बारीन्द्रनाथ घोष

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18 अप्रैल महर्षि अरविंदो के छोटे भाई और प्रख्यात क्रन्तिकारी एवं पत्रकार बारीन्द्रनाथ घोष का निर्वाण दिवस है| साथियों में बारीन घोष के नाम से पुकारे जाने वाले इस क्रांतिकारी का जन्म 5 जनवरी 1880 को चिकित्सक पिता डा. कृष्णधन घोष एवं ब्रह्मसमाजी परिवार से सम्बन्धित माता स्वर्णलता के यहाँ लन्दन के निकट क्रॉयडोन में हुआ था| प्रारंभिक शिक्षा देवघर में प्राप्त करने के पश्चात् उन्होंने पटना कालेज में आगे का अध्ययन किया| श्री अरविन्द उनके तीसरे बड़े भाई थे जबकि उनके दूसरे बड़े भाई श्री मनमोहन घोष अंग्रेजी साहित्य के विद्वान , कवि और कलकत्ता के प्रेसिडेंसी कॉलेज व ढाका यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर थे। बाद में उन्होंने बड़ोदा में सैनिक शिक्षा ग्रहण की परन्तु इसी दौरान वो अपने बड़े भाई अरविंदो घोष के क्रांतिकारी विचारों और कार्यों से प्रभावित हुए और क्रांतिकारी आन्दोलन में सक्रिय हो गए|

1902 में कोलकाता लौट कर उन्होंने जतिंद्रनाथ मुखर्जी की सहायता से कितने ही क्रांति समूहों का गठन किया| अंग्रेजी शासन के विरुद्ध भारतीयों की आवाज को उठाने के लिए 1903 में कलकत्ता में एक व्यायामशाला के रूप में अनुशीलन समिति नामक एक संगठन की स्थापना की गयी थी। प्रमथ नाथ मित्र इसके अध्यक्ष, चितरंजन दास व अरविन्द घोष इसके उपाध्यक्ष और सुरेन्द्रनाथ ठाकुर इसके कोषाध्यक्ष थे। 1906 में इसका पहला सम्मलेन कलकत्ता में सुबोध मालिक के घर पर हुआ। कार्य की सहूलियत के लिए अनुशीलन समिति का दूसरा कार्यालय 1904 में ढाका में खोला गया, जिसका नेतृत्व पुल्लिन बिहारी दास और पी. मित्रा ने किया। ढाका में इसकी लगभग 500 शाखाएं थीं और इसके अधिकांश सदस्य स्कूल और कॉलेज के छात्र थे। सदस्यों को लाठी , तलवार और बन्दूक चलने ली ट्रेनिंग दी जाती थी ,हालाँकि बंदूकें आसानी से उपलब्ध नहीं होती थीं। परन्तु कुछ समय में ही ये संगठन लगभग निष्क्रिय हो गया और इसके सदस्यों के सामने कोई स्पष्ट लक्ष्य भी नहीं था।

इसी समय 1905 के बंगाल विभाजन ने युवाओं को आंदोलित कर दिया जिसने अनुशीलन समिति को पुनर्जीवन प्रदान किया और बारींद्र घोष और भूपेन्द्र नाथ दत्त के सहयोग से 1907 में कलकत्ता में अनुशीलन समिति का पुनर्गठन किया गया जिसका प्रमुख उद्देश्य था – “खून के बदले खून”। बारींद्र घोष जैसे लोगों का मानना था की सिर्फ राजनीतिक प्रचार ही काफी नहीं है और नोजवानों को अध्यात्मिक शिक्षा भी दी जानी चाहिए। उन्होंने अनेक जोशीले नोजवानों को तैयार किया जो लोगों को बताते थे की स्वतंत्रता के लिए लड़ना पावन कर्तव्य है। बारींद्र ने 1905 में क्रांति से सम्बंधित “भवानी मंदिर ” नामक पहली किताब लिखी। इसमें “आनंद मठ ” का भाव था और क्रांतिकारियों को सन्देश दिया गया था की वह स्वाधीनता पाने तक सन्यासी का जीवन बिताएं।

अपने उद्देश्यों की पूर्ती हेतु 1906 में उन्होंने भूपेन्द्र नाथ दत्त के साथ मिलकर “युगांतर” नामक साप्ताहिक पत्र बांग्ला भाषा में प्रकाशित करना शुरू किया, जिसने बंगाल में क्रांति के प्रचार में सर्वाधिक योगदान दिया। इस पत्र ने लोगों में राजनीतिक व धार्मिक शिक्षा का प्रसार किया। शीघ्र ही क्रांतिकारी संगठन अनुशीलन समिति के कुछ प्रमुख सदस्यों को लेकर युगांतर नामक क्रांतिकारी समूह भी गठित किया गया और इसने जल्दी ही इसने अपनी क्रांतिकारी गतिविधियाँ शुरू कर दीं। बारीन और बाघा जतिन ने पूरे बंगाल में ना जाने कितने ही युवा क्रांतिकारियों को तैयार किया| देखते देखते बंगाल के विभिन्न भागों में इसकी शाखाएं फ़ैल गयीं और बारीन्द्र घोष के नेतृत्व में युगांतर समूह ने सर्वत्र क्रांति का बिगुल बजाया। इसने बम बनाये और दुष्ट अंग्रेज अधिकारियों की हत्या का प्रयास किया। बारीन्द्र ने दूसरी पुस्तक “वर्तमान रणनीति” के नाम से लिखी जिसे अक्टूबर1907 में अविनाश चन्द्र भट्टाचार्य ने प्रकाशित किया। यह किताब बंगाल के क्रांतिकारियों की पाठ्य पुस्तक बन गयी, जिसमें कहा गया था कि भारत की आजादी के लिए सैन्य शिक्षा और युद्ध जरूरी है।

कलकत्ता के मानिकतला नामक गुप्त स्थान पर बम बनाने और हथियार और गोला-बारूद जमा करने का काम करने के कारण बारीन और उनके कुछ साथियों को मानिकतला समूह के नाम से भी जाना जाता है| 30 अप्रैल 1908 को खुदीराम बोस एवं प्रफुल्ल चाकी द्वारा किंग्सफोर्ड की हत्या के प्रयास के बाद हुयी सघन जाँच और धर पकड़ में इन दोनों क्रांतिकारियों के प्रेरणाश्रोत एवं मार्गदर्शक बारीन घोष भी अपने कई साथियों सहित पकडे गए और उन पर इस सम्बन्ध में मुकदमा चलाया गया जो इतिहास की किताबों में अलीपुर बम केस के नाम से जाना जाता है| प्रारंभ में बारीन को फाँसी की सजा सुनाई गयी जिसे बाद में बदल कर आजीवन कारावास कर दिया गया और 1909 में उन्हें अंडमान की कुख्यात सेलुलर जेल भेज दिया गया जहाँ से वह 1920 में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद दी गयी आम माफ़ी के तहत रिहा किये गए|

वापस आने पर उन्होंने पत्रकारिता की, पर जल्दी ही वह अपने बड़े भाई के पास पांडिचेरी में अरविंदो आश्रम चले गए और काफी समय तक वहां अध्यात्म की शरण में रहे| 1929 में कोलकाता वापस लौट कर उन्होंने पुनः पत्रकारिता आरम्भ की और 1933 में ‘दि डान ऑफ इंडिया’ नामक एक अंग्रेजी साप्ताहिक शुरू किया| 1950 में वे बंगाली दैनिक ‘दैनिक बसुमति’ के संपादक बने| उन्होंने अनेक पुस्तकों की भी रचना की ,जिनमें द्वीपांतर बंशी, पाथेर इंगित, अमर आत्मकथा, अग्नियुग, ऋषि राजनारायण, श्री अरविन्द एवं The Tale of My Exile प्रमुख हैं। 18 अप्रैल 1959 को बारीन घोष ने इस नश्वर संसार का त्याग कर दिया पर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में वे सदैव अमर रहेंगे| उन्हें कोटिशः नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि।

~ लेखक : विशाल अग्रवाल
~ चित्र : माधुरी

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