अति आत्म साधना का एक समुच्चय ”स्वधा“”स्वदा“संबंधि भी है। वह इस प्रकार है-
सप्त अर्चना
गृहनियन्ता विश्वे देवा
बलधा बलदा
ओजधा ओजदा
ऋतधा ऋतदा
शृतधा शृतदा
अमृतधा अमृतदा
स्वधा स्वदा
स्वः नाम है अनाहत के अव्याहत गति संकल्प द्वारा आह्लाद आनन्द पाने जीने का। भरथरी संसार क्षेत्र में स्वधा प्रबन्धन का प्रारूप इस प्रकार का देते हैं।
अ) भोग:- ऐश्वर्य नाम है ‘भग’का। भग के तीन रूप हैं सत, रज, तम। इन्हें आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्यात्मिक भी कहा जा सकता है। आधिभौतिक भग से छोटे रह जाने का नाम तम भोग है। आधिदेविक आध्यात्मिक भग से छोटे रह जाने का नाम क्रमशः रज भोग, सत भोग है। इन तीनों का विवेकानुसार प्राप्त करने में उपयोग करना भगवान गति है। भरथरी भोग के निम्नलिखित गुण बताते हैं-
1) भंगुरवृत्तयोः:- भोग भंगुर वृत्ति है। स्वरूप से टूटना वृत्ति है। वृत्ति सातत्य से भी टूटना भंगुर वृत्ति है। परियोजना कार्य एक सातत्य वृत्ति कार्य है। पिछले दस वर्ष मैंने पांच परियोजना प्रभारियों के अन्तर्गत कार्य किया है। इन पांचों को शराब भोग वृत्ति भंगुरता की दृष्टि से क्रमबद्ध इस प्रकार किया जा सकता है-
1) पार्टियों में भी न जाने वाले,
2) पार्टियों में जाने वाले न पीने वाले,
3) पार्टियों में जाने वाले अत्यल्प पीने वाले,
4) पार्टियों में जाने वाले पीने वाले,
5) पार्टियों में जाने वाले अति पीने वाले,
प्रथम तीन के काल में परियाजना कार्य सम्पन्नता, गुणवत्ता, सटीकता, मजबूती, समय की तुलना में उनकी वृत्ति भंगुरता के अनुरूप ही हुई ऐसा मेरा अवलोकन है। यह भी एक तथ्य रहा है मेरी इन पांचों के प्रति निकटता भी इसी क्रम के अनुरूप ही रही। भोग श्वो-भाव (आज है कल नहीं) होने के कारण भी भंगुरवृत्ति है। भोग तर्पणीय नहीं इसलिए भी भंगुरवृत्ति है। तर्पण सन्तोष- परितृप्ति का नाम है।
2) बहुविधा स्तर:- शराब के उदाहरण से ही लिया जाए तो एक घटना इस प्रकार की है। विश्वकर्मा पूजा दिवस है। यह घोर आश्चर्य है कि शराब कार्यक्षेत्र तथा सार्वजनिक स्थलों कार्य दौरान वर्जित है। मेरे अनुभव में तो निर्जन बस्तियों को छोड़ दिया जाए तो करीब करीब सारी व्यवस्था अपवाद छोड़ वर्जन के वर्जन के सिद्धान्तों को ही जी रही है। विश्वकर्मा दिवस मैं एक ठेकेदार के ऑफिस गया। यह ठेकेदार ”जाति विक्षेप“निर्मित है। ठेकेदार मुझे विशेष कक्ष ले गया। रूस की मूल वोदका (वरिष्ठ उदक जो चढ़ जाए = वोदका) कुरकुरे नमकीन के साथ उसने टेबल पर रखी। मेरे मित्रों ने ली मैंने पानी में अत्यल्प ली। ठेकेदार पर कुछ चढ़ी थी। उसने रहस्योद्घाटन किया-
”यह विभागप्रमुख के घर से आई उसे रूसी कंपनी के रूसी विशेषज्ञों द्वारा दी मूल वोदका है।“”तुम्हें कैसे मिली? साहब तो पीते हैं न?“- मैंने पूछा। ”साहब तो हाईक्लास हैं सिग्नेचर पीते हैं सिग्नेचर!“ वह बोला।
बहुविधा स्तर हैं भोग के सफल ठेकेदार वह है जो बडे से बडे साहब के छोटे कम बडे स्तर भोगों को बडे से बडे स्तरो से विस्थापित कर सके और बडे साहब प्रत्युत्तर में ठेकेदार को बडे ठेकोें के स्तर पर स्थापित कर देंगे।
भरथरी स्वधा प्रबन्धन इससे सावधान करता है व्यवस्था को। ”भोगा बहुविधास्तरैव“एक चेतावनी है व्यवस्था को।
3) भवस है भोग:- भव कहते हैं संसार को। भव का प्रारूप है जन्म, मृत्यु और रूप। शत वर्ष के जन्म मृत्यु में कई कई जन्म मृत्यु रूपों में ढल जाने का नाम भवस है। व्यक्ति अगर इनमें जीने मरने लगे रूप बदलने लगे तो यही है भोग भवस।
‘भोग भवस’नहीं हो सकता है प्रबन्धक। प्रबन्धन योग का क्षेत्र है भोग नहीं।
4) व्यर्थ चेष्टा:- लघु लघु भोग आवेग वस्तुतः व्यर्थ चेष्टा है। इनको करने से कोई दीर्घ लाभ नहीं होने वाला है। वस्तुतः प्रबन्ध्ान में ये आवेग हानीकर हैं। शराब, तम्बाखू, पान पराग, मानकचंद, चाय नाश्तादि वे व्यर्थ चेष्टाएं हैं जो लघु लघु व्यवधान हैं तथा नियोजित कार्य को पीछे ढकेलते हैं। ये व्यर्थ चेष्टाएं कभी कभी चमचागिरी का साधन होकर प्रमोशनादि का कारण होकर और निरर्थ हो जाती है। ये क्रियाएं परिभ्रमित करती हैं।
आशापाशशत:- शत शत आश निराश पाश भी कार्य मध्य के रोडे़ हैं। वर्तमान प्रबन्धन कार्य सम्बन्धित कम पर पदोन्नति आशा, बोनस आशा, डी.ए. बुद्धि आशा, जवाहर नेहरु जवाहरलालादि पुरस्कार आशा, श्रमवीर पुरस्कार आशा अधिक है। ये आशा पाश उछाह कम पर निराशा अधिक फैलाते हैं। इनका वितान बड़ा ही विशद है। इनके समय निकट आने पर व्यवस्था तत् संबन्धी चर्चा में समय बर्बाद करती रहती है। खबरों अफवाओं का बाजार इतना गरम होता है कि मूल कार्य पृष्ठभूमि में चला जाया करता है।
भोग एवं आशा पाश शत रुकावटें हैं प्रबन्धन पथ में। इनके निराकरण के या सुप्रबन्धन के भरथरी तत्व इस प्रकार हैं।
1) उपशान्ति विशदम:- इन भोग एवं आशापाशों की उपशान्ति के विशद प्रयास करने चाहिएं। विशद शब्द महत्पूर्ण है। हरपल इनके प्रति सावधान जागरूक रहने चाहिए। उपशान्ति विशदम के उदाहरण कुछ संस्थान हैं। सुरक्षा संगठन निर्माण दस वर्षों तक मेरे काल के अन्तिम डेढ वर्ष छोड उपशान्ति विशदम के सिद्धान्तानुरूप अनुशासनबद्ध (समय और कार्य दोनों के) आयोजनबद्ध कार्य करता था। डेढ वर्ष पूर्व से उच्च प्रबन्धन प्रभारियों के भाग्यवाद, भोगवाद, व्यक्तिवाद ने इसे तहस नहस कर दिया।
”देहली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन“उपशान्ति विशदम का उदाहरण है। यहां अ) समयपाबंदि है। विलंब से आने पर निश्चित्तः आधे दिन की आकस्मिक छुट्टि लेनी पड़ती है। ब) कार्यस्थल भोग (नाश्तादि) कुछ नहीं है। स) आगन्तुकवाद नहीं है। द) राजनैतिक चर्चाएं गपशप नहीं हैं। ई) अनिश्चितकालीन रखी ‘रोकी’फाइलें नहीं हैं। फ) पान, तम्बाखू व्यवस्था नहीं है। य) चपरासी व्यवस्था नहीं है। र) कार्य एकक कक्ष निर्जन क्षेत्र में है। ल) उल्टी घड़ी कार्य माप करती है। उलटी गिनती व्यवस्था कार्य आयोजन की या प्रतिपूर्ति की है।
इसके नियामक हैं ई श्रीधरन जो विभाग प्रमुख हैं। इस उपशान्ति विशदम व्यवस्था मात्र में सम्पूर्ण कार्य निष्पादन अवधि 12 वर्षों में से 5 वर्ष कटौती कर ली है। शान्ति विशदम व्यवस्था में इसके साथ ही साथ सांतसा प्रत्ययों का प्रयोग भी आवश्यक है।
2) चेतम:- चैतन्यतापूर्वक, चिन्तनपूर्वक उपरोक्त उपशान्ति विशदम के प्रयास किए जाते हैं। तन मन आत्म सुक्रमबद्धता के समान सुव्यवस्थित आयोजन करने की प्रक्रिया को चेतम कहते हैं।
3) समाधीयताम्:- आधिपत्य सूत्र को अपने हाथ में रखते हुए आधिपत्य के सम वितरण का नाम समाधीयताम् व्यवस्था है। समाध्ाि अवस्था में जैसे चैतन्यता तन में, मन में, बुद्धि में, प्रज्ञा में, मेधा में, आत्म में, सम वितरित होती है। वैसे ही सत्ता का संस्थान में वितरण समाधीयताम् है।
4) मुमुक्षता:- लक्ष्य समर्पितावस्था का नाम मुमुक्षुत्व है। लक्ष्य प्राप्ति की उत्कट शुभ ही शुभ इच्छा को मुमुक्षुता कहते हैं। मुमुक्षुत्व की समूह भावना का आदर्श प्रारूप ऋग्वेद का संगठन सूक्त है। जो आदर्श कार्य समूह भी है।
5) श्रद्धा:- वेद नियम, आप्त वचन, शृत नियमों की कार्य आस्था का नाम श्रद्धा है। कार्य व्यवहार में सांतसा का अनुपालन श्रद्धा के ही परिणामस्वरूप ही होगा।
उपरोक्त प्रबन्धन स्वधा प्रबन्धन है कि यह आह्लादपूर्वक, तथा आनन्दपूर्वक होगा। इसमें ऋत शृत नियमों का ताना बाना होगा। जिसमें चैतन्यता श्रद्धा का भराव होगा।
स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)