त्रिष्टुप् छन्दः…

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भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः, तपो न तप्तं वयमेव तप्ता

     कालो न यातो वयमेव याताः, तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः।

                    (भर्तृहरिकृत- वैराग्यशतक, श्लो. १२)

       भावार्थ– हम सांसारिक विषय भोगों का उपभोग नहीं कर पाए, अपितु उन भोगों को प्राप्त करने की चिन्ता ने हम को भोग लिया। हमने तप नहीं किया, बल्कि आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक ताप हम को ही जीवन-भर तपाते रहे। भोगों को भोगते-भोगते हम काल को नहीं काट पाए, प्रत्युत काल ने हम को ही नष्ट कर दिया। इसी प्रकार भोगों को प्राप्त करने स्वरूप तृष्णा तो बूढ़ी नहीं हुई अपितु हम ही बूढ़े हो गए।

      येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।

      ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।।

                   (भर्तृहरिकृत- नीतिशतक, श्लो.१२)

       भावार्थ– जिन मनुष्यों में न कोई विद्या है, न विद्या प्राप्त करने के लिए तपस्या करते हैं, न दान की प्रवृत्ति है, न ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा है, न सरल स्वभाव है, न जीवन में और कोई उत्तम-उत्तम गुण हैं, न धर्मयुक्त व्यवहार करते हैं। ऐसे मनुष्य तो धरती पर भार बनकर पशु-समान खाते-पीते हुए जीवन को नष्ट कर रहे हैं।

    कुरंग-मातंग-पतंग-भृंग- मीना हता प९चभिरेव प९च।

     एकः प्रमादी स कथं न हन्यात्, यः सेवते प९चभिरेव प९च।।

       भावार्थ– हरिण ’शब्द’ विषय में फंसकर अपने प्राण गंवा देता है। हाथी ’स्पर्श’ विषय का दास बनकर बन्धन को प्राप्त होता है। पतंग ‘रूप’ विषय पर मोहित होकर जल जाता है। भौंरा ‘गन्ध’ विषय में मस्त होकर मृत्यु को प्राप्त होता है। मछली ‘रस’ के वशीभूत होकर कांटे में फंस जाती है। फिर भला इन पांचों विषयों को स्वच्छन्द होकर भोगने वाले इस मनुष्य का अमूल्य जीवन नष्ट होने से कैसे बच सकता है ? कैसे भी नहीं।

      परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः, परोपकाराय वहन्ति नद्यः।

      परोपकाराय दुहन्ति गावः, परोपकारार्थमिदं शरीरम्।।

       भावार्थ– संसार में जितने भी वृक्ष, वनस्पति, लताएं हैं, वे सभी परोपकार के लिए अपना सर्वस्व लगाए हुए हैं, पृथ्वी की छाती पर बहने वाली सभी नदियां, झरने, तालाब आदि परोपकार के लिए ही समर्पित हैं। गाय, भेड़, बकरी आदि पशु भी परोपकार के लिए जीवन लगाए हुए हैं। विद्वान विरक्त, सन्त, योगी भी संसार के कल्याणार्थ तन, मन, धन को न्योछावर करते हैं इसलिए हे मानव ! तू भी परोपकारी बन।

      आहार निद्रा भय मैथुनं च, सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।

      धर्मो हि तेषामधिको विशेषो, धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः।।

       भावार्थ– भोजन करना, नींद लेना, भयभीत होना तथा सन्तान पैदा करना, ये सब क्रियाएं तो मनुष्यों में पशुओं के समान पायी जाती हैं। मनुष्यों में धर्माचरण ही एक ऐसा कार्य है। जो उनको पशुओं से अलग करता है। अतः जो मनुष्य शरीर धारण करके धर्माचरण नहीं करता, वह तो पशु-समान ही होता है।

      धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे, भार्या गृहद्वारि जनः श्मशाने।

      देहश्चितायां परलोकमार्गे, कर्मानुगो गच्छति जीव एकः।।      

भावार्थ– सूर्य नारायण के अस्त के साथ-साथ प्रतिदिन हमारी आयु घटती जा रही है। मनुष्य जब मरता है तब सारी धन-सम्पत्ति पृथ्वी पर ही पड़ी रह जाती है, पशु बाड़े में खड़े रहते हैं, जीवन-साथी; पत्नी या पतिद्ध घर के दरवाजे तक साथ देता है, मित्र बन्धु सम्बन्धी श्मशान तक साथ चलते हैं और यह शरीर चिता पर जलकर भस्म हो जाता है। यदि जीवात्मा के साथ परलोक में कोई चलता है, तो वह कर्म ही है, जो उसने जीवित रहते हुए अच्छा-बुरा किया है, और कोई साथ नहीं चलता।

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