अथ ऋत्विग्वरणम्
यजमानोक्तिः :- ओम् आवसो सदने सीद।
ऋत्विगुक्तिः :- ओं सीदामि।
यजमानोक्तिः :- ओं तत्सत् श्रीब्रह्मणो द्वितीयप्रहरोत्तरार्द्धे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमें कलियुगे कलिप्रथम- चरणेऽमुक….. संवत्सरे, …..अयने, …..ऋतौ, …..मासे, …..पक्षे, …..तिथौ, …..दिवसे, …..लग्ने, …..मुहुर्ते जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तदेशान्तर्गते …..प्रान्ते, …..जनपदे, …..मण्डले, …..ग्रामे/नगरे, …..आवासे/भवने अहम् …..कर्मकरणाय भवन्तं वृणे।
ऋत्विगुक्तिः :- वृतोऽस्मि।
अथाचमन-मन्त्राः
ओम् अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।। १।। इससे एक
ओम् अमृतापिधानमसि स्वाहा।। २।। इससे दूसरा
ओ३म् सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा।। ३।। (तैत्तिरीय आरण्यक प्र. १०/अनु. ३२, ३५) इससे तीसरा आचमन करके तत्पश्चात् जल लेकर नीचे लिखे मन्त्रों से अंगों को स्पर्श करें।
अथ अङ्गस्पर्श-मन्त्राः
ओं वाङ्म आस्ये ऽ स्तु। इस मन्त्र से मुख
ओं नसोर्मे प्राणो ऽ स्तु। इस मन्त्र से नासिका के दोनों छिद्र
ओं अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु। इस मन्त्र से दोनों आंख
ओं कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु। इस मन्त्र से दोनों कान
ओं बाह्वोर्मे बलमस्तु। इस मन्त्र से दोनों बाहु
ओम् ऊर्वोर्म ओजो ऽ स्तु। इस मन्त्र से दोनों जंघा
ओम् अरिष्टानि मे ऽ ङ्गानि तनूस्तन्वा मे सह सन्तु। इस मन्त्र से दाहिने हाथ से जल स्पर्श करके मार्जन करना। (पारस्कर गृ.का.२/क.३/सू.२५)
अथ-ईश्वर-स्तुति-प्रार्थनोपासनामन्त्राः
ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।
यद् भद्रन्तन्न ऽ आसुव।। १।। (यजु अ.३०/मं.३)
हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके हमारे सम्पूर्ण दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए; जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं वह सब हमको प्राप्त कीजिए।
सकल जगत के उत्पादक हे, हे सुखदायक शुद्ध स्वरूप।
हे समग्र ऐश्वर्ययुक्त हे, परमेश्वर हे अगम अनूप।।
दुर्गुण-दुरित हमारे सारे, शीघ्र कीजिए हमसे दूर।
मंगलमय गुण-कर्म-शील से, करिए प्रभु हमको भरपूर।।
हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक ऽ आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।। २।। (यजु.अ.१३/मं.४)
जो स्वप्रकाश स्वरूप और जिसने प्रकाश करनेहारे सूर्य चन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किए हैं। जो उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का प्रसिद्ध स्वामी एक ही चेतन स्वरूप था। जो सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्व वर्तमान था। सो इस भूमि और सूर्यादि का धारण कर रहा है। हम लोग उस सुखस्वरूप शुद्ध परमात्मा के लिए ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अतिप्रेम से विशेष भक्ति किया करें।
छिपे हुए थे जिसके भीतर, नभ में तेजोमय दिनमान।
एक मात्र स्वामी भूतों का, सुप्रसिद्ध चिद्रूप महान्।।
धारण वह ही किए धरा को, सूर्यलोक का भी आधार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।
य ऽ आत्मदा बलदा यस्य विश्व ऽ उपासते प्रशिषं यस्य देवाः।
यस्य छाया ऽ मृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। ३।। (यजु.२५/१३)
जो आत्मज्ञान का दाता, शरीर, आत्मा और समाज के बल का देनेहारा है। जिसकी सब विद्वान लोग उपासना करते हैं। जिसके प्रत्यक्ष सत्यस्वरूप शासन, न्याय अर्थात् शिक्षा को मानते हैं। जिसका आश्रय ही मोक्ष सुखदायक है। जिसका न मानना अर्थात् भक्ति इत्यादि न करना ही मृत्यु आदि दुःख का हेतु है। हम लोग उस सुखस्वरूप, सकल ज्ञान के देनेहारे परमात्मा की प्राप्ति के लिए आत्मा और अन्तःकरण से भक्ति अर्थात् उसी की आज्ञा पालन करने में तत्पर रहें।
आत्मज्ञान का दाता है जो, करता हमको शक्ति प्रदान।
विद्वद्वर्ग सदा करता है, जिसके शासन का सम्मान।।
जिसकी छाया सुखद सुशीतल, दूरी है दुःख का भंडार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।
यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक ऽ इद्राजा जगतो बभूव।
य ऽ ईशे ऽ अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। ४।। (ऋ. १०/१२१/३)
जो प्राणवाले और अप्राणिरूप जगत् का अपनी अनन्त महिमा से एक ही विराजमान राजा है। जो इस मनुष्यादि और गौ आदि प्राणियों के शरीर की रचना करता है। हम लोग उस सुखस्वरूप सकल ऐश्वर्य के देनेहारे परमात्मा की उपासना अर्थात् अपनी सकल उत्तम सामग्री को उसकी आज्ञापालन में समर्पित करके उसकी विशेष भक्ति करें।
जो अनन्त महिमा से अपनी, जड़-जंगम का है अधिराज।
रचित और शासित हैं जिससे, जगतिभर का जीव समाज।।
जिसके बल विक्रम का यश का, कण-कण करता जयजयकार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।
येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढ़ा येन स्वः स्तभितं येन नाकः।
यो ऽ न्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। ५।। (यजु.अ.३२/मं.६)
जिस परमात्मा ने तीक्ष्ण स्वभाव वाले सूर्य आदि और भूमि को धारण किया है, जिस जगदीश्वर ने सुख को धारण किया है और जिस ईश्वर ने दुःख रहित मोक्ष को धारण किया है। जो आकाश में सब लोक-लोकान्तरों को विशेष मानयुक्त अर्थात् जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं वैसे सब लोकों निर्माण करता और भ्रमण कराता है, हम लोग उस सुखदायक कामना करने के योग्य परब्रह्म की प्राप्ति के लिए सब सामर्थ्य से विशेष भक्ति करें।
किया हुआ है धारण जिसने, नभ में तेजोमय दिनमान।
परमशक्तिमय जो प्रभु करता, वसुधा को अवलम्ब प्रदान।।
सुखद मुक्तिधारक लोकों का, अन्तरिक्ष में सिरजनहार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।
प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव।
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्।। ६।। (ऋ.म.१०/सू.१२१/मं.१०)
हे सब प्रजा के स्वामी परमात्मा आप से भिन्न दूसरा कोई उन इन सब उत्पन्न हुए जड़-चेतनादिकों को नहीं तिरस्कार करता है, अर्थात् आप सर्वोपरी हैं। जिस-जिस पदार्थ की कामनावाले हम लोग आपका आश्रय लेवें और वांच्छा करें, वह कामना हमारी सिद्ध होवे, जिससे हम लोग धनैश्वर्यों के स्वामी होवें।
जड़ चेतन जगति के स्वामी, हे प्रभु तुमसा और नहीं।
जहां समाए हुए न हो तुम, ऐसा कोई ठौर नहीं।।
जिन पावन इच्छाओं को ले, शरण आपकी हम आएं।
पूरी होवें सफल सदा हम, विद्या-धन-वैभव पाएं।।
स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।
यत्र देवा ऽ अमृतमानशाना- स्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त।। ७।। (यजु.अ.३२/मं.१०)
हे मनुष्यों वह परमात्मा अपने लोगों का भ्राता के समान सुखदायक, सकल जगत् का उत्पादक, वह सब कामों का पूर्ण करनेहारा, सम्पूर्ण लोकमात्र और नाम-स्थान-जन्मों को जानता है। जिस सांसारिक सुख-दुःख से रहित नित्यानन्दयुक्त मोक्षस्वरूप धारण करनेहारे परमात्मा में मोक्ष को प्राप्त होके विद्वान् लोग स्वेच्छापूर्व्रक विचरते हैं वही परमात्मा अपना गुरु, आचार्य, राजा और न्यायाधीश है। अपने लोग मिलके सदा उसकी भक्ति किया करें।
भ्राता तुल्य सुखद् वह ही प्रभु, सकल जगत् का जीवन प्राण।
मानव के सब यत्न उसी की, करुणा से होते फलवान।।
सदानन्दमय धाम तीसरा, सुख-दुःख के द्वन्द्वों से दूर।
करके प्राप्त उसे ज्ञानी जन, आनन्दित रहते भरपूर।।
अग्ने नय सुपथा राये ऽ अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम ऽ उक्तिं विधेम।। ८।। (यजु.अ.४०/मं.१६)
हे स्वप्रकाश, ज्ञानस्वरूप, सब जगत् के प्रकाश करनेहारे सकल सुखदाता परमेश्वर ! आप जिससे सम्पूर्ण विद्यायुक्त हैं, कृपा करके हम लोगों को विज्ञान वा राज्यादि ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए अच्छे धर्मयुक्त आप्त लोगों के मार्ग से सम्पूर्ण प्रज्ञान और उत्तम कर्म प्राप्त कराइये और हमसे कुटिलतायुक्त पापरूप कर्म को दूर कीजिए। इस कारण हम लोग आपकी बहुत प्रकार से नम्रतापूर्वक स्तुति सदा किया करें और आनन्द में रहें।
स्वयं प्रकाशित ज्ञानरूप हे ! सर्वविद्य हे दयानिधान।
धर्ममार्ग से प्राप्त कराएं, हमें आप ऐश्वर्य महान्।।
पापकर्म कौटिल्य आदि से, रहें दूर हम हे जगदीश।
अर्पित करते नमन आपको, बारंबार झुकाकर शीश।।
अथ स्वस्तिवाचनम्
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्।
होतारं रत्नधातमम्।। १।। (ऋ.१/१/१)
स नः पितेव सूनवेऽग्ने सूपायनो भव।
सचस्वा नः स्वस्तये।। २।। (ऋ.१/१/९)
स्वस्ति नो मिमीतामश्विना भगः स्वस्ति देव्यदितिरनर्वणः।
स्वस्ति पूषा असुरो दधातु नः स्वस्ति द्यावापृथिवी सुचेतुना।।३।। (ऋ.५/५१/११)
स्वस्तये वायुमुप ब्रवामहै सोमं स्वस्ति भुवनस्य यस्पतिः।
बृहस्पतिं सर्वगणं स्वस्तये स्वस्तय आदित्यासो भवन्तु नः।। ४।। (ऋ.५/५१/१२)
विश्वे देवा नो अद्या स्वस्तये वैश्वानरो वसुरग्निः स्वस्तये।
देवा अवन्त्वृभवः स्वस्तये स्वस्ति नो रुद्रः पात्वंहसः।। ५।। (ऋ.५/५१/१३)
स्वस्ति मित्रावरुणा स्वस्ति पथ्ये रेवति।
स्वस्ति न इन्द्रश्चाग्निश्च स्वस्ति नो अदिते कृधि।। ६।। (ऋ.५/५१/१४)
स्वस्ति पन्थामनु चरेम सूर्याचन्द्रमसाविव। पुनर्ददताघ्नता जानता सं गमेमहि।। ७।।
(ऋ.५/५१/१५)
ये देवानां यज्ञिया यज्ञियानां मनोर्यजत्रा अमृता ऋतज्ञाः।
ते नो रासन्तामुरुगायमद्य यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः।। ८।। (ऋ.७/३५/१५)
येभ्यो माता मधुमत्पिन्वते पयः पीयूषं द्यौ- रदितिरद्रिबर्हाः।
उक्थशुष्मान् वृषभरान्त्स्वप्नसस्ताँ आदित्याँ अनुमदा स्वस्तये।। ९।। (ऋ.१०/६३/३)
नृचक्षसो अनिमिषन्तो अर्हणा बृहद्देवासो अमृतत्वमानशुः।
ज्योतीरथा अहिमाया अनागसो दिवो वर्ष्माणं वसते स्वस्तये।। १०।।
(ऋ.१०/६३/४)
सम्राजो ये सुवृधो यज्ञमाययुरपरिह्वृता दधिरे दिवि क्षयम्।
ताँ आ विवास नमसा सुवृक्तिभिर्महो आदित्याँ अदितिं स्वस्तये।। ११।। (ऋ.१०/६३/५)
को वः स्तोमं राधति यं जुजोषथ विश्वे देवासो मनुषो यति ष्ठन।
को वोऽध्वरं तुविजाता अरं करद्यो नः पर्षदत्यंहः स्वस्तये।। १२।।
(ऋ.१०/६३/६)
येभ्यो होत्रां प्रथमामायेजे मनुः समिद्धाग्निर्मनसा सप्त होतृभिः।
त आदित्या अभयं शर्म यच्छत सुगा नः कर्त सुपथा स्वस्तये।। १३।। (ऋ.१०/६३/७)
य ईशिरे भुवनस्य प्रचेतसो विश्वस्य स्थातुर्जगतश्च मन्तवः।
ते नः कृतादकृतादेनसस्पर्यद्या देवासः पिपृता स्वस्तये।।
।। १४।। (ऋ.१०/६३/८)
भरेष्विन्द्रं सुहवं हवामहेंऽहोमुचं सुकृतं दैव्यं जनम्।
अग्निं मित्रं वरुणं सातये भगं द्यावापृथिवी मरुतः स्वस्तये।। १५।। (ऋ.१०/६३/९)
सुत्रामाणं पृथिवीं द्यामनेहसं सुशर्माणमदितिं सुप्रणीतिम्।
दैवीं नावं स्वरित्रामनागसमस्रवन्तीमा रुहेमा स्वस्तये।। १६।। (ऋ.१०/६३/१०)
विश्वे यजत्रा अधि वोचतोतये त्रायध्वं नो दुरेवाया अभिह्रुतः।
सत्यया वो देवहूत्या हुवेम शृण्वतो देवा अवसे स्वस्तये।। १७।। (ऋ.१०/६३/११)
अपामीवामप विश्वामनाहुतिमपारातिं दुर्विदत्रा- मघायतः।
आरे देवा द्वेषो अस्मद्युयोतनोरु णः शर्म यच्छता स्वस्तये।। १८।। (ऋ.१०/६३/१२)
अरिष्टः स मर्तो विश्व एधते प्र प्रजाभिर्जायते धर्मणस्परि।
यमादित्यासो नयथा सुनीतिभिरति विश्वानि दुरिता स्वस्तये।। १९।। (ऋ.१०/६३/१३)
यं देवासोऽवथ वाजसातौ यं शूरसाता मरुतो हिते धने।
प्रातर्यावाणं रथमिन्द्र सानसिमरिष्यन्तमा रुहेमा स्वस्तये।। २०।। (ऋ.१०/६३/१४)
स्वस्ति नः पथ्यासु धन्वसु स्वस्त्यप्सु वृजने स्वर्वति।
स्वस्ति नः पुत्रकृथेषु योनिषु स्वस्ति राये मरुतो दधातन।। २१।। (ऋ.१०/६३/१५)
स्वस्तिरिद्धि प्रपथे श्रेष्ठा रेक्णस्वत्यभि या वाममेति।
सा नो अमा सो अरणे नि पातु स्वावेशा भवतु देवगोपा।। २२।। (ऋ.१०/६३/१६)
इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणऽआप्यायध्वमघ्न्या इन्द्राय भागं प्रजावतीरनमीवाऽअयक्ष्मा मा व स्तेनऽईशत माघश सो ध्रुवाऽअस्मिन् गोपतौ स्यात बह्वीर्यजमानस्य पशून् पाहि।। २३।। (यजु.१/१)
आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो- ऽ अपरीतासऽउद्भिदः।
देवा नो यथा सदमिद् वृधेऽअसन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवेदिवे।। २४।।
(यजु.२५/१४)
देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवाना द्भञ रातिरभि नो निवर्त्तताम्।
देवाना द्भञ सख्यमुपसेदिमा वयं देवा न आयुः प्रतिरन्तु जीवसे ।।२५।।
(यजु.२५/१५)
तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियञ्जिन्वमवसे हूमहे वयम्।
पूषा नो यथा वेदसामसद् वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये।। २६।। (यजु.२५/१८)
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो ऽ अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।। २७।। (यजु.२५/१९)
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवा द्भञ सस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः।। २८।। (यजु.२५/२१)
अग्न आ याहि वीतये गृणानो हव्यदातये।
नि होता सत्सि बर्हिषि।। २९।। (सा.पू.१/१/१)
त्वमग्ने यज्ञाना द्भञ होता विश्वेषा द्भञ हितः।
देवेभिर्मानुषे जने।। ३०।। (सा.पू.१/१/२)
ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभ्रतः।
वाचस्पतिर्बला तेषां तन्वोऽअद्य दधातु मे।। ३१।। (अथर्व.१/१/१)
अथ शान्तिकरणम्
शं न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शं न इन्द्रावरुणा रातहव्या।
शमिन्द्रासोमा सुविताय शं योः शं न इन्द्रापूषणा वाजसातौ।। १।। (ऋ.७/३५/१)
शं नो भगः शमु नः शंसो अस्तु शं नः पुरन्धिः शमु सन्तु रायः।
शं नः सत्यस्य सुयमस्य शंसः शं नो अर्यमा पुरुजातो अस्तु।। २।। (ऋ.७/३५/२)
शं नो धाता शमु धर्ता नो अस्तु शं न उरूची भवतु स्वधाभिः।
शं रोदसी बृहती शं नो अद्रिः शं नो देवानां सुहवानि सन्तु।। ३।। (ऋ.७/३५/३)
शं नो अग्निर्ज्योतिरनीको अस्तु शं नो मित्रावरुणावश्विना शम्।
शं नः सुकृतां सुकृतानि सन्तु शं न इषिरो अभि वातु वातः।। ४।। (ऋ.७/३५/४)
शं नो द्यावापृथिवी पूर्वहूतौ शमन्तरिक्षं दृशये नो अस्तु।
शं न ओषधीर्वनिनो भवन्तु शं नो रजसस्पतिरस्तु जिष्णुः।। ५।। (ऋ.७/३५/५)
शं न इन्द्रो वसुभिर्देवो अस्तु शमादित्येभिर्वरुणः सुशंसः।
शं नो रुद्रो रुद्रेभिर्जलाषः शं नस्त्वष्टा- ग्नाभिरिह शृणोतु।। ६।। (ऋ.७/३५/६)
शं नः सोमो भवतु ब्रह्म शं नः शं नो ग्रावाणः शमु सन्तु यज्ञाः।
शं नः स्वरूणां मितयो भवन्तु शं नः प्रस्वः शम्वस्तु
वेदिः।। ७।। (ऋ.७/३५/७)
शं नः सूर्य उरुचक्षा उदेतु शं नश्चस्रः प्रदिशो भवन्तु।
शं नः पर्वता ध्रुवयो भवन्तु शं नः सिन्धवः शमु सन्त्वापः।। ८।। (ऋ.७/३५/८)
शं नो अदितिर्भवतु व्रतेभिः शं नो भवन्तु मरुतः स्वर्काः।
शं नो विष्णुः शमु पूषा नो अस्तु शं नो भवित्रं शम्वस्तु वायुः।। ९।।
(ऋ.७/३५/९)
शं नो देवः सविता त्रायमाणः शं नो भवन्तूषसो विभातीः
शं नः पर्जन्यो भवतु प्रजाभ्यः शं नः क्षेत्रस्य पतिरस्तु शम्भुः।। १०।। (ऋ.७/३५/१०)
शं नो देवा विश्वदेवा भवन्तु शं सरस्वती सह धीभिरस्तु।
शमभिषाचः शमुरातिषाचः शं नो दिव्याः पार्थिवाः शं नो अप्याः।। ११।।
(ऋ.७/३५/११)
शं नः सत्यस्य पतयो भवन्तु शं नो अर्वन्तः शमु सन्तु गावः।
शं नः ऋभवः सुकृतः सुहस्ताः शं नो भवन्तु पितरो हवेषु।। १२।।
(ऋ.७/३५/१२)
शं नो अज एकपाद्देवो अस्तु शं नोऽहिर्बुध्न्यः शं समुद्रः।
शं नो अपां नपात्पेरुरस्तु शं नः पृश्निर्भवतु देवगोपाः।। १३।। (ऋ.७/३५/१३)
इन्द्रो विश्वस्य राजति। शन्नोऽअस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे।। १४।। (यजु.३६/८)
शन्नो वातः पवता द्भञ शन्नस्तपतु सूर्य्यः।
शन्नः कनिक्रदद्देवः पर्जन्योऽअभि वर्षतु।। १५।। (यजु.३६/१०)
अहानि शम्भवन्तु नः श रात्रीः प्रति धीयताम्।
शन्न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शन्न इन्द्रावरुणा रातहव्या।
शन्न इन्द्रापूषणा वाजसातौ शमिन्द्रासोमा सुविताय शंयोः।। १६।। (यजु.३६/११)
शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये।
शंयोरभि स्रवन्तु नः।। १७।। (यजु.३६/१२)
द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि।। १८।। (यजु.३६/१७)
तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्।
पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शत शृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतम्भूयश्च शरदः शतात्।। १९।। (यजु.३६/२४)
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति।
दूरग्मं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।। २०।। (यजु.३४/१)
येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः।
यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२१।। (यजु.३४/२)
यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु।
यस्मान्नऽऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।। २२।। (यजु.३४/३)
येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत्परिगृहीतममृतेन सर्वम्।
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२३।। (यजु.३४/४)
यस्मिन्नृचः साम यजू द्भञ षि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः।
यस्मिँश्चित्त सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२४।। (यजु.३४/५)
सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिनऽइव।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२५।।
(यजु.३४/६)
स नः पवस्व शं गवे शं जनाय शमर्वते।
श द्भञ राजन्नोषधीभ्यः।। २६।। (साम.उ.१/१/३)
अभयं नः करत्यन्तरिक्षमभयं द्यावापृथिवी उभे इमे।
अभयं पश्चादभयं पुरस्तादुत्तरादधरा- दभयं नो अस्तु।।२७।। (अथर्व.१९/१५/५)
अभयं मित्रादभयममित्रादभयं ज्ञातादभयं परोक्षात्।
अभयं नक्तमभयं दिवा नः सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु।।२८।। (अथर्व.१९/१५/६)
अग्न्याधानम्
ओं भूर्भुवः स्वः। (गोभिल.गृ.प.१/खं.१/सू.११)
ओं भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा। तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठे ऽ ग्निमन्ना दमन्नाद्यायादधे।। (यजृ.अ.३/मं.५)
ओम् उद् बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते स ँ् सृजेथामय९च। अस्मिन्त्सधस्थे ऽ अध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्चसीदत।। (यजु. १५/५४)
समिदाधानम्
ओम् अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्द्धस्व चेद्ध वर्द्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसे नान्नाद्येन समेधय स्वाहा। इदमग्नये जातवेदसे – इदन्न मम।। १।।
(आश्वलायन गृ.सू. १/१०/१२) इस मन्त्र से घृत में डुबोकर पहली..
ओं समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम्।
आस्मिन् हव्या जुहोतन स्वाहा।।
इदमग्नये – इदन्न मम।। २।। (यजु. ३/१)
इससे और..
सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन।
अग्नये जातवेदसे स्वाहा।। इदमग्नये जातवेदसे – इदन्न मम।। ३।। (यजु.३/२)
इस मन्त्र से अर्थात् दोनों मन्त्रों से दूसरी और..
तं त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्द्धयामसि।
बृहच्छोचा यविष्ठ्या स्वाहा।। इदमग्नये ऽ ङ्गिरसे – इदन्न मम।। ४।। (यजु. ३/३)
इस मन्त्र से तीसरी समिधा समर्पित करें। उक्त मन्त्रों से समिधाधान करके नीचे लिखे मन्त्र को पांच बार पढ़कर पांच घृताहुतियां दें।
प९चघृताहुतिमन्त्रः
ओम् अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्द्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्बह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा। इदग्नये जातवेदसे – इदन्न मम।। (आश्व.गृ.सू. १/१०/१२)
जलसि९चनमन्त्राः
ओम् अदिते ऽ नुमन्यस्व।। १।। इससे पूर्व में
ओम् अनुमते ऽ नुमन्यस्व।। २।। इससे पश्चिम में
ओम् सरस्वत्यनुमन्यस्व।। ३।। इससे उत्तर दिशा में
ओं देव सवितः प्र सुव यज्ञं प्र सुव यज्ञपतिं भगाय। दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु।। ४।। (यजु.३०/१)
इस मन्त्रपाठ से वेदी के चारों ओर जल छिड़काएं।
आघारावाज्यभागाहुतिमन्त्राः
ओम् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये – इदन्न मम।। १।।
इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग अग्नि में
ओं सोमाय स्वाहा। इदं सोमाय – इदन्न मम।। २।। (गो.गृ.प्र.१/खं.८/सू.२४)
इससे दक्षिण भाग अग्नि में
ओं प्रजापतये स्वाहा। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। ३।। (यजु. २२ / ३२)
ओम् इन्द्राय स्वाहा। इदमिन्द्राय – इदन्न मम।। ४।। (यजु.२२/२७)
इन दोनों मन्त्रों से वेदी के मध्य में दो आहुतियां दें। उक्त चार घृत आहुतियां देकर नीचे लिखे चार मन्त्रों से प्रातःकाल अग्निहोत्र करें।
प्रातःकालीन-आहुतिमन्त्राः
ओं सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः स्वाहा।। १।।
ओं सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा।। २।।
ओं ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा।। ३।।
(यजु. ३/९)
ओं सजूर्देवेन सवित्रा सजूरुषसेन्द्रवत्या।
जुषाणः सूर्यो वेतु स्वाहा ।। ४।। (यजु. ३/१०)
अब नीचे लिखे मन्त्रों से प्रातः सांय दोनों समय आहुतियां दें।
प्रातः सांयकालीनमन्त्राः
ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा। इदमग्नये प्राणाय – इदन्न मम।। १।। (गोभिगृह्यसूत्र०प्र.१/खं.३/यू. १-३)
ओं भुवर्वायवे ऽ पानाय स्वाहा।
इदं वायवे ऽ पानाय – इदन्न मम ।। २।।
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।
इदमादित्याय व्यानाय – इदन्न मम।। ३।।
ओं भूर्भुवः स्वरग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा। इदमग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः इदन्न मम।। ४।। (तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनैकीकृता ऋ.भा.भू. पंचमहा.)
ओम् आपो ज्योतीरसो ऽ मृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा।। ५।। (तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनरचितः प९चमहायज्ञ.)
ओं यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते। तया मामद्य मेधया ऽ ग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा।। ६।। (यजु.३२/१४)
ओं विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।
यद्भद्रन्तन्न ऽ आसुव स्वाहा।। ७।। (यजु.३०/३)
ओम् अग्ने नय सुपथा राये ऽ अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्। युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम ऽ उक्तिं विधेम स्वाहा।। ८।।
(यजु.४०/१६)
सायंकालीन-आहुतिमन्त्राः
ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा।। १।।
ओम् अग्निर्वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा।। २।।
ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा।। ३।।
(यजु. ३/९ के अनुसार)
इस मन्त्र को मन में बोल कर आहुति दें।
ओं सजूर्देवेन सवित्रा सजू रात्र्येन्द्रवत्या।
जुषाणो ऽ अग्निर्वेतु स्वाहा।। ४।। (यजु.३/९, १०)
ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा।। १।।
(गोभिगृह्यसूत्र०प्र.१/खं.३/यू. १-३)
ओं भुवर्वायवे ऽ पानाय स्वाहा।। २।।
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।। ३।।
ओं भूर्भुवः स्वरग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा।
(तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनैकीकृता ऋ.भा.भू. पंचमहा.)
ओम् आपो ज्योतीरसो ऽ मृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा।। ५।। (तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनरचितः प९चमहायज्ञ.)
ओ३म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।। (यजु.३६/३)
इस मन्त्र से तीन आहुतियां दें।
पूर्णाहुति-प्रकरणम्
आघारावाज्यभागाहुतिमन्त्राः
ओम् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये – इदन्न मम।। १।।
इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग अग्नि में
ओं सोमाय स्वाहा।
इदं सोमाय – इदन्न मम।। २।।
(गो.गृ.प्र.१/खं.८/सू.२४)
इससे दक्षिण भाग अग्नि में
ओं प्रजापतये स्वाहा। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। ३।। (यजु. २२ / ३२)
ओम् इन्द्राय स्वाहा। इदमिन्द्राय – इदन्न मम।। ४।।
इन दो मन्त्रों से वेदी के मध्य में आहुति देनी, उसके पश्चात् उसी घृतपात्र में से स्रुवा को भरके प्रज्वलित समिधाओं पर व्याहृति की निम्न चार आहुतियाँ देवे।
व्याहृत्याहुतिमन्त्राः
ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा।
इदमग्नये प्राणाय – इदन्न मम।। १।।
ओं भुवर्वायवे ऽ पानाय स्वाहा।
इदं वायवे ऽ पानाय – इदन्न मम ।। २।।
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।
इदमादित्याय व्यानाय – इदन्न मम।। ३।।
निम्न मन्त्र से स्विष्टकृत् होमाहुति भात की अथवा घृत की देवें।
यदस्य कर्मणोऽत्यरीरिचं यद्वा न्यूनमिहाकरम्।
अग्निष्टत् स्विष्टकृद् विद्यात् सर्वं स्विष्टं सुहुतं करोतु मे।
अग्नये स्विष्टकृते सुहुतहुते सर्वप्रायश्चित्ताहुतीनां कामानां समर्द्धयित्रे सर्वान्नः कामान्त्समर्द्धय स्वाहा।।
इदमग्नये स्विष्टकृते – इदन्न मम।। १।। (आश्व.१/१०/२२)
ओं प्रजापतये स्वाहा।। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। २।।
(यजु.१८/२२) इस प्राजापत्याहुति को मन में बोलकर देनी चाहिए।
आज्याहुतिमन्त्राः (पवमानाहुतयः)
ओं भूर्भुवः स्वः। अग्न आयूंषि पवस आ सुवोर्जमिषं च नः।
आरे बाधस्व दुच्छुनां स्वाहा।। इदमग्नये पवमानाय – इदन्न मम।। ३।। (ऋ.९/६६/१९)
ओं भूर्भुवः स्वः। अग्निर्ऋषिः पवमानः पाञ्चजन्यः पुरोहितः।
तमीमहे महागयं स्वाहा।। इदमग्नये पवमानाय – इदन्न मम।। ४।।
(ऋ.९/६६/२०)
ओं भूर्भुवः स्वः। अग्ने पवस्व स्वपा अस्मे वर्चः सुवीर्यम्।
दधद्रयिं मयि पोषं स्वाहा।। इदमग्नये पवमानाय – इदन्न मम।। ५।।
(ऋ.९/६६/२१)
ओं भूर्भुवः स्वः। प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव।
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणां स्वाहा।। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। ६।।
(ऋ.१०/१२१/१०)
इनसे घृत की चार आहुतियाँ करके ‘अष्टाज्याहुति’ के निम्नलिखित मन्त्रों से सर्वत्र मंगल कार्यों में आठ आहुति देवें।
त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान्देवस्य हेळोऽवयासिसीष्ठाः।
यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषांसि प्र मुमुग्ध्यस्मत् स्वाहा।। इदमग्निवरुणाभ्याम् – इदन्न मम।। ७।। (ऋ. ४/१/४)
स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती नेदिष्ठोऽअस्या उषसो व्युष्टौ।
अव यक्ष्व नो वरुणं रराणो वीहि मृळीकं सुहवो न एधि स्वाहा।। इदमग्निवरुणाभ्याम् – इदन्न मम।। ८।।
(ऋ.४/१/५)
इमं मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृळय।
त्वामवस्युराचके स्वाहा।। इदं वरुणाय – इदन्न मम।। ९।। (ऋ.१/२५/१९)
तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः।
अहेळमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मा न आयुः प्र मोषीः स्वाहा।। इदं वरुणाय – इदन्न मम।। १०।। (ऋ.१/२४/११)
ये ते शतं वरुण ये सहस्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः।
तेभिर्नोऽअद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्काः स्वाहा।। इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यः – इदन्न मम।। ११।।
(का.श्रौत.२५/१/११)
अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च सत्यमित्त्वमयाऽसि।
अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भेषज द्भञ स्वाहा।। इदमग्नये अयसे – इदन्न मम ।। १२।। (का.श्रौत.२५/१/११)
उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय।
अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा।। इदं वरुणाया ऽऽ दित्यायाऽदितये च – इदन्न मम।। १३।।
(ऋ.१/२४/१५)
भवतन्नः समनसौ सचेतसावरेपसौ।
मा यज्ञ हि सिष्टं मा यज्ञपतिं जातवेदसौ शिवौ भवतमद्य नः स्वाहा।। इदं जातवेदोभ्याम्-इदन्न मम।। १४।। (यजु.५/३)
आर्यसमाज का स्थापना-दिवस
सं जानीध्वं सं पृच्यध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे सं जानाना उपासते ।। १ ।। -अथर्व. ६ । ६४ । १ ।।
सं वः पृच्यन्तां तन्वः सं मनांसि समु व्रता।
सं वोऽयं ब्रह्मणस्पतिर्भगः सं वो अजीगमत् ।। २ ।। -अथर्व. ६ । ७४ । १ ।।
ज्यायस्वन्तश्चित्तिनो मा वियौष्ट संराधयन्तः सधुराश्चरन्तः।
अन्यो अन्यस्मै वल्गु वदन्त एत सध्रीचीनान्वः संमनसस्कृणोमि ।। ३ ।। -अथर्व. ३ । ३० । ५ ।।
समानी प्रपा सह वोऽन्नभागः समाने योक्त्रे सह वो युनज्मि।
सम्यंजोऽग्निं सपर्यतारा नाभिमिवाभितः ।। ४ ।। -अथर्व. ३ । ३० । ६ ।।
सध्रीचीनान्वः संमनसस्कृणोम्येकश्रुष्टीन्त्संवननेन सर्वान्।
देवा इवाऽमतं रक्षमाणा सायंप्रातः सौमनसो वो अस्तु ।। ५ ।। -अथर्व. ३ । ३० । ७ ।।
सं वो मनांसि सं व्रता समाकूतीर्नमयामसि।
अमी ये विव्रताः स्थन तान्वः सं नमयामसि ।। ६ ।। -अथर्व. ३ । ९४ । १ ।।
समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम्।
समानं मन्त्रमभि मन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि ।। ७ ।। -ऋ. १० । १९१ । ३ ।।
समानी व आकूतिः समाना हृदयानि व।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ।। ८ ।। -ऋ. १० । १९१ । ४ ।।
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात् ।। ९ ।। -ऋ. ३ । १२ । १० ।।
दृते दृं ह मा मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्।
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे।
मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ।। ११ ।। -यजु. ३६ । १८ ।।
ओ3म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।। (यजु 36/3) इस मन्त्र से तीन बार केवल घृत से आहुतियां दे।
पूर्णाहुति-मन्त्राः
ओं सर्वं वै पूर्ण ँ् स्वाहा। इस मन्त्र से तीन बार केवल घृत से आहुतियां देकर अग्नि होत्र को पूर्ण करें।
(५) अथ भूतयज्ञः (बलिवैश्वदेवयज्ञ)
निम्नलिखित दस मन्त्रों से घृत-मिश्रित भात की यदि भात न बना हो तो क्षार और लवणान्न को छोड़कर पाकशाला में जो कुछ भोजन बना हो उसी की आहुति देवें।
ओम् अग्नये स्वाहा।। १।। ओं सोमाय स्वाहा।। २।।
ओम् अग्निषोमाभ्यां स्वाहा।। ३।। ओं विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा।। ४।। ओं धन्वन्तरये स्वाहा।। ५।। ओम् कुह्वै स्वाहा।। ६।। ओम् अनुमत्यै स्वाहा।। ७।। ओं प्रजापतये स्वाहा।। ८।। ओं सह द्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा।। ९।। ओें स्विष्टकृते स्वाहा।। १।।
तत्पश्चात् निम्नलिखित मन्त्रों से बलिदान करें। एक पत्तल अथवा थाली में यथोक्त दिशाओं में भाग रखना। यदि भाग रखने के समय कोई अतिथि आ जाए तो उसी को देना अथवा अग्नि में डालना चाहिए।
ओं सानुगायेन्द्राय नमः।। १।। (इससे पूर्व)
ओं सानुगाय यमाय नमः।। २।। (इससे दक्षिण)
ओं सानुगाय वरुणाय नमः।। ३।। (इससे पश्चिम)
ओं सानुगाय सोमाय नमः।। ४।। (इससे उत्तर)
ओं मरुद्भ्यो नमः।। ५।। (इससे द्वार)
ओं अद्भ्यो नमः।। ६।। (इससे जल)
ओं वनस्पतिभ्यो नमः।। ७।। (इससे मूसल व ऊखल)
ओं मरुद्भ्यो नमः।। ८।। (इससे ईशान)
ओं भद्रकाल्यै नमः।। ९।। (इससे नैऋत्य)
ओं ब्रह्मपतये नमः।। १०।।
ओं वस्तुपतये नमः।। ११।। (इनसे मध्य)
ओं विश्वभ्यो देवेभ्यो नमः।। १२।।
ओं दिवाचारिभ्यो भूतेभ्यो नमः।। १३।।
ओं नक्तंचारिभ्यो भूतेभ्यो नमः।। १४।। (इनसे ऊपर)
ओं सर्वात्मभूतये नमः।। १५।। (इससे पृष्ठ)
ओं पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः।। १६।। (इससे दक्षिण) -मनु. ३/८७-९१
तत्पश्चात् घृतसहित लवणान्न लेके-
शुनां च पतितानां च श्वपचां पापरोगिणाम्।
वायसानां कृमीणां च शनकैर्निवपेद् भुवि।।
(मनु. ३/९२)
अर्थ :- कुत्ता, पतित, चाण्डाल, पापरोगी, काक और कृमि- इन छः नामों से छः भाग पृथ्वी पर धरे और वे भाग जिस-जिस नाम के हों उस-उस को देवें।
(६) अतिथियज्ञः
तद्यस्यैवं विद्वान् व्रात्योऽतिथिर्गृहानागच्छेत्।। १।।
स्वयमेनमभ्युदेत्य ब्रूयाद् व्रात्य क्वावासीत्सीर्व्रा- त्योदकं व्रात्य तर्पयन्तु व्रात्य यथा ते प्रियं तथास्तु व्रात्य यथा ते वशस्तथास्तु व्रात्य यथा ते निकामस्तथाऽस्त्विति।। २।।
(अथर्व. १५/११/१,२)
जब पूर्ण विद्वान् परोपकारी सत्योपदेशक गृहस्थों के घर आवें, तब गृहस्थ लोग स्वयं समीप जाकर उक्त विद्वानों को प्रणाम आदि करके उत्तम आसन पर बैठाकर पूछें कि कल के दिन कहाँ आपने निवास किया था ? हे ब्रह्मन् जलादि पदार्थ जो आपको अपेक्षित हों ग्रहण कीजिए, और हम लोगों को सत्योपदेश से तृप्त कीजिए।
जो धार्मिक, परोपकारी, सत्योपदेशक, पक्षपातरहित, शान्त, सर्वहितकारक विद्वानों की अन्नादि से सेवा और उनसे प्रश्नोत्तर आदि करके विद्या प्राप्त करना अतिथियज्ञ कहाता है, उसको नित्यप्रति किया करें।
यज्ञ-प्रार्थना
पूजनीय प्रभो हमारे भाव उज्जवल कीजिए।
छोड देवें छल कपट को मानसिक बल दीजिए।।
वेद की बोलें ऋचाएं सत्य को धारण करें।
हर्ष में हों मग्न सारे शोक सागर से तरें।।
अश्वमेधादिक रचाएं यज्ञ पर उपकार को।
धर्म मर्यादा चलाकर लाभ दें संसार को।।
नित्य श्रद्धा भक्ति से यज्ञादि हम करते रहें।
रोग पीड़ित विश्व के संताप सब हरते रहें।।
भावना मिट जाए मन से पाप अत्याचार की।
कामनाएं पूर्ण होवें यज्ञ से नर-नारि की।।
लाभकारी हो हवन हर प्राणधारी के लिए।
वायु जल सर्वत्र हों शुभ गन्ध को धारण किए।।
स्वार्थ भाव मिटे हमारा प्रेम पथ विस्तार हो।
इदन्न मम का सार्थक प्रत्येक में व्यवहार हो।।
हाथ जोड़ झुकाएं मस्तक वन्दना हम कर रहे।
नाथ! करुणारूप करुणा आपकी सब पर रहे।।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।।
हे नाथ सब सुखी हों, कोई न हो दुखारी।
सब हों निरोग भगवन, धन-धान्य के भंडारी।
सब भद्रभाव देखें, सन्मार्ग के पथिक हों।
दुःखिया न कोई होवे, सृष्टि में प्राणधारी।
शान्ति पाठः
ओं द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष ँ् शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व ँ् शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि। (यजु.३६/१७)
ओम् शान्तिः शान्तिः शान्तिः।
शान्ति कीजिए प्रभु त्रिभुवन में
जल में थल में और गगन में, अन्तरिक्ष में अग्नि पवन में।
ओषधि वनस्पति वन उपवन में, सकल विश्व में जड़ चेतन में।। 1।।
शान्ति कीजिए प्रभु त्रिभुवन में
ब्राह्मण के उपदेश वचन में, क्षत्रिय के द्वारा हो रण में।
वैश्य जनों के होवे धन में, और सेवक के परिचरणन में।। 2।।
शान्ति कीजिए प्रभु त्रिभुवन में
शान्ति राष्ट्र निर्माण सृजन में, नगर ग्राम में और भवन में।
जीव मात्र के तन में मन में, और जगत के हो कण कण में।। 3।। शान्ति कीजिए प्रभु त्रिभुवन में
आर्यसमाज का स्थापना-दिवस
चैत्र शुक्ला पंचमी संवत् १९३२
(शनिवार, १० अप्रैल सन् १९७५)
आनन्द सुधासार दयाकर पिला गया।
भारत को दयानन्द दुबारा जिला गया।।
डाला सुधार वारि बढ़ी बेल मेल की।
देखो समाज फूल फबीले खिला गया।।
–महाकवि शंकर कृत
विक्रम की 19वीं शताब्दी के वृद्ध भारत में वैदिक धर्म, भारतीय सभ्यता और समाज की अभूतपूर्व कल्पनातीत तथा विलक्षण अवस्था हो गई थी। एक ओर शुद्ध, सनातन, सरल वैदिक धर्म की पवित्र मन्दाकिनी सैकड़ों युगों के असंख्य समय में प्रवाहित रह कर कपोल-कल्पित, नाना नवीन मतों के आडम्बरों से उसी प्रकार कुलुषित बन गई थी। जिस प्रकार गंगोत्री से चली हुई भागीरथी की पुण्यसलिला, विशुद्ध धारा विस्तृत विविध भूभागों में भ्रमण करके और और मलीन जलवाली अनेक नदियों से मिलकर गंगासागर में गदली और गर्हित हो गई हैं। सनातन वैदिक धर्म के ज्ञान, कर्म और उपासना के तीनों काण्डों का स्थान मिथ्याविश्वास, तान्त्रिक जादू टोने और पूजा ले लिया था। परमतत्त्वविवेचन के स्थान में मिथ्याविश्वासमूलक विविध मतवाद मनुष्यों के विचारों पर अधिकार पा गये थे। मनुष्य, वैदिक कर्मकाण्ड के सारभूत पंचमहायज्ञों को त्यागकर मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण की सिद्धि में अपने अमूल्य समय को बिताने लगे थे। सर्वव्यापक परमपिता की उपासना से विमुख बन कर कपोल कल्पित आधुनिक देवी-देवताओं की पूजा में तत्पर थे। देवस्थान भंग, चरस आदि मादक द्रव्यों से उन्मत, दुराचारी, निरक्षर भट्टाचार्य पुजारियों (पूजा के शत्रुओं) से भरे रहते थे। जनता आचार्य आदि सच्चे तीर्थों को भूल कर जल-स्थल आदि को ही तीर्थ मान मान बैठी थी। वैदिक वर्णव्यवस्था बिलकुल लुप्त हो गई थी। उस के स्थान में जन्ममात्र के गर्वित, गुण-कर्म से रहित पुरुषाधम ब्राह्मणादि वर्ण के अभिमानी बन गये थे। ब्रह्मचारी और संन्यासी नाममात्र को शेष रह गये थे, परन्तु उनका वेश धारण करके लाखों विद्याशून्य, अकर्मण्य, वकवृत्ति और बिडालवृति बने हुए वंचकजन इस वसुन्धरा के भार को बढ़ा रहे थे और श्रद्धालु प्रजा को दिन-दहाड़े लूट रहे थे। सच्चे योगियों का स्वरूप तो योगशास्त्र में ही रह गया था किन्तु उन के नाम को लेकर भिक्षा से पापी पेट को भरने वाले जोगियों की एक पृथक् जाति (समुदाय) ही बन गई थी। सर्वमान्य आचार्य पदवी मृतकों का माल उड़ाने वाले अचारजों को मिल गई थी। अन्नतः प्रायः सारे के सारे वैदिक और आर्षप्रयोगों और नामों का यथास्वरूप और प्रयोजन उलट-पुलट हो गया था। सनातन वैदिक धर्म का कलेवर ही बदल गया था। श्रुतियों का नाम ही सुनाई देता था, उन का स्वरूप लुप्तप्राय हो गया था। जनता में यहां तक मूर्खता फैल गई थी कि वे अन्य देवताओं के समान वेदों को भी कोई देहधारी देवता समझने लगे थे। उनकी मूर्तियों तक की कल्पना हो गई थी। वेदों के प्रमाणों के स्थान में अनेक आधुनिक ग्रन्थ और संस्कृत के श्लोक और वाक्यमात्र तक प्रमाण माने जाने लगे थे। धर्म कुछ रूढि़यों (रस्म-रिवाज) का ही नाम रह गया था यूं कहिए कि सर्वत्र रूढि़यों का ही राज्य था।
दूसरी ओर योरुप से उठी हुई पाश्चात्य सभ्यता की प्रबल पछवा आंधी प्राचीन तथा पूर्वीय सभ्यता का सब कुछ उड़ा ले जाकर उस को तितन-बितर कर देने की धमकी दे रही थी। ‘यथा राजा तथा प्रजाः’ की कहावत के अनुसार पराजित भारतीय प्रजा अपने गौरांग प्रभुओं का रहन-सहन और उठने-बैठने तक की नकल करने में अपना गौरव समझती थी। वह उनकी वेश, भूषा, आहार के अनुकरण से ही सन्तुष्ट न थी, प्रत्युत प्रत्येक विषय में उन की विचार परम्परा का भी पीछा करती थी। सहस्त्रों ग्रन्थों से संस्थापित और संसिद्ध सत्य भी पाश्चात्य विद्वानों के प्रमाणों के बिना सिद्धान्त नहीं माने जाते थे। भूगोल, खगोल, रसायन तथा पदार्थविज्ञान आदि सारी विद्याओं तथा संगीत, शिल्प, स्थापत्य, चित्रण आदि समस्त कलाओं के आविष्कर्त्ता भी पाश्चात्य पुरुष ही समझे जाते थे। पाश्चात्य सभ्यता के ही प्रकाश में समस्त विषयों का अवलोकन किया जाता था। उन के ही हेतुवाद वा तर्कशैली से धर्माधर्म की भी परीक्षा की जाती थी। शिखा, सूत्र, आचमन, मार्जन आदि सारे धर्मकत्य क्यों ! और कैसे ! की कसौटी पर कसे जाते थे। सारे धर्म-कर्मों का निदान वा मूल ऐहित वा सांसारिक सुख ही माना जाता था।
जहां एक ओर ‘अविद्यो वा सविद्यो वा ब्राह्मणी मामकी तनुः’ इस नाममात्र के ब्राह्मणों के वाक्य पर श्रद्धा रखने वाले, रुढि़यों के परम उपासक, पुराने आचार-विचार के लोग किसी भी संस्कृत के ग्रन्थ वा वाक्य को प्रत्येक प्रचलित कुप्रथा और मूर्खता का पोषक पुष्ट प्रमाण मानते थे। वहां पाश्चात्य शिक्षादीक्षित और आलोकित नवयुवक तर्करहित ब्रह्मवाक्य को भी सुनने के लिए तैयार न थे। परिणामतः नवशिक्षित नई पौध के लोग निरीश्वरवादी, सन्देहवादी वा भोगवादी बन कर प्राचीन सभ्यता और सनातन धर्म से बिल्कुल विमुख हो रहे थे। वे अपने पूर्व पुरुषों को वृद्ध मूर्ख (Old fool) कह कर हंसते थे।
अच्चजात्यभिमानी हिन्दू लोगों में कुछ तो धन-कलत्र के लोभ से और कुछ पुराण ग्रन्थों की असम्बद्ध कथाओं तथा हिन्दू रुढि़यों की कठोरता से उद्विग्र होकर ईसाई आदि विधर्मी बनते जाते थे। नीच कही जाने वाली जातों के जन उच्चम्मन्य हिन्दुओं के तिरस्कार, अत्याचार और अमानुषिक व्यवहार से मर्माहात होकर ईसाई पादरियों के प्रभाव में आकर दिनों-दिन हिन्दू समुदाय का कलेवर क्षीण और ईसाई मत का शरीर पीन बना रहे थे और प्रातः स्मरणीय श्री राम और कृष्ण की निन्दा से निज जिह्वा को अपवित्र करते थे।
दूसरी ओर बहुत से हिन्दू नित्य प्रति मुसलमानों के फन्दे में फसते थे। देववाणी वा आर्य भाषा (हिन्दू) का पठन प्रायः पुरोहितों का ही काम रह गया था। अन्य व्यवसायी वा कारबारी लोग महा महिमामय मौलवियों की पदचर्या और फारसी भाषा की आराधना को ही अपना अहोभाग्य और गौरववर्धक समझते थे। उस समय जालसाजी की जड़ और सर्पाकार फारसी लिपि से अनभिज्ञजनों को सभ्यता की परिधि से बाहर समझा जाता था। सर्वगुण आगरी देवनागरी की ‘हिन्दगी’ कह कर निन्दा की जाती थी। मौलवियों के अहर्निश के सहवास से फारसी पढ़े हुए कई पुरुष तो खुल्लमखुल्ला मुसलमानी मत में दीक्षित हो जाते थे और शेष सारे आचार-विचारों से मुसलमान अवश्य बन जाते थे। इसलिए ‘फारसी पढ़ा आधा मुसलमान’ की कहावत प्रचलित हो गई थी। उन दिनों वैदिक धर्म का विकृत रूप ‘हिन्दूमत’ ऐसा कच्चा धागा बन रहा था कि उस को जो चाहता था एक झटके से तोड़ सकता था। वह ईसाई वा मुसलमान के छुए हुए जलमात्र के पान से सदा के लिए विदा हो जाता था और इसलिए हिन्दू समुदाय ईसाई मुसलमानों के लिए सुलभ भोजन वा स्वादु ग्रास ( तर लुकमा ) बन रहा था। फलतः गो और ब्राह्मण के रक्षकों के समूह का प्रतिदिन ह्नास हो रहा था।
इस प्रकार नित्य प्रति क्षीण-कलेवरा आर्यजाति मृत्यु के मुख में जा रही थी। प्राचीन आर्यसभ्यता पग-पग पर पराभव पाकर अपने प्राचीन वैभव और महिमा को खो रही थी। जो आर्यजाति और वैदिक धर्म ८०० वर्ष तक के मुसलमानी अत्याचारपूरित शासन और तलवार से नष्ट न हो सका था, वह अब पाश्चात्यों के सम्मोहनास्त्र से महानिद्रा में निमग्न होने को उद्यत था। परन्तु सब सभ्यताओं की आदि जननी आर्यसभ्यता और सब धर्मो के आदिस्त्रोत वैदिकधर्म की उस प्रकार पशुतुल्य मृत्यु करुणावरुणालय परमपिता को अभिमत न थी, इसलिए दयामय ने असीम दया से निज नित्यव्यवस्थानुसार इस धर्मसंकट के समय धर्म की रक्षा के लिए दयामूर्ति और आनन्द राशि ऋषि दयानन्द का प्रादुर्भाव भव्य भारत में किया।
ऋषि दयानन्द की उज्ज्वल जीवनी की पुण्य-गाथा एक पृथक् विषय है। यहां उस का वर्णन प्रकरणान्तर होगा। किस प्रकार ऋषि दयानन्द ने सब कुछ त्यागकर सत्य संन्यासी बनकर पूर्णतः सत्य विद्याओं के अभ्यास और भारत के कोने-कोने में परिभ्रमण के पश्चात् इस देश की पतित अवस्था का निरीक्षण किया और उससे द्रवीभूत होकर वैदिक धर्म के पुररुद्धारर्थ और संसार मात्र के परोपकारार्थ आर्यसमाज की स्थापना की। बातें वेद के नामलेवा प्रायः सभी पुरुषों को विदित हैं। इस समय उसी आर्यसमाज की स्थापना का विषय प्रस्तुत है।
ऋषि दयानन्द ने गुरु-गवेषणा और अतुल अन्वेषण के पश्चात् जिस सनातन वैदिक धर्म के सिद्धान्तों की स्थापना की थी। उन के लगातार प्रचार के लिए उन्होंने बहुत से श्रद्धालु धार्मिक पुरुषों की सहायता तथा राज्य मान्य राजा श्री पानाचन्द आनन्द जी की आयोजना के अनुसार भारत की प्रसिद्ध समृद्धिशालिनी समुद्रतीरवर्तिनी मुम्बापुरी (बम्बई) गिरगांव में डॉ. मानिकचन्द जी की वाटिका में चैत्र सुदि ५ संवत् १९३२ विक्रमीय, १७१७ शालिवाहनशक बुधवार, तदनुसार १० अप्रैल सन् १८७५ ई. को प्रथम आर्यसमाज की स्थापना की। उस के २८ नियम सर्वसम्मति से निर्धारित किये गये। इन्हीं नियमों में ऋषि दयानन्द की आत्मा का प्रतिबिम्ब और आर्यसमाज का उद्देश्य वर्तमान था। आगे चल कर लाहौर आर्यसमाज की स्थापना के समय इन्हीं २८ नियमों को संक्षिप्त करके सम्प्रति प्रचलित आर्यसमाज के निम्नलिखित १० नियमों का रूप दिया गया। बम्बई आर्यसमाज के नियमों की संख्या के अधिक होने का यह कारण था कि उन में आर्यसमाज के कार्यनिर्वाहक उपनियम भी सम्मिलित थे। लाहौर में उपनियमों को पृथक् कर के मूल सिद्धान्त रूप नियमों को ही मुख्य दश नियमों के रूप में प्रचलित किया गया।
आर्यसमाज के नियम
1. सब सत्यविद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सब का आदि मूल परमेश्वर है।
2. ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नितय, पवित्र और सृष्टिकर्त्ता है उसी की उपासना करनी योग्य है।
3. वेद सब सत्यविद्याओं का पुस्तक है, वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।
4. सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए।
5. सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहिए।
6. संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।
7. सब से प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोगय वर्त्तना चाहिए।
8. अविद्या का नाश और विद्या की वृद्वि करनी चाहिए।
9. प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट न रहना चाहिए।
10. सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतन्त्र रहें।
यहां आर्य समाज के दश नियमों की व्याख्या के लिए स्थान नहीं है, पर इतना कहे बिना नहीं रहा जाता कि आर्यसमाज की स्थापना ऐसे सर्वव्यापक और सर्वहितैषी नियमों पर हुई थी कि संसार के सब राष्ट्रों और जातियों के निवासी उन पर चल कर सर्वदा अपनी उन्नति कर सकते हैं। आर्यसमाज का संगठन भी दूरदर्शितापूर्वक ऐसी प्रजासत्तात्मक परिपाटी पर किया गया है कि उस से प्रत्येक राष्ट्र में, सब प्रकार की शासन-प्रणालियों में सर्वोत्तम और सर्वसुखदायक प्रजासत्तात्मक शासन का विकास और अभ्यास (Training) पूर्ण रूप से हो सकते हैं। आर्यसमाज के संगठन में उस के संस्थापक महर्षि ने अपने व्यक्ति तक के लिए कोई विशेष स्थान वा पद नहीं रक्खा था, वे अपने आप को भी आर्यसमाज का एक ‘साधारण सदस्य’ समझते थे।एक बार लाहौर आर्यसमाज ने जब उन से एक अधिवेशन का प्रधान पद स्वीकार करने की प्रार्थना की थी तो उन्होंने यही उत्तर दिया था कि आप की समाज का प्रधान विद्यमान ही है, वही अपना कर्तव्य पालन करे। एक साधारण सदस्य के रूप में मैं भी आपके कार्य में योग दे सकता हूँ। आर्यसमाज ने भारत के प्रजासत्तात्मक शासन-प्रणाली के प्रचार में बहुत कुछ सहायता प्रदान की है। उस ने भारत अन्य सम्प्रदायों और मतों को भी संगठित हो कर काम करने की रीति सिखलाई है। और यहां के कई सम्प्रदाय संगठन अब आर्यसमाज से भी आगे जाने का प्रयत्न कर रहे हैं। महर्षि दयानन्द के कई लेखों के देखने से ज्ञात होता है कि उन्होंने आर्यसमाज से संसार के उपकार और देशदेशान्तरों में वैदिक धर्म के प्रचार की बड़ी-बड़ी आशाएं बांधी थी। उन्होंने अपनी कोई गद्दी आदि न बनाकर आर्यसमाज को ही अपना उत्तराधिकारी माना था और उनके उद्देश्य के साफल्य की सारी आशाएं आर्यसमाज में केन्द्रित कीं। महर्षि के स्वनामधन्य सच्चे अनुयायी इन आशाओं की पूर्ति की लिए प्राण-पण से पूरा यत्न कर रहे हैं।
आर्यसमाज से जो आशाएं की गई थी उन का कुछ दिग्दर्शन और आभास अमरीका के एक दार्शनिक डॉ क्टर ऐंड्रयू जेकसन डेविस की निम्नलिखित कवितामय मनोहर पंक्यियों से भली प्रकार हो सकता है-
DR. Andrew Jackson Davis views on the Arya Samaj and its founder.
“I behold a fire, that is universal, the fire of infinite love which burneth to destroy all hate, which dissolveth all things to their purification. Over the fir fields of America,–over the great land of Africa—over the ever lasting mountains of Asia,–over the wide empires and kingdoms of Europe, I behold the kindling flames of the all-consuming all-pruifying, fire. It speaketh at first in all the lowest places; it is kindled by man for his own comfort and grogess, for man is the only earthly creature that can originate and perpetuate a fire, even as he is the only being on earth that can originate and perpetuate words, so he is the first to start the fires of hell in his own habitations, and the first, also to take and obtain for beaven the Promethean fire whereby Plutonian abodes will be purified by love and whitened wisdom.
Beholding this infinite fire,–which is certain to meet the kingdoms and empires and Governmental evils of the whole enkinding enthusiasm. And I take hold of life with an enkinding enthusiasm. All liftiest mountains will begin to burn, the beautiful cities of the valleys will be consumed, sweet homes and loving hearts will dissolve together, and the good and the evil will interfuse and disappear like dewdrops vanishing in the sun’s golden horns.
The spirit of man is one fire with the lightning of infinite progeression. Only the spark there of ascend to-day into the heavens. Lambent flames here and there appear in the inspirations of orators, poets, writers of scriptures. To restore primitive Aryan religion to its first pure state was the fire in the furnace called “Arya Samaj” which started and burned brightly in the bosom of that Inspired Soul of God in India, Dayanand Saraswati. From him the fire inspiration was transferred to many noble inflaming souls in theland of Eastern Dreams…………Hindoos and Moslems ran together to extinguish the consuming fire, which was flaming on all sides with a fierceness that was never dreamt of by the first kindly, Dayanand. And Christians, too, whose altar fires and sacrd candles were originally lighted in the dreamy. East joined Moslems and Hindoos in their efforts to extinguish the New Light of Asia. But the heavenly fire increased and propagated itself.”
डॉ. एन्ड्रयू जैक्सन डेविस के उद्गारो का अनुवाद
‘‘मैं एक ऐसी अग्नि को देखता हूँ जो सर्वव्यापक है, वह अप्रमेय प्रेम की अग्नि है, जो सर्व विद्वेष को भस्मसात् करने के लिए प्रज्वलित हो रही है और सर्ववस्तुजात को पवित्र बनाने के लिए पिघला रही है। अमरीका के प्रशस्त क्षेत्रों, अफ्ररीका के बड़े स्थलों, एशिया के शाश्वतिक पर्वतों, योरुप के विशाल राज्यों और राष्ट्रों में सर्वनाशन सर्वपावन, इस पावक की प्रज्वलित ज्वालाएं मुझे दिखाई देती है, मनुष्य उस को अपने सुख और उन्नति के लिए प्रकाशित करता है। क्योंकि केवल मनुष्य ही ऐसा पार्थिव प्राणी है, जो अग्नि को प्रज्वलित करके उसी प्रकार स्थिर रख सकता है। जैसा कि केवल वह ही (मनुष्य ही) ध्वनि वा शब्दों को जन्म देकर स्थिर रख सकता है। इसलिए मनुष्य ही अपने गृहों में सब से प्रथम नारकीय अग्नियों को प्रज्वलित करता है। (द्वेषों को भड़काता है) और वही सर्वप्रथम स्वर्ग से प्रोमीथस की उस अग्नि को प्राप्त करने वाला और बढ़ाकर रखने वाला है, जिस से कि पातालीय (नारकीय) अन्धकारपूर्ण गृह-प्रेम से पवित्र और मेधा से प्रकाशित हो सकते हैं।
इस अनन्त अग्नि को, जो कि निश्चय रूप से संसार भर के राज्यों साम्राज्यों और शासन सम्बन्धी दोषों का सामना करेगी (पिघला डालेगी), देखकर मैं अतीव हर्षित हो रहा हूं, और जाज्वल्यमान उत्साह के साथ जीवन धारण कर रहा हूँ। सब उच्चतम पर्वत जल उठेंगे। उपत्यका के सारे सुन्दर नगर नष्ट हो जायेंगे। मनोहर गृह और प्रेमलुप्त हृदय पिघल कर एक हो जायेंगे और सूर्य की उज्ज्वल किरणों के सामने ओस के बिन्दुओं के समान पुण्य और पाप सम्मिश्रित एक होकर अन्तर्धान हो जायेंगे।
अनन्त उन्नति की विद्युत से मनुष्य का हृदय विक्षुब्ध है। आज केवल उस के स्फुलिंग (चिनगारियां) आकाश की ओर उड़ रहे हैं। वाग्मियो, कवियों और पवित्र पुस्तक-प्रणेताओं के मनोभावों के रूप में उस की लपकती हुई ज्वालाएं यत्र-तत्र दृष्टिगोचर हो रही है। सनातन आर्य धर्म को उस की आद्य पवित्र अवस्था को प्राप्त करने के लिए आर्यसमाज नामक अग्निकुण्ड में इस अग्नि का आधान हुआ था और वह भारत में ईश्वर के प्रकाशप्राप्त (लब्धज्योति) पुत्र दयानन्द सरस्वती के हृदय में प्रादुर्भूत और प्रज्वलित हुई थी। ईश्वरीय ज्ञान की यह अग्नि उस से (दयानन्द से) पौरस्त्य विचारों की भूमि (भारतवर्ष) की बहुत-सी उच्च और उज्ज्वल आत्माओं को प्राप्त हुई….। यह सर्वनाशक अग्नि सब ओर ऐसी प्रचण्डता से प्रज्वलित थी कि जिस का ध्यान उस के प्रथम प्रकाशक दयानन्द को भी न आया था। हिन्दू और मुसलमान मिलकर इस अग्नि को बुझाने दौड़े और वे ईसाई भी, जिन की वेदियों की अग्नियां और पवित्र बत्तियां प्रारम्भ में भावक (ध्यानी) पूर्व (एशिया) में ही प्रकाशित हुई थीं। एशिया के इस नये प्रकाश को बुझाने के प्रयत्न में हिन्दू, ईसाई और मुसलमानों के साथ मिल गये-सम्मिलित हो गये किन्तु यह स्वर्गीय अग्नि बढ़ती और फैलती ही गई…।
क्या आर्यसमाज के वर्तमान सदस्य उपर्युक्त आशाओं का विचार करके अपने कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व को अनुभव करने की कृपा करेंगे? क्या उन को कभी यह भी ध्यान आयेगा कि आगे चलकर इतिहास उन के कार्यों की कैसी आलोचना करेगा। ‘आत्मदा बलदा’ परमपिता सब को बल प्रदान करें कि हम दयानन्द के सच्चे अनुयायी सिद्ध हों।’’
मध्याह्न में स्वसामर्थ्यानुसार सात्विक और रोचक पाक सम्पन्न करके सब परिवार प्रीतिपूर्वक एकत्र मिलकर भोजन करें तथा अपने आश्रित सेवक आदिको को उस से सत्कृत करें।
सामाजिक कृत्य- प्रातः ब्राह्ममूहूर्त में सब आर्य सामाजिक पुरुष मिलकर नगर में संकीर्तन करें जिस में परमपिता की महिमा ओर आर्यसमाज के गुणों का गान मधुर स्वर में किया जाये। इसके पश्चात् मन्दिर में वापस आकर सार्वजनिक होम-यज्ञ किया जाये, जिस में उपर्युक्त विहित तथा शिव-संकल्प के समान मन्त्रों से विशेष आहुतियां दी जाएं।
अपराह्न वा सायंकाल में स्वसुभीते के अनुसार सब आर्यबन्धु जन समाजमन्दिर आदि में एकत्र होकर सभा करें। उस में आर्यसमाज-स्थापनादिवस की स्मृति में आर्यसमाज की स्थापना के इतिहास, आर्यसमाज की उपयोगिता तथा संगठन की महिमा पर निबन्ध पाठ और भाषण किये जायें और आगामी वर्ष के लिए भावी कार्यक्रम की पाण्डुलिपि भी बनाई जाये और अपने समाज में सदस्य-वृद्धि का प्रयत्न किया जाये। तदनन्तर मधुरगान वाद्य और शान्ति-पाठ के साथ सभा विसर्जित की जाये।
आज के दि नही आस-पास के ग्रामों आदि में, जहां कहीं सम्भव हो, नूतन आर्यसमाज-स्थापना का उद्योग भी किया जाये।
आर्यसमाज का अभ्युदय
( लावनी )
इस के बिल का किस ने कैसा फल पाया।
समझो समाज ने क्या क्या कर दिखलाया ।। टेक।।
सब साधु बने परमेश्वर के अनुरागी,
जड़ता तम की जननी जड़-पूजा त्यागी।।
बढ़ गई मेल की बेल एकता जागी,
फट गया फूट का पेट अविद्या भागी।
उपजा विवेक मिट गई मोह की माया,
समझो समाज ने कया क्या कर दिखलाया ।। १ ।।
निर्दोष अर्थ वेदों के जान, जनाये,
मन्तव्य महापुरुषों के मान मनाये।
खोले गुरुकुल, कालेज अनेक बनाये,
कुलहीन दीन अगणित अनाथ अपनाये।।
प्रतिनिधि मण्डल का मान भलों को भाया।
समझों समाज ने क्या क्या कर दिखलाया ।। २ ।।
शिशु ब्रह्मचर्य व्रत धार वेद पढ़ते हैं,
ज्ञानी बन बन गौरव-गिरि पर चढ़ते हैं।
बल दैविक आत्मिक सामाजिक बढ़ते हैं,
शिक्षा-सागर से देव-रत्न कढ़ते हैं।।
लो पलट गई प्रतिकूल काल की काया,
समझो समाज ने क्या क्या कर दिखलाया ।। ३ ।।
गुण, कर्म, स्वभावों, से परखे जाते हैं,
नर नारि यथाविधि वर्ण वरण पाते हैं।
वेदों की शरण जब विधर्मी आते हैं,
वे भी अवगुण तज आरज कहलाते हैं।।
वैदिक मत ने कब किसे न कण्ठ लगाया।
समझो समाज ने क्या क्या कर दिखलाया ।। ४ ।।
फल खते हैं लाखों पल खाने वाले,
पय पीते हैं वारुणी उड़ाने वाले।
बन गये जती चकलों में जाने वाले,
छूटे छल-बल से पाप कमाने वाले।।
शुभ सदाचार का शंख निःशंक बजाया।
समझो समाज ने क्या क्या कर दिखलाया ।। ५ ।।
सब नियमों का जो एक नित्य नेता है,
वह निराकार अवतार कहां लेता है?
मुरदा खाने पीने को कब चेता है,
कल्पित भूतों का दल क्या फल देता है।।
यों पोल खोल पौराणिक-दम्भ दबाया।
समझों समाज ने कया क्या कर दिखलाया ।। ६ ।।
चढ़ वेदों ने सब ग्रन्थ जगत् के जीते,
यज्ञों की अवनति के निशि-वासर बीते।
देखो नर-नारि सकुर्म-सुधा-रस पीते,
हो गये सुकवि ‘शंकर’ के मन के चीते।।
सुख देती है मुनि दयानन्द की दया।
समझो समाज ने क्या क्या कर दिखलाया ।। ७ ।।
-कवि शिरोमणि पं. नाथूराम शर्मा ‘शंकर’
(‘शंकरसरोज’ से)
आर्य समाज के दश नियम
(ख्याल)
1. सकल सत्य विद्या, विद्या से जो कुछ जाना जाता है।
आदि मूल सब ही का ‘शंकर’ एक समझ में आता है ।। टेक ।।
2. सर्व शक्ति-सम्पन्न विधाता ब्रह्म विश्व का करता है।
शुद्ध-सच्चिदानन्द निरामय नित्य निशंक न मरता है।।
सकल, अनन्त, अनादि, अजन्मा, भौतिक देह न धरता है।
न्यायशील सर्वज्ञ दयानिधि जड़ जीवों का भरता है।।
धरो उसी का ध्यान दूसरा कौन मुक्ति का दाता है।
आदि मूल सब ही का ‘शंकर’ एक समझ में आता है ।। १ ।।
3. जो विद्यानिधि वेदों को तुम प्यारे पढ़ो पढ़ाओगे।
सुनो सुनाओगे तो अपने तीनो ताप नसाओगे ।। ३ ।।
4. धारो सत्य असत्य विसारो तब चारों फल पाओगे।
झूठ सांच को जांच धर्म के धाम काम कर जाओगे।।
5. तो न रहेगा उन में जिन का पंच-भूत से नाता है।
आदि मूल सब ही का ‘शंकर’ एक समझ में आता है ।। २ ।।
6. तुम सामाजिक अरु देहात्मिक उन्नति अनुदिन किया करो।
मान मुख्य उद्देश्य षडंगी का सब को सुख दिया करो।।
7. यथायोग्य बरतो सब से प्रीतिवार प्रेमयश किया करो।
8. आठों धाम अविद्या को तज विद्या का रस पिया करो।।
9. सब की उन्नति में निज उन्नति की नवनिधि नर पाता है।
आदि मूल सब ही का ‘शंकर’ एक समझ में आता है ।। ३ ।।
10. सब के हितकारी नियमों के पालन में परतन्त्र रहो।
नीति रीति सीखो समाज की गुरु लोगों की गैल गहो।।
हितकारी नियमों के पालन का आनन्द स्वतन्त्र लहो।
वैदिक मत के सारभूत यों दश नियमों का भाव कहो।।
श्रीमद्दयानन्द स्वामी के उपदेशों का खाता है।
आदि मूल सब ही का ‘शंकर’ ए समझ में आता है ।। ४ ।।
–कवि शिरोमणि पं. नाथूराम शर्मा ‘शंकर’ (‘शंकर सरोज’ से)