निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु,
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा,
न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः।
(भर्तृहरिकृत- नीतिशतक, श्लो.७९)
भावार्थ– नीति में निपुण व्यक्ति चाहे निन्दा करे या प्रशंसा, धन-ऐश्वर्य की प्राप्ति हो या जो पास में हो वह भी चला जाए, आज ही मृत्यु हो जाए या लम्बे काल तक जीवन बना रहे, किन्तु जो धीर व्यक्ति हैं, वे सत्य, न्याय, आदर्श के मार्ग से एक कदम भी इधर- उधर नहीं हटते, प्रसन्न होकर कष्टों को सहन करते हुए दृढ़ता से उसी मार्ग पर चलते रहते हैं।
मत्तेभकुम्भदलने भुवि सन्तिः शूराः,
केचित् प्रचण्ड-मृगराज-वधेऽपि दक्षाः।
किन्तु ब्रवीमि बलिनां पुरतः प्रसह्य,
कन्दर्पदर्पदलने विरला मनुष्याः।।
(भर्तुहरिकृत- नीतिशतक, श्लो.५८)
भावार्थ– मैं मानता हूं कि संसार में, उन्मत्त हाथियों के सिर को फोड़ने वाले वीर बहुत बड़ी संख्या में हैं। क्रोध से भरे हुए अत्यन्त उग्र सिंहों को देखते ही चुटकी में मार डालने वाले वीर भी बहुत हैं, किन्तु मैं ऐसे बलवानों के सामने साहसपूर्वक कहता हूं कि काम वासना की प्रबल ज्वाला को रोककर, इन्द्रियजित वीर उनमें कोई विरला ही मनुष्य होगा।
प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः,
प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः।
विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः,
प्रारभ्य चोत्तमजना न परित्यजन्ति।।
(भर्तुहरिकृत- नीतिशतक, श्लो. २६)
भावार्थ– नीच अधम श्रेणी के मनुष्य कठिनाइयों के भय से किसी उत्तम कार्य को प्रारम्भ ही नहीं करते। मध्यम श्रेणी के मनुष्य कार्यों को प्रारम्भ करके विघ्नों से घबराकर बीच में ही छोड़ देते हैं, परन्तु उत्तम श्रेणी के वीर मनुष्य विघ्न बाधाओं से बार-बार पीड़ित होने पर भी प्रारंभ किए हुए उत्तम कार्य को पूरा किए बिना नहीं छोड़ते।
व्याघ्रीव तिष्ठति जरा परितर्जयन्ती,
रोगाश्च शत्रव इव प्रहरन्ति देहम्।
आयुः परिस्रवति भिन्नघटादिवाम्भो,
लोकस्तथाप्यहितमाचरतीति चित्रम्।।
(भर्तुहरिकृत- वैराग्यशतक, श्लो. ९६)
भावार्थ– शेरनी के समान भयभीत करने वाला बुढ़ापा सामने खड़ा है, अनेक प्रकार के रोग शत्रुओं के समान शरीर पर आक्रमण कर रहे हैं, और फूटे हुए घड़े में से जैसे निरन्तर पानी रिसता रहता है, वैसे ही आयु क्षीण होती जा रही है, अहो ! कितने आश्चर्य की बात है कि लोग फिर भी पाप कर्मों में लगे हुए हैं।
भिक्षाऽशनं तदपि नीरसमेकवारं
शय्या च भूः परिजनो निजदेहमात्रम्।
वस्त्रं च जीर्णशतखण्डमयी च कन्था,
हा-हा तदपि विषयान्न परित्यजन्ति।।
(भर्तुहरिकृत- नीतिशतक, श्लो. २६)
भावार्थ- भिक्षा का भोजन है, वह भी रूखा-सूखा तथा दिनभर में केवल एक बार सोने के लिए भूमि का बिछौना है, अपने शरीर के अतिरिक्त कोई सहायक नहीं है। पहनने ओढ़ने के लिए वस्त्र के रूप में केवल फटी पुरानी गुदड़ी है, जिसमें सैकड़ों पैबन्द लगे हुए हैं। ऐसी दयनीय स्थिति में भी भोग की अभिलाषाएं पीछा नहीं छोड़तीं। शोक ! महाशोक !!