२/३ “एक ही कौम”

0
178

घेरों को घेर दो उन्मुक्त हो ही जाओगे

3.”एक ही कौम”

       “दाया राखे धर्म को पाले जग सूं रहे उदासी।

       अपना सा जीव सबका माने ताही मिले अविनाशी।।”

दया है जिसके मन में, धर्म पर चलता है जो जगत से तटस्थ रहता है। और अपने प्राणों सा सबके प्राणों को जानता है। कबीर कहते हैं “ताहि मिले अविनाशी” उसे जिसका कभी नाश नहीं होता वह परमात्मा मिलता है। हमें हमारे प्राण जितने प्रिय हैं उतनें ही संसार के समस्त प्राणियों को उनके प्राण प्रिय हैं। यह बात जिसने समझ ली वह घेरों में नहीं घिरा रह सकता है।

‘विश्व अपनत्व’ का सोम जिसने पी लिया है, वह “समस्त पिरोई एक ही सूत” को पहचानता है। मानव-मानव तो एक ही विश्वमाला के मनके हैं। एक ही धागा सभी को एक दूसरे से जोड़ता है। वह एक ही पिता है जिससे सबका विकास हुआ है। सभी जीवों में उस एक प्रभु का निवास है। “सब मई रमि रहियो प्रभु एको पेखि पेखि नानक बिगसाई” यह आनन्द हर मानव के लिए सुलभ है। शर्त है तो बस एक कि “विश्व अपनत्व” की धारा से अपना जीवन सरोबार कर लो। “एक ही नूर है जिससे यह जगत विकसित हुआ है। हर मानव प्रकृति पुत्र है। फिर कौन बुरा है और कौन भला?”

              अव्वल अल्ला नूर उपाया,

              कुदरत दे सब बन्दे।

              एक नूर तें सब जग उपजया,

              कौन भले कौन मन्दे?

भले बुरे का भेद मिटाना प्रथम आवश्यकता है उस एक नूर तक पहुंचने की। उस सर्वाधार नूर तक पहुंचना, उसे जानना पहचानना ही अध्यात्म है।

“अपने दिल को पाक कर”जिसका दिल पाक नहीं है उसका धर्म मर जाता है। दिल में छुपी सबके लिए जो मुहब्बत है, उसे पहचानना ही दिल का पाक होना है। “सभी इन्सान हैं एक कौम के”यह महामन्त्र है अध्यात्म का। सभी इन्सानों का एक ही कौम का होना, आपस में भाईचारा होना, स्नेह होना कितना बड़ा सत्य है। “लोगों ने अलग-अलग होकर अपने अपने बाड़े बना लिए हैं। पर जाना है सबको एक ही प्रभु के पास।” सबको घेरे घेरने ही होंगे। घेरों से बड़ा होना ही होगा। अपने-अपने बाड़े तोड़ने होंगे। उस अल्लाह के पास जाने के लिए। सबके दिलों को एक सूत्र में पिरोने का काम सर्वपिता का है। “अल्लाह ने सबके दिल एक कर दिए हैं। सबके दिलों के भीतर मुहोब्बत भर दी है। तुम सारी दुनियां की दौलत खर्च कर देते तो भी सबके दिलों को एक नहीं कर पाते। लेकिन अल्लाह ने सब में मुहब्बत भर दी है।” इस मुहब्बत के पाक तार पर जो जीवन संगीत गाता है वही नबी होता है, मोमिन होता है।

“तुम में से कोई मोमिन नहीं हो सकता। जब तक कि अपने भाई के लिए वही न चाहे जो अपने लिए चाहते हो।” बुखारी और मुस्लिम! इस कथन की सच्चाई को कर्मों से आंकना होगा। अपने आपको कर्मों से आंज-आंज कर पाक करना होगा, तराशना होगा। मुहब्बत से तराशा गया आदमी देवता होता है। “अल्लाह तुमसे मुहब्बत करता है, जैसा कि तुम अल्लाह के लिए उसके बन्दों से मुहब्बत करते हो।” -मुस्लिम। कुरान की ही एक आयत में कहा है “सबसे अफजल सबसे उम्दा मजहब यह है कि जिसे तुम अपने लिए करीह या तकलीफदेह समझते हो, उसे सबके लिए तकलीफदेह समझते हुए किसी के प्रति वैसा व्यवहार मत करो।” यह उम्दा मजहब ही अध्यात्म है, धर्म है।

अध्यात्म पथ बड़ा स्पष्ट है उनके लिए जिनके मस्तिष्क के कपाट खुले हुए हैं। मस्तिष्क के कपाट बन्द होने पर अध्यात्म पथ सर्वाधिक अस्पष्ट हो जाता है। जिसकी छाया पड़ने से इन्सान अन्धा हो जाता है वह सम्प्रदाय है। जिसकी छाया पड़ने से इन्सान की आंख खुल जाती है, वह अध्यात्म है। अन्धा वही कुछ देख पाता है जो उसे शब्दों से दिखाया जाता है। आंखों वाला अतिरिक्त भी देखता है। भीड़ क्यों हो जाता है आदमी? भीड़ भी बड़ों-बड़ों की आंखें अन्धी कर देती है। एक दफा इलाहाबाद में कुम्भ का मेला था। 60 लाख लोग वहां इकट्ठे थे । पण्डित नेहरु ने वह देखा। उनकी आंखों में पानी आ गया। पण्डित नेहरु पुरानी पद्धति के धार्मिक नहीं थे। उन्होंने कहा “60 लाख यानी युरोप का एक राष्ट्र हो गया। इतने लोग ढोंगी नहीं हो सकते।” पण्डित नेहरु जैसे व्यक्ति को भी भीड़ अन्धा कर देती है। वह अपनी राख का अंश गंगा में प्रवाहित करने की कामना कर मर जाता है।

“प्रत्येक दिशा से हमें नेक और शुभ विचार प्राप्त हों।” हम दिशाओं में फैलें। इस व्यापक विश्व में “जो जानता है फैले हुए उस सूत्र को, जिसमें सब प्रजाएं पिरोई हैं वह सूत्र के सूत्र को जानता है, वह ब्रह्म को जानता है।” ब्रह्मवेत्ता होने की आवश्यक शर्त है प्रेम की लड़ी को पहचानना। उस लाली को पहचानना जो लाल की है। मानव सबसे अधिक प्रेम अपने आप से करता है। क्योंकि अपने आप के लिए सब प्रेम करते हैं। अपने आप से किए जाने वाले प्रेम का विस्तार करना धर्मं का प्रथम चरण है। “जो संसार के समस्त प्राणियों को आत्मवत जानता है, उसे कहां मोह, कहां शोक? वह तो एक ही एक देखता है।” मोह, शोक रहित होने का न्यूनतम सरल रैखिक पथ है अपने आपसे किए जाने वाले प्यार का विस्तार। जो अपने आप या दूसरे को नहीं चाह सकता वह अध्यात्मिक नही हो सकता, मानव नहीं हो सकता है। हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई आदि न अध्यामिक हैं, न मानव। (~क्रमशः)

स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय

पी.एच.डी. (वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here