“ब्रह्म तराश”
प्रभाती सूरज का रंग कितना पलाश है।
हर उगन कितनी-कितनी पाश है।। 1।।
ब्रह्म से जुड़कर के तू देख जरा।
जिन्दगी पलाश ही पलाश है।। 2।।
सारी दीवारें जरा तू तोड़।
तू खुद खुला आकाश है।। 3।।
समय से ते ऽ ज गति के सवार।
सिद्ध को अवकाश ही अवकाश है।। 4।।
वेद हो जाए ऽ ऽ ऽ तेरा जीवन प्राण।
जिन्दगी क्या तू भी ब्रह्म तराश है।। 5।।
खुद के स्वर खुद को ले बुला।
हर श्वास तेरी होली फाग है।। 6।।