वर्तमान युग में निर्दोष प्रबन्धन का नाम शून्य त्रुटि या झीरो डिफेक्ट प्रबन्धन है। निर्दोष का सरलार्थ है दोष रहित। या शून्य दोष व्यवस्था। यह चिन्तन करने योग्य तथ्य है कि विश्व की सारी भाषाओं में झीरो डिफेक्ट के लिए एक शब्द नहीं है। यह प्रबन्धन दो शब्दों से मिलकर बना है। एक है झीरो दूसरा है डिफेक्ट। भारतीय भाषाओं में झीरो डिफेक्ट व्यवस्था या झीरो डिफेक्ट प्रबन्धन दर्शाने के लिए अनेकानेक मात्र एक शब्द सहज उपलब्ध है। जपान के प्रबन्धन गुरु शिंयेगो शिंगो भी झीरो डिफेक्ट के लिए दो शब्दों का उपयोग जपानी में करते हैं। एक शब्द है पोको दूसरा है वोके। पोको का अर्थ होता है दोष और वोके का अर्थ है रहित। पोको वोके याने शून्य त्रुटि या दोष शून्य।
भारतीय संस्कृति के अक्षरं, अक्षतं, अरष, अरपा, अछिद्र, अछिद्रशरणं, अपापविद्धं, निर्दोषं, अपतिघ्नी, अघेरचक्षुणी, संस्कार, अनृतं, दुरितं, अव्रणं, अस्नाविरं, अनुसूया, तिलोत्तमा, अमल, कमल, अमला, कमला, विमल, विमला, अहिल्या अत्रि, निऋति, अघमर्षण, अच्छेद्यं, अक्लेद्यं आदि-आदि अनेकानेक ऐसे मात्र एक शब्द हैं। जो कि जीरो डिफेक्ट प्रबन्धन बताते हैं। इनमें से अधिकांश शब्द आज भी आम प्रचलित हैं। कई शब्द अप्रचलित हैं। इन शब्दों से उत्पन्न प्रबन्धन विधाओं की झलक मेरे कुछ छपे तथा न छपे आलेखों में उपलब्ध हैं।
भारतीय संस्कृति में अर्थापत्ति प्रमाण का प्रचलन आम है। सकारात्मक तथ्य कथन से नकारात्मक तथ्य की सिद्धि तथा नकारात्मक तथ्य कथन से सकारात्मक तथ्य की सिद्धि अर्थापत्ति है। अर्थापत्ति के अनुसार अछिद्र शरणं शब्द से छिद्रशरणं अर्थात् त्रुटिशरणं व्यवस्था उसका निराकरण तथा सपूर्णता व्यवस्था भी अभिव्यक्त है। भारतीहय संस्कृति में अति विस्तार पूर्वक निर्दोष प्रबन्धन के तत्व उपलब्ध हैं। उन्हें व्यवहार क्षेत्र उतारना एक महती आवश्यकता है।
निर्दोष प्रबन्धन या अरपा प्रबन्धन का व्यापक व्यवहार प्रयोग मैंने भिलाई इस्पात संयन्त्र में किया। इसमें हमें पर्याप्त सफलता मिली। इस प्रयोग का क्षेत्र था सुरक्षा। सुरक्षा का क्षेत्र था परियोजना कार्य। परियोजना कार्य का स्वरूप भी जटिलतम था। चलते इस्पात उद्योग के सर्वाध्ािक खतरनाक धमन भट्ठी के क्षेत्र में। धमन भट्ठी के नवनिर्माण का चलते संयन्त्र मंे कार्य। यह कार्य इसलिए कठिन था कि इस्पात उद्योग सामान्य उद्योगों से करीब 2.25 गुना अधिक खतरनाक होता है। इस प्रकार इस्पात उद्योग में धमन भट्ठी खास के हृदय क्षेत्र में पुनर्निर्माण विश्व के हर उद्योग से खतरनाक परिस्थितियों में कार्य हुआ। इतना ही नहीं कार्य करने का समय भी औसतन ऐसे कार्य करने में लगे समय से करीब एक तिहाई मात्र था। औसतन ऐसे कार्यों में नौ-दस माह का समय लगता है। यहां कार्य तीन माह में पूरा करना था। कार्य का आधार खाका इस प्रकार है- 1. लागत सौ करोड़ रुपए। 2. दिवस सौ। 3. इन्जीनियर सौ। 4. लघु ठेकेदार सौ। 5. मजदूर हजार। 6. इन्जीनियरिंग विधाएं दस। 7. बड़े ठेकेदार दस। 8. प्रभारी इंजीनियर दस। 9. अनिश्चित चुनौतियां दस। 10. क्षेत्रफल हजार वर्ग मीटर। 11. कार्यतल छिद्रत दस। 12. नव तकनीक से कार्य तथा नव तकनीक स्थापना करीब दस। 13. ऐसे कुल कार्य जो सम्पन्न हुए दस। 14. इन कार्यों के अतिरिक्त परियोजना निर्माण के अन्य करीब दस कार्यों की सुरक्षा व्यवस्था भी देखना।
हमारे पास उपलब्ध मुख्य अवधारणाएं इस प्रकार थीं- 1. दुर्घटना परिभाषा। 2. शून्य दुर्घटना लक्ष्य। 3. सुरक्षा सप्ताह। 4. प्रशिक्षण। 5. श्रम संघ प्रतिनिधि सहयोग भाव। शून्य दुर्घटना लक्ष्य था। आज सारे विश्व के उद्योगों निर्माण कार्यों का लक्ष्य सुरक्षा के क्षेत्र में शून्य दुर्घटना है। यह लक्ष्य बिलकुल चिकित्सा शास्त्र के शून्य रोग लक्ष्य के समान है। यह छोटी सी बात है कि लक्ष्य अगर शून्य दुर्घटना है तो हमारा कार्यक्षेत्र दुर्घटना के अन्तर्गत ही रहेगा। अतः शून्य दुर्घटना हमेशा लक्ष्य ही रहेगा। सुरक्षा निर्दोष व्यवस्था पाने हमने इस लक्ष्य में परिवर्तन किया। हमने अपना लक्ष्य निर्धारित किया ‘सुघटना’ का। यदि सुरक्षा कार्य अंग्रेजी भाषा में होता तो शायद हम सुघटना संकल्पना तक कभी भी पहुंच नहीं पाते। क्योंकि वहां सुघटना जैसा कोई शब्द ही नहीं है। अधिकारी वर्ग तथा अंग्रेजी जानकारों के लिए नया शब्द सुघटना का अनुवाद ‘हैप्पीडेंट’ गढा गया।
दुर्घटना की परिभाषा है- वह 1. अनपेक्षित घटना, 2. जिसका कार्य में प्रावधान न हो, 3. जो जान-माल-मशीन के लिए नुकसानदायक हो, 4. जिससे कार्य प्रक्रिया में रुकावट हो तथा जो 5. असुरक्षित स्थितियों या 6. असुरक्षित कार्यों या 7. दोनों के कारण हो वह दुर्घटना है।
उपलब्ध दुर्घटना परिभाषाओं को जोड़कर यह परिभाषा विकसित की गई। अर्थापत्ति से सुघटना परिभाषा विकसित की गई जो इस प्रकार है- वह 1. अपेक्षित घटना, 2. जिसका कार्य में प्रावधान हो, 3. जो जान-माल-मशीन के लिए लाभप्रद हो, 4. जो कार्य प्रक्रिया में सहायक हो तथा जो 5. सुरक्षित स्थितियों या 6. सुरक्षित कार्यों, या 7. दोनों के कारण हो वह सुघटना है। सुघटना क्षेत्र तत्काल कार्य शुरु कर दिया गया।
सुरक्षा का हरा त्रिभुज अवधारणा प्रचलित थी। सुरक्षा विभाग ने इसमें नया तथ्य यह जोड़ा कि त्रिभुज सबसे मजबूत आधार संरचना है। तथा तीनों भुजाओं को दो तरह के अर्थ दिए। प्रथम सुस्वाप अर्थात् सुरक्षा, स्वस्थ्य, पर्यावरण। 1. मैं सुरक्षा से काम करूंगा, 2. दूसरे का भी ध्यान रखूंगा, 3. जान-माल का भी ध्यान रखूंगा।
शून्य दुर्घटना के लक्ष्य को सुघटना में परिवर्तित किया। उसे प्राप्त करने में प्रजतन्त्र व्यवस्था का प्रयोग किया। श्रेष्ठ जन भागीदारी का नाम प्रजतन्त्र है। सुरक्षा सप्ताह प्रतियोगिता में प्राप्त नारों को सुरक्षा विभाग ने मिलकर परिष्कृत किया। कार्य के व्यवहार प्रयोग नारे विकसित किए गए। इनके बोर्ड तथा पोस्टर कार्यक्षेत्र लगाए। तथा इनकी पुस्तिका प्रकाशित कर वितरित की गई।
यह प्रजतन्त्र विधा का कमाल था कि अप्रयास ही ये नारे कुछ अन्य कारखानों में भी अपनाए गए। कुछ नारे जो सीधा अन्तस तक उतर कर कार्य को स्वतः सुरक्षित करते हैं इस प्रकार हैं-
सुरक्षा के उपाय।
बहुजन हिताय।
बहुजन सुखाय।।
बीबी बच्चों बूढों की दरकार।
सुरक्षित ही घर को लौटो यार।।
जागरूकता सौ प्रतिशत।
दुर्घटना शून्य तक।
कर्ण की आत्मा करे पुकार।
सुरक्षा कवच न छोड़ो यार।।
बने सुरक्षा अपनी आदत।
यही कर्म की सही इबादत।।
दो मीटर से अधिक ऊँचाई।
सुरक्षा बेल्ट तुम पहनो भाई।।
दोष सर्वप्रथम विचार रूप में प्रवेश करता है। निर्दोषता विचार धरातल पर बीज रूप में होती है, जो कालान्तर में कार्य क्षेत्र में प्रस्फुटित होती है। सुरक्षा सप्ताह का प्रशिक्षण रूप में विचार में सुघटना हेतु व्यापक प्रयोग किया गया। ठेकेदारों द्वारा भी सुरक्षा सप्ताह मनाए जाने पर बल दिया गया। सुरक्षा सप्ताह वर्ष भर में व्यापक हो गया। बिना प्रशिक्षण कोई भी ठेका श्रमिक कारखाने में प्रवेश नहीं पा सके इस नियम का पालन व्यवहार धरातल पर किया गया। सुरक्षा के गुण द्वारा दिए आंकडों में भी सकारात्मक परिवर्तन किया गया। आंकड़े थे कि 18 प्रतिशत दुर्घटनाएं असुरक्षित स्थितियों से 19 प्रतिशत असुरक्षित कार्यों से तथा 71 प्रतिशत दोनों से होती है। तथा दो प्रतिशत अनजाने में भाग्य से होती है। इसे नया रूप इस प्रकार दिया गया। 14 प्रतिशत दुर्घटनाएं असुरक्षित स्थिति से जो मानव लापरवाही से पैदा होती है। 19 प्रतिशत दुर्घटनाएं मानव लापरवाह कार्यों से उत्पन्न होती हैं। 73 प्रतिशत दुर्घटनाएं दोनों कारणों से होती हैं। शून्य प्रतिशत दुर्घटनाएं भाग्य से होती हैं। मानव आधारित सुरक्षा व्यवस्था पर बल दिया गया। 1. बोध: सोच कर की गई क्रिया। 2. प्रतिबोध: सहन (रिफ्लेक्स) की गई क्रिया। 3. अस्वप्न: जागरूकता। 4. इन्द्रिय चैतन्यता। 5. स्थिरता। 6. नियम पालन के हैं सदायी रक्षक हैं और इसके समानान्तर हैं। दुःरक्षक: 1. ईर्ष्या, द्वेष, द्रोह। 2. नियम विरुद्ध आचरण। 3. मानसिक रोग या बीमारी, तन विकार। 4. रक्त दोष, रक्ताल्पतादि। 5. दिखावे की सुरक्षा। 6. गलत रहन-सहन, मानव आधारित विकसित किए गए।
वस्तुतः बचाई गई दुर्घटना विधा का व्यापक प्रयोग किया गया तथा प्रसार किया गया। कई मजदूरों ने सुरक्षा त्रिभुज का दूसरा नियम दूसरे का भी ध्यान रखूंगा के अन्तर्गत वस्तुतः दूसरों को भी दुर्घटना से बचाया। उन्हें विशेष पुरस्कार दिए गए। वस्तुतः बचाई गई दुर्घटना सद्घटना है जिसमें प्रक्रिया में तत्काल रुकावट डालते तथा उसे सकारात्मक करते निश्चित हो जानेवालीदुर्घटना को बचा लिया जाता है। इस विधा द्वारा पचासों दुर्घटनाएं बचाईं गईं। श्रम संघ प्रतिनिधियों ने सुरक्षा विभाग को भरपूर सहयोग दिया। उच्चाधिकारियों का हमें भरपूर सहयोग मिला। हमारे विभाग को अधिकतम अधिकतम अवैतनिक प्रोत्साहन पुरस्कार मिले। सहभोज अधिकृत किए गए। सुपरिटेंडेंट इन्जीनियर पद पर होने पर भी मुझे कई मुख्य अभियन्ता तथा उपमहा प्रबन्धकों के होते जे.सी.एस.एस.आई. निर्माण समिति का सचिव चयनित किया गया।
सकारात्मक निर्दोष सुरक्षा व्यवस्था का पालन हमने सौ-सौ करोड़, सौ-सौ दिवसों के करीब दस कार्यों में अन्य कार्यों के साथ किया। दुर्घटनाएं न्यूनतम करने में हम सफल रहे। कई-कई क्षेत्र शून्य दुर्घटना लक्ष्य प्राप्त हुआ। जो दुर्घटनाएं हुईं भी वे उन परिस्थितियों में हुईं जहां हमारे द्वारा रेखांकित असुरक्षित स्थितियों का निराकरण नहीं किया गया था। इससे भी हमारी निर्दोष व्यवस्था को बल मिला।
एक और नव सकारात्मक निर्दोष सुरक्षा व्यवस्था जो हमने लागू की वह थी ”भविष्यवाणी सुरक्षा“। न केवल मौसम सावधानियां वरन् चलते कार्य में कल की सुरक्षा सावधानियां हम आज की मीटिंग में देते थे। इसके साथ सुरक्षा रोजमर्रा में कार्य क्षेत्र में हमारे निर्देशों के साथ परिस्थितियां भी प्रतिदिवस बताईं जाती थी।
निर्दोष या अरपा प्रबन्धन में अ) खरदोष, ब) दोष, स) सदोष, द) निर्दोष आदि तत्व हैं। खरदोष ढीठ दोष का नाम है। वर्तमान में भ्रष्ट देशों में यही व्यवस्था काम करती है। इसका एक सच्चा उदाहरण इस प्रकार है- मैं पंजीयन कार्य से पंजीयन कार्यालय गया। उन्होंने जहां जिनते पैसे मांगे मैंने दिए। मेरा कार्य हो गया। अन्त में रसीद रहित पंजीयन कागज मेरा हाथ आए। मैंने पाया कि रसीदें पचास रुपए कम की हैं। मैंने महिला बाबू से पूछा रसीदें पचास रुपए कम की हैं। महिला ने बड़े बाबू से कहा। बड़े बाबू ने कहा हमने उतने रुपए अतिरिक्त लिए हैं। मैंने कहा- क्यों..? वे चौंके। उन्होंने एक और अफसर के पास मुझे भेजा। मैंने वहां समस्या बताई। उन्होंने मुझसे कहा- आपका काम हो गया न..? मैंने कहा हां काम तो हो गया, पर रसीदों में पचास रुपए कम अंकित हैं। उन्होंने मुझे समझाया इतनी प्रक्रिया में आप मानेंगे कि हमने आप को कुछ तो प्रेफरेंस दी है आप का काम करने में। मैंने कहा कि आप भी मानेंगे कि मैंने आप से कोई प्रेफरेंस न चाही है न ली है। जो जो आप ने कहा मैंने पूरा किया है। यहां छोटे अफसर ने मुझे बड़े अफसर के पास भेज दिया। वह अफसर सचमुच घाघ था। छूटते बोला सख्त आवाज में- क्या नाम है आपका..? मैंने उत्तर दिया त्रिलोकीनाथ क्षत्रिय। वह बोला देखिए त्रिलोकीनाथ जी मैं आप को साफ शब्दों में कह रहा हूं कि हम ऐसे कार्यों के करने का पचास रुपया लेते हैं। मैं निष्पाप था छूटते मैंने कहा- देखिए मैं अपने जीवन में कभी किसी को ऐसे पैसे नहीं देता। न कभी मैंने दिए हैं। उच्चाफसर ने एक दम कहा- हमें मूर्ख बनाते हैं आप.. वो तो आपको पचास रुपए देने ही होंगे। मैंने भी एकदम कहा- जो आप होंगे सो होंगे, आप न तो मेरे रिश्तेदार हैं न दोस्त जो पचास रुपए आप को दूं। या उसकी रसीद दीजिए या पैसे वापस दीजिए। किसी को भी अपेक्षा न थी कि मैं इस सीमा तक सर्वोच्चाधिकारी से बात करूंगा। यहां छोटे अफसर ने अपनी जेब से मुझे पचास रुपए का नोट निकालकर मुझे दिया जो लेकर मैं वापस आया और मैंने श्रीमति जी से कहा- इस नोट को फ्रेम करवाकर रखिए। घाघों और भेडियों के बीच से बचाकर लाया हूं। घाघ, भेड़ियों की व्यवस्था है खरदोष या खलदोष व्यवस्था। यह व्यवस्था ताल ठोककर खल होती है। इसका इलाज है तत्काल कठोरतम दण्ड व्यवस्था के साथ-साथ जिनेटिक कोड परिवर्तन के लिए परिवर्तन तप प्रशिक्षण। खर दोष व्यवस्था का कारण है कि इन व्यक्तियों के तन्तुम् तन्वम् पर (जिनेटिक कोड पर) भ्रष्टाचार भाव टंकित हो गया है। जीवन में सतत भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार सोचने के कारण (कई-कई बार इक्कीस-इक्कीस मिनटों तक भ्रष्टाचार विचार लगातार होने के कारण भ्रष्टाचार का मूल जीन में सदायी टंकित हो जाता है। कठोरतम तत्काल दण्ड (प्रत्यक्ष ही सबसे बड़ा प्रमाण आधार पर) जेल में इन्हें बाध्य कर शुभ सोच, शुभ साधना, शुभ कर्म सतत कराए जाएं। शुभ ही शुभ जकड़ दिया जाए, यह अति कठोरतापूर्वक, बे-मुरव्वत, बे-दया किया जाए ताकि इनके जिनेटिक कोड़ से भ्रष्टाचार तिरोहित हो जाए।
मानक से कम दोष हैं। बलपूर्वक मानक से कम जीना खल दोष है। सहजतापूर्वक अज्ञानवश मानक से कम जीना दोष व्यवस्था है। प्रजातन्त्र में इसका आम प्रचलन है। प्रजातन्त्र में विचार आजादी के नाम पर अज्ञान विचार को ज्ञान विचार के समकक्ष दजा दिया गया है। जो अत्यधिक मूर्खतापूर्ण विचार है। व्यक्ति को उपलब्ध विचारों में से अज्ञान विचार तथा व्यवहार को चुनने की आजादी महाघातक-पातक आजादी है। यही कारण है कि समाज में पुरुष-पुरुष, नारी-नारी, पुरुष-किन्नर और तो और मूर्ति-नारी (कल नारी-मूर्ति भी होगे) विवाहों की भी स्वतन्त्रता आदि के प्रचलन चल पड़ने लगे हैं। इसी प्रकार मानव को पशु से भी घटिया जीवन जीने का हक प्रजातन्त्र आजादी के नाम पर देता है। और भी मानव श्रद्धा के नाम पर जड़-ध्ाा, ऊलजलूल-धा तक हो सकता है। यह सब दोष व्यवस्था है। यह सब अज्ञान की उपज है। अज्ञान की भी प्रजातन्त्र में सहज तथा ज्ञान बराबर मूर्खतापूर्ण स्वीकृति कई-कई जगह व्यवस्था को ”पशु-घटिया“ कर देती है। वर्तमान में तीनों क्षेत्रों के लोगों का उत्पादन मूल्य शून्य ही नहीं नकारात्मक भी है। दोष व्यवस्था खल दोष व्यवस्थाएं फैलाने में सहायक होती हैं। दोष व्यवस्था का हल प्रजातन्त्र की हत्या तथा प्रजतन्त्र की स्थापना है।
सटीक व्यवस्था वह व्यवस्था है जिसमें (अ) दोष स्वीकृति निराकरण या प्रायश्चित्त है। (ब) दोष प्रावधान। (स) दोष बेहतर उपयोग होता है। (अ) में दोष स्वीकृति के कारण दुबारा दुहरता नहीं है। और व्यवस्था क्रमशः निर्दोष होती चली जाती है। इसके अलावा दोष प्रायश्चित्त स्वरूप व्यवस्था को दोष क्षतिपूर्ति रूप में प्रतिफल प्राप्त हो जाता है। (ब) में दोष सीमा तय कर दी जाती है। इसे सहन सीमा या टालरेन्स लिमिट कहते हैं। मशीन स्थापनों में यह सीमा अतिकम होती है। भवन निर्माण में अधिक होती है। मशीनों में कालान्तर में सहनसीमा पार तक दोष आ जाने से पहले उनका संस्कार किया जाता है। संस्कार के तीन चरण हैं। 1. दोष मार्जनम् याने दोष निराकरण। 2. हीनांगपूर्ति (टूट-फूट विस्थापन) 3. अतिशयाध्ाान। शून्य सीमा तक का लेपन रोलर आदि में। संस्कार पार सीमा या बारंबार संस्कार नौबत आने पर मशीन को ही बदल दिया जाता है। वर्तमान नीतियों में निश्चित समय पश्चात मशीन परिवर्तन कर दिया जाता है। (स) व्यवस्था में दोष को नवीनीकरण के रूप में परिवर्तित कर दिया जाता है। प्रिंट गलत हो जाने को काकटेल प्रिंट के रूप में, जूतों के तल्ले खुरदरे हो जाने पर उन्हें एक्यूप्रेशर तल्लों के रूप में बची रोटियों पूडियों को चूरी पंचतारा होटल खाद्य रूप में प्रचलित कर, टुकड़ा काजू का काजू बर्फी रूप में उपयोगित कर, संगेमरमर पत्थर की मूर्तियों के निर्माण की टूट-फूट का पाउडर रूप में प्रयोग या बौनों का सर्कस में काम आदि दोष के बेहतर उपयोग या सदोष के उदाहरण हैं। सदोष के अति हो जाने पर वह महादोष हो जाता है। इसीसे व्यवस्था महापतन को प्राप्त हो जाती है। इसे चोर को चोर पकड़ने का कार्य दे दिया जाता है। या शराबी को शराब तस्करी रोकने के काम में या नशेड़ी को नशीले पदार्थ रोकने के काम में लगा दिया जाता है।
अदोष व्यवस्था शून्य दोष व्यवस्था का नाम है। वर्तमान में इसे ही शून्य त्रुटि व्यवस्था कहते हैं। समय के क्षेत्र में समय मापन की शून्य त्रुटि या अदोष व्यवस्था क्षेत्र में मानव सीजियम घड़ी तक पहुंचा है। जिसमें दो अरब वर्षों में एक सेकण्ड की त्रुटि होती है। प्राकृतिक नियम या ऋत नियम अदोष होते हैं। इसी कारण अन्तरिक्ष यानों का प्रक्षेपण आदि सीजियम घड़ि के मापदण्डों के आधार पर किया जाता है। मशीनी व्यवस्था में त्रुटि रहितता की सीमा अदोष व्यवस्था तक है। अदोष पार मशीन बनाने में अदोष ही दोष हो जाएगा। अदोष मशीनी व्यवस्था का उपयोग करते समय के साथ अदोष बनाए रखना अति तप का कार्य है। अदोष मशीनी व्यवस्था को मात्र रख देने से भी उसमें दोष पैदा हो जाने की सम्भावना रहती है। मोटी भाषा में हर मशीनी व्यवस्था को शून्य त्रुटि रखने के लिए संस्कार योजना आवश्यक है।
जड़ संसाधन चाहे चल हों या अचल संस्कार योजना से शून्य दोष या सदोष सीमा तक परिष्कृत किए जा सकते हैं। जड़ संसाधनों की सदोष या अदोष व्यवस्था का अन्त्य नियामक चैतन्य ही है। स्व-चालित जड़ संसाधन भी कालान्तर में अति क्रमशः दोष व्यवस्था की ओर अग्रसर हो ही जाते हैं। यह दोष का शाश्वत नियम है। इस स्थिति चैतन्य मानव संसाधन ही संस्कार व्यवस्था द्वारा उन्हें सदोष या अदोष करते हैं। जड़ संसाधनों की अन्त्य परिष्कार सीमा अदोष व्यवस्था है। वे अदोष पार परिशुद्ध नहीं हो सकते हैं। मोटी भाषा में जड़ संसाधनों की अदोष व्यवस्था पतनशील व्यवस्था है जो समय के साथपतनशील होती ही है, होगी ही। इसका ”पतन समय“ अधिकतम करते जाना निर्दोष व्यवस्था का काम है। चैतन्य संसाध्ानों की विशिष्टता निर्दोषता है।
निर्दोष पवित्र व्यवस्था का नाम है। मानव का दोष पाप है। सतत पवित्र कर्म करना पुण्य है। पुनः पुनः पवित्र कर्म पुण्य है। पुनः पुनः नव्यीकरण है पुण्य। भूषणभूत सम्यक् द्वारा सजा हुआ मानव निदोष है। सतत सुघटनाओं को ही करना निर्दोष कार्य है। निर्दोष व्यवस्था वह है जिसमें लक्ष्य का वरण करते उसके सत (अस्तित्व) स्वरूप या प्राकृतिक नियम स्वरूप उसमें चित चैतन्य संसाधन भूमिका के स्वरूप तथा लक्ष्य सिद्धि कार्य तथा सिद्धि के आनन्द स्वरूप को समझते पृथ्वी, प्रवहणशील, प्रकाश, वायू, आकाश से सूक्ष्म उद्भूत गन्धत्व, रसत्व, रूपत्व, स्पर्शत्व, शब्दत्व बोधों के पवित्रकारक दहलीज सीमान्तर्गत तेजस्वी स्वरूप धारणत्व से पवित्र परिपूर्ण बुद्धियों से प्रेरणापूर्वक सहजतः पुण्य ही पुण्य कार्यों को हर चैतन्य मानव स्वयं संसाधन होकर परिपूर्ण करता है। इस अवस्था हर कार्य सुघटनापूर्वक ही होता है।
जिस प्रकार मानव जीवन की निर्दोष आश्रम (सतत श्रम) व्यवस्था परिपूर्ण ज्ञानार्जन, परिपूर्ण कर्मार्पण, परिपूर्ण सम-अर्पण, परिपूर्ण संन्यस्तार्पण चरणों में विभाजित है। जहां सतत उन्नतिकरण, नव्यीकरण, परिष्कृतिकरण ही है। इसी प्रकार कार्य को चार महत्वपूर्ण चरणों अर्हता, संकल्पन, ज्ञानन, उनका साक्षात् भू अवतरण, सह सम सामंजस्यन, सह सम संचालन भागों में बांटकर करना निर्दोष कार्य योजना है।
निर्दोष मानव का आदर्श प्रारूप इस प्रकार है। उसकी कर्मन्द्रिया तथा ज्ञानेन्द्रियां अथर्वा अर्थात् थर्व याने कम्पन रहित या अरपा या पाप रहित होती हैं। इसके इन्द्रिय सूक्ष्म प्राण सहज सम आनन्द भरे, गहन ओष भरे होते हैं। इसका मन लक्ष्यन, त्यागन, संगठन भरा सुकर्मन होता है। इसकी वाक् सूक्ष्म से सूक्ष्मतम और महान से महानतम के ज्ञान से परिपूर्ण सुसम्प्रेषिता होती है। मोटी भाषा में यह चतुर्वेदी तथा चतुर्विद् होता है। चतुर्वेदी याने चारों वेदों के ज्ञान से भरा हुआ तथा चतुर्विद् याने उन ज्ञानों का सत्तार्थ, ज्ञानार्थ, मननार्थ, व्यवहारार्थ प्रयोग करता हुआ निर्दोष चैतन्य पुण्यी, अपनी बोधा को तपमयी, श्रद्धा को सत्यमयी, प्रज्ञा को ऋतमयी, मेध्ाा को शृतमयी, निष्ठा को धृतमयी, प्रतिभा को सृजमयी तथा स्व-भाव को भृगमय करके कारण और संकल्प धरातल से संकल्पनाएं जीवन में अवतरित करता चला जाता है। इसका जीवन तथा जीवन कार्य निर्दोष होते हैं।
स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)