तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु
हों विमल संकल्प मेरे उस सतत गतिशील मन के।
हा शिवम् संकल्प मेरे उस सतत गतिशील मन के।। टेक।।
दूरगामी जागरण में ठीक वैसा जो शयन में।
ज्योतियों ज्योति प्रतिपल चंक्रमण करता भुवन में।
एक वह ही दिव्य देता खोल जो परदे भुवन के।। 1।।
यज्ञ क्या युद्धादि सारे संयमी जिसके सहारे।
कर्म करते इन्द्रियां सब व्यर्थ ही जिसके बिना रे।
झिलमिला पीछे रहा जो जीव के प्रति आचरण के।। 2।।
पूर्ण है प्रज्ञान से जो धैर्य से अवद्यान से जो।
ज्योति अमृत देह में है ज्ञेय बस अनुमान से जो।
कुछ नहीं सम्भव बिना जिस मूल प्रेरक उत्करण के।। 3।।
भूत भावी का विमल का वश न जिस पर एक क्षण का।
बुद्धि से बुद्धीन्द्रियों से युक्त जीवन के यजन का।
कर रहा विस्तार जिसमें बीज अन्तर्हित सृजन के।। 4।।
वेद जिसमें हैं समाहित ज्यों अरे रथ नाभि आहित।
इन्द्रियों का ज्ञान जिसके हो रहा भीतर प्रवाहित।
वस्त्रवत संवीत जिसके सूत्र चिन्तन के मनन के।। 5।।
ज्यों रथी अभिलषित पथ पर हांकता हय बैठ रथ पर।
त्यों मनुज को जो चलाता डाल कर डेरा सृहृत पर।।
चिरयुवा जो छोड़ देता वेग को पीछे पवन के।। 6।।