वयमिह परितुष्टा वल्कलैस्त्वं च लक्ष्म्या,
सम इह परितोषो निर्विशेषो विशेषः।
स तु भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला,
मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः।।
(भर्तृहरिकृत- नीतिशतक, श्लो.४५)
भावार्थ– मुनि राजा से कहता है कि हे राजन् ! हम वृक्षों की छाल से बने वस्त्रों को पहिन कर सन्तुष्ट हैं और तुम सोना-चांदी, हीरे-जवाहरात आदि लक्ष्मी को प्राप्त करके सन्तुष्ट हो। इस प्रकार हम दोनों का सन्तोष तो समान ही है, क्योंकि सन्तोष में कोई भेद नहीं है। संसार में दरिद्र तो वह व्यक्ति होता है जिसकी तृष्णाएं बहुत होती हैं। मन के सन्तुष्ट होने पर कौन निर्धन है और कौन धनवान् ?
उदयति यदि भानुः पश्चिमे दिग्विभागे,
प्रचलति यदि मेरुः शीततां याति वह्निः।
विकसित यदि पद्मं पर्वताग्रे शिलायाम्,
न भवति पुनरुक्तं भाषितं सज्जनानाम्।।
भावार्थ : सूर्य चाहे पूर्व की अपेक्षा पश्चिम दिशा में उदय क्यों न हो, पर्वत चाहे चलने क्यों न लग जावे, अग्नि चाहे ठण्डी क्यों न हो जाए, कमल चाहे पर्वत की कठोर शिला पर क्यों न हो जाएं, किन्तु जो सज्जन लोग हैं वे अपनी प्रतिज्ञा को, अपने दिए हुए वचन को नहीं बदलते, उस पर दृढ़ रहते हैं।
मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णास्,
त्रिभुवनमुपकार-श्रेणिभिः प्रीणयन्तः।
परगुण-परमाणून्पर्वतीकृत्य नित्यं,
निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः।।
(भर्तृहरिकृत- नीतिशतक, श्लो. ७४)
भावार्थ– मन, वचन और शरीर के द्वारा प्राणिमात्र का कल्याण करने की भावना से युक्त हुए, शुभकर्मों से तीनों लोकों का उपकार करके सबको तृप्त करने वाले तथा दूसरों के छोटे छोटे गुणों को अभी पर्वत के समान बड़ा मान कर अपने हृदय में प्रसन्न होने वाले महात्मा संसार में कितने हैं? अर्थात् बहुत कम हैं।