”दशरूपकम्“या ”कामूआत“परियोजना प्रबंधन वह तकनीक है जो वर्तमान की परियोजना प्रबंधन तकनीक ”पर्ट“का संस्कारित रूप है। पर्ट या प्रोग्रॅम इवोल्यूशन रिव्यू टेक्नीक विधा का उपयोग परियोजनाओं का विलम्ब से पूरा होना रोक नहीं पाया है। इस कारण से यह अत्यन्त आवश्यक है कि इस विधा को सुधारा जाए या संस्कारित किया जाए। भारत के संदर्भ में अमेरिका में 1958 में जन्मी तथा ब्रिटेन में जवान हुई ”पर्ट“भारतीय औद्योगिक विश्व में मात्र इने गिने परियोजना अभियन्ताओं तक ही सीमित रही क्योंकि इसका कोई सांस्कृतिक आधार नहीं है।
”दशरूपकम् परियोजना प्रबंधन“वह अमृत विधा है जो सदियों के बाद वर्तमान युग में पुनर्जागृत की जा रही है तथा पुनः परिष्कृत की जा रही है ताकी कम से कम भारत में तो यह हर क्षेत्र में प्रयोग में लाई जा सके। आज से हजार वर्ष पूर्व तक यह विधा भारत में हर क्षेत्र में व्यापक रूप से प्रचलित थी तथा प्रयुक्त की जाती थी। इसका आधारभूत ढांचा धनंजय की हजार वर्ष पूर्व लिखित पुस्तक ‘दशरूपकम्’का आधुनिक ‘पर्ट’के साथ वैदिक नेतृत्व संकल्पना जो हाथ की ऊंगलियों से उपजी है के सामंजस्य पर आधारित है। इसमें पंचीकरण सिद्धान्त का समावेश भी किया गया है।
वर्तमान इतिहास आधुनिक युग से ”उत्तर आधुनिक युग“में प्रवेश कर रहा है। उन्नीसवीं सदी के अन्त में आधुनिक युग का जन्म हुआ था। बीसवीं सदि के अंतिम वर्षों में उत्तर आधुनिक युग का प्रारम्भ हो रहा है। उत्तर आधुनिक युग का एक शब्दों में नाम ”सूचना विस्फोट“है। सूचना विस्फोट के चमचम जगजग आकाश सजे उत्तर आधुनिक युग में दर्शन, धर्म, संस्कृति, साहित्य सभी कुछ धूमिल पड़ते जा रहे हैं। इस युग में औद्योगिक प्रत्यय भी चमक दमक के साथ प्रति दिवस नए नए नामों से उछाले जा रहे हैं। और विश्वीकरण के दीवाने अविकसित उर्फ विकासशील देशों के विज्ञान प्रौद्योगिकी संस्थानों के चेयरमैन उन्हें सलाहकार विदेशियों से मेहंगे दामों बिना सोचे विचारों खरीदे जा रहे हैं। एक्शन लीडरशिप, प्रोजेक्ट मॅनेजमेण्ट, वर्क सर्कल, क्वालिटी, आई.एस.ओ., बेंच मार्किंग, झीरो डिफैक्ट, ब्रेन स्टार्मिंग, फिश डाइग्राम, ट्रान्स्पेरेन्सी आदि आदि वे नाम हैं जो महादाम विकासशील देशों का दीवाला निकाल दे रहे हैं। विकासशील देशों के संस्थान प्रमुखों को औद्योगिक राष्ट्रों की साजिश से बचना होगा। उत्तर आधुनिकता का शिकार करना होगा और इसके लिए शर्धं व्रातं गणं नेतृत्व, दशरूपकं प्रबंधन, संगठन सूक्त, शृत ऋत सत्य, संस्कार, स्तरीकरण, अश्रमिष्ठा, रेवती, तितली चित्र, सर्व से अंश हथियार औजार संकल्पनाएं पालन करके विश्व में उछालनी होंगी।
कम लागत अधिक गुणवत्ता की एक तकनीक अभियंताओं के उपयोग के लिए यहां दी जा रही है। इसका नाम दशरूपकम् या कामूआत (कार्य मूल्यांकन आकलन तकनीक) है। कृपया संलग्न चित्र का ध्यान पूर्वक अध्ययन करें। यह तकनीक भिलाई इस्पात संयंत्र तथा सेल के हर क्षेत्र में परियोजना प्रबंधन, संयंत्र प्रचालन, मानव संसाध्ान विकास, पदार्थ प्रबंधन, नगर निर्माण, सुरक्षा योजना, चिकित्सालय प्रबंधन, शल्य क्रिया (ऑपरेशन) आदि में प्रयुक्त कर लागत में कमी, गुणवत्ता में वृद्धि तथा उत्पादकता में वृद्धि की जा सकती है।
संक्षेप में संपूर्ण तकनीक इस प्रकार है-
परिभाषा- एक संपूर्ण जटिल अन्तर्संबंधित कर्मों अथवा कार्यों का वह आयोजन जिसका आधार पांच अवस्थाएं, पांच प्रकृतियां, पांच मुख्य सन्धियां, तिरसठ उपसंधियां, पूर्ण कसावट युक्त अनेकानेक पताका, उपपताका, प्रकरी आदि युक्त पंचीकरण हाथ ऊंगलियों वत ज्ञान, कर्म, संसाधन, शिल्प, सेवा प्रयोग सुनेतृत्व के अन्तर्गत प्रवहणपूर्वक किया जाता है वह कामूआत तकनीक दशरूपकम् है।
पंचम वेद रचयिता भरतमुनि का कहना है कि वह जीवन जीवन नहीं है, वह ज्ञान ज्ञान नहीं है, वह शिल्प शिल्प नहीं है, वह कार्य कार्य नहीं है, वह कथा कथा नहीं है, वह कला कला नही है, वह विज्ञान विज्ञान नहीं है जिसमें दशरूपकम् नहीं है।
दशरूपकं प्रबंधन तकनीक शादी विवाह पाटियां आयोजन, शिक्षा पठन आयोजन से बड़ी बड़ी परियोजना आयोजनों हेतु उपयोगी विध्ाा है।
यह विधा सुसामंजस्यपूर्ण है अतः हम इसकी अवस्थाओं के प्रकार का निरूपण करते अन्य तत्वों का विवरण भी इसमें पिरोते दे रहे हैं-
यत्नावस्था (Effort)- धीर प्रशान्त नायक गुण- नृचक्षसता सहित, चुटकी लिखना हाथ मुद्रा, मुख संधि, पताका लघु प्रकरी, लघु स्थानक आरम्भ, बीज प्रकृति तथा समय से पिछड़ती प्रगति प्रवहण इस अवस्था की विशिष्टताएं हैं।
यत्नावस्था में प्रगति समय की अपेक्षा से काफी कम होती है। इसलिए नायक समझदार गहन गंभीर होना चाहिए। अन्यथा हड़बड़िया नायक इस अवस्था अनावश्यक हायतौबा मचाकर पूरी परियोजना को या कार्य को तहस नहस कर देगा। इस अवस्था के लिए उपनायक भी धीर प्रशान्त ही होना चाहिए। कार्यारम्भ समस्याएं सर्वाधिक जटिल होती हैं। इस अवस्था की हाथ मुद्रा चुटकी तथा लिखना है। हाथ की पांच ऊंगलियां पंचीकरण सिद्धान्त के अनुरूप रेवती कही जाती हैं। यह पंच समूह है- अंगूठ- ज्ञानसमूह, तर्जनी- शौर्यसमूह, वरिष्ठा- संसाधनसमूह, अनामिका- शिल्पसमूह तथा कनिष्ठा- सेवासमूह। आगे विवरणपूर्वक पंचीकरण सिद्धांत देना आवश्यक है।
पंचीकरण सिद्धांत:- आज विश्व में पारदर्शी प्रबंधन एक मतिभ्रम के रूप में फैल रहा है। दूसरा इसका मतिभ्रम विशेषज्ञता है। पंचीकरण सिद्धांत समस्या निदान है। सरल शब्दों में पंचीकरण सिद्धांत ”पचास धन साडे बारह गुणित चार“है। हाथ में जब ऊंगलियां काम करती हैं तो औसत कार्यों में अंगूठा पचास प्रतिशत कार्य करता है तथा साडे बारह साडे बारह प्रतिशत बाकी सारी ऊंगलियों का सहयोग कार्य करता है। यही स्थिति अलग अलग हर ऊंगली की है। स्पष्ट है ज्ञानी के लिए पचास प्रतिशत क्षमता ज्ञान हेतु तथा साडे बारह साडे बारह प्रतिशत शौर्य, संसाधन, शिल्प, सेवा हेतु तय है। यही अवस्था शौर्य, संसाधन, शिल्प, सेवावर्ग पर भी उनके क्षेत्रानुसार लागू होती है।
चुटकी मुद्रा परियोजना का कार्य प्रारम्भ है। सेल को पिछले वर्ष छ सौ करोड़ का लाभ हुआ। यह बड़ी ऊंगली द्वारा अभिव्यक्त हुआ। सेल ने अंगूठा प्रतीक मेकन, बी.ई.डी.बी. या सेट से संसाधन अनुरूप नव तकनीक तलाशने कहा। ज्ञान संसाधन घर्षण चुटकी मुद्रा हुई। शौर्य समूह (निर्माण अभियंता) उसे व्यवहार रूप देने गया- लिखना मुद्रा हुई। ड्राईंग आदि बनाना यत्नावस्था हुई। अव्यक्त कार्य ढांचा बीज प्रकृति आरम्भ हुई। ठेका व्यवस्था उपस्करण आयोजन के रूप में प्रकरी पताकारम्भ रूप में मुख संधि तथा उपक्षेप परिकर, परिन्यास, विलोभन, युक्ति, प्राप्ति, समाधान, विधान, परिभावना, उद्भेद, भेद तथा करण (बारह उप संधियों) का ढांचा निरूपण हुआ। कार्य समूह बना। नायक कार्य समूह का आंख बन उन्हें कार्य समझा नृचक्षस बना। कार्य प्रारम्भ हुआ।
प्रारम्भावस्था:- धीर ललित नायक गण, अनिमिषन्त- सतत कार्य, चुनना हाथमुद्रा, प्रतिमुख संधि, बिन्दु प्रकृति, समय के समानांतर प्रगति प्रवहण इस अवस्था की विशिष्टताएं हैं। इस अवस्था में अधिकतर पताका प्रकरियां भी कार्य की द्वितीय अवस्था में प्रवेश कर चुकी होती हैं या प्रवेश करती हैं।
चुनना की हाथमुद्रा में ज्ञान संसाधन, शौर्यसमूह में शिल्प प्रमुख समूह का प्रवेश होता है। शिल्प का प्रवेश तथा बिन्दु प्रकृति के अनुसार इस अवस्था कार्य ठहरे हुए पानी पर तेल की बूंद के समान फैलने की अवस्था में अर्थात् ले-आऊट, सड़क, जल, विद्युत व्यवस्थादि में फैलता है। इन व्यवस्थाओं में शिल्पन की आवश्यकता होती है। प्रगति तथा समय मध्य एक संतुलनावस्था प्रवहण की होती है। प्रतिमुख संधि के दौरान कार्य प्रतिमुख संधि तथा उसके तेरह अंग- 1.विलास, 2.परिसर्प, 3.विधूत, 4.शम, 5.नर्म, 6.नर्मद्युति, 7.प्रगमन, 8.विरोधन, 9.पर्यवसान, 10.वज्र, 11.पुष्प. 12.उपन्यास, 13.वर्ण संहार।
प्रारम्भावस्था में दीर्घ पताका स्थानकों का प्रदुर्भाव होता है। परियोजना इस अवस्था में आधारभूत ढांचा प्राप्त करती है।
इस अवस्था में पूरी परियोजना का धीर प्रशान्त नायक अपने साडे बारह प्रतिशत लालित्य गुण का भरपूर उपयोग धीर ललित नायक के पचास प्रतिशत लालित्य गुण के साथ करता है। इस अवस्था में परियोजना को एक स्थायित्व मिलता है और परियोजना का कार्य से अधिकाधिक प्रकरी पताकाएं प्रस्फुटित तथा विकसित होती हैं।
लालित्य की कुशलता सावधानी से परियोजना संभालना कठिन हो जाता है। और परियोजना अगले चरण में प्रवेश करती है। यह अवस्था प्राप्ताशा है।
प्राप्ताशावस्था:- प्राप्तव्य की आशा का संतोष प्राप्ताशा है। स्कूटर चलाना सारी अवस्थाओं तथा सारे नेतृत्व प्रकारों का भान कराता है। घर से स्कूटर निकालना यत्नावस्था धीरप्रशांत नायक, प्रथम द्वितीय गियर गति प्रगति धीरललित नायक प्रारंभावस्था तथा टॉप गियर में सहजता से बैठ तीव्र गति आश्वस्ति प्राप्ताशा अवस्था है। धीर उद्धत नायक लहराती फहराती प्रकृति, सतत दस देव गुण उपयोग, करीब करीब समस्त प्रकरी पताका कार्य प्रारंभ मध्यादि अवस्था में, लड्डू बनाना हाथमुद्रा, गर्भ संधि, प्रवहण क्षेत्र समय से अधिक प्रगति इस अवस्था के तत्व हैं।
लड्डू बनाना हाथमुद्रा में सेवासमूह का प्रवेश होता है और सेवा समूह इस अवस्था सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है। सेवा समूह को हर कहीं प्रोत्साहित करना इस अवस्था धीर उद्धत नायक का कार्य होता है। इस अवस्था में दस देव गुणों (क्रीडा, विजिगीषा, व्यवहार, द्युति, स्तुति, मोद, मद, स्वप्न, कान्ति, गति) का उपयोग धीरप्रशांत तथा धीर उद्धत नायक समिश्र करते हैं। इस अवस्था में कई समय से पिछडी परियोजनाएं भी प्रगति गति से प्रभावित होकर समय पर आ जाती हैं। यह अवस्था कई बार प्रगति आधिक्य के कारण समयपूर्व परियोजना पूर्ण होने का भ्रम भी दे देती हैं। और इस भ्रम से उत्पन्न लापरवाही के कारण कई परियोजनाएं समय से पिछड भी जाती हैं। प्रकरी पताका के आधिक्य के कारण इस अवस्था अधिकारिक (क्रिटिकल पाथ) भी कई बार नजर से ओझल हो जाती है। धीर उद्धतता को इसी कारण धीर प्रशांतता से संयमित करना इस अवस्था आवश्यक है। लहर फहर ध्वजवत प्रकृति भी द्रुतगति सूचक है। गर्भ संधि की बारह उपसंधियां क्रमशः अमूताहरण (साम दाम दण्ड भेद प्रयोग), मार्ग, रूप, उदाहरण, क्रम, संग्रह, अनुमान, तोटक (ओज वचन), अधिबल, उद्वेग, संभ्रम, आक्षेप हैं। ये उपसंधियां द्रुत कार्य सर्व कार्य गुण के अनुरूप हैं।
नियताप्ति अवस्था:- नियत की प्राप्ति के पूर्व की अवस्था का नाम है नियताप्ति। स्कूटर सवार को गन्तव्य दिख जाना यह अवस्था है। इस अवस्था ब्रेक गियर परिवर्तन मोड़ों आदि के कारण नायक को पुनः लालित्यपूर्ण व्यवहार करना होता है।
कौशलमय सुसंगत स्वस्थ इन्द्रियां, धीरोदात्त (धीर ललित प्रमुख) नायकत्व, घुग्घू बजाना (निर्माण तथा संयंत्र समूह के सेवा शिल्प संसाधन शौर्य समूह एक दूसरे से सन्निद्ध तथा सब पर ज्ञान का आधिपत्य) सटीक हाथमुद्रा, विमर्श संधि तथा सम्पन्नता पूर्व की कार्यावस्था इस अवस्था के तत्व हैं। इस अवस्था में प्रगति पुनः समय के करीब करीब समानुपाति होती है। आधुनिक परियोजनाओं में स्वचालन के प्रवेश से प्रायः प्रगति समय से पिछड़ती हुई चलती है। धीर ललित और धीर प्रशान्त नायक इस अवस्था मिलकर धीरोदात्त नायकत्व गुण का सृजन करते हैं। इस स्थिति पताका स्थानक पूर्ति होती है तथा कई बार इसकी भगमभाग होती है। विमर्श संधि के तेरह अंग हैं- अपवाद, संफेट, विद्रव, द्रव, शक्ति, द्युति, प्रसंग, छलन, व्यवसाय, विरोधन, प्ररोचना, विचलन तथा आदान। इस अवस्था में असावधानी या लापरवाही परियोजना पूर्ति के बाद सामान्यतापूर्वक कार्य करने के समय में अत्यधिक वृद्धि कर सकती है। नियताप्ति अवस्था अति सावधानावस्था है। प्रकरी पताका सम्पन्नता की अवस्था के कारण इस अवस्थाअधिकारिक पुनः स्पष्ट होने लगती है। इसमें अधिकारिक के इर्दगिर्द कार्य सम्पन्न कराना लाभप्रद भी होता है। इस अवस्था से क्रमशः फलागम अवस्था में प्रवेश किया जाता है।
फलागम अवस्था:- फल का आगम या कार्य सम्पन्नता, संतोषमय अन्त्य, धीर प्रशान्त नायक, गिलास पकडना मुद्रा, तिा समय से प्रगति का पिछड़ना इस अवस्था के तत्व हैं। अत्यधिक महत्वपूर्ण होने के कारण इस अवस्था में धीर प्रशान्त नायक होना आवश्यक है। इस अवस्था की संधि निर्वहण है। गिलास पकडने की ऊंगलियों की तरह सारी ऊंगलियां एक ही काम कर रही होती हैं। अंगूठा बराबर चारों ऊंगलियां होता है। अतः ज्ञानसमूह सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है। ज्ञान तथा धीर प्रशान्तता के अभाव में निर्वहण इस अवस्था का करना अत्यन्त कठिन प्रक्रिया है।
इस अवस्था की निर्वहण संधि के चौदह अंग हैं। 1.संधि- पुनः बीज तरफ, 2.विबोध, 3.ग्रंथन, 4.निर्णय, 5.परिभाषण, 6.आनन्द, 7.समय, 8.प्रसाद, 9.कृति, 10.भाषण, 11.उपगूहन, 12.पूर्वभाग, 13.काव्यसंहार एवं 14.आदान।
यह संक्षेप में कम लागत अधिक गुणवत्ता उत्पादकता (निर्माण संदर्भ) की योजना है। इसमें वर्तमान परियोजना प्रबंधन जो अमेरिकन एवं ब्रिटिश संकल्पना है से निम्न तात्विक सुधार हैं जिनके कारण इसे इक्कीसवीं सदी का परियोजना प्रबंधन कह सकते हैं।
स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)