अथ ऋत्विग्वरणम्
यजमानोक्तिः :- ओम् आवसो सदने सीद।
ऋत्विगुक्तिः :- ओं सीदामि।
यजमानोक्तिः :- ओं तत्सत् श्रीब्रह्मणो द्वितीयप्रहरोत्तरार्द्धे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमें कलियुगे कलिप्रथम- चरणेऽमुक….. संवत्सरे, …..अयने, …..ऋतौ, …..मासे, …..पक्षे, …..तिथौ, …..दिवसे, …..लग्ने, …..मुहुर्ते जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तदेशान्तर्गते …..प्रान्ते, …..जनपदे, …..मण्डले, …..ग्रामे/नगरे, …..आवासे/भवने अहम् …..कर्मकरणाय भवन्तं वृणे।
ऋत्विगुक्तिः :- वृतोऽस्मि।
अथाचमन-मन्त्राः
ओम् अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।। १।। इससे एक
ओम् अमृतापिधानमसि स्वाहा।। २।। इससे दूसरा
ओ३म् सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा।। ३।। (तैत्तिरीय आरण्यक प्र. १०/अनु. ३२, ३५) इससे तीसरा आचमन करके तत्पश्चात् जल लेकर नीचे लिखे मन्त्रों से अंगों को स्पर्श करें।
अथ अङ्गस्पर्श-मन्त्राः
ओं वाङ्म आस्ये ऽ स्तु। इस मन्त्र से मुख
ओं नसोर्मे प्राणो ऽ स्तु। इस मन्त्र से नासिका के दोनों छिद्र
ओं अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु। इस मन्त्र से दोनों आंख
ओं कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु। इस मन्त्र से दोनों कान
ओं बाह्वोर्मे बलमस्तु। इस मन्त्र से दोनों बाहु
ओम् ऊर्वोर्म ओजो ऽ स्तु। इस मन्त्र से दोनों जंघा
ओम् अरिष्टानि मे ऽ ङ्गानि तनूस्तन्वा मे सह सन्तु। इस मन्त्र से दाहिने हाथ से जल स्पर्श करके मार्जन करना। (पारस्कर गृ.का.२/क.३/सू.२५)
अथ-ईश्वर-स्तुति-प्रार्थनोपासनामन्त्राः
ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।
यद् भद्रन्तन्न ऽ आसुव।। १।। (यजु अ.३०/मं.३)
हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके हमारे सम्पूर्ण दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए; जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं वह सब हमको प्राप्त कीजिए।
सकल जगत के उत्पादक हे, हे सुखदायक शुद्ध स्वरूप।
हे समग्र ऐश्वर्ययुक्त हे, परमेश्वर हे अगम अनूप।।
दुर्गुण-दुरित हमारे सारे, शीघ्र कीजिए हमसे दूर।
मंगलमय गुण-कर्म-शील से, करिए प्रभु हमको भरपूर।।
हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक ऽ आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।। २।। (यजु.अ.१३/मं.४)
जो स्वप्रकाश स्वरूप और जिसने प्रकाश करनेहारे सूर्य चन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किए हैं। जो उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का प्रसिद्ध स्वामी एक ही चेतन स्वरूप था। जो सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्व वर्तमान था। सो इस भूमि और सूर्यादि का धारण कर रहा है। हम लोग उस सुखस्वरूप शुद्ध परमात्मा के लिए ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अतिप्रेम से विशेष भक्ति किया करें।
छिपे हुए थे जिसके भीतर, नभ में तेजोमय दिनमान।
एक मात्र स्वामी भूतों का, सुप्रसिद्ध चिद्रूप महान्।।
धारण वह ही किए धरा को, सूर्यलोक का भी आधार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।
य ऽ आत्मदा बलदा यस्य विश्व ऽ उपासते प्रशिषं यस्य देवाः।
यस्य छाया ऽ मृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। ३।। (यजु.२५/१३)
जो आत्मज्ञान का दाता, शरीर, आत्मा और समाज के बल का देनेहारा है। जिसकी सब विद्वान लोग उपासना करते हैं। जिसके प्रत्यक्ष सत्यस्वरूप शासन, न्याय अर्थात् शिक्षा को मानते हैं। जिसका आश्रय ही मोक्ष सुखदायक है। जिसका न मानना अर्थात् भक्ति इत्यादि न करना ही मृत्यु आदि दुःख का हेतु है। हम लोग उस सुखस्वरूप, सकल ज्ञान के देनेहारे परमात्मा की प्राप्ति के लिए आत्मा और अन्तःकरण से भक्ति अर्थात् उसी की आज्ञा पालन करने में तत्पर रहें।
आत्मज्ञान का दाता है जो, करता हमको शक्ति प्रदान।
विद्वद्वर्ग सदा करता है, जिसके शासन का सम्मान।।
जिसकी छाया सुखद सुशीतल, दूरी है दुःख का भंडार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।
यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक ऽ इद्राजा जगतो बभूव।
य ऽ ईशे ऽ अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। ४।। (ऋ. १०/१२१/३)
जो प्राणवाले और अप्राणिरूप जगत् का अपनी अनन्त महिमा से एक ही विराजमान राजा है। जो इस मनुष्यादि और गौ आदि प्राणियों के शरीर की रचना करता है। हम लोग उस सुखस्वरूप सकल ऐश्वर्य के देनेहारे परमात्मा की उपासना अर्थात् अपनी सकल उत्तम सामग्री को उसकी आज्ञापालन में समर्पित करके उसकी विशेष भक्ति करें।
जो अनन्त महिमा से अपनी, जड़-जंगम का है अधिराज।
रचित और शासित हैं जिससे, जगतिभर का जीव समाज।।
जिसके बल विक्रम का यश का, कण-कण करता जयजयकार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।
येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढ़ा येन स्वः स्तभितं येन नाकः।
यो ऽ न्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। ५।। (यजु.अ.३२/मं.६)
जिस परमात्मा ने तीक्ष्ण स्वभाव वाले सूर्य आदि और भूमि को धारण किया है, जिस जगदीश्वर ने सुख को धारण किया है और जिस ईश्वर ने दुःख रहित मोक्ष को धारण किया है। जो आकाश में सब लोक-लोकान्तरों को विशेष मानयुक्त अर्थात् जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं वैसे सब लोकों निर्माण करता और भ्रमण कराता है, हम लोग उस सुखदायक कामना करने के योग्य परब्रह्म की प्राप्ति के लिए सब सामर्थ्य से विशेष भक्ति करें।
किया हुआ है धारण जिसने, नभ में तेजोमय दिनमान।
परमशक्तिमय जो प्रभु करता, वसुधा को अवलम्ब प्रदान।।
सुखद मुक्तिधारक लोकों का, अन्तरिक्ष में सिरजनहार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।
प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव।
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्।। ६।। (ऋ.म.१०/सू.१२१/मं.१०)
हे सब प्रजा के स्वामी परमात्मा आप से भिन्न दूसरा कोई उन इन सब उत्पन्न हुए जड़-चेतनादिकों को नहीं तिरस्कार करता है, अर्थात् आप सर्वोपरी हैं। जिस-जिस पदार्थ की कामनावाले हम लोग आपका आश्रय लेवें और वांच्छा करें, वह कामना हमारी सिद्ध होवे, जिससे हम लोग धनैश्वर्यों के स्वामी होवें।
जड़ चेतन जगति के स्वामी, हे प्रभु तुमसा और नहीं।
जहां समाए हुए न हो तुम, ऐसा कोई ठौर नहीं।।
जिन पावन इच्छाओं को ले, शरण आपकी हम आएं।
पूरी होवें सफल सदा हम, विद्या-धन-वैभव पाएं।।
स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।
यत्र देवा ऽ अमृतमानशाना- स्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त।। ७।। (यजु.अ.३२/मं.१०)
हे मनुष्यों वह परमात्मा अपने लोगों का भ्राता के समान सुखदायक, सकल जगत् का उत्पादक, वह सब कामों का पूर्ण करनेहारा, सम्पूर्ण लोकमात्र और नाम-स्थान-जन्मों को जानता है। जिस सांसारिक सुख-दुःख से रहित नित्यानन्दयुक्त मोक्षस्वरूप धारण करनेहारे परमात्मा में मोक्ष को प्राप्त होके विद्वान् लोग स्वेच्छापूर्व्रक विचरते हैं वही परमात्मा अपना गुरु, आचार्य, राजा और न्यायाधीश है। अपने लोग मिलके सदा उसकी भक्ति किया करें।
भ्राता तुल्य सुखद् वह ही प्रभु, सकल जगत् का जीवन प्राण।
मानव के सब यत्न उसी की, करुणा से होते फलवान।।
सदानन्दमय धाम तीसरा, सुख-दुःख के द्वन्द्वों से दूर।
करके प्राप्त उसे ज्ञानी जन, आनन्दित रहते भरपूर।।
अग्ने नय सुपथा राये ऽ अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम ऽ उक्तिं विधेम।। ८।। (यजु.अ.४०/मं.१६)
हे स्वप्रकाश, ज्ञानस्वरूप, सब जगत् के प्रकाश करनेहारे सकल सुखदाता परमेश्वर ! आप जिससे सम्पूर्ण विद्यायुक्त हैं, कृपा करके हम लोगों को विज्ञान वा राज्यादि ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए अच्छे धर्मयुक्त आप्त लोगों के मार्ग से सम्पूर्ण प्रज्ञान और उत्तम कर्म प्राप्त कराइये और हमसे कुटिलतायुक्त पापरूप कर्म को दूर कीजिए। इस कारण हम लोग आपकी बहुत प्रकार से नम्रतापूर्वक स्तुति सदा किया करें और आनन्द में रहें।
स्वयं प्रकाशित ज्ञानरूप हे ! सर्वविद्य हे दयानिधान।
धर्ममार्ग से प्राप्त कराएं, हमें आप ऐश्वर्य महान्।।
पापकर्म कौटिल्य आदि से, रहें दूर हम हे जगदीश।
अर्पित करते नमन आपको, बारंबार झुकाकर शीश।।
अथ स्वस्तिवाचनम्
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्।
होतारं रत्नधातमम्।। १।। (ऋ.१/१/१)
स नः पितेव सूनवेऽग्ने सूपायनो भव।
सचस्वा नः स्वस्तये।। २।। (ऋ.१/१/९)
स्वस्ति नो मिमीतामश्विना भगः स्वस्ति देव्यदितिरनर्वणः।
स्वस्ति पूषा असुरो दधातु नः स्वस्ति द्यावापृथिवी सुचेतुना।।३।। (ऋ.५/५१/११)
स्वस्तये वायुमुप ब्रवामहै सोमं स्वस्ति भुवनस्य यस्पतिः।
बृहस्पतिं सर्वगणं स्वस्तये स्वस्तय आदित्यासो भवन्तु नः।। ४।। (ऋ.५/५१/१२)
विश्वे देवा नो अद्या स्वस्तये वैश्वानरो वसुरग्निः स्वस्तये।
देवा अवन्त्वृभवः स्वस्तये स्वस्ति नो रुद्रः पात्वंहसः।। ५।। (ऋ.५/५१/१३)
स्वस्ति मित्रावरुणा स्वस्ति पथ्ये रेवति।
स्वस्ति न इन्द्रश्चाग्निश्च स्वस्ति नो अदिते कृधि।। ६।। (ऋ.५/५१/१४)
स्वस्ति पन्थामनु चरेम सूर्याचन्द्रमसाविव। पुनर्ददताघ्नता जानता सं गमेमहि।। ७।।
(ऋ.५/५१/१५)
ये देवानां यज्ञिया यज्ञियानां मनोर्यजत्रा अमृता ऋतज्ञाः।
ते नो रासन्तामुरुगायमद्य यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः।। ८।। (ऋ.७/३५/१५)
येभ्यो माता मधुमत्पिन्वते पयः पीयूषं द्यौ- रदितिरद्रिबर्हाः।
उक्थशुष्मान् वृषभरान्त्स्वप्नसस्ताँ आदित्याँ अनुमदा स्वस्तये।। ९।। (ऋ.१०/६३/३)
नृचक्षसो अनिमिषन्तो अर्हणा बृहद्देवासो अमृतत्वमानशुः।
ज्योतीरथा अहिमाया अनागसो दिवो वर्ष्माणं वसते स्वस्तये।। १०।।
(ऋ.१०/६३/४)
सम्राजो ये सुवृधो यज्ञमाययुरपरिह्वृता दधिरे दिवि क्षयम्।
ताँ आ विवास नमसा सुवृक्तिभिर्महो आदित्याँ अदितिं स्वस्तये।। ११।। (ऋ.१०/६३/५)
को वः स्तोमं राधति यं जुजोषथ विश्वे देवासो मनुषो यति ष्ठन।
को वोऽध्वरं तुविजाता अरं करद्यो नः पर्षदत्यंहः स्वस्तये।। १२।।
(ऋ.१०/६३/६)
येभ्यो होत्रां प्रथमामायेजे मनुः समिद्धाग्निर्मनसा सप्त होतृभिः।
त आदित्या अभयं शर्म यच्छत सुगा नः कर्त सुपथा स्वस्तये।। १३।। (ऋ.१०/६३/७)
य ईशिरे भुवनस्य प्रचेतसो विश्वस्य स्थातुर्जगतश्च मन्तवः।
ते नः कृतादकृतादेनसस्पर्यद्या देवासः पिपृता स्वस्तये।।
।। १४।। (ऋ.१०/६३/८)
भरेष्विन्द्रं सुहवं हवामहेंऽहोमुचं सुकृतं दैव्यं जनम्।
अग्निं मित्रं वरुणं सातये भगं द्यावापृथिवी मरुतः स्वस्तये।। १५।। (ऋ.१०/६३/९)
सुत्रामाणं पृथिवीं द्यामनेहसं सुशर्माणमदितिं सुप्रणीतिम्।
दैवीं नावं स्वरित्रामनागसमस्रवन्तीमा रुहेमा स्वस्तये।। १६।। (ऋ.१०/६३/१०)
विश्वे यजत्रा अधि वोचतोतये त्रायध्वं नो दुरेवाया अभिह्रुतः।
सत्यया वो देवहूत्या हुवेम शृण्वतो देवा अवसे स्वस्तये।। १७।। (ऋ.१०/६३/११)
अपामीवामप विश्वामनाहुतिमपारातिं दुर्विदत्रा- मघायतः।
आरे देवा द्वेषो अस्मद्युयोतनोरु णः शर्म यच्छता स्वस्तये।। १८।। (ऋ.१०/६३/१२)
अरिष्टः स मर्तो विश्व एधते प्र प्रजाभिर्जायते धर्मणस्परि।
यमादित्यासो नयथा सुनीतिभिरति विश्वानि दुरिता स्वस्तये।। १९।। (ऋ.१०/६३/१३)
यं देवासोऽवथ वाजसातौ यं शूरसाता मरुतो हिते धने।
प्रातर्यावाणं रथमिन्द्र सानसिमरिष्यन्तमा रुहेमा स्वस्तये।। २०।। (ऋ.१०/६३/१४)
स्वस्ति नः पथ्यासु धन्वसु स्वस्त्यप्सु वृजने स्वर्वति।
स्वस्ति नः पुत्रकृथेषु योनिषु स्वस्ति राये मरुतो दधातन।। २१।। (ऋ.१०/६३/१५)
स्वस्तिरिद्धि प्रपथे श्रेष्ठा रेक्णस्वत्यभि या वाममेति।
सा नो अमा सो अरणे नि पातु स्वावेशा भवतु देवगोपा।। २२।। (ऋ.१०/६३/१६)
इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणऽआप्यायध्वमघ्न्या इन्द्राय भागं प्रजावतीरनमीवाऽअयक्ष्मा मा व स्तेनऽईशत माघश सो ध्रुवाऽअस्मिन् गोपतौ स्यात बह्वीर्यजमानस्य पशून् पाहि।। २३।। (यजु.१/१)
आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो- ऽ अपरीतासऽउद्भिदः।
देवा नो यथा सदमिद् वृधेऽअसन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवेदिवे।। २४।।
(यजु.२५/१४)
देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवाना द्भञ रातिरभि नो निवर्त्तताम्।
देवाना द्भञ सख्यमुपसेदिमा वयं देवा न आयुः प्रतिरन्तु जीवसे ।।२५।।
(यजु.२५/१५)
तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियञ्जिन्वमवसे हूमहे वयम्।
पूषा नो यथा वेदसामसद् वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये।। २६।। (यजु.२५/१८)
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो ऽ अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।। २७।। (यजु.२५/१९)
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवा द्भञ सस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः।। २८।। (यजु.२५/२१)
अग्न आ याहि वीतये गृणानो हव्यदातये।
नि होता सत्सि बर्हिषि।। २९।। (सा.पू.१/१/१)
त्वमग्ने यज्ञाना द्भञ होता विश्वेषा द्भञ हितः।
देवेभिर्मानुषे जने।। ३०।। (सा.पू.१/१/२)
ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभ्रतः।
वाचस्पतिर्बला तेषां तन्वोऽअद्य दधातु मे।। ३१।। (अथर्व.१/१/१)
अथ शान्तिकरणम्
शं न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शं न इन्द्रावरुणा रातहव्या।
शमिन्द्रासोमा सुविताय शं योः शं न इन्द्रापूषणा वाजसातौ।। १।। (ऋ.७/३५/१)
शं नो भगः शमु नः शंसो अस्तु शं नः पुरन्धिः शमु सन्तु रायः।
शं नः सत्यस्य सुयमस्य शंसः शं नो अर्यमा पुरुजातो अस्तु।। २।। (ऋ.७/३५/२)
शं नो धाता शमु धर्ता नो अस्तु शं न उरूची भवतु स्वधाभिः।
शं रोदसी बृहती शं नो अद्रिः शं नो देवानां सुहवानि सन्तु।। ३।। (ऋ.७/३५/३)
शं नो अग्निर्ज्योतिरनीको अस्तु शं नो मित्रावरुणावश्विना शम्।
शं नः सुकृतां सुकृतानि सन्तु शं न इषिरो अभि वातु वातः।। ४।। (ऋ.७/३५/४)
शं नो द्यावापृथिवी पूर्वहूतौ शमन्तरिक्षं दृशये नो अस्तु।
शं न ओषधीर्वनिनो भवन्तु शं नो रजसस्पतिरस्तु जिष्णुः।। ५।। (ऋ.७/३५/५)
शं न इन्द्रो वसुभिर्देवो अस्तु शमादित्येभिर्वरुणः सुशंसः।
शं नो रुद्रो रुद्रेभिर्जलाषः शं नस्त्वष्टा- ग्नाभिरिह शृणोतु।। ६।। (ऋ.७/३५/६)
शं नः सोमो भवतु ब्रह्म शं नः शं नो ग्रावाणः शमु सन्तु यज्ञाः।
शं नः स्वरूणां मितयो भवन्तु शं नः प्रस्वः शम्वस्तु
वेदिः।। ७।। (ऋ.७/३५/७)
शं नः सूर्य उरुचक्षा उदेतु शं नश्चस्रः प्रदिशो भवन्तु।
शं नः पर्वता ध्रुवयो भवन्तु शं नः सिन्धवः शमु सन्त्वापः।। ८।। (ऋ.७/३५/८)
शं नो अदितिर्भवतु व्रतेभिः शं नो भवन्तु मरुतः स्वर्काः।
शं नो विष्णुः शमु पूषा नो अस्तु शं नो भवित्रं शम्वस्तु वायुः।। ९।।
(ऋ.७/३५/९)
शं नो देवः सविता त्रायमाणः शं नो भवन्तूषसो विभातीः
शं नः पर्जन्यो भवतु प्रजाभ्यः शं नः क्षेत्रस्य पतिरस्तु शम्भुः।। १०।। (ऋ.७/३५/१०)
शं नो देवा विश्वदेवा भवन्तु शं सरस्वती सह धीभिरस्तु।
शमभिषाचः शमुरातिषाचः शं नो दिव्याः पार्थिवाः शं नो अप्याः।। ११।।
(ऋ.७/३५/११)
शं नः सत्यस्य पतयो भवन्तु शं नो अर्वन्तः शमु सन्तु गावः।
शं नः ऋभवः सुकृतः सुहस्ताः शं नो भवन्तु पितरो हवेषु।। १२।।
(ऋ.७/३५/१२)
शं नो अज एकपाद्देवो अस्तु शं नोऽहिर्बुध्न्यः शं समुद्रः।
शं नो अपां नपात्पेरुरस्तु शं नः पृश्निर्भवतु देवगोपाः।। १३।। (ऋ.७/३५/१३)
इन्द्रो विश्वस्य राजति। शन्नोऽअस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे।। १४।। (यजु.३६/८)
शन्नो वातः पवता द्भञ शन्नस्तपतु सूर्य्यः।
शन्नः कनिक्रदद्देवः पर्जन्योऽअभि वर्षतु।। १५।। (यजु.३६/१०)
अहानि शम्भवन्तु नः श रात्रीः प्रति धीयताम्।
शन्न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शन्न इन्द्रावरुणा रातहव्या।
शन्न इन्द्रापूषणा वाजसातौ शमिन्द्रासोमा सुविताय शंयोः।। १६।। (यजु.३६/११)
शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये।
शंयोरभि स्रवन्तु नः।। १७।। (यजु.३६/१२)
द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि।। १८।। (यजु.३६/१७)
तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्।
पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शत शृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतम्भूयश्च शरदः शतात्।। १९।। (यजु.३६/२४)
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति।
दूरग्मं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।। २०।। (यजु.३४/१)
येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः।
यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२१।। (यजु.३४/२)
यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु।
यस्मान्नऽऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।। २२।। (यजु.३४/३)
येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत्परिगृहीतममृतेन सर्वम्।
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२३।। (यजु.३४/४)
यस्मिन्नृचः साम यजू द्भञ षि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः।
यस्मिँश्चित्त सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२४।। (यजु.३४/५)
सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिनऽइव।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२५।।
(यजु.३४/६)
स नः पवस्व शं गवे शं जनाय शमर्वते।
श द्भञ राजन्नोषधीभ्यः।। २६।। (साम.उ.१/१/३)
अभयं नः करत्यन्तरिक्षमभयं द्यावापृथिवी उभे इमे।
अभयं पश्चादभयं पुरस्तादुत्तरादधरा- दभयं नो अस्तु।।२७।। (अथर्व.१९/१५/५)
अभयं मित्रादभयममित्रादभयं ज्ञातादभयं परोक्षात्।
अभयं नक्तमभयं दिवा नः सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु।।२८।। (अथर्व.१९/१५/६)
अग्न्याधानम्
ओं भूर्भुवः स्वः। (गोभिल.गृ.प.१/खं.१/सू.११)
ओं भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा। तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठे ऽ ग्निमन्ना दमन्नाद्यायादधे।। (यजृ.अ.३/मं.५)
ओम् उद् बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते स ँ् सृजेथामय९च। अस्मिन्त्सधस्थे ऽ अध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्चसीदत।। (यजु. १५/५४)
समिदाधानम्
ओम् अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्द्धस्व चेद्ध वर्द्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसे नान्नाद्येन समेधय स्वाहा। इदमग्नये जातवेदसे – इदन्न मम।। १।।
(आश्वलायन गृ.सू. १/१०/१२) इस मन्त्र से घृत में डुबोकर पहली..
ओं समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम्।
आस्मिन् हव्या जुहोतन स्वाहा।।
इदमग्नये – इदन्न मम।। २।। (यजु. ३/१)
इससे और..
सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन।
अग्नये जातवेदसे स्वाहा।। इदमग्नये जातवेदसे – इदन्न मम।। ३।। (यजु.३/२)
इस मन्त्र से अर्थात् दोनों मन्त्रों से दूसरी और..
तं त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्द्धयामसि।
बृहच्छोचा यविष्ठ्या स्वाहा।। इदमग्नये ऽ ङ्गिरसे – इदन्न मम।। ४।। (यजु. ३/३)
इस मन्त्र से तीसरी समिधा समर्पित करें। उक्त मन्त्रों से समिधाधान करके नीचे लिखे मन्त्र को पांच बार पढ़कर पांच घृताहुतियां दें।
प९चघृताहुतिमन्त्रः
ओम् अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्द्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्बह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा। इदग्नये जातवेदसे – इदन्न मम।। (आश्व.गृ.सू. १/१०/१२)
जलसि९चनमन्त्राः
ओम् अदिते ऽ नुमन्यस्व।। १।। इससे पूर्व में
ओम् अनुमते ऽ नुमन्यस्व।। २।। इससे पश्चिम में
ओम् सरस्वत्यनुमन्यस्व।। ३।। इससे उत्तर दिशा में
ओं देव सवितः प्र सुव यज्ञं प्र सुव यज्ञपतिं भगाय। दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु।। ४।। (यजु.३०/१)
इस मन्त्रपाठ से वेदी के चारों ओर जल छिड़काएं।
आघारावाज्यभागाहुतिमन्त्राः
ओम् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये – इदन्न मम।। १।।
इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग अग्नि में
ओं सोमाय स्वाहा। इदं सोमाय – इदन्न मम।। २।। (गो.गृ.प्र.१/खं.८/सू.२४)
इससे दक्षिण भाग अग्नि में
ओं प्रजापतये स्वाहा। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। ३।। (यजु. २२ / ३२)
ओम् इन्द्राय स्वाहा। इदमिन्द्राय – इदन्न मम।। ४।। (यजु.२२/२७)
इन दोनों मन्त्रों से वेदी के मध्य में दो आहुतियां दें। उक्त चार घृत आहुतियां देकर नीचे लिखे चार मन्त्रों से प्रातःकाल अग्निहोत्र करें।
प्रातःकालीन-आहुतिमन्त्राः
ओं सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः स्वाहा।। १।।
ओं सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा।। २।।
ओं ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा।। ३।।
(यजु. ३/९)
ओं सजूर्देवेन सवित्रा सजूरुषसेन्द्रवत्या।
जुषाणः सूर्यो वेतु स्वाहा ।। ४।। (यजु. ३/१०)
अब नीचे लिखे मन्त्रों से प्रातः सांय दोनों समय आहुतियां दें।
प्रातः सांयकालीनमन्त्राः
ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा। इदमग्नये प्राणाय – इदन्न मम।। १।। (गोभिगृह्यसूत्र०प्र.१/खं.३/यू. १-३)
ओं भुवर्वायवे ऽ पानाय स्वाहा।
इदं वायवे ऽ पानाय – इदन्न मम ।। २।।
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।
इदमादित्याय व्यानाय – इदन्न मम।। ३।।
ओं भूर्भुवः स्वरग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा। इदमग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः इदन्न मम।। ४।। (तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनैकीकृता ऋ.भा.भू. पंचमहा.)
ओम् आपो ज्योतीरसो ऽ मृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा।। ५।। (तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनरचितः प९चमहायज्ञ.)
ओं यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते। तया मामद्य मेधया ऽ ग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा।। ६।। (यजु.३२/१४)
ओं विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।
यद्भद्रन्तन्न ऽ आसुव स्वाहा।। ७।। (यजु.३०/३)
ओम् अग्ने नय सुपथा राये ऽ अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्। युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम ऽ उक्तिं विधेम स्वाहा।। ८।।
(यजु.४०/१६)
सायंकालीन-आहुतिमन्त्राः
ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा।। १।।
ओम् अग्निर्वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा।। २।।
ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा।। ३।।
(यजु. ३/९ के अनुसार)
इस मन्त्र को मन में बोल कर आहुति दें।
ओं सजूर्देवेन सवित्रा सजू रात्र्येन्द्रवत्या।
जुषाणो ऽ अग्निर्वेतु स्वाहा।। ४।। (यजु.३/९, १०)
ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा।। १।।
(गोभिगृह्यसूत्र०प्र.१/खं.३/यू. १-३)
ओं भुवर्वायवे ऽ पानाय स्वाहा।। २।।
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।। ३।।
ओं भूर्भुवः स्वरग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा।
(तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनैकीकृता ऋ.भा.भू. पंचमहा.)
ओम् आपो ज्योतीरसो ऽ मृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा।। ५।। (तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनरचितः प९चमहायज्ञ.)
अथ वृष्टि यज्ञ मन्त्राः
गायत्र मण्डलोपयोगी गायत्री छन्द के मन्त्र
ॠग्वेद ०१ ।।१९।। ॠषिः-१-९ मेधातिथिः काण्वः।। देवता-अग्निर्मरुतश्च।। छन्दः- १, ३-८ गायत्री २ निचृद्गायत्री। ९ पिपीलिकामध्यनिचृद्गायत्री।। स्वरः-षड्जः।।
१. प्रति त्यं चारुमध्वरं गोपीथाय प्र हूयसे। मरुद्भिरग्न आ गहि ।।१।।
अग्निदेव हैं कर्मसाधक अहिंसक श्रेष्ठतम।
सुप्रयुक्त इस यज्ञ में रक्षक हों मरुद्गण।।
२. नहि देवो न मर्त्यो महस्तव क्रतुं परः। मरुद्भिरग्न आ गहि ।।२।।
विज्ञ अज्ञ समर्थ नहीं जिसके गुण गाने में।
वही अग्नि सक्षम है, प्राणों के संग रंग जमाने में।।
३. ये महो रजसो विदुर्विश्वे देवासो अद्रुहः। मरुद्भिरग्न आ गहि ।।३।।
द्रोहरहित विज्ञजन करते पवन का अग्नि से संयोग।
कार्यसिद्ध होते उनके और सुधरता है विस्तृत लोक।।
४. ये उग्रा अर्कमानृचुरनाधृष्टास ओजसा। मरुद्भिरग्न आ गहि ।।४।।
यज्ञाग्नि से तीव्र वेगयुक्त अदब्ध पवन होते हैं लोकधारक।
प्रकाशित होते सूर्यगुण बिजली सहित तब ही हैंवे उपकारक।।
५. ये शुभ्रा घोरवर्पसः सुक्षत्रासो रिशादसः। मरुद्भिरग्न आ गहि ।।५।।
यज्ञधूम से शोधित पवन होता रोगनिवारक।
अन्तरिक्ष में निर्भय वायु है अग्निगुणोंका प्रकाशक ।।
६. ये नाकस्याधि रोचने दिवि देवास आसते।मरुद्भिरग्न आ गहि ।।६।।
सुखसाधक सूर्य से प्रकाशित सुधा वसुधा।
प्रकाश-वाहक वायु के संग अग्नि है सुखदा।।
७. य ईंखयन्ति पर्वतान् तिरः समुद्रमर्णवम्। मरुद्भिरग्न आ गहि।।७।।
जो मरुत् मेघों को छिन्न-भिन्न कर बरसाते,
समुद्र से जलकणों को ऊपर पहुँचाते।
वही पवन जब बिजली से मिल जाते,
यज्ञ के द्वारा अग्निदेव जल बरसाते।।
८. आ ये तन्वन्ति रश्मिभिस्तिरः समुद्रमोजसा। मरुद्भिरग्न आ गहि ।।८।।
जो निज वेग से सागर को हिलाते,
जो सूर्यकिरणों से विस्तार को पाते है।
उस वायु का अग्नि के संयोग से,
सारी यज्ञक्रिया को सिद्ध कर पाते है।
९. अभि त्वा पूर्वपीतये सृजामि सोम्यं मधु। मरुद्भिरग्न आ गहि ।।९।।
पहले जिसमें सुख का भोग है, जो मधुर रसों को टपकाते हैं।
यज्ञक्रिया में प्रथम उन मरुद्गणों को हम यहाँ बुलाते हैं।।
ॠग्वेद ०१/३८/७,८,९,१४ घोरकण्व ॠषिः। मरुतो देवता/ ७,८,९ गायत्री/निचृद् गायत्री छन्द/ १४ यवमध्याह्न विराट गायत्री।षड़ज स्वरः।
१०. सत्यं त्वेषा अमवन्तो धन्वञ्चिदा रुद्रियासः । मिहं कृण्वन्त्यवाताम्।।
अन्तरिक्ष में घर्षण व विद्युत तेज से वायुगण होते जीवनाधार।
यज्ञानुष्ठान से बलवान वही वायु करते हैं वर्षा मूसलाधार।।
११. वाश्रेव विद्युन् मिमाति वत्सं न माता सिषक्ति। यदेषां वृष्टिरसर्जि।।
रम्भाती गौमाता के सदृश्य बिजली करती गड़गड़ ध्वनि।
उन्ही हवाओं के द्वारा उत्पन्न वर्षा भरती अम्बर अवनि।।
१२. दिवा चित्तमः कृण्वन्ति पर्जन्येनोदवाहेन। यत्पृथिवीं व्युन्दन्ति।।
पवन ही जलधारक मेघ से भूमि को गीला करते हैं।
रात्रि के समान अन्धकार कर दिन में भी सूर्य को ढंकते हैं।।
१३. मिमीहि श्लोकमास्ये पर्जन्य इव ततनः। गाय गायत्रमुक्थ्यम्।।
पर्जन्य वृष्टि हेतु अपने मुख में वेदवाणी को भरें।
प्रशंसनीय गायत्री ॠचाओं से प्रभु का गान करें।।
ॠग्वेद ०२/०६/०५ सोमाहुतिर्भार्गव ॠषिः। अग्निर्देवता/गायत्री छन्द/ षड़्ज स्वरः।
१४. स नो वृष्टिं दिवस्परि स नो वाजमनर्वाणम्। स नः सहस्रिणीरिषः।।
यज्ञाग्नि हमारे लिये अन्तरिक्ष से लावे वृष्टि।
निश्चल बल व असंख्य अन्नों से दें हमें पुष्टि।।
ॠग्वेद ०८/०७/०४ एवं १६ पुनर्वत्सः काण्व ॠषि। मरुतो देवता/गायत्री छन्दः।षड़्ज स्वरः।।
१५. वपन्ति मरुतो मिहं प्र वेपयन्ति पर्वतान् । यद्यामं यान्ति वायुभिः।।
जब हवाओं के द्वारा यज्ञ गतिशील और व्यापक होता है।
उन्हीं मरुतों से कम्पायमान मेघों में विद्युत का संचार होता है।।
१६. ये द्रप्सा इव रोदसी धमन्त्यनु वृष्टिभिः। उत्सं दुहन्तो अक्षितम्।।
वे मरुद्गण क्षयरहित जलस्रोत मेघों को दुहा करते हैं।
वर्षा की झरझर ध्वनि से द्यौ व पृथ्वी को शब्दमय करते हैं।।
ॠग्वेद ०९/०८/०८ ॠषि-असितः काश्यपो देवलो वा। देवता-पवमानःसोमः/ छन्द-निचृद्गायत्री/ स्वरः षड़्जः/
१७. वृष्टिं दिवः परिस्रव द्युम्नं पृथिव्या अधि। सहो नः सोम पृत्सु धाः।। वृष्टि दीजिए द्युलोक से, हे देव सोम प्रभो।
पृथिवी पर अन्न आदि ऐश्वर्य बढ़े हे ओम् विभो।।
ॠग्वेद ०९/३९/०२ ॠषि-बृहन्मति/देवता-पवमानः सोमः/छन्द-गायत्री/स्वरः – षड़्ज।।
१८. परिष्कृष्वन्ननिष्कृतं जनाय यातयन्निषः। वृष्टिं दिवः परि स्रव।।
अनगढ़ को गढ़ दीजिए कीजिए सुसंस्कृत।
अन्तरिक्ष से वृष्टि दीजिए अन्न भी परिष्कृत।।
ॠग्वेद ०९/४९/०१,२,३-ॠषिः-कविर्भार्गव/देवता-पवमानः सोमः/
छन्द-निचृदगायत्री १, गायत्री २, ३/ स्वरः -षड़्ज
१९. पवस्व वृष्टिमा सु नोऽ पामूर्मिं दिवस्परि । अयक्ष्मा बृहतीरिषः।।
लहरों वाली वर्षा बहाइये द्यौ से हे परमेश।
रोगरहित अन्न बहुत दीजिए भू पर हे ईश ।।
२०. तया पवस्व धारया यया गाव इहागमन्। जन्यास उप नो गृहम्।।
प्रचुर जलधारा से पवित्र करो प्रभुवर ! धराधाम।
जनहितकारी हों गौ-पृथिवी-वेद-विप्रअरु सत्यनाम।।
२१. घृतं पवस्व धारया यज्ञेषु देववीतमः। अस्मभ्यं वृष्टिमापव।।
देवों के तृप्तिकारक यज्ञों में टपकायें घृतधार।
कामनाएँ पूर्ण होवें याज्ञिकों के वर्षा हो धाराधार।।
ॠग्वेद ०९/६५/०३ एवं २४- ॠषि-भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा/देवता-पवमानसोमः/ छन्द-३ निचृदगायत्री २४ गायत्री/ स्वरः षड़्ज
२२. आ पवमान सुष्टुतिं वृष्टिं देवेभ्यो दुवः। इषे पवस्व संयतम्।।
पवित्रकारक पवमान है विद्वानों का हितकर।
ऐश्वर्य देवो संयमी को प्रशंसित वृष्टि प्रभुवर।।
२३. ते नो वृष्टिं दिवस्परि पवन्तामा सुवीर्यम्। सुवाना देवास इन्दवः।।
वे ऐश्वर्यशाली विद्वज्जन द्यौ से वृष्टि बरसायें।
पराक्रम पूर्वक यज्ञ में सोम की धारा बहायें।।
ॠग्वेद ०१.।।३२।। ॠषिः-१.१५ हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः।। देवता-इन्द्रः ।। छन्द-१,३,५ विराट त्रिष्टुप। २,४, ७-१०, १२,१३,१५ निचृत् त्रिष्टुप्। ६,११,१४ त्रिष्टुप् ।। स्वरः-धैवतः।।
त्रैष्टुभ मण्डलोपयोगी त्रिष्टुप् छन्द के मन्त्र
ॠग्वेद ०१/३२/ॠषि०१-१५ हिरण्यस्तुप आंगिरसः। देवता-इन्द्रः। छन्द-त्रिष्टुप्। स्वरः-धैवतः
२४. इन्द्रस्य नु वीर्याणि प्र वोचं यानि चकार प्रथमानि वज्री।
अहन्नहिमन्वपस्ततर्द प्र वक्षणा अभिनत्पर्वतानाम् ।।१।।
प्रसिद्ध पराक्रमी सूर्यदेव हैं वर्षाकारक।
मार मेघ को गिरा देता भू पर जलविस्तारक।
उसी इन्द्र देव की महिमा गायें नित मन्त्र गायक।
जो आकर्षण, दाहन, छेदन युत है प्रकाशदायक।।
२५. अहन्नहिं पर्वते शिश्रियाणं त्वष्टास्मै वज्रं स्वर्यं ततक्ष।
वाश्रा इव धेनवः स्यन्दमाना अञ्जःसमुद्रमव जग्मुरापः ।।२।।
मेघपर्वतपर छिपे गर्जनशील बादल को मार गिराता है।
छेदन स्वभाववाले वज्रकिरणों को अन्दर तक पहुँचाता है।
जगत् को जिलाता है वह त्वष्टा सूर्यलोक।
सरित प्रवाह सागर में मिलता ज्यों बिछुड़ा विद्युत गोलोक।।
२६. वृषायमाणोऽवृणीत सोमं त्रिकद्रुकेष्वपिबत्सुतस्य।
आ सायकं मघवादत्त वज्रमहन्नेनं प्रथमजामहीनाम् ।।३।।
जगत् में रहने जीने मरने वाले पदाथों में,
उत्पन्न रस सोम को भर लेता अपने ताप में।
प्रकाशमान वह सूर्य शस्त्ररूप किरणों से,
मायावी मेघ बरसाता, बलवान अपने आप में।।
२७. यदिन्द्राहन्प्रथमजामहीनामान्मायिनाममिनाः प्रोत मायाः।
आत्सूर्यं जनयन्द्यामुषासं तादीत्ना शत्रुं न किला विवित्से ।।४।।
वैरियों के छल बल को ज्यों राजपुरुषा निवारता है।
सूर्य भी तद्वत् मेघ घटाओं को भूमिपर बरसाता है।।
२८. अहन्वृत्रं वृत्रतरं व्यंसमिन्द्रो वज्रेण महता वधेन।
स्कन्धांसीव कुलिशेना विवृक्णाहिः शयत उपपृक्पृथिव्याः ।।५।।
जैसे तीक्ष्ण तलवार से रिपुदेह का छेदन करता है शूरवीर।
वैसे ही सूर्य विद्युत् भी सघन मेघ का मर्दन करता है गंभीर।।
अतितापमयी सूर्य किरणें भेदकगुणों से काट गिराता भूपर।
छिन्नभिन्न अंगोवाला बादल सो जाता मृतकवत् पृथिवी के ऊपर।।
२९. अयोद्धेव दुर्मद आ हि जुह्वे महावीरं तुविबाधमृजीषम्।
नातारीदस्य समृतिं वधानां सं रुजानाः पिपिष इन्द्रशत्रुः।।६।।
मरणधर्मा मेघ है सूर्यद्रोही दुरभिमानी,
इन्द्र शत्रु वह वृत्र करता है व्यर्थ युद्ध।
सह नहीं सकता अपार ताड़नाओं को वह,
महावीर पराक्रमी सूर्य होता है जब क्रुद्ध।।
३०. अपादहस्तो अपृतन्यदिन्द्रमास्य वज्रमधि सानौ जघान।
वृष्णो वध्रिः प्रतिमानं बुभूषन्पुरुत्रा वृत्रो अशयव्द्यस्तः ।।७।।
कर नहीं पाता मुकाबला लड़ाकू निर्बल नपुंसक समान।
वृत्र वहीं गिर पड़ता है जब हरा देता है इन्द्र बलवान्।।
बज्रकिरणों के प्रहार से सूर्य झपट पड़ता है।
परकटा पुरुषवत् वह बादल फट पड़ता है।
३१. नदं न भिन्नममुया शयानं मनो रुहाणा अति यन्त्यापः।
याश्चिद् वृत्रो महिना पर्यतिष्ठत्तासामहिः पत्सुतःशीर्बभूव ।।८।।
ताप से विदग्ध जो जल पवन संग मेघमण्डल में भर जाता है।
उमड़ घुमड़ वही घने बादल बली सूर्य को ढंकता जाता है।
भास्कर भगवान प्रखर तेज से जब उसे मारता जाता है।
बरसकर महाप्रवाहयुक्त नद पुनः समुद्र में जाता है।
३२. नीचावया अभवत्वृत्रंपुत्रेन्द्रो अस्या अव वधर्जभार।
उत्तरा सूरधरः पुत्र आसीद्दानुः शये सहवत्सा न धेनुः ।।९।।
अल्पायु पुत्र मेघ को पैदा करती है अवनि उत्तरा माताएँ है।
ढंकता प्रकाश को वह प्रमत्त भूपुत्र बढ़ाकर निज शाखाएँ।
सूर्यपिता तब ही किरणों से बींध गिरा भूपर बहाता धाराएँ।
अन्तरिक्ष उत्तर भूपुत्र बनकर पुत्र करता दूर बाधाएँ।।
३३. अतिष्ठन्तीनामनिवेशनानां काष्ठानां मध्ये निहितं शरीरम्।
वृत्रस्य निण्यं वि चरन्त्यापो दीर्र्घं तम आशयदिन्द्रशत्रुः ।।१०।।
सदा चलायमान अस्थिर बादल सब दिशाओं में जाते आते हैं।
शरीररुप जल की घोरघटाओं से घिरे भटकते जाते हैं।
वह इन्द्रशत्रु मेघ सदा सोता है धरा धाम में।
पुनः बहता हुआ लग जाता है अपने काम में।।
३४. दासपत्नीरहिगोपा अतिष्ठन्निरुद्धा आपः पणिनेव गावः।
अपां विलमपिहितं यदासीत्वृत्रं जघन्वाँ अप तद्ववार ।।११।।
गोशाला में ज्यों बन्द गौवें छूटकर गोपाल से रंभाती हैं।
इन्द्र द्वारा अन्तरिक्ष से मुक्त जलवृष्टियाँ दुष्काल से बचाती हैं।
३५. अश्व्यो वारो अभवस्तदिन्द्र सृके यत्त्वा प्रत्यहन्देव एकः।
अजयो गा अजयः शूर सोममवासृजः सर्तवे सप्त सिन्धून् ।।१२।।
पदार्थों के रस सोम को अन्तरिक्ष में सूर्य चढ़ाता है।
वही जल मेघ में भरकर सूर्य को ढंकता जाता है।
पुनः अदब्ध किरणों से सूर्य उसे बरसाता है।
वही जल समुद्र जलाशयों में भरता जाता है।।
३६. नास्मै विद्युन्न तन्यतुः सिषेध न यां मिहमकिरातध्रोदुनिं च।
इन्द्रश्च यद्युयुधाते अहिश्चोतापरीभ्यो मघवा वि जिग्ये ।।१३।।
चाहे जितना चमके गरजे वृत्रमेघ युद्ध में सदा हार जाता है।
अपराजित सूर्य निज किरणबाणों से हरा धरापर बरसाता है।।
३७. अहेर्यतारं कमपश्य इन्द्र हृदि यत्ते जघ्नुषो भीरगच्छत्।
नव च यन्नवतिंच स्रवन्तीः श्येनो न भीतो अतरो रजांसि ।।१४।।
ब्याधा से बींधा बाज ज्यों गिरता पड़ता इधर-उधर।
सूर्य से ताड़ित मेघ भी त्यों भरता रहता नद सागर।।
३८. इन्द्रो यातोऽवसितस्य राजा शमस्य च शृङ्गिणो वज्रबाहुः।
सेदु राजा क्षयति चर्षणीनामरान्न नेमिः परि ता बभूव ।।१५।।
सूर्यदेव ही है धारक, आकर्षक, वर्षक व प्रकाशक।
चराचर शान्त अशान्त जगत् का आत्मा है सुख विस्तारक।।
ॠग्वेद ०१/७९/०२,राहूगणो गोतम ॠषिः। अग्निर्देवता। निचृत् त्रिष्टुप्छन्दः। धैवत स्वरः
३९. आ ते सुपर्णा अमिनन्तँ एवैः कृष्णो नोनाव वृषभो यदीदम्।
शिवाभिर्न स्मयमानाभिरागात् पतन्ति मिहः स्तनयन्त्यभ्रा।।
गतिशील यज्ञिय धूमों से मेघों को ताड़ित करते हैं ॠत्विक् जन।
काले रंग के बरसने वाले बादल करते हैं खूब क्रन्दन ।।
फेन उगलती हुई कल्याणी धाराओंका धरती पर होता वर्षण।
निरन्तर गिरते रहते हैं वर्षा के जल मेघ भी करते हैं गर्जन।।
ॠग्वेद ०१/१५२/०७ दीर्घतमा ॠषिः। मित्रावरुणौ देवते। निचृत् त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः
४०. आ वां मित्रावरुणा हव्यजुष्टिं नमसा देवावसा ववृत्याम्।
अस्माकं ब्रह्म पृतनासु सह्या अस्माकं वृष्टिर्दिव्या सुपारा ।।
यज्ञिय हवि हेतु प्रजाजन बारबार करें उत्तम अन्नदान।
सामूहिक सहभागिता से निश्चिन्त हो जायें ॠत्विक् एवं यजमान।।
श्रेष्ठ गुणों वाले मित्र-वरूण बढ़ें पाकर यज्ञ ऊर्जा व वेद ज्ञान।
दिव्य गुणों वाली वर्षा होवे इसीलिये करते हैं हवि-दान।।
ॠग्वेद ०२/२७/१५ गृत्समदो ॠषि। आदित्यो देवता। निचृत त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतःस्वरः
४१. उभे अस्मै पीपयतः समीची दिवो वृष्टिं सुभगो नाम पुष्यन्।
उभा क्षयावाजयन्याति पृत्सूभावर्धौं भवतः साधू अस्मै।।
वर्षाजल को पुष्ट करते हैं मन्त्रपाठ व यज्ञिय हवि से वे याजक।
अनावृष्टि को हराते हुए वे प्रजा के लिए होते हैं कार्यसाधक।
जल के निवास स्थान समुद्र तथा मेघसमूह है समृद्धिकारक।
यज्ञद्वारा वर्षा लाने वाले सुचरित्र में स्थित होते हैं दुःखनिवारक।
ॠग्वेद ०५/५८/०३ श्यावाश्वआत्रेय ॠषिः। मरुतो देवता। निचृत् त्रिष्टुप् छन्दः। पंचमः स्वरः
४२. आ वो यन्तू दवाहासो अद्य वृष्टिं ये विश्वे मरुतो जुनन्ति।
अयं यो अग्निर्मरुतः समिद्ध एतं जुषध्वं कवयो युवानः ।।
वृष्टियज्ञ में प्रदीप्त अग्नि ही हवाओं को करती है सक्रिय।
वे ही जलवर्षक मरुदगण होताओं के लिये करते है वृष्टि प्रिय।।
ॠग्वेद ०५/६२/०३ श्रुतिविदात्रेय ॠषिः।मित्रावरुणौ देवते। निचृत् त्रिष्टुप् छन्दः।धैवतः स्वरः
४३. अधारयतं पृथिवीमुत द्यां मित्रराजाना वरुणा महोभिः।
वर्धयतमोषधीः पिन्वतं गा अव वृष्टिं सृजतं जीरदानू।।
वर्षा लाओ हे प्राण-उदान बिजली सहित जीवनकारक।
भूमि सींचो अन्नादि औषधियाँ बढ़ाओ हे लोक द्वय धारक।।
ॠग्वेद ०५/८३ ॠषिः-अत्रि : देवता-पर्जन्य। छन्द-१ निचृत् त्रिष्टुप्। २ स्वराट् त्रिष्टुप् । ३ भुरिक् त्रिष्टुप्। ५, ६ त्रिष्टुप्। ७ विराट् त्रिष्टुप्। ४ निचृज्जगती। ८, १० भुरिक् पङ्क्तिः । ९ निचृदनुष्टुप् । स्वरः१-३, ५-७ धैवतः । ४ निषादः। ८, १० पन्चमः। ९ गान्धारः।
भाषाभाष्यकार महर्षि दयानन्द ने इस सूक्त का देवता ‘‘पृथिवी’’ लिखा है।
४४. अच्छा वद तवसं गीर्भिराभिः स्तुहि पर्जन्यं नमसा विवास।
कनिक्रदद्वृषभो जीरदानू रेतो दधात्योषधीषु गर्भम् ।।
वेदवाणी का गान करें उत्तम बलप्रद ॠत्विग्गण।
अन्नरुप हवि से मेघ बढ़े खूब करे ध्वनि गड़गड़।।
जीवनदायी पर्जन्य देव धरा परा बरसाये-जल।
गर्भस्थापित हो औषधियों में बढ़े प्रशंसित बल।।
४५. वि वृक्षान् हन्त्युत हन्ति रक्षसो विश्वं बिभाय भुवनं महावधात्।
उतानागा ईषते वृष्ण्यावतो यत्पर्जन्यः स्तनयन् हन्ति दुष्कृतः ।।
जो वेगवती धारा तथा तेज विद्युत् पात से वृक्षों को उखाड़ देता।
करसमाप्त दुष्कर्मियों कों भरताभय दुष्टों में, बलवानों को पछाड़ देता।।
निरपराध वही मेघ गरजता हुआ बरस पड़ता है।
न्यायकारी राजा के सदृश पालने योग्य का पालन करता है।।
४६. रथीव कशयाश्वाँअभिक्षिपन्नाविर्दूतान्कृणुते वर्ष्या३ अह।
दूरात्सिंहस्ये स्तनथा उदीरते यत्पर्जन्यः कृणुते वर्ष्यं१ नभः ।।
संचालक ज्यों दूत दण्ड से प्रगटाता है सब राज।
सिंहवत् गर्जन से पर्जन्य देव भी सुधारता है सब काज।।
४७. प्र वाता वान्ति पतयन्ति विद्युत उदोषधीर्जिहते पिन्वते स्वः।
इरा विश्वस्मै भुवनाय जायते यत्पर्जन्यः पृथिवीं रेतसावति ।।
पति पर्जन्य वर्षा से अन्न उपजाकर जब करता रक्षा धरती की।
झूमती हवाएँ बिजलियाँ व औषधियाँ बढ़ाती खुशियाँ जगती की।।
४८. यस्य व्रते पृथिवी नंनमीति यस्य व्रते शफवज्जर्भुरीति।
यस्य व्रत औषधीर्विश्वरूपाः स नः पर्जन्य महि शर्म यच्छ ।।
भूमि नम हो जाती जिसके बरसने पर भर भी जाते खुरचिह्न।
औषधियाँ भी गुणवती होतीं वही मेघ हमें सुख दीह्न।।
४९. दिवो नो वृष्टिं मरुतो ररीध्वं प्र पिन्वत वृष्णो अश्वस्य धाराः।
अर्वाङेतेन स्तनयित्नुनेह्यपो निषिञ्चन्नसुरः पिता नः ।।
वर्षा बहाओ आकाश से हे मरुतों धाराधार।
वर्षक मेघ चमके पालक प्राणों का आधार।।
५०. अभ्रि क्रन्द स्तनय गर्भमाधा उदन्वता परि दीया रथेन।
दृतिं सु कर्ष विषितं न्यञ्चं समा भवन्तूद्वतो निपादाः।।
सुन्दर रथ मेघ का जल से परिपूर्ण,
गरज चमक सहित बरसें भू पर।
दुःखनिवारक फलप्रद पोषणकर्त्ता,
निश्चय जानों वही है मेघ विश्वम्भर।।
५१. महान्तं कोशमुदचा नि षिञ्च स्यन्दन्तां कुल्या विषिताः पुरस्तात्।
घृतेन द्यावापृथिवी व्युन्धि सुप्रपाणं भवत्वघ्न्याभ्यः।।
जल भण्डार मेघ को झुकाओ धरा की ओर हे प्रभुवर।
बरसाओ उन्हें यहाँ लबालब हों जलाशय व नहर।
भरदें घी सें यह धरा गगन। गौ आदि प्राणी हों जल से मगन।।
५२. यत्पर्जन्य कनिक्रदत्स्तनयन् हंसि दुष्कृतः।
प्रतीदं विश्वं मोदते यत्किं च पृथिव्यामधि ।।
जो पर्जन्य गरज कर हरता दुःख अपार।
वही मेघ बरस कर भरता सुख संसार।।
नोट : इस सूक्त का दसवां मन्त्र अतिवृष्टि रोकने में प्रयुक्त होता है, अतः उसे अन्यत्र दिया जायेगा।
ॠग्वेद ०५/८५/०३ अत्रिर्ॠषिः। वरुणो देवता। निचृत्त्रिष्टुप् छन्दः। धैवत स्वरः।
५३. नीचीनवारं वरुणः कबन्धं प्र ससर्ज रोदसी अन्तरिक्षम्।
तेन विश्वस्य भुवनस्य राजा यवं न वृष्टिर्व्युनत्ति भूम ।।
मेघ को अधोमुख कर जो उत्तमता से जल वर्षाता है।
वही वरुण राजा है ब्रह्माण्ड का सबको सुखी बनाता है।।
द्यौ अन्तरिक्ष पृथिवी पर अपना प्रभाव जमाता है।
जौ आदि धान्य को विशेष रुप से गीलाकर उपजाता है।।
ॠग्वेद ०७/६४/०२-वसिष्ठ ॠषिः। मित्रावरुणौ देवते। त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः।
५४. आ राजाना मह ॠतस्य गोपा सिन्धुपती क्षत्रिया यातमर्वाक्।
इळां नो मित्रावरुणोत वृष्टिमव दिव इन्वतं जीरदानू ।।
वृष्टि प्रदान करो हे मित्र-वरुण हवाओं।
अन्न धन से प्रजा की रक्षा करने यहाँ आओ।।
सदा सुलभ रहो हे जलरक्षक जीवनदाताओं।
नदी, कूप, तालाब, सागर में प्रचुर जलबहाओ।।
ॠग्वेद मं. ०७/१०१।। ॠषिःवसिष्ठकुमारो वाग्नेयः।देवता-पर्जन्य। छन्द त्रिष्टुप्। स्वरः धैवतः
५५. तिस्रो वाचः प्र वद ज्योतिरग्रा या एतद्दुह्रे मधुदोघमूधः।
स वत्सं कृण्वन्गर्भमोषधीनां सद्यो जातो वृषभो रोरवीति ।।
वृष्टि हेतु वर्षाॠतु में ॠत्विग्गण विधिपूर्वक गावें वेदॠचाएँ।
प्रकाश पुंज मन्त्रों से उत्पन्न मेघमालाएँ विद्युत् वत्स को प्रगटाएँ।
तत्काल बना वह वर्षक पर्जन्य घना करता खूब गर्जनाएँ।
अन्नादि औषधियों में गर्भस्थापक बरसाता है जल धाराएँ।।
५६. यो वर्धन औषधीनां यो अपां यो विश्वस्य जगतो देव ईशे।
स त्रिधातु शरणं शर्म यंसत्त्रिवर्तु ज्योतिः स्वभिष्ट्य१स्मे ।।
अन्नवर्द्धक जलवर्षक जगत् का जीवनदाता वह देव है पर्जन्य।
दैहिक दैविक भौतिक सुख देकर देहों में बढ़ाता है तेज र्एश्वर्य।।
५७. स्तरीरु त्वद्भवति सूत उ त्वद्यथावशं तन्वं चक्र एषः।
पितुः पयः प्रति गृभ्णाति माता तेन पिता वर्धते तेन पुत्रः।।
नवप्रसूता धेनुवत् पर्जन्य जल वर्षाता है।
स्वेच्छापूर्वक तन अपना घटाता बढ़ाता है।
पालक पर्जन्य से जलरस ग्रहण करती माँ धरती।
ऐश्वर्य बढ़ता है उससे प्राणियों को मिलती सम्पत्ती।।
५८. यस्मिन्विश्वानि भुवनानि तस्थुस्तिस्रो द्यावस्त्रेधा सस्रुरापः।
त्रयः कोशास उपसेचनासो मध्वः श्चोतन्त्यभितो विरप्शम् ।।
जिस पर्जन्य में हैं जगत् यह पृथिवीअन्तरिक्ष द्यौ त्रिलोक समाहित।
फुहार बौछार मुसलाधार रुप में मेघ से होते जल प्रवाहित।
प्रभु के तीन भण्डार सूर्य बादल बिजली होते हैं जब आवाहित।
मधुर जल व अन्न आदि से तब होता प्राणिसमूह प्रभावित।।
५९. इदं वचः पर्जन्याय स्वराजे हृदो अस्त्वन्तरं तज्जुजोषत्।
मयोभुवो वृष्टयः सन्त्वस्मे सुपिप्पला ओषधीर्देवगोपाः ।।
नभ में शोभायमान पर्जन्य के भीतर पहुँचें मन्त्र ध्वनियाँ।
उससे रक्षित फलवती ओषधियाँ हों और सुखद वृष्टियाँ।।
६०. स रेतोधा वृषभः शश्वतीनां तस्मिन्नात्मा जगतस्तस्थुषश्च।
तन्म ऋतं पातु शतशारदाय यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ।।
वह पर्जन्य देव है अनन्त प्राणियों में बीजशक्ति का धारक।
जड़ जंगम के जीव बसते उसी में जो है जग उपकारक।।
सौ वर्ष के लिए आगत जीव का जलादि से वह है परिपालक।
रक्षा करो सदा हमारी हे मेघों! तुम हो स्वअस्तित्वत्व का विस्तारक ।।
ॠग्वेद ०७/१०२ वसिष्ठः कुमारोवाग्नेय ॠषिः।पर्जन्योदेवता। छन्द-१ याजुषी विराट् त्रिष्टुप् । २,३ निचृत् त्रिष्टुप्। धैवतः स्वरः।
६१. पर्जन्याय प्र गायत दिवस्पुत्राय मीळहुषे। स नो यवसमिच्छतु ।।
मन्त्रगान करो ॠत्विजों! सूर्यपुत्र जलवर्षक पर्जन्य के लिए।
अन्नादि औषधियाँ खूब बढ़े उससे पृथिवी में प्राणियों के लिये।।
६२. यो गर्भमोषधीनां गवां कृणोत्यर्वताम्। पर्जन्यः पुरुषीणाम् ।।
जो गर्भधारण के कारणभूत जल को औषधियों में भरता है।
उसी मेघ के लिये मन्त्रपाठ करो जो गतिशील विद्युत को रचता है।।
६३. तस्मा इदास्ये हविर्जुहोता मधुमत्तमम्। इळां नः संयतं करत् ।।
हे ॠत्विक् होताओं आओ आओ हवन करो।
वृष्ट्यर्थ आह्लादक हवि से पर्जन्य को भरो।।
ॠग्वेद ०९।६९।०९ हिरण्यस्तूप ॠषिः।पवमानः सोमो देवता।निचृत् त्रिष्टुप्छन्दः। गान्धार-स्वरः।
६४. एते सोमाः पवमानास इन्द्रं रथो इव प्र ययुः सातिमच्छ।
सुताः पवित्रमति यन्त्यव्यं हित्वी ववि्रं हरितो वृष्टिमच्छ।।
यज्ञाग्नि में आहुतियों से उत्पन्न अंश होते गतिशील व शुद्धिकारक।
सूर्यकिरणों के द्वारा वे ही अंश मेघमण्डल को घेर बना देते हैं वृष्टिकारक।।
ॠग्वेद ०९।९६।०३ प्रवर्दनो दैवोदासिर्ॠषिः। पवमानः सोमो देवता। त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः
६५. स नो देव देवताते पवस्व महे सोम प्सरस इन्द्रपानः।
कृण्वन्नपो वर्षयन्द्यामुतेमामुरोरा नो वरिवस्या पुनानः।।
विद्वानों द्वारा आयोजित महान् यज्ञ में,
सूर्य द्वारा पान करने योग्य सोम की धारा बहाएँ।
मेघवाष्पों को जल बनाते हुए
विस्तृत आकाश से उन्हें धरती पर बरसाएँ।।
ॠग्वेद ०९।९६।१४ प्रतर्दनो दैवोदासिर्ॠषि। पवमानः सोमो देवता। त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः।
६६. वृष्टिं दिवः शतधारः पवस्व सहस्रसा वाजयुर्देववीतौ।
सं सिन्धुभिः कलशे वावशानः समुस्रियाभिः प्रतिरन्न आयुः।।
ज्ञानबल और अन्न के इच्छुक याज्ञिकों से अनुष्ठित।
देवपूजा सत्संगति व दानगुणों से युक्त यज्ञ पुनीत।।
सृष्टि कलश के नदी कूप तालाब समुद्र को जल से कर दो पूरित।
बहाओ द्यौ से असंख्य धाराओंवाली वृष्टि जिससे हो जीवन रक्षित।।
ॠग्वेद ०९।९७।१७- व्याघ्रपाद्वाशिष्ठ ॠषिः। पवमानः सोमो देवता। विराट् त्रिष्टुप् छन्दः। धैवत स्वरः।
६७. वृष्टिंनो अर्ष दिव्यां जिगत्नुमिळावतीं शंगयीं जीरदानुम्।
स्तुकेव वीता धन्वा विचिन्वन्बन्धूरिमाँ अवराँ इन्दो वायून।।
दिव्यवृष्टि ऐसी दो परम रसीले ऐश्वर्यशाली प्रभुवर।
अन्न बढ़ाने वाली शान्तिसुखदायिनी जो फैले सर्वत्र भू पर।।
सगे सम्बन्धी बन्धु बान्धव जो हैं स्थिर देशदेशान्तर पर।
सन्तानवत् भला करो उन जीवों की जो इच्छुक हैं पाने को वर।।
ॠग्वेद १०/९८ देवापिरार्ष्टिषेण ॠषिः। देवाः देवता।(विविध) त्रिष्टुप् छन्दः। धैवत स्वरः।
६८. बृहस्पते प्रति मे देवतामिहि मित्रो वा यद्वरुणो वासि पूषा।
आदित्यैर्वा यद्वसुभिर्मरुत्वान्त्स पर्जन्यं शंतनवे वृषाय ।।
नाना शक्तियों से प्रादुर्भूत तेज ही है वर्षा का अधिपति।
वही मित्र वरूण पूषा तथा दिव्य पदार्थों का प्रतिनिधि।
बारह किरणों, आठ वसुओं एवं उन्चास मरुतों वाला है।
वृष्टियज्ञकर्त्ता यजमान के लिए पर्जन्य वर्षाने वाला है।।
६९.आ देवो दूतो अजिरश्चिकित्वान्त्वद्देवापे अभि मामगच्छत्।
प्रतीचीनः प्रति मामा ववृत्स्व दधामि ते द्युमतीं वाचमासन् ।।
विद्युत् का विस्तारक गतिशील संचयकारी पवन।
दूतवत् उस देवका विजातीय तेज से होता हैं मिलन।
उसी दिव्य तेज का बिजली में पुनः होता परावर्तन।
चमकयुक्त गर्जन घोष का करता मेघ में पुनर्भरण।।
७०. अस्मे धेहि द्युमतीं वाचमासन्बृहस्पते अनमीवामिषिराम्।
यया वृष्टिं शंतनवे वनाव दिवो द्रप्सो मधुमाँ आ विवेश ।।
स्वामी तेज ही विद्युत् के मुख में भरता है ध्वनि गड़गड़।
रोगनाशिनी चमकीली गतिमयी जो गरजती कड़कड़।।
वृष्टि लाता यजमान के लिये उसी से जो चलती तड़तड़।
द्यौ से स्रवित मधुर जल पृथ्वी पर भरता धड़धड़।।
७१. आ नो द्रप्सा मधुमन्तो विशन्त्विन्द्र देह्यधिरथं सहस्रम्।
निषीद होत्रमृतुथा यजस्व देवान्देवापे हविषा सपर्य ।।
एक तेज ही है बृहस्पतिव इन्द्र जो मधुरजल बहाता है।
पृथिवी रुप रथ पर विद्यमान असंख्य धन का दाता है।।
बिजली के लिये वह पुरोहित ॠतु अनुसार यज्ञ रचाताहै।
वृष्टि निमित्त घृत आदि हवि को दिव्य देवों तक पहुँचाता है।।
७२. आर्ष्टिषेणो होत्रमृषिर्निषीदन्देवापिर्देवसुमतिं चिकित्वान्।
स उत्तरस्मादधरं समुद्रमपो दिव्या असृजद्वर्ष्या अभि ।।
आहुतियों की सेनावाला गतिशील ज्ञाता, वृष्टियज्ञ में पाता देव सहयोग।
वर्षा के द्वारा अन्तरिक्षस्थ समुद्र का पार्थिव समुद्र से कर देता संयोग।।
७३. अस्मिन्त्समुद्रे अध्युत्तरस्मिन्नापो देवेभिर्निवृता अतिष्ठन्।
ता अद्रवन्नार्ष्टिषेणेन सृष्टा देवापिना प्रेषिता मृक्षिणीषु ।।
अन्तरिक्षस्थ दिव्यतत्वों के द्वारा निरूद्ध रहती हैं जल धाराएँ।
बहतीं धरा पर मरुद्गणों व विद्युत् से जब होती दूर बाधाएँ।।
७४. यद्देवापिः शंतनवे पुरोहितो होत्राय वृतः कृपयन्नदीधेत्।
देवश्रुतं वृष्टिवनिं रराणो बृहस्पतिर्वाचमस्मा अयच्छत् ।।
वृष्टियज्ञ में नियुक्त विद्वान् जब करता है मन्त्रगान।
कृपा करता हुआ देवों को करता वह सामर्थ्यवान्।।
देवापि विद्युत् को वृष्टिदायिनी वाणी देता है शक्तिमान।
पुरोहित भी है विद्युत् चमककर बरसाता वह गतिमान।।
७५. यं त्वा देवापिः शुशुचानो अग्न आर्ष्टिषेणो मनुष्यः समीधे।
विश्वेभिर्देवैरनुमद्यमानः प्र पर्जन्यमीरया वृष्टिमन्तम् ।।
जिस अग्नि को जलाता हुआ हवियों से दमकाता है मननशील।
उसी तेज से सक्रिय होता विद्युत्तत्व प्रथम मरुद्गणों से मिल।
देवशक्तियों से शक्तिमान होता है वह स्वामी वर्षणशील।
प्रेरित कर पर्जन्य को वर्षक मेघ से वर्षाता है सलिल।।
७६. त्वां पूर्व ऋषयो गीर्भिरायन्त्वामध्वरेषु पुरुहूत विश्वे।
सहस्राण्यधिरथान्यस्मे आ नो यज्ञं रोहिदश्वोप याहि ।।
अग्नि है विज्ञानमय जिसकी स्तुतियाँ करते हैं ॠषिज्ञानी।
यजमान इसे यज्ञों में करते हैं प्रयोग गाकर वेदवाणी।।
तेजोमय लाल ज्वालाओं वाले पावक बरसाता है पानी।
वृष्टियज्ञ ही देता है भू नभ में पूर्ण धनधान्य मनमानी।।
७७. एतान्यग्ने नवतिर्नव त्वे आहुतान्यधिरथा सहस्रा।
तेभिर्वर्धस्व तन्वः शूर पूर्वीर्दिवो नो वृष्टिमिषितो रिरीहि ।।
निन्यान्बे हजारआहुतियाँ घी सामग्री की यज्ञाग्नि में करते हैं अर्पित।
उनसे प्रेरित शूरअग्नि निज ज्वालाओं से करता है वृष्टि पूरित।।
७८. एतान्यग्ने नवतिं सहस्रा सं प्रयच्छ वृष्ण इन्द्राय भागम्।
विद्वान्पथ ऋतुशो देवयानानप्यौलानं दिवि देवेषु धेहि ।।
उन असंख्य आहुत हव्यतत्वों को वर्षक इन्द्र में अग्निदूत करता समर्पण।
गतिशील देवों के मार्गों का ज्ञाता वह अन्तरिक्षस्थ देवों में कराता है जल धारण।।
७९. अग्ने बाधस्व वि मृधो वि दुर्गहापामीवामप रक्षांसि सेध।
अस्मात्समुद्राद्बृहतो दिवो नोऽपां भूमानमुप नः सृजेह ।।
यही अग्नि अवरोधक मेघों को पीड़ित करता है।
हिंसक कृमिकीट आदि को नष्ट करता है।।
रोग और रोगकारी जन्तुओं को मार भगाता है।
अन्तरिक्ष सागर से प्रभूत जल बरसाता है।।
जागत मण्डलोपयोगी जगती छन्द के मन्त्र
ॠग्वेद ०५।६३ ॠषि : १-७ अर्चनाना आत्रेय। देवते- मित्रावरुणौ। छन्द : १,२,४,७ निचृद् जगती, ३,५,६ जगती। निषादः स्वरः।
८०. ॠतस्य गोपावधि तिष्ठथो रथं सत्यधर्माणा परमे व्योमनि।
यमत्र मित्रावरूणावथो युवं तस्मै वृष्टिर्मधुमत्पिन्वते दिवः।।
सत्यधर्म पर आरूढ़ जलरक्षक ॠत्विक् व यजमान।
हृदयाकाश में आनन्दमय प्रभु का करते नित ध्यान।
रक्षा करते प्राणिसमुदाय का वे धार्मिक विद्वान्।
बरसता जल उनके लिये अन्तरिक्ष से मधुमान्।।
८१. सम्राजावस्य भुवनस्य राजथो मित्रावरुणा विदथे स्वर्दृशा।
वृष्टिं वां राधो अमृतत्वमीमहे द्यावापृथिवी वि चरन्ति तन्यवः ।।
जगहितैषी इस यज्ञ में सुख दिखावें प्राण और उदान।
करें वृष्टि जल और धन की चमकें धरा गगन महान् ।।
८२. सम्राजा उग्रा वृषभा दिवस्पती पृथिव्या मित्रावरुणा विचर्षणी।
चित्रेभिरभ्रैरूप तिषठथो रवं द्यां वर्षयथो असुरस्य मायया ।।
पालक पति हैं भू नभ के वृष्टि के कारणरूप प्राण तथा उदान।
रंगीले मेघों से घिर गर्जन घर्षण से करते हैं वर्षा प्रदान।।
८३. माया वां मित्रावरुणा दिवी श्रिता सूर्यो ज्योतिश्चरति चित्रमायुधम्।
तमभ्रेण वृष्ट्या गूहथो दिवि पर्जन्य द्रप्सा मधुमन्त ईरते ।।
प्राण और उदानकी जब होती है बिजली में व्याप्ति।
सूर्य की ज्योति को भी हो जाती है अद्भूत शस्र की प्राप्ति
व्याप्ति प्राप्ति से होने लगता है मधुर जलों का जमाव।
पर्जन्य तभी जलयुक्त बादल का करता यहाँ बहाव।।
८४. रथं युञ्जते मरुतः शुभे सुखं शूरो न मित्रावरुणा गविष्टिषु।
रजांसि चित्रा वि चरन्ति तन्यवो दिवः सम्राजा पयसा न उक्षतम् ।।
जलप्राप्त्यर्थ वर्षायाग में यजमान और ॠत्विग्गण।
सूर्यरश्मियों से जोड़े जाते हैं सुखद घन में मरुदगण।
विद्युत्मय पवनों की शक्ति से गरजता चमकता है मेघ।
माँ धरणी की सिंचाई हेतु अन्तरिक्ष से गिरता है मेह ।।
८५. वाचं सु मित्रावरुणाविरावतीं पर्जन्यश्चित्रां वदति त्विषीमतीम्।
अभ्रा वसत मरुतः सु मायया द्यां वर्षयतमरुणामरेपसम् ।।
विद्युत्द्वीप्ती से युक्त जलमय मेघ कर रहा विचित्र गड़गड़ ध्वनि।
ॠत्विग्गणों तुम यज्ञ क्रिया के वाष्पीकरण से भर दो अम्बर अवनि।
सुशिक्षामयी वाणी से मन्त्रगान पूर्वक मथ दो ऐसी अरणी।
प्राप्तव्य निरपराध जल की धारा से भर जाये यह धरणी।।
८६. धर्मणा मित्रावरुणा विपश्चिता व्रता रक्षेथे असुरस्य मायया।
ऋतेन विश्वं भुवनं वि राजथः सूर्यमा धत्थो दिवि चित्र्यं रथम् ।।
धर्म पूर्वक कर्त्तव्यों का पालन करते है यजमान विद्वान्।
प्राणदाता प्रभुवर का कल्याण कारक है वेद विज्ञान।।
सत्याचरण मन्त्रगान व जलवर्षण से करते विश्व को दीप्तिमान।
अपनाकर यज्ञविज्ञान को वे प्राप्त करते है सदा सुख सम्मान।।
ॠग्वेद ०५/५५/०५ श्वावाश्व आत्रेय ॠषिः। मरुतो देवता। जगती छन्दः। गान्धार स्वरः।
८७. उदीरयथा मरुतः समुद्रतो यूयं वृष्टिं वर्षयथा पुरीषिणः।
न वो दस्रा उप दस्यन्ति धेनवः शुभं यातामनु रथा अवृत्सत।।
पवनगण ऊपरी समुद्र को धरती पर वर्षाते हैं ।
सम्पूर्ण प्राणियों को तृप्तकर उनके दुःखों को नशाते हैं।।
अथर्ववेद काण्ड ०४ सूक्त १५ ॠषि अथर्वा
‘‘वृष्टेः प्रार्थना गुणाश्चोपदिश्यन्ते’’
भाषाभाष्यकार क्षेमकरणदास त्रिवेदी ने सभी २६ मन्त्रों का देवता ‘पर्जन्य’ लिखा है किन्तु संहिता में अलग हैं।
८८. (१) दिशः देवता : विराट् जगती छन्द।
समुत्पतन्तु प्रदिशो नभस्वतीः समभ्राणि वातजूतानि यन्तु ।
महऋषभस्य नदतो नभस्वतो वाश्रा आपः पृथिवीं तर्पयन्तु ।।
दिशाएँ हों आच्छादित मेघों से घनघोर घटाओं से।
उमड़ रही हों सभी दिशाएँ वृष्टिजल के प्रवाहों से।।
हवाओं के वाहन पर चढ़कर आएँ बादल उमड़ घुमड़।
गरजते हुए नभ में बढ़कर महावर्षक मेघ सुघड़।
छम-छम करती जल धाराएँ, तृप्त करें प्यासी धरती को।
गड़-गड़ करती बिजलियाँ, जिलायें औषधियाँ मरती को।।
८९. (२) देवता औषधी : विराट् जगती छन्द ।
समीक्षयन्तु तविषाः सुदानवोपां रसा ओषधीभिः सचन्ताम्।
वर्षस्य सर्गा महयन्तु भूमिं पृथग्जायन्तामोषधयो विश्वरूपाः ।।
सुमहान् सुदानी बादल, दृश्य दिखाएँ वृष्टियों के।
औषधियाँ समरस सम्यक् हों जल वृष्टियों से।।
सत्कृत करें भूमिमाता को, वर्षा के प्रवाह प्रवाहित।
विश्वरुप अन्नौषधियाँ सब, उपजें सम्यक् पृथक्-पृथक्।।
९०. (३) देवता-वीरुध- त्रिष्टुप् छन्दः।
समीक्षयस्व गायतो नभांस्यपां वेगासः पृथगुद्विजन्ताम्।
वर्षस्य सर्गा महयन्तु भूमिं पृथग्जायन्तां वीरुधो विश्वरूपाः ।।
गाने वाले स्तोताओं को दर्शन करा बादलों के प्रभो।
वेग जलों के उमड़ें अलग-अलग दिशाओं में प्रभो।।
तृप्त करें धरती माँ को वर्षा के प्रवाह मनोरम।
विश्वरूप फलप्रदा लताएँ उपजें अथाह अनुपम।।
९१. (४) देवता – पर्जन्य : विराट् पुरस्तात् बृहतीछन्दः।
गणास्त्वोप गायन्तु मारुताः पर्जन्य घोषिणः पृथक्।
सर्गा वर्षस्य वर्षतो वर्षन्तु पृथिवीमनु ।।
मेघ देव उपगायन तेरा नाना प्रकार करें ॠत्विग्गण।
जल बरसें पृथिवी पर यथाकाम साथ रहें मरुद्गण।।
९२. (५) देवता मरुत : विराट् जगती छन्दः।
उदीरयत मरुतः समुद्रतस्त्वेषो अर्को नभ उत्पातयाथ।
महऋषभस्य नदतो नभस्वतो वाश्रा आपः पृथिवीं तर्पयन्तु ।।
हवाओं ! सूर्यताप के द्वारा जल को ऊपर ले जाओ।
बनाओ बादल नभमण्डल में उन्हें यहाँ बरसाओ।।
धड़धड़ाती जलधाराएँ तृप्त करें माँ धरणी को।
गड़गड़ाती बिजलियाँ खूब मथे नभ अरणी को।।
९३. (६) देवता पर्जन्य : त्रिष्टुप् छन्द :।
अभि क्रन्द स्तनयार्दयोदधिं भूमिं पर्जन्य पयसा समङि्ग्ध।
त्वया सृष्टं बहुलमैतु वर्षमाशारैषी कृशगुरेत्वस्तम् ।।
मेघ गरज ! बिजली कड़क ! कर तू गड़गड़।
हिला समुद्र को, जल से भू को कर तरबतर।।
तेरे द्वारा बरसाया विपुल वृष्टिजल।
करें प्रसन्न कृषक को तो बढ़े कृषिबल।।
९४. (७) देवता मरुत : अनुष्टुप छन्दः।
सं वोवन्तु सुदानव उत्सा अजगरा उत।
मरुद्भि : प्रच्युता मेघाः वर्षन्तु पृथिवीमनु ।।
स्रोतें सुदानी और विशालकाय हों रक्षा में तत्पर।
हवाओं द्वारा प्रेरित मेघ बरसें लगातार धरा पर ।।
९५. (८) देवता मरुत : त्रिष्टुप् छन्द :।
आशामाशां वि द्योततां वाता वान्तु दिशोदिशः।
मरुद्भि : प्रच्युता मेघाः सं यन्तु पृथिवीमनु ।।
बिजली चमके हर दिशा में पवन चले अम्बर अवनी में।
हवाओं द्वारा हिलायें बादल बरसें निरन्तर धरणी में।।
९६. (९) देवता मरुत : पथ्या पंक्ति छन्दः।
आपो विद्युदभ्रं वर्र्षं सं वोवन्तु सुदानव उत्सा अजगरा उत।
मरुद्भि : प्रच्युता मेघाः प्रावन्तु पृथिवीमनु ।।
बिजली बादल जल वृष्टि है सुदानी विशालकाय स्रोत।
हवाओं द्वारा प्रेरित मेघ करें भूमि को निरन्तर सराबोर।।
९७. (१०) देवता-अग्नि : भूरिक त्रिष्टुप् छन्दः।
अपामग्निस्तनूभि : संविदानो य ओषधीनामधिपा बभूव
स नो वर्र्षं वनुतां जातवेदाः प्राणं प्रजाभ्यो अमृतं दिवस्परि ।।
वर्षाकारक अग्निदेव हैं औषधियों के अधि पोषक।
करे प्रदान हमें नभ से अमृत जो है सभी में व्यापक ।।
९८. (११) देवता-प्रजापति स्तनयित्नु : त्रिष्टुप् छन्दः।
प्रजापतिः सलिलादा समुद्रादाप ईरयन्नुदधिमर्दयाति।
प्रप्यायतां वृष्णो अश्वस्य रेतोर्वाङेतेन स्तनयित्नुनेहि ।।
सम्मुख आ गर्जन के संग हे देव मेघ ।
समुद्र मथें सूर्य देव नभ से गिरायें मेह ।।
९९. (१२) देवता-वरुण : भूरिक त्रिष्टुप् छन्दः।
अपो निषिञ्चन्नसुरः पिता नः श्वसन्तु गर्गरा अपां वरुणाव
नीचीरपःसृज । वदन्तु पृश्निबाहवो मण्डूका इरिणानु ।।
जीवनदाता मेघ पिता उड़ेले जल प्रवाह।
लबालब हो भूमिमाता जल से पूर्ण अथाह ।।
१००. (१३,१४) देवता-मण्डूका : अनुष्टुप् एवं त्रिष्टुप् छन्दः।
संवत्सरं शशयाना ब्राह्मणा व्रतचारिणः।
वाचं पर्जन्यजिन्वितां प्र मण्डूका अवादिषुः ।।
१०१. उपप्रवद मण्डूकि वर्षमा वद तादुरि।
मध्ये ह्रदस्य प्लवस्व विगृह्य चतुरः पदः ।।
व्रतधारी ब्राह्मण जैसे मनन सहित साधते नित मन्त्र।
वर्षभर सोनेवाले मेंढक वर्षा हेतु टर्टरायें निरन्तर।।
१०२. (१५) देवता -पितरः। शंकुमत्यनुष्टुप छन्दः।
खण्वखा३इ खैमखा३इ मध्ये तदुरि ।
वर्षं वनुध्वं पितरो मरुतां मन इच्छत ।।
याजकों के मन को सदा भाने वाले ॠत्विग्गण।
वृष्टि से प्रसन्न मेंढ़कीवत् हर्षित हो कृषकगण ।।
१०३. (१६) देवता-वातादयः। त्रिष्टुप् छन्दः।
महान्तं कोशमुदचाभि षिञ्च सविद्युतं भवतु वातु वातः।
तन्वतां यज्ञं बहुधा विसृष्टा आनन्दिनीरोषधयो भवन्तु ।।
ऊँचा उठा कोष मेघदेव सींच बरस सब ओर।
वर्षा होवे बिजली सहित धरती पर घनघोर।।
हवि से विस्तारित यह यज्ञ महान्।
वृष्टि से परिपूरित करे जल प्रदान।।
\याज्ञिकों से नित होने वाले वर्षायज्ञ।
\आनन्ददायी औषधियाँ दे दाता पर्जन्य।।
ॠग्वेद ०९/१०८/१० कृतयशः ॠषि। पवमानः सोमो देवता। स्वराड़्बृहती छन्दः। मध्यमः स्वरः।
१०४. आ वच्यस्व सुदक्ष चम्वोः सुतो विशां वह्निर्न विश्पतिः।
वृष्टिं दिवः पवस्व रीतिमपां जिन्वा गविष्टये धियः।।
प्रवाहमयी वर्षा बरसाईये नभ से हे देव सोम पवमान।
यजन कर रहे हैं ज्ञानयुक्त कर्मशील ॠत्विक् और यजमान।।
आहूत पदार्थ को करती है प्रजापालक अग्नि ज्यों गतिमान्।
भर दो भू में त्यों जल हे जड़-चेतन में व्यापक सर्वज्ञ भगवान्।।
ॠग्वेद ०५/५३/०६ श्यावाश्व आत्रेय ॠषिः। मरुतो देवता। पंक्ति छन्दः। पंचमः स्वरः।
१०५. आ यं नरः सुदानवो ददाशुषे दिवः कोशमचुच्यवुः।
वि पर्जन्यं सृजन्ति रोदसी अनु धन्वना यन्ति वृष्टयः।।
वृष्टियाग के ज्ञानी व अनुभवी विद्वान्।
आहुतिदाता प्रशंसनीय यजमान।
दोनों ही पर्जन्य का करते हैं सृजन।
वर्षाएँ करतीं मरुभूमि का तर्पण।।
ॠग्वेद ०५।८४।०३ अत्रिर्ॠषिः। पृथिवी देवता। विराड़नुष्टुप छन्दः। गान्धारः स्वरः
१०६. दृळहा चिद्या वनस्पतीन्क्ष्मया दर्धर्ष्योजसा।
यत्ते अभ्रस्य विद्युतो दिवो वर्षन्ति वृष्टयः।।
जल से परिपूर्ण मेघमण्डल की धाराएँ अन्तरिक्ष से बरसती हैं।
अपने बल व तेज से वृक्षों को हिलाती हुई जब बिजली कड़कती है।
ॠग्वेद ०८।२५।०६ विश्वमना वैयश्व ॠषिः मित्रावरुणौ देवते। निचृदुष्णिक् छन्दः। ॠषभः स्वरः।
१०७. सं या दानूनि येमथुर्दिव्याः पार्थिवी रिषः।
नभस्वतीरा वां चरन्तु वृष्टयः।।
आकाश की जलधाराओं से भरे माँ धरणी।
दिव्य पार्थिव गुणों वाले अन्न हों संग्रहणी।।
ॠग्वेद ०७।४०।०६ – वसिष्ठ ॠषि। विश्वेदेवा देवताः। विराटपंक्तिप छन्दः। पंचम्ः स्वरः।।
१०८. मात्र पूषन्नाघृण इरस्यो वरुत्री यद्रातिषाचश्च रासन्।
मयोभुवो नो अर्वन्तो नि पान्तु वृष्टिं परिज्मा वातो ददातु।।
वृष्टि देवे वायु हमें जो है प्रकाशित पुष्टिकारक।
वेदविद्या के ज्ञाता व दानी सज्जन हों तुष्टिकारक।।
यजुर्वेद अध्याय ३६ मन्त्र १० दध्यङ्गाथर्वण ॠषिः। वातादयः देवताः।विराडनुष्टुप् छन्दः।गान्धारः स्वरः।
सम्पुट मन्त्र
शन्नो वातः पवतां शन्नस्तपतु सूर्य्यः।
शन्नः कनिक्रदद्देवः पर्जन्योऽअभि वर्षतु।।
शान्तिदायक पवन चले और सूर्य तपे सुखकारी।
चमके विद्युत् कल्याणी गरजता पर्जन्य दे वृष्टि भारी।।
यजुर्वेद २२/२५ एवं २६
प्रजापति ॠषि वाले दोनों मंत्रो के देवता जलादयः एवं वातादयः (जल आदि एवं वायु आदि) हैं। मन्त्रांश में छन्द तथा स्वर का बन्धन नहीं होगा (यद्यपि दोनों मन्त्रों के छन्द व स्वर क्रमशः अष्टिश्छन्दः, मध्यमः स्वरः एवं विराडभिकृतिश्छन्दः ॠषभः स्वरः हैं।
१. अद्भ्य स्वाहा।।
सामान्य जलों लिये यह शुद्ध करने की क्रिया है।
२. वार्भ्य : स्वाहा ।।
स्वीकार करने योग्य अति उत्तम जलों के लिए यह शुद्ध करने की क्रिया है।
३. उदकाय स्वाहा ।।
पदार्थों को गीले करने वा सूर्य किरणों से ऊपर को जाते हुए जल के लिए यह शुद्ध करने की क्रिया है।
४. तिष्ठन्तीभ्यः स्वाहा ।।
स्थिर जलों के लिये यह शुद्ध करने की क्रिया है।
५. स्रवन्तीभ्यः स्वाहा।।
शीघ्र बहते हुए जलों के लिए यह शुद्ध करने की क्रिया है।
६. स्यन्दमानाभ्यः स्वाहा ।।
धीरे-धीरे चलते जलों के लिए यह शुद्ध करने की क्रिया है।
७. कूप्याभ्यः स्वाहा ।।
कुएँ में हुए जलों के लिए यह शुद्ध करने की क्रिया है।
८. सूद्याभ्यः स्वाहा ।।
वर्षा आदि से भिगोने वाले जलों के लिए यह शुद्ध करने की क्रिया है।
९. धार्याम्यः स्वाहा ।।
धारण करने योग्य जलों के लिए यह शुद्ध करने की क्रिया है।
१०. अर्णवाय स्वाहा ।।
जिसमें बहुत जल हैं उस बड़े नद के लिए यह शुद्ध करने की क्रिया है।
११. समुद्राय स्वाहा ।।
सागर वा महासागर के लिये यह शुद्ध करने की क्रिया है।
१२. सरिराय स्वाहा ।।
अति सुन्दर मनोहर जल के लिए यह शुद्ध करने की क्रिया है।
१३. वाताय स्वाहा।।
अनुकूल वायु की प्राप्ति के लिए यह आहुति है।
१४. धूमाय स्वाहा ।।
यज्ञीय धुएँ की वृद्धि के लिए यह यज्ञक्रिया है।
१५. अभ्राय स्वाहा ।।
जल से भरे बादल के लिए यह आहुति है।
१६. मेघाय स्वाहा ।।
मेघ वृद्धि के लिए यह आहुति है।
१७. विद्योतमानाय स्वाहा ।।
बिजली से प्रवृत्त हुए सघन बादल के लिए यह आहुति है।
१८. स्तनयते स्वाहा ।।
गड़गड़ ध्वनि करने वाले मेघ के लिए यह आहुति है।
१९. अवस्फूर्जते स्वाहा ।।
वज्रघोष करने वाले मेघ के लिए यह आहुति है।
२०. वर्षते स्वाहा ।।
बरसते हुए मेघ के लिए यह वेदपाठ है।
२१. अववर्षते स्वाहा ।।
नीचे की ओर बरसने वाले मेघ के लिए यह मन्त्रध्वनि है।
२२. उग्रं वर्षते स्वाहा ।।
मूसलाधार बरसते मेघ के लिये यह मन्त्राहुति है।
२३. शीघ्रं वर्षते स्वाहा ।।
झटपट बरसने वाले बादल के लिए यह आहुति है।
२४. उद्गृह्णते स्वाहा ।।
जल को वाष्परूप में लाने वाले मेघ के लिए यह यज्ञक्रिया है।
२५. उदगृहीताय स्वाहा ।।
ऊपर से ऊपर ही जल ग्रहण करने वाले मेघ के लिये यह आहुति है।
२६. प्रुष्णते स्वाहा ।।
पूर्ण रूप से बरसाने वाले मेघ के लिए यह मन्त्रध्वनि है।
२७. शीकायते स्वाहा ।।
ठहर-ठहर के बरसने वाले मेघ के लिए यह यज्ञक्रिया है।
२८. प्रुष्वाभ्यः स्वाहा ।।
घनघोर वर्षा करने वाले मेघ के लिए यह यज्ञक्रिया है।
२९. ह्रादुनीभ्यः स्वाहा ।।
गड़गड़ ध्वनि करने वाले बादलों के लिए यह यज्ञक्रिया है।
३०. नीहाराय स्वाहा ।।
वर्षा होने के बाद होने वाले कुहरे के लिए यह यज्ञक्रिया है।
।। इति पर्जन्य वृष्टि मन्त्राः ।।
पूर्णाहुति-प्रकरणम्
आघारावाज्यभागाहुतिमन्त्राः
ओम् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये – इदन्न मम।। १।।
इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग अग्नि में
ओं सोमाय स्वाहा।
इदं सोमाय – इदन्न मम।। २।।
(गो.गृ.प्र.१/खं.८/सू.२४)
इससे दक्षिण भाग अग्नि में
ओं प्रजापतये स्वाहा। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। ३।। (यजु. २२ / ३२)
ओम् इन्द्राय स्वाहा। इदमिन्द्राय – इदन्न मम।। ४।।
इन दो मन्त्रों से वेदी के मध्य में आहुति देनी, उसके पश्चात् उसी घृतपात्र में से स्रुवा को भरके प्रज्वलित समिधाओं पर व्याहृति की निम्न चार आहुतियाँ देवे।
व्याहृत्याहुतिमन्त्राः
ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा।
इदमग्नये प्राणाय – इदन्न मम।। १।।
ओं भुवर्वायवे ऽ पानाय स्वाहा।
इदं वायवे ऽ पानाय – इदन्न मम ।। २।।
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।
इदमादित्याय व्यानाय – इदन्न मम।। ३।।
निम्न मन्त्र से स्विष्टकृत् होमाहुति भात की अथवा घृत की देवें।
यदस्य कर्मणोऽत्यरीरिचं यद्वा न्यूनमिहाकरम्।
अग्निष्टत् स्विष्टकृद् विद्यात् सर्वं स्विष्टं सुहुतं करोतु मे।
अग्नये स्विष्टकृते सुहुतहुते सर्वप्रायश्चित्ताहुतीनां कामानां समर्द्धयित्रे सर्वान्नः कामान्त्समर्द्धय स्वाहा।।
इदमग्नये स्विष्टकृते – इदन्न मम।। १।। (आश्व.१/१०/२२)
ओं प्रजापतये स्वाहा।। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। २।।
(यजु.१८/२२) इस प्राजापत्याहुति को मन में बोलकर देनी चाहिए।
आज्याहुतिमन्त्राः (पवमानाहुतयः)
ओं भूर्भुवः स्वः। अग्न आयूंषि पवस आ सुवोर्जमिषं च नः।
आरे बाधस्व दुच्छुनां स्वाहा।। इदमग्नये पवमानाय – इदन्न मम।। ३।। (ऋ.९/६६/१९)
ओं भूर्भुवः स्वः। अग्निर्ऋषिः पवमानः पाञ्चजन्यः पुरोहितः।
तमीमहे महागयं स्वाहा।। इदमग्नये पवमानाय – इदन्न मम।। ४।।
(ऋ.९/६६/२०)
ओं भूर्भुवः स्वः। अग्ने पवस्व स्वपा अस्मे वर्चः सुवीर्यम्।
दधद्रयिं मयि पोषं स्वाहा।। इदमग्नये पवमानाय – इदन्न मम।। ५।।
(ऋ.९/६६/२१)
ओं भूर्भुवः स्वः। प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव।
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणां स्वाहा।। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। ६।।
(ऋ.१०/१२१/१०)
इनसे घृत की चार आहुतियाँ करके ‘अष्टाज्याहुति’ के निम्नलिखित मन्त्रों से सर्वत्र मंगल कार्यों में आठ आहुति देवें।
त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान्देवस्य हेळोऽवयासिसीष्ठाः।
यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषांसि प्र मुमुग्ध्यस्मत् स्वाहा।। इदमग्निवरुणाभ्याम् – इदन्न मम।। ७।। (ऋ. ४/१/४)
स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती नेदिष्ठोऽअस्या उषसो व्युष्टौ।
अव यक्ष्व नो वरुणं रराणो वीहि मृळीकं सुहवो न एधि स्वाहा।। इदमग्निवरुणाभ्याम् – इदन्न मम।। ८।।
(ऋ.४/१/५)
इमं मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृळय।
त्वामवस्युराचके स्वाहा।। इदं वरुणाय – इदन्न मम।। ९।। (ऋ.१/२५/१९)
तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः।
अहेळमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मा न आयुः प्र मोषीः स्वाहा।। इदं वरुणाय – इदन्न मम।। १०।। (ऋ.१/२४/११)
ये ते शतं वरुण ये सहस्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः।
तेभिर्नोऽअद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्काः स्वाहा।। इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यः – इदन्न मम।। ११।।
(का.श्रौत.२५/१/११)
अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च सत्यमित्त्वमयाऽसि।
अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भेषज द्भञ स्वाहा।। इदमग्नये अयसे – इदन्न मम ।। १२।। (का.श्रौत.२५/१/११)
उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय।
अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा।। इदं वरुणाया ऽऽ दित्यायाऽदितये च – इदन्न मम।। १३।।
(ऋ.१/२४/१५)
भवतन्नः समनसौ सचेतसावरेपसौ।
मा यज्ञ हि सिष्टं मा यज्ञपतिं जातवेदसौ शिवौ भवतमद्य नः स्वाहा।। इदं जातवेदोभ्याम्-इदन्न मम।। १४।। (यजु.५/३)
ओ३म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।। (यजु.३६/३)
इस मन्त्र से तीन आहुतियां दें।
पूर्णाहुति-मन्त्राः
ओं सर्वं वै पूर्ण ँ् स्वाहा। इस मन्त्र से तीन बार केवल घृत से आहुतियां देकर अग्नि होत्र को पूर्ण करें।
(५) अथ भूतयज्ञः (बलिवैश्वदेवयज्ञ)
निम्नलिखित दस मन्त्रों से घृत-मिश्रित भात की यदि भात न बना हो तो क्षार और लवणान्न को छोड़कर पाकशाला में जो कुछ भोजन बना हो उसी की आहुति देवें।
ओम् अग्नये स्वाहा।। १।। ओं सोमाय स्वाहा।। २।।
ओम् अग्निषोमाभ्यां स्वाहा।। ३।। ओं विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा।। ४।। ओं धन्वन्तरये स्वाहा।। ५।। ओम् कुह्वै स्वाहा।। ६।। ओम् अनुमत्यै स्वाहा।। ७।। ओं प्रजापतये स्वाहा।। ८।। ओं सह द्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा।। ९।। ओें स्विष्टकृते स्वाहा।। १।।
तत्पश्चात् निम्नलिखित मन्त्रों से बलिदान करें। एक पत्तल अथवा थाली में यथोक्त दिशाओं में भाग रखना। यदि भाग रखने के समय कोई अतिथि आ जाए तो उसी को देना अथवा अग्नि में डालना चाहिए।
ओं सानुगायेन्द्राय नमः।। १।। (इससे पूर्व)
ओं सानुगाय यमाय नमः।। २।। (इससे दक्षिण)
ओं सानुगाय वरुणाय नमः।। ३।। (इससे पश्चिम)
ओं सानुगाय सोमाय नमः।। ४।। (इससे उत्तर)
ओं मरुद्भ्यो नमः।। ५।। (इससे द्वार)
ओं अद्भ्यो नमः।। ६।। (इससे जल)
ओं वनस्पतिभ्यो नमः।। ७।। (इससे मूसल व ऊखल)
ओं मरुद्भ्यो नमः।। ८।। (इससे ईशान)
ओं भद्रकाल्यै नमः।। ९।। (इससे नैऋत्य)
ओं ब्रह्मपतये नमः।। १०।।
ओं वस्तुपतये नमः।। ११।। (इनसे मध्य)
ओं विश्वभ्यो देवेभ्यो नमः।। १२।।
ओं दिवाचारिभ्यो भूतेभ्यो नमः।। १३।।
ओं नक्तंचारिभ्यो भूतेभ्यो नमः।। १४।। (इनसे ऊपर)
ओं सर्वात्मभूतये नमः।। १५।। (इससे पृष्ठ)
ओं पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः।। १६।। (इससे दक्षिण) -मनु. ३/८७-९१
तत्पश्चात् घृतसहित लवणान्न लेके-
शुनां च पतितानां च श्वपचां पापरोगिणाम्।
वायसानां कृमीणां च शनकैर्निवपेद् भुवि।।
(मनु. ३/९२)
अर्थ :- कुत्ता, पतित, चाण्डाल, पापरोगी, काक और कृमि- इन छः नामों से छः भाग पृथ्वी पर धरे और वे भाग जिस-जिस नाम के हों उस-उस को देवें।
(६) अतिथियज्ञः
तद्यस्यैवं विद्वान् व्रात्योऽतिथिर्गृहानागच्छेत्।। १।।
स्वयमेनमभ्युदेत्य ब्रूयाद् व्रात्य क्वावासीत्सीर्व्रा- त्योदकं व्रात्य तर्पयन्तु व्रात्य यथा ते प्रियं तथास्तु व्रात्य यथा ते वशस्तथास्तु व्रात्य यथा ते निकामस्तथाऽस्त्विति।। २।।
(अथर्व. १५/११/१,२)
जब पूर्ण विद्वान् परोपकारी सत्योपदेशक गृहस्थों के घर आवें, तब गृहस्थ लोग स्वयं समीप जाकर उक्त विद्वानों को प्रणाम आदि करके उत्तम आसन पर बैठाकर पूछें कि कल के दिन कहाँ आपने निवास किया था ? हे ब्रह्मन् जलादि पदार्थ जो आपको अपेक्षित हों ग्रहण कीजिए, और हम लोगों को सत्योपदेश से तृप्त कीजिए।
जो धार्मिक, परोपकारी, सत्योपदेशक, पक्षपातरहित, शान्त, सर्वहितकारक विद्वानों की अन्नादि से सेवा और उनसे प्रश्नोत्तर आदि करके विद्या प्राप्त करना अतिथियज्ञ कहाता है, उसको नित्यप्रति किया करें।
यज्ञ-प्रार्थना
पूजनीय प्रभो हमारे भाव उज्जवल कीजिए।
छोड देवें छल कपट को मानसिक बल दीजिए।।
वेद की बोलें ऋचाएं सत्य को धारण करें।
हर्ष में हों मग्न सारे शोक सागर से तरें।।
अश्वमेधादिक रचाएं यज्ञ पर उपकार को।
धर्म मर्यादा चलाकर लाभ दें संसार को।।
नित्य श्रद्धा भक्ति से यज्ञादि हम करते रहें।
रोग पीड़ित विश्व के संताप सब हरते रहें।।
भावना मिट जाए मन से पाप अत्याचार की।
कामनाएं पूर्ण होवें यज्ञ से नर-नारि की।।
लाभकारी हो हवन हर प्राणधारी के लिए।
वायु जल सर्वत्र हों शुभ गन्ध को धारण किए।।
स्वार्थ भाव मिटे हमारा प्रेम पथ विस्तार हो।
इदन्न मम का सार्थक प्रत्येक में व्यवहार हो।।
हाथ जोड़ झुकाएं मस्तक वन्दना हम कर रहे।
नाथ! करुणारूप करुणा आपकी सब पर रहे।।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।।
हे नाथ सब सुखी हों, कोई न हो दुखारी।
सब हों निरोग भगवन, धन-धान्य के भंडारी।
सब भद्रभाव देखें, सन्मार्ग के पथिक हों।
दुःखिया न कोई होवे, सृष्टि में प्राणधारी।
शान्ति पाठः
ओं द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष ँ् शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व ँ् शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि। (यजु.३६/१७)
ओम् शान्तिः शान्तिः शान्तिः।