मूल स्तुति
अदि॑ति॒र्द्यौरदि॑तिर॒न्तरि॑क्ष॒मदि॑तिर्मा॒ता स पि॒ता स पु॒त्रः।
विश्वे॑ दे॒वा अदि॑तिः॒ पञ्च॒ जना॒ अदि॑तिर्जा॒तमदि॑ति॒र्जनि॑त्वम्॥१७॥ऋ॰ १।६।१६।१०
व्याख्यान—हे त्रैकाल्याबाध्येश्वर! “अदितिर्द्यौः” आप सदैव विनाशरहित तथा स्वप्रकाशरूप हो। “अदितिरन्तरिक्षम्” अविकृत (विकार को न प्राप्त) और सबके अधिष्ठाता हो “अदितिर् माता” आप प्राप्त-मोक्ष जीवों को अविनश्वर (विनाश-रहित) सुख देने और अत्यन्त मान करनेवाले हो, “स पिता” सो अविनाशीस्वरूप हम सब लोगों के पिता (जनक) और पालक हो और “स पुत्रः” सो ईश्वर आप मुमुक्षु, धर्मात्मा और विद्वानों को नरकादि दुःखों से पवित्र और त्राण (रक्षण) करनेवाले हो। “विश्वे देवाः अदितिः” सब देव दिव्यगुण—विश्व का धारण, रचन, मारण, पालन आदि कार्यों को करनेवाले अविनाशी परमात्मा आप ही हैं “पञ्चजना अदितिः” पाँच प्राण, जो जगत् के जीवनहेतु, वे भी आपके रचे और आपके नाम भी हैं “जातमदितिः” एक चेतन ब्रह्म आप सदा प्रादुर्भूत हैं, और सब कभी प्रादुर्भूत कभी अप्रादुर्भूत (विनाशभूत) भी हो जाते हैं “अदितिर्जनित्वम्” वे ही अविनाशीस्वरूप ईश्वर आप सब जगत् के “जनित्वम्” जन्म का हेतु हैं और कोई नहीं १*॥१७॥
[*१. ये सब नाम दिव आदि अन्य वस्तुओं के भी होते हैं परन्तु यहाँ ईश्वराभिप्रेत से ही अर्थ किया, सो प्रमाण जानना चाहिये। (दयानन्द सरस्वती)]