वर : ब्र. अरुणकुमार “आर्यवीर”
ध्वनिमुद्रण : श्री आशीष सक्सेना (स्वर दर्पण साऊंड स्टूडियो, जबलपुर)
द्वितीय समुल्लासः
अथ शिक्षां प्रवक्ष्यामः
मातृमान् पितृमानाचार्यवान् पुरुषो वेद। – शतपथ ब्राह्मण
दोहा
धन्य धन्य वह वंश है, अहो धन्य सन्तान।
गुरु जननी और जनक जिस, मिले ज्ञान की खान।।
चौपाई
प्रेममयी है मूरति माता,
भव भय भंजनि रंजनि त्राता।
गर्भहि ते यौवन पर्य्यन्ता,
दै शिक्षा दुःख सहे अनन्ता।
जननी सम कोई हितु न दूजा,
बड़े भाग्य जिन कीनी पूजा।
शील धर्म आचार सिखावे,
ऐसा गुरु कहाँ कोई पावे।
ऐसो कर्म मात पितु धारें,
संतति के जो चरित सुधारें।
गर्भ पूर्व मध्ये उपरन्ता,
तजे दूष्य भोजन तिय कन्ता।
रूखे सूखे गंधि सड़ाने,
त्यागे प्रतिभा नाशन खाने।
दोहा
रज दर्शन से चार दिन, तजे, न दे ऋतु दान।
पंचम लौं षोडश तिथि, गर्भाधान प्रमान।।
तेरस और एकादशी, दोउ तिथि त्यागन योग।
इन में धारण गर्भ का, जानहु बहुत अजोग।।
चौपाई
षोडश रात्रि के उपरन्ता,
तजें समागम कामिनी कन्ता।
मास मास इमि उचित समागम,
सुश्रुत चरक बखानें आगम।
गर्भ नारि यदि कर ले धारन,
एक वर्ष पुन भोग निवारन।
भोजन स्वादु स्वच्छ परिधाना,
गर्भवती सेवे सुख पाना।
राखे सदा प्रफुल्लित हिय को,
दुःखी न रखे सगर्भा तिय को।
बल बुद्धि वर्धक आहारा,
नियमाहार विहार आचारा।
या विधि उत्तम हो सन्ताना,
निरुज निरोगी अरु बलवाना।
जन्म लेय बालक जेहि छन को,
नीर सुगंधित धोवे तन को।
दोहा
प्रसव काल बहु कष्ट कर, मातु निबल हो जाय।
स्वच्छ स्वस्थ युवती कोई, दूध पिलावे धाय।।
चौपाई
स्तन पर माता लेप लगावे,
दुग्ध स्त्रवण जेहि ते रुक जावे।
एक मास इम बर्ते नारी,
द्वितीय मास पुन होय सुखारी।
जब बालक कछु लागे बोलन,
अमृत बैन कान मँह घोलन।
शुद्ध बोल जननी सिखलावे,
स्थान यत्न वर्णन बतरावै।
गुरु लघु मात्रा स्वर गंभीरा,
वाक्य योजना बोल सुधीरा।
गुरु जन का सिखलावे आदर,
नम्र शील अरु सभ्य सुसादर।
सत्संगति में रुचि बढ़ावे,
इन्द्रियजित विद्वान बनावे।
हर्ष शोक अरु लोभ लड़ाई,
रुदन हास्य मत करिये भाई।
भूल न परसे मर्दे शिश्ना,
या ते बढ़े विषय की तृष्णा।
होय नपुंसक वीरज छीना,
कर दुर्गन्धित दुर्बल दीना।
विद्या पंचम वर्ष पढ़ावे,
नागरी वर्णारम्भ करावे।
अन्य देश के वर्ण सिखाए,
एहि विधि सुत को योग्य बनाए।
गुरु पितु मातु भृत्य परिवारा,
यथा योग्य जाने व्यवहारा।
धर्म नीति व्यवहारिक छन्दा,
कण्ठ करे जिंह फँसे न फंदा।
इह विध शिक्षित होवे बाला,
तोड़ सके सब मिथ्या जाला।
भूत प्रेत मिथ्या सब जाने,
किसी धूर्त की बात न माने।
मृत प्राणी सब प्रेत कहावें,
दग्ध देह तक भूत बतावें।
दोहा
मनु शास्त्र में लिखित यह, है मिलता परमान।
प्रेत कहें मृत प्राणि को, भूत दग्ध को जान।।
श्लोक
गुरोः प्रेतस्य शिष्यस्तु पितृमेधं समाचरन्।
प्रेतहारैः समं तत्र दशरात्रेण शुद्ध्यति।। – मनु. अ. 5 श्लोक 65
चौपाई
प्रेतहार वह शिष्य कहावे,
जो मृत गुरु की अरथि उठावे।
जब शव जल कर होवे राखी,
भूत कहावे है मनु साखी।
मात पिता शिशुजन के पालक,
करें सचेत सभी निज बालक।
धूरत जन निज जाल फैलावें,
भूत प्रेत की कथा सुनावें।
डाकिन शाकिन रोगन जोगन,
भरम भूत से लूटहिं लोगन।
मूर्छा सन्निपांत परमादा,
अपस्मार अथवा उन्मादा।
तन अरु मन की है सब व्याधि,
भूत प्रेत की झूठ उपाधि।
भरम भूत रोगी को खावें,
ओझे लूटें चैन उड़ावें।
मूढ़ मनुज औषध नहीं सेवें,
धन संपति ओझे हर लेवें।
महा मूर्ख पाखंडी धूरत,
दुष्ट नीच स्वारथ की मूरत।
भंगी पतित मलेछ चमारा,
महा घिनौना पाप पसारा।
कहते आया भैरव वीरा,
कर में दंड पान मुख वीरा।
पवन पूत आये हनुमाना,
सवा मन का रोट चढ़ाना।
लोना सिर पर चढ़ी चमारी,
लेगी सीतला जान तुम्हारी।
ढोलक पीटें थाल बजावें,
तरह तरह के नाच नचावें।
धागे अरु डोरे बंधावें,
अंट संट बकवादी गावें।
सोरठा
लूट रहे दिन रात, धूरत कपटी दुष्ट जन।
होवहि कबहु प्रभात, अंधकार कब दूर हो।।
चौपाई
झाड़ फूँक और जंतर तंतर,
कभी न खाली जावे मंतर।
इतनी मद की बोतल लाओ,
इतने बकरे मुर्ग चढ़ाओ।
नकद नारायण भूषण गहने,
बाँधी गठड़ी कपड़े पहने।
दिन में लूटा ढोल बजाया,
कैसे मुर्गा जाल फँसाया।
भरम भूत की औषध नाहीं,
गिरो न अंधे कूए मांही।
जँह तँह झटकें फिरें अभागे,
भरम भूत है आगे आगे।
ऐसे रोगी चैन न पावें,
ज्योतिषियों के ढिग पुन जावें।
बैठे ज्योतिषि जी महाराजा,
वंचक महां ठगों के राजा।
कवित्त
भोला अंज्जान जाय पूछे किसी ज्योतिषी को,
कहिये महाराज क्या कारण मेरे रोग का।
रहता बीमार हूँ लाचार पैसे पैसे से,
मेरे घर डेरा क्यों पड़ा ऐसा सोग का।
जप दान पूजा करवाता बतलाता है,
क्रूर ग्रह आया तेरी मृत्यु के योग का।।
स्वयं ग्रह खोटा लूट लूट हुआ मोटा यह,
ढोंग क्या बनाया इसने अपने मोहन भोग का।।
शार्दूल विक्रीड़ित छन्द
भूमि जड़ है जिस प्रकार जग में, वैसे ही सूर्य्यादि हैं।
केवल ताप अरु है प्रकाश इन में, चेतनता कुछ भी नहीं।
क्यों कर यह पुन हर्ष क्रोध करते, देते सुख दुःख यातना।
फैलाया तुमने प्रपंच मिथ्या, रीति यह पाखण्ड की।
प्रश्न
कोई नरपति है सुखी जगत में, दुखिया मानव है कोई।
कोई दीन व्याधि ग्रस्त हीन दुर्बल, कोई शक्ति धर बली।
कितने मल मल हाथ चल बसे, देखी सुख की नहीं घड़ी।
ग्रह गोचर अनुसार चल रही, सृष्टि ज्योतिष सत्य है।
उत्तर
सुक्कृत अरु दुष्कृत्य कर्म करके, भागी सुख दुःख का बने।
रेखा बीज अरु अंक मात्र गणना, विद्या ज्योतिष तथ्य है।
लील्हा फल की झूठ झूठ अतिशय, मिथ्या पत्रा जन्म का।
क्रूर ग्रह दरसाय मात पितु को, ठगना अरु पर वंचना।
छप्पय
पुत्र जन्म का उत्सव है, सब ओर बधाई,
घर में मंगलचार नार मिल मंगल गाई।
होम यज्ञ और दान स्वजन में बंटे मिठाई,
जन्म पत्रिका ज्यौंही ब्राह्मण ने दर्साई।
खोटे ग्रह को देख कर, सब के मन व्याकुल हुए।
राख मिला दी खीर में, अपने लालच के लिए।।
छप्पय
पूजा लो करवाय चाँद चौथे ग्रह आया,
चाँदी सोना वस्त्र बहुत सा दान बताया।
बच जायगा बालक है अनुमान लगाया,
नहीं तो मृत्यु होगी बामन ने भरमाया।
मृत्यु हो गई बालक की, बोला यह अनुमान था।
दैव गति ऐसी रही, इस में कोई क्या करे।
सोरठा
मृत्यु पर कुछ बस नहीं, इस के ऐसे कर्म थे।
बचे तो डोंडी पीटते, देखी फुरना मंत्र की।।
चौपाई
इन को पैसा एक न देवे,
जो देवे तो दुगना लेवे।
यदि कर्मों का फल है ऐसा,
तुम काहे का लेते पैसा।
धागे डोरे प्राण बचावें,
इन के अपने क्यों मर जावें।
बालक को यह ज्ञान कराना,
अंध कूप से उसे बचाना।
दोहा
मारण मोहन वशीकरण, सब मिथ्या विश्वास।
चेटी और रसायनी, करें देश का नास।।
चौपाई
बालक को सन्मार्ग लगावें,
ब्रह्मचर्य उपदेश सुनावें।
वीर्यवान तेजस्वी बालक,
हो बलिष्ठ शत्रुन को घालक।।
वीरज रक्षण की शुभ रीति,
विषय भोग में करहिं न प्रीति।
करे न संगति विषयी जन की,
रखें शुद्ध वृत्ति निज मन की।
दूर दूर विषयों से भागे,
नारी दर्शन पर्सन त्यागे।।
विद्या बल और वीर्य बढ़ाए,
समय अमोलक हाथ न आए।
मात पिता का यह शुभ धर्मा,
दे शिशु को शिक्षा सत्कर्मा।
मातृमान और पितृमाना,
शतपथ ब्राह्मण एहि विधि माना।
दोहा
एक वर्ष ते पाँच तक, जननी ही गुरु जान।
आठ वर्ष तक जनक पुन, रखे शिशु का ध्यान।।
चौपाई
नवमें वर्ष धार उपवीता,
गुरुकुल माँहि निवास पुनीता।
बालक कन्या दोऊ पढ़ावें,
इह विधि सन्तति सभ्य बनावें।
पठन काल मँह त्यागे लाड़न,
दोष होय तो चाहिये ताड़न।
महाभाष्य का वचन प्रमाना,
पात०जलि अस ग्रन्थ बखाना।
ताड़न सों जो बाल पढ़ावें,
अमृत निज कर ताहि पिलावें।
लालन जानहु विष कर पाना,
लालन से बिगरे सन्ताना।
लालन विष सम है भयकारी,
औषध सम ताड़न गुणकारी।
भय नयनन में करुणा मन में,
ऐसा भाव रखे शिष्यन में।
श्लोक
सामृतैः पाणिभिर्घ्रन्ति गुरवो न विषोक्षितैः।
लालनाश्रयिणो दोषास्ताडनाश्रयिणो गुणाः।। – महाभाष्य । 8 । 1 । 8
दोहा
चोरी जारी झूठ अरु, मद पानादिक पाप।
सिख दे इन के त्याग की, यह जीवन के ताप।।
चौपाई
एक बार प्रगटे जब चोरी,
साख न उस की रहे बहोरी।
वचन देय जो करे निरासा,
रहे न जग में तस विश्वासा।
कर परतिज्ञा सत्य निभावन,
सो नर यश भाजन मन पावन।
पतित करे नर को अभिमाना,
मान त्याग पावे नर माना।
कृतघन कपटी स्वारथ साधक,
निज अपराधक परहित बाधक।
कथन और मन औरहि भावा,
हिय में गरल अधर सरसावा।
यह लक्षण कपटि के कहिये,
ऐसे नर से दूरहि रहिये।
कटुता क्रोध छोड़ हस बोले,
पीछे बोले पहिले तोले।
दोहा
गुरु जन का आदर करे, दे उच्चासन मान।
कहे नमस्ते जोर कर, बैठे नीचे स्थान।।
चौपाई
मित भाषण मृदु श्रवणन मीठे,
बोले वचन सुमधुर बसीठे।
सभा माँझ बैठे अस ठामा,
जो निज योग्य होय अभिरामा।
जँह ते बहुरि न कोई उठावे,
वक्ता वचन सहज सुन पावे।
गुण करि ग्रहण दोष कर त्यागे,
सज्जन संग कुसंग न लागे।
माता पिता गुरु जान समाना,
सब की सेवा करे सुजाना।
गुरु जन कहें सुनहु हे बालक,
सद्गुण सदा रहो तुम पालक।
जो दुर्गुण तुम लखहु हमारे,
उन को त्यागो रहो नियारे।
तैत्तिरीय यह वचन बखाना,
दुर्गुण त्याग गहे सद् ज्ञाना।
श्लोक
यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि नो इतराणि।। – तैत्ति0 प्र0 7 अनु0 11
चौपाई
सदा सत्य का करे प्रकाशा,
तजे पखण्डिन का विश्वासा।
गुरु बतलावें जो शुभ कर्मा,
वही कर्म साधन हित धर्मा।
कण्ठ करावें दर्शन वेदा,
अर्थ सहित सब जाने भेदा।
यास्क पंतजलि पाणिनि ग्रन्थन,
ऋषि प्रणीत ग्रन्थों का मंथन।
समुल्लास पहले अनुसारा,
ईश्वर माने जगदाधारा।
बल विद्या आरोग्य बढ़ावन,
भोजन छादन कर मन भावन।
पूर पेट भोजन मत खावे,
मद्य माँस के निकट न जावे।
गहन जलाशय जल गंभीरे,
बिन जाने पैठे मत नीरे।
दोहा
गहरे जल पैठे नहीं, जब तक होय न ज्ञान।
डूबे जल जन्तु भखें, कहें मनु भगवान।।
सँभल सँभल पग धर मग मीता,
वस्त्र छान जल पिये पुनीता।।
सत्य पुनीता वाणी बोले,
कर्म करे मन पहले तोले।
श्लोक
दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत्।
सत्यपूतां वदेद्वाचं मनः पूतं समाचरेत्।। – मनु0 6 । 46
चौपाई
सन्तानहिं विद्या न पढ़ावें,
सन्तति के वे शत्रु कहावें।
ज्ञान हीन नर मूढ़ समाना,
सभा माँहि पावे अपमाना।
हँसों में बक सोहे नाहीं,
मूरख नर त्यों पण्डित माँहीं।
श्लोक
माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः।
सभामध्ये न शोभन्ते, हंसमध्ये बको यथा।। – चाणक्यनीति अ0 22 श्लोक 11
चौपाई
मात-पिता जो कीरति चाहें,
तो बालक को योग्य बनावें।
तन मन धन सब शक्ति लगावें,
कीरति अटल जगत मह पावें।
इति श्री आर्य महाकवि जयगोपाल विरचिते सत्यार्थ प्रकाश
कवितामृते द्वितीयः समुल्लासः समाप्तः।