मूल प्रार्थना
ऊ॒र्ध्वो नः॑ पा॒ह्यंह॑सो॒ नि के॒तुना॒ विश्वं॒ सम॒त्रिणं॑ दह।
कृ॒धी न॑ ऊ॒र्ध्वां च॒रथा॑य जी॒वसे॑ वि॒दा दे॒वेषु॑ नो॒ दुवः॑॥१६॥ऋ॰ १।३।१०।४॥
व्याख्यान—हे सर्वोपरि विराजमान परब्रह्म आप “ऊर्ध्वः” सबसे उत्कृष्ट हो, हमको कृपा से उत्कृष्ट गुणवाले करो तथा ऊर्ध्वदेश में हमारी रक्षा करो। हे सर्वपापप्रणाशकेश्वर! हमको “केतुना” विज्ञान, अर्थात् विविध विद्यादान देके “अंहसः” अविद्यादि महापाप से “निपाहि”नितरां पाहि—सदैव अलग रक्खो तथा “विश्वम्” इस सकल संसार का भी नित्य पालन करो। हे सत्यमित्र न्यायकारिन्! जो कोई प्राणी “अत्रिणम्” हमसे शत्रुता करता है उसको और काम-क्रोधादि शत्रुओं को आप “सन्दह” सम्यक् भस्मीभूत करो (अच्छे प्रकार जलाओ), “कृधी न ऊर्ध्वान्” हे कृपानिधे! हमको विद्या, शौर्य, धैर्य, बल, पराक्रम, चातुर्य, विविध धन, ऐश्वर्य, विनय, साम्राज्य, सम्मति, सम्प्रीति, स्वदेशसुख-सम्पादनादि गुणों में सब नरदेहधारियों से अधिक उत्तम करो तथा “चरथाय, जीवसे” सबसे अधिक आनन्द, भोग, सब देशों में अव्याहतगमन (इच्छानुकूल जाना-आना), आरोग्यदेह, शुद्ध मानसबल और विज्ञान इत्यादि के लिए हमको उत्तमता और अपनी पालनायुक्त करो, “विदा” विद्यादि उत्तमोत्तम धन “देवेषु” विद्वानों के बीच में प्राप्त करो, अर्थात् विद्वानों के मध्य में भी उत्तम प्रतिष्ठायुक्त सदैव हमको रक्खो॥१६॥