घेरों को घेर दो उन्मुक्त हो ही जाओगे
4.”अन्धपट्टीयां”
लकीर पीटने वालों नें जिस पल नया कदम बढ़ाया एक नया सूर्य गढ़ लिया। इन नए सूर्यों को न गढ़ने देना ही सम्प्रदायों का काम है। और तो और स्वयं नए सूर्य न गढ़ सकने की क्षमता के साथ-साथ ये सम्प्रदाय नए सूर्य गढ़नेवालों पर भयानक कुठाराघात करते हैं, बौखला उठते हैं। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पडा है।
अरस्तू ने ऐनैक्सगोरस (500-428 ई.पू.) के बारे में कहां “अन्धो में अकेला एनेक्सेगोरस ही देखने वाला था”। उस द्रष्टा एनैक्सेगोरस ने कहा कि “सूर्य जलता हुआ पत्थर है, और चन्द्रमा मिट्टी का बना है।” उस पर अन्धों ने ‘देव निन्दा’ का आरोप लगाया। उसे दोषी ठहराया। उसके लिए मृत्यु दण्ड निर्धारित किया। साम्प्रदाई अन्धों की बस्ती आंख वालों की आंखो को एक शारीरिक रोग समझती है।
अपने क्षेत्र साम्प्रदाई चीखता है। सभी चीजों का माप बाइबिल, कुरान, पिट्टक, पुराण है। इनके बाहर उसकी आंखे बन्द हैं। और तो और अपने आप के बारे में भी उसकी आंखे बन्द हैं। प्रोटैगोरस कहता है “मनुष्य सभी चीजों का माप है; जो कुछ है उसके आस्तित्व के सम्बन्ध में और जो नहीं है उसके अभाव के सम्बन्ध में वही निश्चय करता है।” यह निश्चय क्षमता खो देना गंवा देना ही हिन्दु, मुसलमान आदि हो जाना है। अवनति के गर्त में गिरकर अपने आप को उन्नति के शिखर पर समझना इससे बड़ी अवनति और क्या हो सकती है?
आन्तरिक जागृत आवाज के मालिक सुकरात पर 60 वर्ष के उम्र में आरोप लगाए गए कि “वह राष्ट्र के देवताओं को नहीं मानता, वह नए देवताओं में विश्वास करता है, उसने एथेन्स के युवकों का चरित्र बिगाड़ दिया है। 501 एथेन्स वासियों ने मुकदमा सुना। सुकरात को जुबान बन्द रखने, एथेंस छोड़ने या मृत्यु वरने के दण्ड दिए गए। जीवित सुकरात ने मुर्दे न्यायाधीशों से कहा-
“निणर्य करने वालों! तुम्हें भी मृत्यु को साहस के साथ स्वीकार करना चाहिए कि एक भले पुरुष पर न जीवन में और न मृत्यु के बाद ही कोई आपत्ति आ सकती है। मैं न आरोप लगाने वालों से रुष्ट हूं, न दोषी ठहराने वालों पर कुपित। अब समय आ गया है कि हम लोग यहां से चल दें। मैं मरने के लिए और तुम जीने के लिए, परन्तु परमात्मा ही जानता है मरने और जीने में कौन श्रेष्ठ है।”
मुर्दे व्यक्ति मरकर भी मुर्दे रहते हैं और जीवित मरकर भी जीवित। सुकरात की मृत्यु उतनी ही शानदार रही जितना उसका जीवन रहा।
501 न्यायाधीश भी मर गए हैं, उन्होंने मरण से मरण का पथ चुना। सुकरात नें जीवन से जीवन का पथ चुना। सुकरात ने जीते जी मरना अस्वीकार किया वह चौबीस-सौ वर्षों के मर जाने पर भी आज जिन्दा है। मरण से मरण का रास्ता चुनना ही मुसलमान, हिन्दु, ईसाई आदि होना है। इन साम्प्रदाई कारणों को आज तोड़ना ही होगा। अन्यथा इतिहास के कंलक दुहरते ही रहेंगे।
“जो पुरुष घोड़े पर सवार होकर कहीं जाता है, वह उस समय के लिए छः टांगों का स्वामी हो जाता है। और अपनी दो टांगो को थकाए बिना अपना काम कर लेता है।” काश! मानव सम्प्रदायों के घोड़ों को अपने लिए उपयोगित करना सीखता? पर वह तो अपनी टांगों को ही इन घोड़ों के लिए उपयोगी बना रहा है! संसार के महापुरुषों के कन्धों पर सवार होकर न्यूटन ने दूर दूर तक देखना सीखा था। आज मानव इन महापुरुषों के पैरों के बीच सर झुका अपनी टांगो को भी बेकार कर रहा है। इन साम्प्रदायी अन्धों ने अपनी आंखों पर सम्प्रदाय प्रवर्तक महापुरुषों की पट्टियां बान्ध रखी हैं और इन महापुरुषों को ज्ञान का प्रकाश रोकने वाली दीवारें बना कर बहुत ऊंचा उठा दिया है। इन दीवारों को गिराए बिना, इन पट्टियों को फाड़े बिना किसी का शाश्वत सत्य तक पहुंच पाना भी सम्भव नहीं है।
जड़ परम्पराएं, स्थिर रूढ़ियां चैतन्य मानव पर हावी हो जाती हैं तो वह भी जड़ और पत्थर हो जाता है। कुछ क्षेत्रों में तो मानव पत्थरों से भी गया बीता हो जाता है और पत्थरों को पूजना शुरु कर देता है। चैतन्यता की इससे बड़ी हत्या और क्या हो सकती है? यदि हमें भविष्य को नए उदात्त आयाम देने हैं, सुख की लहलहाती फसल रोपनी है; तो पुरानी बासी परम्पराओं को उखाड़ फेकना होगा और नव अध्यात्म की विवेकपूर्ण यात्राओं के लिए भूमि तैयार करनी होगी। “विवेकरूपी स्वाभाविक प्रकाश समाज की विषम और निष्प्राण परम्पराओं के कारण मन्द पड़ जाता है”- गाडविन। ये विषम तथा निष्प्राण परम्पराएं ध्वस्त करनी होंगी, ताकि विवेक रूपी स्वाभाविक प्रकाश से मानव अन्तस् जगमगा सके।
“वे व्यक्ति तेजी से आगे बढ़ते हैं जो अकेले चलते हैं”- नेपोलियन। अकेले चलना ही तो चलना है। भीड़ में शामिल हो जाना चलना ही कहां है? वहां तो एक दिशा में धकेला जाना है। भीड़ तो भेड़ों के समूह को कहते हैं। कलाकार, साधक, चिन्तक अकेला ही होता है। “मैं अपने ही पूर्ण की अर्चना करता हूं” इमर्सन। सम्प्रदाय प्रतिमा को लील जाते हैं, घेर देते हैं, कुण्ठित कर देते हैं। आसपास की खुली हवाओं को भीतर की और न आने देना ही इनका काम है। जो प्रतिमा इनसे छूट जाती है, साम्प्रदाई आवरण तोड़ देती है वही अध्यात्म पा सकती है। “कलाकारों साधकों के लिए सत्य उसी सीमा तक सार्थक है जिस सीमा तक वे उसे जीवन में उतार सकें और जिस सीमा तक वे उसके द्वारा दृष्टि, जीवन, आदर्श और यथार्थ अस्तित्व को एक जीवन रहित परिधान का रूप दे सके। सत्य के लिए जीना, अन्दर की आवाज के अनुसार आचरण करना ही सभी सच्चे कलाकारों साधकों और अपने लक्ष्य की मादकता में डूबे हुए विद्रोहियों की उत्कण्ठा रही है।”
ये हिन्दु, ये मुसलमान, ये सिक्ख, ये ईसाई आदि सब पीड़ित हैं, संकीर्ण व्यवस्थाओं के निर्बल शिखर हैं, कोल्हू के बैल की तरह पट्टी बन्धी आंखों से बिना देखे गोल-गोल घूमने वाले, अन्धन्तम लोग के निवासी, कीचड़ी अस्तित्व, महान दया के पात्र हैं। ये अध्यात्मिक अपाहिज हैं। इन्हें उदात्त विचार देनें होगें, इनकी आंख पट्टियां फाड़नी होंगी, प्रकाश लोक में इन्हें लाना होगा, इनका कीचड़ धोना होगा, इनकी अध्यात्मिक अपाहिजता दूर करनी होगी, इन्हें बुद्धि देनी होगी, इनमें विवेक तथा परिष्कृति जागृत करनी होगी ताकि ये आदतन न भटकें। भीड़ के साथ तालाब के कीचड़ों में न धंसें। एक प्रेम के लिए अनेक घृणाओं की आग में न जलें। इन्हें उबारना होगा, इन्हें व्यक्तित्व देना होगा, चैतन्यता देनी होगी। मानना की भूल भुलैया से इन्हें जानना के विस्तृत पथ पर लाना होगा। अन्यथा हमारी मानवता अर्चना हमेशा अधूरी रहेगी, अपूर्ण रहेगी।
(~क्रमशः)
स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)