“प्रतिजन”
(तर्ज :- दर्शन दो घनश्याम)
ब्रह्म युजित उन्मुक्त तू हो जा धरती वासी रे।। टेक।।
देश देश ना सीमा तेरी, ब्रह्माण्ड रागमय वीणा तेरी।
फैल बिखर जा अन्तस्वासी, दिव्य आकाशी रे।। 1।।
हर दिशि शुभ ही शुभ तू जी ले, शाश्वत व्यापक अमृत पी ले।
स्व से जुड़ प्रतिजन तू हो जा, आनन्द निवासी रे।। 2।।