म.दयानन्द निर्दिष्ट कर्मकाण्ड-साधना परक मन्त्रार्थ

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ईश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना
ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव। यद् भद्रन्तन्न ऽ आसुव।। १।।

(यजु.अ.३०/मं.३)
१) शुद्ध सविता सम्पूर्ण दुःखम् (दुर्गुणों से) सदा दूर कर, भद्र सुखं चारों दिशाओं प्राप्त हो।
हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक ऽ आसीत्। स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।। २।। (यजु.अ.१३/मं.४)
२) हिरण्यगर्भ जगतपूर्व से प्रवहणशील जगत का पालन कर्ता एक केवल सदाई है, द्यौ पृथ्वी लोक त्रिकाल धारणीय है जिसे उसकी यथावत भक्ति तथा सेवन है।
य ऽ आत्मदा बलदा यस्य विश्व ऽ उपासते प्रशिषं यस्य देवाः। यस्य छाया ऽ मृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। ३।। (यजु.अ.२५/मं.१३)
३) आत्म तथा बल के विज्ञान का दाता, जिसका सुप्रशासन विद्वानों पे है.. शिष्टों नें जिसे स्वीकारा, जीवन में उतारा है, जिसके गुणों को जीना अमृत छाया है, न जीना अछाया मृत्यु है, उसकी यथावत भक्ति तथा सेवन है।
यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक ऽ इद्राजा जगतो बभूव। य ऽ ईशे ऽ अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। ४।। (यजु.अ.२३/मं.३)
४) चैतन्य तथा जड़ का महत्ता पूर्वक एक ही अधिष्ठाता रहता है, द्वि चतुः पग का सहजतः ईश है, उसकी यथावत भक्ति तथा सेवन है।
येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढ़ा येन स्वः स्तभितं येन नाकः। यो ऽ न्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। ५।। (यजु.अ.३२/मं.६)
५) उग्र द्यौ दृढ़ धरा अभ्युदय अव्याहत आह्लाद धारण करता, पक्षी समूह उड़ानवत तारों ग्रहों का नियमबद्ध विस्तारित कर्ता है जो… उसकी यथावत भक्ति तथा सेवन है।
प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव। यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्।। ६।। (ऋ.म.१०/सू.१२१/मं.१०)
६) प्रजापति भिन्न इन उन जड़ चेतन से परे समर्थ नहीं उसके यथावत भक्ति सेवन से हम कामना सिद्ध शुद्ध समृद्धि समृद्ध होते हैं।
स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा। यत्र देवा ऽ अमृतमानशानास्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त।। ७।। (यजु.अ.३२/मं.१०)
७) ब्रह्म बन्धु पालक विधाता विश्व भुवन स्तर ज्ञाता है जो उसमें अव्याहत गति से आप्त आह्लादित हैं।
अग्ने नय सुपथा राये ऽ अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्। युयोध्यस्मज्जुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम ऽ उक्तिं विधेम।। ८।।
(यजु.अ.४०/मं.१६)
८) अग्ने ब्रह्म हम सर्व समृद्धि हेतु सहज सरल धर्मपथ चलें सकल प्रज्ञान ज्ञात हमसे दुरित दूर हों ब्रह्म की यथावत भक्ति तथा सेवन है।
आचमन
ओ३म् अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।। १।।
१. अगाओ अमृत है बिछौना स्वाहा।
ओ३म् अमृतापिधानमसि स्वाहा।। २।।
२. अगाओ अमृत है ओढ़ना स्वाहा।
ओ३म् सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा।। ३।। (तैत्ति.आर.प्र.१०/अनु.३२,३५)
३. सत्य, प्रतिष्ठा, समृद्धि त्रय शोभित मुझ में स्वाहा।
अंगस्पर्श
ओं वाङ्म आस्ये ऽ स्तु।
१. मुख में वाक् स्थित।
ओं नसोर्मे प्राणो ऽ स्तु।
२. नासिका में प्राण शक्ति।
ओं अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु।
३. नेत्रों में दृष्टि शक्ति।
ओं कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु।
४. कानों में श्रवण शक्ति।
ओं बाह्वोर्मे बलमस्तु।
५. बाहुओं में बल शक्ति।
ओम् ऊर्वोर्म ओजो ऽ स्तु।
६. जंघाओं में सहन शक्ति।
ओम् अरिष्टानि मे ऽ ङ्गानि तनूस्तन्वा मे सह सन्तु। (पार.गृ.का.२/क.३/सू.२५)
७. संपूर्ण शरीर तथा अंग हृष्ट पुष्ट।
अग्नि-आधान
ओं भूर्भुवः स्वः।
(गोभिल.गृ.प.१/खं.१/सू.११)
१. अस्तित्वित तुम, अस्तित्व कारण तुम, उत्कर्ष तुम। (दीप प्रज्जवलन)
ओं भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा। तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठे ऽ ग्निमन्ना दमन्नाद्यायादधे।।
(यजु.अ.३/मं.५)
२. सत चित आनन्द ज्योतिवत ऐश्वर्ययुक्त भूमिवत धारण आश्रय दातृत्वयुक्त मैं देव सेवन समागम संगठन की भूमि आकाश की पृष्ठभूमि में सुपुष्टता कारक अन्न हेतु अन्न पाक अग्नि स्थापन करता हूं।
अग्नि प्रदीपन
ओम् उद् बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते स ँ् सृजेथामय९च। अस्मिन्त्सधस्थे ऽ अध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्चसीदत।। (यजु. १५/५४)
आत्मन् ज्ञान उद्बुद्ध हो, प्रतिजागृत हो, स्त्री पुरुष धर्म अर्थ काम मोक्ष तथा पूर्ण बल ज्ञान सुसंगत हों इस उस समय में योग्यता अनुभव आयु क्रम पद एकत्र हों।
त्रि समिधादान
ओम् अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्द्धस्व चेद्ध वर्द्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसे नान्नाद्येन समेधय स्वाहा। इदमग्नये जातवेदसे – इदन्न मम।। १।।
(आश्वलायन गृ.सू. १/१०/१२)
(प्रथम) चतुर्वेद उद्बोधक ज्ञानाग्नि प्रदीपन तव स्वरूपता है। प्रदीपन तव महिमा है, आत्म समिध प्रदीप्त कर सर्वविध उन्नति कर चतुर्वेदी बनूंगा सुआहुति।
ओं समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम्।
आस्मिन् हव्या जुहोतन स्वाहा।।
इदमग्नये – इदन्न मम।। २।। (यजु.३/१)
सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन।
अग्नये जातवेदसे स्वाहा।। इदमग्नये जातवेदसे – इदन्न मम।। ३।। (यजु.३/२)
(द्वितीय) सुप्रदीप्त परिशुद्ध चतुर्वेद उद्बोधक ब्रह्म हेतु परिष्कृत अर्थ कर्म सुआहूत स्वाहा।
तं त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्द्धयामसि। बृहच्छोचा यविष्ठ्या स्वाहा।।
इदमग्नये ऽ ङ्गिरसे – इदन्न मम।। ४।। (यजु.३/३.)
(तृतीय) अगतित गतिदाता अव्यक्त अभिव्यक्त कर्ता अन्तस प्रकाशित कर हम तक ज्ञान विस्तारे सुआहुति। सूक्ष्मतम व्यापकतम हेतु सुप्रदीप्तता-न कि मेरे लिए।
पंच घृताहुतियां
ओम् अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्द्धस्व चेद्ध वर्द्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसे नान्नाद्येन समेधय स्वाहा। इदमग्नये जातवेदसे – इदन्न मम।। १।।
(आश्वलायन गृ.सू. १/१०/१२)
चतुर्वेद उद्बोधक ज्ञानाग्नि प्रदीपन तव स्वरूपता है। प्रदीपन तव महिमा है, आत्म समिध प्रदीप्त कर सर्वविध उन्नति कर चतुर्वेदी बनूंगा सुआहुति।
जल प्रोक्षण
ओम् अदिते ऽ नुमन्यस्व।। १।।
(पूर्व में) अखण्ड एकरस निर्विकार नित्य अविनाशी हमें तेरी अनुकूलता।
ओम् अनुमते ऽ नुमन्यस्व।। २।।
(पश्चिम में) ऋत तथा शृत नियामक हमें तेरी अनुकूलता।
ओम् सरस्वत्यनुमन्यस्व।। ३।।
(गोभि.गृ.सू.१/३/१-३)
(उत्तर में) प्रशस्त ज्ञान शालीन सदा हमें तेरी अनुकूलता।
ओं देव सवितः प्र सुव यज्ञं प्र सुव यज्ञपतिं भगाय। दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु।। ४।। (यजु.अ.३०/मं.१)
(चारों ओर) स्व महिमा दिव्य स्वरूप सविता यज्ञ सु सम्पन्न करा। सर्व ऐश्वर्य यज्ञपति में सु उत्पन्न कर। शुद्ध गुण कर्म स्वभावों में उत्तम सूक्ष्म अव्यक्त धारण कर्ता प्रज्ञान धन विज्ञान को सुसंस्कृत करे.. वेद जनक वाणी को स्वादिष्ट = अपरा करे।
आघारावाज्य भागाहुति
ओम् अग्नये स्वाहा।
इदमग्नये – इदन्न मम।। १।।
(उत्तर) ब्रह्म को सुआहुति। ब्रह्म हेतु-न कि मेरे लिए।
ओं सोमाय स्वाहा। इदं सोमाय – इदन्न मम।। २।। (गो.गृ.प्र.१/खं.८/सू.५)
(दक्षिण) सर्वजनक को सुआहुति। ब्रह्म हेतु-न कि मेरे लिए।
आज्य आहुति
ओं प्रजापतये स्वाहा।
इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। ३।।
(यजु.२२/३२)
(मध्य में) प्रजापालक को सुआहुति। ब्रह्म हेतु-न कि मेरे लिए।
ओम् इन्द्राय स्वाहा।
इदमिन्द्राय – इदन्न मम।। ४।।
(यजु.२२/२७)
(मध्य में) ऐश्वर्य शाली को सुआहुति। ब्रह्म हेतु-न कि मेरे लिए।
प्रधान या मुख्य होम (प्रातः)
ओं सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः स्वाहा।। १।।
१) अन्तर्यामी है सूर्य ज्योतिवत प्रातः सुआहुति।
ओं सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा।। २।।
२) सर्व गतिदायक है कांतिवत कांतिदायक है अन्न सुआहुति।
ओं ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा।। ३।।
३) सर्व नेत्र ज्योति है सर्व व्यापक सुआहुति।
ओं सजूर्देवेन सवित्रा सजूरुषसेन्द्रवत्या।
जुषाणः सूर्यो वेतु स्वाहा ।। ४।।
(यजु. ३/९, १०)
४) ब्रह्म यंत्रित सरात्रि ज्योति रहे सदा सुआहुति।
(सायं)
ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा।। १।।
१) अन्तर्यामी है अग्नि ज्योतिवत सुआहुति।
ओम् अग्निर्वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा।। २।।
२) ब्रह्म है कांतिवत कांतिदायक अन्न है सुआहुति।
ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा।। ३।।
३) सर्वनेत्र ज्योति है सर्वव्यापक सुआहुति।
ओं सजूर्देवेन सवित्रा सजू रात्रयेन्द्रवत्या।
जुषाणो ऽ अग्निर्वेतु स्वाहा।। ४।।
(यजु.३/मं.९, १०)
४) ब्रह्म यंत्रित सरात्रि ज्योति रहे सदा सुआहुति।
(प्रातः सायं)
ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा।
इदमग्नये प्राणाय – इदन्न मम।। १।।
१) श्वास पर ब्रह्म अग्नि प्रभाव स्वास्थ्यमय सुआहुति। ब्रह्म अग्नि हेतु-न मेरे लिए।
ओं भुवर्वायवे ऽ पानाय स्वाहा।
इदं वायवे ऽ पानाय – इदन्न मम ।। २।।
२) अति प्रश्वास पर ब्रह्म पवन प्रभाव स्वास्थ्यमय सुआहुति। ब्रह्म पवन हेतु-न मेरे लिए।
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।
इदमादित्याय व्यानाय – इदन्न मम।। ३।।
(गोभिगृह्यसूत्र०प्र.१/खं.३/यू. १-३)
३) शरीरस्थ वायु पर ब्रह्म सूर्य प्रभाव स्वास्थ्यमय सुआहुति। ब्रह्म पवन हेतु-न मेरे लिए।
ओं भूर्भुवः स्वरग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा। इदमग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः इदन्न मम।। ४।। (तैत्ति.आर.प्र.१०/अनु.२)
४) श्वास अति प्रश्वास शरीरस्थ वायु पर ब्रह्म अग्नि ब्रह्म पवन ब्रह्म रवि सुप्रभाव सुआहुति। अग्नि पवन रवि प्राण अपान व्यान हेतु-न मेरे लिए।
ओम् आपो ज्योतीरसो ऽ मृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा।। ५।। (तैत्ति.आ.प्र.१०/अनु.१५)
५) सर्व प्रवाहित ज्योति जग बीज अमृत महान सर्वाधार सर्वव्यापक सुखस्वरूप है ब्रह्म सुआहुति।
ओं यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते।
तया मामद्य मेधया ऽ ग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा।। ६।। (यजु.३२/१४)
६) अति विद्वान पितरवत हम विद्वान बनें सब सुआहुति।
ओं विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव। यद्भद्रन्तन्न ऽ आसुव स्वाहा।। ७।। (यजु.३०/३)
७) शुद्ध सविता सम्पूर्ण दुःखम् सदा दूर कर भद्र सुख चारों दिशाओं सदा प्राप्त हो।
ओम् अग्ने नय सुपथा राये ऽ अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्। युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम ऽ उक्तिं विधेम स्वाहा।। ८।।
(यजु.४०/१६)
८) अग्ने ब्रह्म हम सर्व समृद्धि हेतु सहज सरल धर्म पथ चलें सकल प्रज्ञान ज्ञात हमसे दुरित दूर हों। ब्रह्म की यथावत भक्ति तथा सेवन है।
ओं भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यम्
भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।। (यजु.३६/३)
९) सुआधार, सुव्यापक, सुखस्वरूप, ज्योतिनिर्मल के धारणीय तेज ओतःप्रोत हम बुद्धि कर्म सुबढ़े।
अग्नि व्याहृति आहुति
ओं भूरग्नये स्वाहा।
इदमग्नये-इदन्न मम।। १।।
१) प्राण है तू तेरे लिए सुआहुति। नहीं है आहुति मेरे लिए।
ओं भुवर्वायवे स्वाहा।
इदं वायवे-इदन्न मम ।। २।।
२) दुःखहर्ता है तू वायु तेरे लिए सुआहुति। नहीं है आहुति मेरे लिए।
ओं स्वरादित्याय स्वाहा।
इदमादित्याय-इदन्न मम।। ३।।
३) सुख स्वरूप है तू सूर्य तेरे लिए सुआहुति। नहीं है आहुति मेरे लिए।
ओं भूर्भुवः स्वरग्निवायवादित्येभ्यः स्वाहा। इदमग्निवायवादित्येभ्यः -इदन्न मम।। ४।।
४) प्राणदाता दुःखविनाशक सुख स्वरूप है तू अग्नि वायु सूर्य के लिए ये सुआहुतियां। नहीं हैं आहुतियां मेरे लिए।
स्विष्टकृत् आहुति
ओं यदस्य कर्मणो ऽ त्यरीरिचं यद्वा न्यूनमिहाकरम्। अग्निष्टत् स्विष्टकृद् विद्यात् सर्वं स्विष्टं सुहुतं करोतु मे। अग्नये स्विष्टकृते सुहुतहुते सर्वप्रायश्चित्ताहुतीनां कामानां समर्द्धयित्रे सर्वान्नः कामान्त्समर्द्धय स्वाहा।
इदमग्नये स्विष्टकृते-इदन्न मम।। ५।।
(आश्व.१/१०/२२)
अल्पज्ञ कर्मों का नियन्ता वह ब्रह्म न्याय उत्तम मध्यम अधम फल दे सुमनोरथ सिद्धि हेतु सुदानदाता प्रायश्चित्त विधाता आप्तकाम ज्ञान हेतु सर्वकाम सिद्ध हो सुआहुति। कर्माहुति है ब्रह्म हेतु-न मेरे लिए।
मौन प्रजापति आहुति
ओं प्रजापतये स्वाहा।
इदं प्रजापतये-इदन्न मम।। ४।।
प्रजापालक हेतु सुआहुति। प्रजापालक हेतु-न मेरे लिए।
पावमानी आहुतियां
ओं भूर्भुवः स्वः। अग्न आयूंषि पवस आ सुवोर्जमिषं च नः।
आरे बाधस्व दुच्छुनां स्वाहा।।
इदमग्नये पवमानाय-इदन्न मम।। १।।
(ऋ.९/६६/१९)
१) सत चित आनन्द आयु पवित्र करता ब्रह्म अन्न बल प्रदान कर दुर्विचार हर सुआहुति। पवित्र ब्रह्म हेतु-न मेरे लिए।
ओं भूर्भुवः स्वः। अग्निर्ऋषिः पवमानः पा९चजन्यः पुरोहितः।
तमीमहे महागयं स्वाहा।।
इदमग्नये पवमानाय-इदन्न मम।। २।।
(ऋ.९/६६/२०)
२) पंच समूह शुभ नियोजक पुरोहित अग्नि ऋषि तथा पवित्र कर्ता है उसे हम प्राप्त करते हैं सुआहुति। पवित्र ब्रह्म हेतु-न मेरे लिए।
ओं भूर्भुवः स्वः। अग्ने पवस्व स्वपा अस्मे वर्चः सुवीर्यम्।
दधद्रयिं मयि पोषं स्वाहा।।
इदमग्नये पवमानाय-इदन्न मम।। ३।।
(ऋ.९/६६/२१)
३) सत चित आनन्द मुझमें पवित्रता ब्रह्मतेज ऐश्वर्य सुपुष्टि शोभन कर्मयुक्त गुणधारण से हो सुआहुति। पवित्र ब्रह्म हेतु-न मेरे लिए।
ओं भूर्भुवः स्वः। प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव। यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणां स्वाहा।। इदं प्रजापतये-इदन्न मम।। ४।।
(ऋ.१०/१२१/१०)
४) सत चित आनन्द जड़ चेतन अधिपति यज्ञ सुभावना सिद्ध त्रि ऐश्वर्य पाएं सुआहुति। पवित्र ब्रह्म हेतु-न कि मेरे लिए।
अष्टाज्याहुतियां
ओं त्वं नो ऽ अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य हेळो ऽ व यासिसीष्ठाः।
यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषांसि प्र मुमुग्ध्यस्मत् स्वाहा।।
इदमग्नीवरुणाभ्याम्-इदन्न मम।। १।।
(ऋ.४/१/४)
१) ज्योतिब्रह्म सर्वज्ञ अतियज्ञ अतिप्राप्त अतितेजस्वी पवित्र है। न्यायकारी के अनादर, सर्वद्वेष हमसे दूर कर सुआहुति। ज्योति न्याय हेतु-न कि मेरे लिए।
ओं स त्वं नो ऽ अग्ने ऽ वमो भवोती नेदिष्ठो ऽ अस्या उषसो व्युष्टौ। अव यक्ष्व नो वरुणं रराणो वीहि मृळीकं सुहवो न एधि स्वाहा।।
इदमग्नीवरुणाभ्याम्-इदन्न मम।। २।।
(ऋ.४/१/५)
२) ज्योति ब्रह्म समीप रक्षण हमारे उषा विशिष्ट अति समीप हो। न्यायी प्रदत्त हमारी अश्रेष्ठता नष्ट हो। तटस्थ ज्ञान प्रकाशित हमें सुपदार्थ हों प्राप्त सुआहुति। ज्योति न्याय हेतु-न मेरे लिए।
ओं इमं मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृळय। त्वामवस्युरा चके स्वाहा।। इदं वरुणाय-इदन्न मम।। ३।। (ऋ.१/२५/१९)
३) न्यायी ब्रह्म मेरी अर्चना सुन तटस्थता सुख पाऊं, गुण आवरणित तेरी सटीक अर्चना कर रहा सुआहुति। न्याय हेतु-न मेरे लिए।
ओं तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः। अहेळमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मा न आयुः प्र मोषीः स्वाहा।। इदं वरुणाय-इदन्न मम।। ४।। (ऋ.१/२४/११)
४) न्यायी ब्रह्म यज्ञमय चाहे जिसे वह आयु दे मुझे ब्रह्म मन्त्रों से यह अर्चना है अन्तस स्वर प्रशंसित वरणीय इड़ समर्पण स्वीकार इसी जन्म बोध दे। शतायु शताधिक आयु बनूं मैं तव कृपा से सुआहुति। न्याय हेतु-न मेरे लिए।
ओं ये ते शतं वरुण ये सहस्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः। तेभिर्नो ऽ अद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मु९चन्तु मरुतः स्वर्काः स्वाहा।। इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यः -इदन्न मम।। ५।।
(कात्या.श्रौत.२५/१/११)
५) न्यायी ब्रह्म तेरे शत सहस्र महान यज्ञ से उत्पन्न फैले पाश पालनीय व्यापक तुझ धारण से सूक्ष्म देवयुजन से टूट गिरें सुआहुति। न्याय पालन प्रेरण व्याप्ति गति सूक्ष्मता हेतु-न मेरे लिए।
ओं अयाश्चाग्ने ऽ स्यनभिशस्तिपाश्च सत्यमित्त्वमया असि। अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भेषज द्भ स्वाहा।। इदमग्नये अयसे-इदन्न मम।। ६।।
(कात्या.श्रौत.१/५)
६) ज्योति ब्रह्म परा व्यक्ति अनुकम्पनीय सर्वत्रीय यज्ञ वहन कर्ता स्व स्वास्थ्य संस्थान सशक्त हो तुझसे मेरा सुआहुति। सर्वज्ञ इस उस हेतु-न मेरे लिए।
ओं उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय। अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा।। इदं वरुणाया ऽऽ दित्याया ऽ दितये च-इदन्न मम।। ७।। (ऋ.१/२४/१५)
७) न्यायी ब्रह्म उत्तम मध्यम अधम अर्थात् पश्यन्ती मध्यमा वैखरी वाक् व्यक्तित्व टूट ढह जाए अखण्ड व्रत चले अपरा पवित्र हो सुआहुति। न्याय ज्योति अव्यक्त हेतु-न मेरे लिए।
ओं भवतन्नः समनसौ सचेतसावरेपसौ। मा यज्ञ हि सिष्टं मा यज्ञपतिं जातवेदसौ शिवौ भवतमद्य नः स्वाहा।। इदं जातवेदोभ्याम्-इदन्न मम।। ७।।(यजु.५/३)
८ अपरा पवित्र हम दो एक विचार सत चयनादि पुण्य आभर हों ऋत शृत शाश्वत हो हम कल्याणतम आनन्दतम आज अब हर पल हों सुआहुति। ज्ञान आगार हेतु-न मेरे लिए।
ओं सर्वं वै पूर्ण द्भ स्वाहा।।

स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)

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