मूल स्तुति
न यस्य॒ द्यावा॑पृथि॒वी अनु॒ व्यचो॒ न सिन्ध॑वो॒ रज॑सो॒ अन्त॑मान॒शुः।
नोत स्ववृ॑ष्टिं॒ मदे॑ अस्य॒ युध्य॑त॒ एको॑ अ॒न्यच्च॑कृषे॒ विश्व॑मानु॒षक्॥१५॥ऋ॰ १।४।१४।४
व्याख्यान—हे परमैश्वर्ययुक्तेश्वर! आप इन्द्र हो। हे मनुष्यो! ‘जिस परमात्मा का अन्त—इतना यह है’, न हो, उसकी व्याप्ति का परिच्छेद (इयत्ता) परिमाण कोई नहीं कर सकता तथा दिन अर्थात् सूर्यादिलोक— सर्वोपरि आकाश तथा पृथिवी मध्य=निकृष्टलोक—ये कोई उसके आदिषन्त को नहीं पाते, क्योंकि “अनुव्यचः” वह सबके बीच में अनुस्यूत (परिपूर्ण) हो रहा है तथा “न सिन्धवः” अन्तरिक्ष में जो दिव्य जल तथा सब लोक सो भी अन्त नहीं पा सकते “नोत स्ववृष्टिं मदे” वृष्टिप्रहार से युद्ध करता हुआ वृत्र (मेघ) तथा बिजुली-गर्जन आदि भी ईश्वर का पार नहीं पा सकते। *१ हे परमात्मन्! आपका पार कौन पा सके, क्योंकि “एकः” एक असहाय अपने से भिन्न स्वसामर्थ्य से ही “विश्वम्” सब जगत् को “आनुषक्” आनुषक्त, अर्थात् उसमें व्याप्त होते और “चकृषे” (कृतवान्) आपने ही उत्पन्न किया है, फिर जगत् के पदार्थ आपका पार कैसे पा सकें तथा “अन्यत्” आप जगत् रूप कभी नहीं बनते, न अपने में से जगत् को रचते हो, किन्तु अनन्त अपने सामर्थ्य से ही जगत् का रचन, धारण और लय यथाकाल में करते हो, इससे आपका सहाय हम लोगों को सदैव है॥१५॥
[*१. जैसे कोई मद में मग्न होके रणभूमि में युद्ध करे, वैसे मेघ का भी दृष्टान्त जानना। (दयानन्द सरस्वती)]