रामचन्द्र पांडुरंग राव योलेकर (तात्या टोपे)

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ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी और अंग्रेज़ों के खिलाफ़ भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के महानायक, अपनी वीरता और रणनीति के लिये दूर दूर तक विख्यात रामचन्द्र पांडुरंग राव योलेकर उपाख्य तात्या टोपे से शायद ही कोई अपरिचित हो। 18 अप्रैल उन्हीं तात्या टोपे का बलिदान दिवस है। सन 1857 के महान विद्रोह में उनकी भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण, प्रेरणादायक और बेजोड़ थी, जिसे इतिहास कभी नहीं भुला सकता। तात्या का जन्म सन 1814 में महाराष्ट्र में नासिक के निकट पटौदा जिले के येवला नामक गाँव में एक देशस्थ ब्राह्मण परिवार श्रीमती रुक्मिणी बाई एवं पाण्डुरंग राव भट्ट़ के पुत्र के रूप में हुआ था।

उनके पिता पाण्डुरंग राव भट्ट़ (मावलेकर), पेशवा बाजीराव द्वितीय के दरबार के एक सम्माननीय सदस्य थे। तात्या अपने पिताजी के साथ अक्सर पेशवा के दरबार में जाते। बच्चे की प्रतिभा मानो उसके तेजस्वी और मुखर नेत्रों से छलक पड़ती थी इन्हीं विशाल और आकर्षक नेत्रों ने जल्द ही पेशवा का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। पेशवा बच्चे की प्रखर बुद्धि से प्रभावित हुए और उन्होने एक रत्नजटित टोपी उसे पहना दी। रामचंद्र का प्यार का नाम तात्या था और जब से पेशवा ने बालक तात्या को टोपी पहनाई तब से वह मानो उसकी चिरसंगिनी हो गई लोग अब तात्या को तात्या टोपे कहने लगे और आजन्म यही उनका अपना हो गया।

बाजीराव के प्रति स्वामिभक्त होने के कारण तात्या के पिता बाजीराव के साथ सन् 1818 में बिठूर चले गये थे, जबी अंग्रेजों ने बाजीराव की हार के बाद उन्हें उनके राज्य से निष्कासित कर दिया था। तात्या एक महत्त्वाकांक्षी नवयुवक थे। उन्होंने अनेक वर्ष बाजीराव के तीन दत्तक पुत्र- नाना साहब, बाला साहब और बाबा भट्ट के साहचर्य में बिताए और इन्हीं के साथ उन्होंने युद्ध कौशल एवं अन्य शिक्षा दीक्षा प्राप्त की। तात्या ने कुछ सैनिक प्रशिक्षण प्राप्त तो किया था किंतु उन्हें युद्धों का अनुभव बिल्कुल भी नहीं था। तात्या ने पेशवा के पुत्रों के साथ उस काल के औसत नवयुवक की भांति युद्ध प्रशिक्षण प्राप्त किया था। घेरा डालने और हमला करने का जो भी ज्ञान उन्हें रहा हो वह उनके उस कार्य के लिए बिलकुल उपयुक्त न था जिसके लिए भाग्य ने उनका निर्माण किया था। ऎसा प्रतीत होता है कि उन्होंने ‘गुरिल्ला’ युद्ध जो उनकी मराठा जाति का स्वाभाविक गुण था, अपनी वंश परंपरा से प्राप्त किया था। यह बात उन तरीकों से सिद्ध हो जाती है जिनका प्रयोग उन्होंने ब्रिटिश सेनानायकों से बचने के लिए किया।

बिठूर में तात्या की योग्यताओं और महत्त्वाकांक्षाओं के लिए न के बराबर स्थान था और वह एक उद्धत्त व्यक्ति बनकर ही वहां रहते, यह बात इस तथ्य से स्पष्ट है कि वह कानपुर गए और उन्होंने ईस्ट इंडिया कम्पनी की नौकरी कर ली किंतु शीघ्र ही हतोत्साहित होकर लौट आए। इसके बाद उन्होंने कुछ समय तक महाजनी का काम किया, किंतु इसे बाद में छोड़ दिया क्योंकि यह उनके स्वभाव के बिलकुल प्रतिकूल था। तात्या के पिता पेशवा के गृह प्रबंध के पहले से ही प्रधान थे, इसलिए उन्हें एक लिपिक के रूप में नौकरी पाने में कोई कठिनाई नहीं हुई। किंतु वह अपनी इस हालत से खुश नहीं थे और उनको लगता था कि वह इन सब कामों के लिए नहीं बने हैं।

इसी बीच सन् सत्तावन के विद्रोह की शुरुआत 10 मई को मेरठ से हो गयी और जल्दी ही क्रांति की चिन्गारी समूचे उत्तर भारत में फैल गयी। विदेशी सत्ता का खूनी पंजा मोडने के लिए भारतीय जनता ने जबरदस्त संघर्ष किया और उसने अपने खून से त्याग और बलिदान की अमर गाथा लिखी। सन् 1857 के विद्रोह की लपटें जब कानपुर पहुँचीं और वहाँ के सैनिकों ने नाना साहब को पेशवा और अपना नेता घोषित किया तो तात्या टोपे ने कानपुर में स्वाधीनता स्थापित करने में अगुवाई की। तात्या टोपे को नाना साहब ने अपना सैनिक सलाहकार नियुक्त किया और 1857 तक जिस नाम से लोग अपरिचित थे, 1857 की नाटकीय घटनाओं ने उसे अचानक अंधकार से प्रकाश में ला खड़ा किया।

इस महान विद्रोह के प्रारंभ होने से पूर्व वह राज्यच्युत पेशवा बाजीराव द्वितीय के सबसे बड़े पुत्र बिठूर के राजा, नाना साहब के एक प्रकार से साथी-मुसाहिब मात्र थे, किंतु स्वतंत्रता संग्राम में कानपुर के सम्मिलित होने के पश्चात तात्या पेशवा की सेना के सेनाध्यक्ष की स्थिति तक पहुंच गए। उसके पश्चातवर्ती युद्धों की सभी घटनाओं ने उनका नाम सबसे आगे एक पुच्छलतारे की भांति बढ़ाया, जो अपने पीछे प्रकाश की एक लंबी रेखा छोड़ता गया। उनका नाम केवल देश में नहीं वरन देश के बाहर भी प्रसिद्ध हो गया। मित्र ही नहीं शत्रु भी उनके सैनिक अभियानों को जिज्ञासा और उत्सुकता से देखने और समझने का प्रयास करते थे।

समाचार पत्रों में उनके नाम के लिए विस्तृत स्थान उपलब्ध था। उनके विरोधी भी उनकी प्रशंसा करते थे। उदाहरणार्थ-
कर्नल माल्सन ने उनके संबंध में कहा है, ‘भारत में संकट के उस क्षण में जितने भी सैनिक नेता उत्पन्न हुए, वह उनमें सर्वश्रेष्ठ थे।’
सर जार्ज फॉरेस्ट ने उन्हें, ‘सर्वोत्कृष्ट राष्ट्रीय नेता’ कहा है।
आधुनिक अंग्रेज़ी इतिहासकार, पर्सीक्रास स्टेडिंग ने सैनिक क्रांति के दौरान देशी पक्ष की ओर से उत्पन्न ‘विशाल मस्तिष्क’ कहकर उनका सम्मान किया। उसने उनके विषय में यह भी कहा है कि ‘वह विश्व के प्रसिद्ध छापामार नेताओं में से एक थे।

1857 के दो विख्यात वीरों – झांसी की रानी और तात्या टोपे में से झांसी की रानी को अत्यधिक ख्याति मिली। उनके नाम के चारों ओर यश का चक्र बन गया, किंतु तात्या टोपे के साहसपूर्ण कार्य और विजय अभियान रानी लक्ष्मीबाई के साहसिक कार्यों और विजय अभियानों से कम रोमांचक नहीं थे। रानी लक्ष्मीबाई के युद्ध अभियान जहां केवल झांसी, कालपी और ग्वालियर के क्षेत्रों तक सीमित रहे थे वहां तात्या एक विशाल राज्य के समान कानपुर के राजपूताना और मध्य भारत तक फैल गए थे। कर्नल ह्यू रोज- जो मध्य भारत युद्ध अभियान के सर्वेसर्वा थे, ने यदि रानी लक्ष्मीबाई की प्रशंसा ‘उन सभी में सर्वश्रेष्ठ वीर’ के रूप में की थी तो मेजर मीड को लिखे एक पत्र में उन्होंने तात्या टोपे के विषय में यह कहा था कि वह ‘भारत युद्ध नेता और बहुत ही विप्लवकारी प्रकृति के थे और उनकी संगठन क्षमता भी प्रशंसनीय थी।’

तात्या ने अन्य सभी नेताओं की अपेक्षा शक्तिशाली ब्रिटिश शासन की नींव को हिलाकर रख दिया था। उन्होंने शत्रु के साथ लंबे समय तक संघर्ष जारी रखा। जब स्वतंत्रता संघर्ष के सभी नेता एक-एक करके अंग्रेज़ों की श्रेष्ठ सैनिक शक्ति से पराभूत हो गए तो वे अकेले ही विद्रोह की पताका फहराते रहे। रानी लक्ष्मीबाई के बलिदान के बाद का तात्या टोपे का दस माह का जीवन अद्वितीय शौर्य गाथा से भरा जीवन है। लगभग सब स्थानों पर विद्रोह कुचला जा चुका था, लेकिन तात्या ने एक साल की लम्बी अवधि तक मुट्ठी भर सैनिकों के साथ अंग्रेज सेना को झकझोरे रखा। इस दौरान उन्होंने दुश्मन के खिलाफ एक ऐसे जबर्दस्त छापेमार युद्ध का संचालन किया, जिसने उन्हें दुनिया के छापेमार योद्धाओं की पहली पंक्ति में लाकर खडा कर दिया।

इस छापेमार युद्ध के दौरान तात्या टोपे ने दुर्गम पहाडयों और घाटियों में बरसात से उफनती नदियों और भयानक जंगलों के पार मध्यप्रदेश और राजस्थान में ऐसी लम्बी दौड-दौडी जिसने अंग्रेजी कैम्प में तहलका मचाये रखा। बार-बार उन्हें चारों ओर से घेरने का प्रयास किया गया और बार-बार तात्या को लडाइयाँ लडनी पडी, परंतु यह छापामार योद्धा एक विलक्षण सूझ-बूझ से अंग्रेजों के घेरों और जालों के परे निकल गया। तत्कालीन अंग्रेज लेखक सिलवेस्टर ने लिखा है कि ’’हजारों बार तात्या टोपे का पीछा किया गया और चालीस-चालीस मील तक एक दिन में घोडों को दौडाया गया, परंतु तात्या टोपे को पकडने में कभी सफलता नहीं मिली।‘‘

उन्होंने लगातार नौ मास तक उन आधे दर्जन ब्रिटिश कमांडरों को छकाया जो उन्हें पकड़ने की कोशिश कर रहे थे और वे अपराजेय ही बने रहे। सच तो यही है कि सन् 1857 के स्वातंत्र्य योद्धाओं में वही ऐसे तेजस्वी वीर थे जिन्होंने विद्युत गति के समान अपनी गतिविधियों से शत्रु को आश्चर्य में ड़ाल दिया था। वही एकमात्र ऐसे चमत्कारी स्वतन्त्रता सेनानी थे जिन्होंने पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण के सैनिक अभियानों में फिरंगी अंग्रेज़ों के दाँत खट्टे कर दिये थे। अपने अभियानों के क्रम में तात्या को राजस्थान के इन्दरगढ में नेपियर, शाबर्स, समरसेट, स्मिथ, माइकेल और हार्नर नामक ब्रिगेडियर और उससे भी ऊँचे सैनिक अधिकारियों ने हर एक दिशा से घेर लिया। बचकर निकलने का कोई रास्ता नहीं था, लेकिन तात्या में अपार धीरज और सूझ-बूझ थी।

अंग्रेजों के इस कठिन और असंभव घेरे को तोडकर वे जयपुर की ओर भागे। देवास और शिकार में उन्हें अंग्रेजों से पराजित होना पडा। अब उन्हें निराश होकर परोन के जंगल में शरण लेने को विवश होना पडा। अंग्रेजों ने थकहार कर छल का सहारा लिया और अंग्रेज सेनापति होम्स ने तात्या के मित्र ग्वालियर के सरदार मानसिंह के माध्यम से तात्या टोपे को पकड़ने का षड़यंत्र रचा । 7 अप्रैल, 1859 को रात्रि के समय शिवपुरी के बीहड़ जंगल में मानसिंह के ठिकाने पर सोये हुए तात्या टोपे को गोरे सैनिकों ने घेर लिया । रणबाँकुरे तात्या को कोई जागते हुए नहीं पकड सका।

विद्रोह और अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध लडने के आरोप में 15 अप्रैल, 1859 को शिवपुरी में तात्या का कोर्ट मार्शल किया गया। तात्या टोपे ने अदालत में निर्भीकता से कहा “मैंने मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध किया है । मैं तोप से उड़ाए जाने या फांसी पर चढ़ने के लिए तैयार हूँ।” कोर्ट मार्शल के सब सदस्य अंग्रेज थे इसलिए परिणाम जाहिर था, उन्हें मौत की सजा दी गयी।शिवपुरी के किले में उन्हें तीन दिन बंद रखा गया। वो 18 अप्रैल 1859 का दिन था, समय दोपहर चार बजे एक मुस्कराता हुआ कैदी जेल से बाहर लाया गया उसके हाथों और पैरों में जंजीरे पड़ी थीं सिपाहियों की निगरानी में उसे फाँसी के तख्त के पास ले जाया गया उसे मौत की सजा सुनाई गई थी कैदी तख्त की ओर निर्भयता से बढ़ा तख़्त पर पैर रखते समय उसमें तनिक भी हिचकिचाहट नहीं थी परिपाटी थी कि मृत्युदंड दिए गए व्यक्ति की आँखें रुमाल से बाँध दी जाए पर जब सिपाही रुमाल लेकर आगे बढ़े तो कैदी मुस्कुराया और उसने इशारे से समझा दिया कि “मुझे उसकी कोई आवश्यकता नही।” उसने अपने हाथ- पैर बँधवाने से भी इनकार कर दिया अपने हाथ से ही उसने उस फंदे को अपनी गर्दन में फँसाया फंदा कसा गया, अंत में एक झटका और पल भर में सब कुछ समाप्त। कहा जाता है कि उन्हें दो बार फ़ांसी पर लटकाकर अंग्रेज़ों ने अपनी संतुष्टि की थी।

इसके बाद बदला लेने के उद्देश्य से अंग्रेज़ सेना के साथ नरवर और ग्वालियर के शासक भी तात्या के परिवारजनों को ढूंढने में लग गये। लम्बे समय तक इस स्वाभिमानी परिवार के सदस्य अपने नाम और वेशभूषा बदलकर अनेक ग़ैर-पारम्परिक पेशों को चुनकर देशभर में भटकते रहे। गर्व की बात यह है कि वर्षों के उत्पीड़न के बावजूद भी स्वस्थ परम्पराओं का सम्मान करने वाला यह परिवार आज सुशिक्षित और समृद्ध हैं। तात्या टोपेज़ ऑपरेशन रेड लोटस के लेखक पराग टोपे अमेरिका में रहते हैं। डॉ राजेश टोपे आयरलैंड में रहे हैं परंतु अधिकांश टोपे परिवारजन भारत में ही रहते हैं।

भारत में 1857 में हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता तात्या टोपे के बारे में भले ही इतिहासकार कहते हों कि उन्हें अप्रैल 1859 में फाँसी दी गई थी, लेकिन उनके एक वंशज पराग टोपे ने तात्या टोपे से जुड़े नए तथ्यों का खुलासा करने वाली किताब ‘तात्या टोपेज ऑपरेशन रेड लोटस’ में दावा किया है कि तात्या को मध्यप्रदेश के शिवपुरी में 18 अप्रैल 1859 को तात्या को फाँसी नहीं दी गई थी, बल्कि गुना जिले में छीपा बड़ौद के पास अंग्रेजों से लोहा लेते हुए 1 जनवरी 1859 को तात्या टोपे शहीद हो गए थे। पराग टोपे के अनुसार तात्या को कभी पकड़ा नहीं जा सका था और वे दरअसल एक छापामार युद्ध में शहीद हुए थे।

उनकी शहादत के बाद युद्ध की शैली, सैन्य संचलन आदि में अचानक एक बड़ा अंतर आया। उनकी प्रतीकात्मक फ़ांसी अंग्रेज़ों की एक ज़रूरत थी जिसके बिना स्वतंत्रता संग्राम का पूर्ण पटाक्षेप कठिन था। इस प्रक्रिया के नाट्य रूपांतर में नरवर के राजा ने एक नरबलि देकर अपने गौर प्रभुओं की सहायता की। फ़ांसी लगे व्यक्ति ने अपनी आयु 55 वर्ष बताई थी जबकि उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार उस समय तात्या की आयु 45-46 वर्ष की होनी थी। सत्य जो भी हो, जन्मभूमि की ओर आँख उठाने वालों के छक्के छुड़ा देने वाले तात्या जैसे वीर संसार भर के स्वतंत्रताप्रिय देशभक्तों की नज़र में सदा अमर रहेंगे। तात्या टोपे को श्रद्धांजलि देते हुए राष्ट्रीय कवि स्व. श्रीकृष्ण ‘सरल’ ने लिखा था-
‘दांतों में उंगली दिए मौत भी खड़ी रही,
फौलादी सैनिक भारत के इस तरह लड़े
अंगरेज बहादुर एक दुआ मांगा करते,
फिर किसी तात्या से पाला नहीं पड़े।’
उनके बलिदान दिवस पर कोटि कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि।

~ लेखक : विशाल अग्रवाल
~ चित्र : माधुरी

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